ताज़ा सुर ताल १०/२०१०
सजीव - सभी को वेरी गुड मॊरनिंग् और 'ताज़ा सुर ताल' के एक और अंक में हम सभी का स्वागत करते हैं। सुजॊय, पिछले दो हफ़्तों में हमने ग़ैर फ़िल्म संगीत का रुख़ किया था, आज हम वापस आ रहे हैं एक आनेवाली फ़िल्म के गीतों और उनसे जुड़ी कुछ बातों को लेकर।
सुजॊय - सजीव, इससे पहले कि आप आज की फ़िल्म का नाम बताएँ, जैसे कि इस साल के दो महीने गुज़र चुके हैं, तो 'माइ नेम इज़ ख़ान' के अलावा किसी भी फ़िल्म ने बॊक्स ऒफ़िस पर कोई जादू नहीं चला पायी है। आलम ऐसा है कि जनवरी के महीने में रिलीज़ होने बाद 'चांस पे डांस' सिनेमाघरों से उतरकर इतनी जल्दी ही टीवी के पर्दे पर आ रही है। देखना है कि 'अतिथि तुम कब जाओगे' और 'रोड मूवी' क्या कमाल दिखाती है इस हफ़्ते! वैसे इन फ़िल्मों के संगीत में ज़्यादा कुछ नया नहीं है, शायद इसीलिए 'टी. एस. टी' में इन्हे जगह न मिली हो!
सजीव - बिल्कुल! तो चलो अब बात करें आज की फ़िल्म 'लाहौर' की। यह एक ऐसी फ़िल्म है जो हमारे यहाँ तो अगले हफ़्ते रिलीज़ होगी, लेकिन पिछले साल इस फ़िल्म को इटली के 'सालेण्टो इंटरनैशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल' में कई पुरस्कार मिले। संजय पूरन सिंह चौहान की यह फ़िल्म है, और जैसा कि नाम से ही लोग अंदाज़ा लगा लेंगे कि इस फ़िल्म का भारत - पाक़िस्तान के रिश्ते से ज़रूर कोई रिश्ता होगा। यह सच है कि यह फ़िल्म भारत पाकिस्तान के बीच भाइचारा को बढ़ाने की तरफ़ एक प्रयास है, लेकिन इसे व्यक्त किया गया है किक्-बॊक्सिंग् खेल के माध्यम से जो इन दो देशों के बीच खेली जाती है।
सुजॊय - यह वाक़ई हैरानी में डाल देनेवाली बात है कि क्रिकेट और हॊकी जैसे लोकप्रिय खेलों के रहते हुए किक्-बॊक्सिंग् को क्यों चुना गया है!
सजीव - तभी तो यह फ़िल्म अलग है। और एक और वजह से यह फ़िल्म अलग है, और वह यह कि इसमें संगीत दिया है एम. एम. क्रीम और पीयूष मिश्रा ने।
सुजॊय - एम. एम. क्रीम ने बहुत कम काम हिंदी में किया है, लेकिन जितनी भी फ़िल्मों में उन्होने काम किया है, उन सभी के गानें बेहद सुरीले और कामयाब रहे हैं। अब देखना है कि इस फ़िल्म के गीतों को जनता कैसे ग्रहण करती है। एम. एम. क्रीम और 'लाहौर' की बातों को आगे बढ़ाने से पहले आइए सुनते हैं इस फ़िल्म का पहला गीत "अब ये काफ़िला"।
गीत - अब ये काफ़िला...ab ye kaafila (lahaur)
सजीव - इस गीत में आवाज़ें थीं के.के, कार्तिक और ख़ुद एम. एम. क्रीम की। गीत को शुरु करते हैं क्रीम साहब "ज़मीन छोड़ भर आसमाँ बाहों में, परवाज़ कर नई दिशाओं में" बोलों के साथ। फिर उसके बाद मुखड़ा शुरु करते हैं कार्तिक "अब ये काफ़िला फ़लक पे जाएगा, सफ़र मंज़िल का ये जो तय जाएगा, सुनहरे हर्फ़ में वो लिखा जाएगा". और उसके बाद के.के और कार्तिक अंग्रेज़ी शब्द "listen carefully move your feet" बात में और ज़्यादा दम डाल देती है। कुल मिलाकर यह एक दार्शनिक गीत है, जिसमें ज़िंदगी के सफ़र को बिना रुके लगातार चलते रहने की सलाह दी गई है।
सुजॊय - वैसे तो इस तरह के उपदेशात्मक गानें बहुत सारे बनें हैं, लेकिन इस गीत का अंदाज़-ए-बयाँ, इसका संगीत संयोजन और ऐटिट्युड बिल्कुल नया है, और मेरा ख़याल है कि आज की पीढ़ी यह गीत हाथों हाथ ग्रहण करेंगे। गीतकार का इस गीत में उतना ही योगदान है जितना क्रीम साहब का है।
सजीव - अच्छा, हम इस गीत से पहले बात कर रहे थे कि इस फ़िल्म में किक्-बॊक्सिंग् का सहारा क्यों लिया गया है। इस फ़िल्म में सौरभ शुक्ला ने अभिनय किया है, जो कि ख़ुद एक बड़े निर्देशक भी हैं। तो उन्होने कहा है कि "चौहान किसी भी खेल को चुन सकता था। लेकिन क्योंकि उनका व्यक्तिगत झुकाव किक्-बॊक्सिंग् की तरफ़ है और उन्हे इस खेल की बारिकियों का पता है, शायद इसी वजह से उन्होने इस खेल को चुना अपनी फ़िल्म के लिए। वो कोई ऐसा खेल नहीं चुनना चाहते थे जिसमें उनकी जानकारी १००% नहीं हो। अगर वो वैसा करते तो शायद फ़िल्म के साथ न्याय नहीं कर पाते।"
सुजॊय - यह बहुत अच्छी बात आप ने बताई, एक अच्छे फ़नकार और एक प्रोफ़ेशनल फ़िल्मकार की यही निशानी होती है कि वो जो कुछ भी करे पूरे परफ़ेक्शन के साथ करे। देखते हैं कि उनकी इस मेहनत और लगन का जनता क्या मोल चुकाती है!
सजीव - ख़ैर, वह तो बाद की बात है, चलो अब सुनते हैं दूसरा गीत दलेर मेहंदी की आवाज़ में। यह भी पहले गीत की तरह सफ़र और मुसाफ़िर के ज़रिए ज़िंदगी के फ़लसफ़े का बयाँ करती है।
गीत - मुसाफ़िर है मुसाफ़िर...musafir (lahaur)
सुजॊय - इस गीत की खासियत मुझे यही लगी कि यह आमतौर पर दलेर मेहंदी का जौनर नहीं है। जिस तरह से उनके गाए गीतों से मस्ती, ख़ुशी और एक थिरकन छलकती है, यह गीत उसके बिल्कुल विपरीत है। केवल एक बार सुन कर शायद यह गीत आप के दिल पर छाप ना छोड़े, लेकिन गीत के बोलों को ध्यान से सुनने पर इसकी अहमियत का पता चलता है।
सजीव - और अब बारी है 'लाहौर' की टीम से आपका परिचय करवाने की। निर्माता विवेक खटकर की यह फ़िल्म है। कहानी व निर्देशन संजय पूरन सिंह चौहान की है। गीतकार और संगीतकार के अलावा पीयूष मिश्रा का इस फ़ि्ल्म के लेखन में भी योगदान है। फ़िल्म के मुख्य कलाकर हैं आनाहद, नफ़ीसा अली, सब्यसाची चक्रवर्ती, केली दोरजी, निर्मल पाण्डेय, मुकेश ऋषी, जीवा, प्रमोद मुथु, श्रद्धा निगम, फ़ारुख़ शेख़, सौरभ शुक्ला, सुशांत सिंह और आशीष विद्यार्थी। एम. एम. क्रीम और पीयूष मिश्रा के संगीतकार होने की बात तो हम कर ही चुके हैं, पार्श्व संगीत वेइन शार्प का है।
सुजॊय - अच्छा, अब हम अगला गीत सुनेंगे, जो कि एक थिरकता हुआ नग़मा है शंकर महादेवन और शिल्पा रव की आवाज़ों में, "रंग दे रंग दे"। सजीव, यह गीत ऐसा एक गीत है कि जिसकी कल्पना हम दलेर मेहंदी की आवाज़ में कर सकते हैं। लेकिन एम. एम. क्रीम का निर्णय देखिए कि उन्होने पहला वाला ग़मज़दा गीत दलेर साहब से गवाया और इस गीत में उनकी आवाज़ नहीं ली।
सजीव - यही तो महान संगीतकार का लक्षण है कि प्रचलित लीग से हट के कुछ कर दिखाया जाए। लेकिन इस "रंग दे" गीत में नया कुछ सुनने में नहीं मिला।
सुजॊय - हाँ, और ऒर्केस्ट्रेशन में ही नहीं, गीत के बोलों और गायकी में भी 'रंग दे बसंती' के उस शीर्षक गीत की ही झलक मिलती है। इस गीत को लिखा है जुनैद वसी ने। मेरे ख़याल से तो यह एक बहुत ही ऐवरेज गीत है।
सजीव - चलो, गीत सुनवाते हैं अपने श्रोताओं को और उन्ही पर भी छोड़ते हैं इस गीत की रेटिंग्!
गीत - रंग दे रंग दे...rang de (lahaur)
सुजॊय - अब अगला गीत जो हम सुनेंगे उसे एम. एम. क्रीम ने अपनी एकल आवाज़ दी है। तो क्यों ना यहाँ पर क्रीम साहब की थोड़ी चर्चा की जाए!
सजीव - ज़रूर! मैं तो उनकी बात यहीं से शुरु करूँगा कि जब १९९४-९५ में महेश भट्ट की फ़िल्म 'क्रिमिनल' से उनका पदार्पण हुआ तो युं लगा कि मानो संगीत की दुनिया में एक ताज़ा हवा का झोंका आ गया हो। "तुम मिले दिल खिले" गीत की अपार सफलता के बाद फ़िल्म 'ज़ख़्म' के गीत "गली में आज चांद निकला" ने भी कमाल किया।
सुजॊय - "गली में आज चांद निकला" तो मेरे कॊलर ट्युन में एक लम्बे समय तक बजता रहा है, मेरा बहुत ही पसंदीदा गीतों में से एक है। अच्छा, एम. एम. क्रीम साहब का पूरा नाम शायद बहुत लोगों को मालूम ना हो, उनका असली और पूरा नाम है मरगथा मणि किरवानी। उनका जन्म आंध्र प्रदेश में हुआ था। वे कर्नाटक और चेन्नई में भी रह चुके हैं। उनके पिता शिव दत्त दक्षिण के जाने माने लेखक, चित्रकार और फ़िल्मकार रह चुके हैं। क्रीम साहब को बचपन से ही संगीत का शौक था। उन्होने कर्नाटकी और भारतीय शास्त्रीय संगीत में बाक़ायदा तालीम प्राप्त की।
सजीव - वैसे मूलत: वो एक वायलिन वादक हैं जिसका प्रमाण हमें मिलता है उनके संगीतबद्ध किए तमाम गीतों में। फ़िल्म 'सुर' में कम से कम दो ऐसे गीत हैं जो इस बात का प्रमाण है। ये गानें हैं "आ भी जा ऐ सुबह आ भी जा" और "कभी शम ढले तो मेरे दिल में आ जाना"। उन्होने दक्षिण के फ़िल्मी गीतों में कई सालों तक वायलिन वादक के रूप में काम किया और वे जाने माने संगीतकार चक्रवर्ती के सहायक भी रह चुके हैं।
सुजॊय - १९९० में रामोजी रा की फ़िल्म 'मारासो मरुथा' में क्रीम साहब ने पहली बार एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में काम किया। तब से लेकर आज तक उन्होने हिंदी और दक्षिण की सभी भाषाओं के गीतों को स्वरबद्ध किया है। फ़िल्म 'अन्ना मैया' के लिए उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। दक्षिण के सफल संगीतकार होने के बावजूद उन्हे हिंदी से बेहद लगाव है। उनके पसंदीदा संगीतकार हैं राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, मदन मोहन और शंकर जयकिशन। उनकी वेस्टर्ण क्लासिकल म्युज़िक में गहरी दिलचस्पी रही है जो उनके गीतों में साज झलकता है।
सजीव - एम. एम. क्रीम की पहली हिंदी थी राम गोपाल वर्मा की 'द्रोही', जिसमें उन्होने दो गानें कॊम्पोज़ किए, बाक़ि गानें राहुल देव बर्मन के थे। उनकी पहली स्वतंत्र हिंदी फ़िल्म थी 'क्रिमिनल'। हालाँकि उन्होने बहुत कम हिंदी फ़िल्मों में संगीत दिया है, पर उनका हर एक गीत हिट साबित हुआ। 'क्रिमिनल' और 'ज़ख़्म' के अलावा 'सुर', 'इस रात की सुबह नहीं', 'जिस्म', 'साया', 'रोग', 'पहेली' जैसी फ़िल्मों में उनका उत्कृष्ट संगीत हमें सुनने को मिला। तो चलिए अब उन्ही के संगीत और उन्ही की आवाज़ में सुनते हैं फ़िल्म 'लाहौर' का चौथा गीत "साँवरे"।
सुजॊय - इस गीत में दर्द है और एम. एम. क्रीम ने क्या ख़ूब दर्दीले अंदाज़ में इसे गाया है और इसमें जान डाल दी है। कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हुआ है जिससे कि शब्दों की गहराई और भी बढ़ गई है। आइए सुना जाए।
गीत - साँवरे...saanvare (lahaur)
सजीव - इससे पहले कि हम आज का अंतिम गीत सुनें, आपको 'लाहौर' फ़िल्म की भूमिका बताना चाहेंगे। 'नैशनल इंडीयन किक्-बॊक्सिंग्' के लिए खिलाड़ियों की चुनाव प्रक्रिया चल रही है। एक मंत्री हैं जो चाहते हैं कि उनके फ़ेवरीट प्लेयर को चुना जाए, जब कि कोच चाहते हैं कि सब से योग्य खिलाड़ी को यह मौका मिले। दूसरी तरफ़, दो प्रतिभागी ऐसे हैं जिनमें से एक तो अपने बलबूते और योग्यता के आधार पर आगे बढ़ना चाहता है, जब कि दूसरे का अपने कनेक्शन्स् पर पूरा भरोसा है। ऐसे में अचानक क्वालालमपुर में भारत और पाक़िस्तान के बीच एक प्रतियोगिता की घोषणा हो जाती है। एक तरफ़ से धीरेन्द्र सिंह, जिन्हे मैन ऒफ़ स्टील कहा जाता है और जिन्हे इस खेल में अपने आप पर पूरा विश्वास है। उधर पाक़िस्तान की तरफ़ से हैं नूर मोहम्मद, जिन्हे इस तरह से तैयार किया गया है कि उन्हे लगता है कि विजय हर क़ीमत पर मिलनी चाहिए। लेकिन ज़िंदगी ने इन दोनों के लिए कुछ और ही सोच रखा है। एक के फ़ाउल प्ले की वजह से दूसरे की मृत्यु हो जाती है जब कि पूरी दुनिया चुपचाप इसका नज़ारा देखती है। क़िस्मत फिर एक बार इन दो देशों के दो खिलाड़ियों को आमने सामने लाती है। इनमें से एक खिलाड़ी वही है जिसकी वजह से पिछली बार दूसरे की मौत हुई थी। और दूसरा खिलाड़ी अपने देश की खोयी हुई इज़्ज़त को वापस हासिल करने के लिए जी जान लगाने को तैयार है। इस तरह से शुरु होती है प्रतिस्पर्धा की कहानी। और यही है 'लाहौर' फ़िल्म की मूल कहानी।
सुजॊय - और अब आज के अंतिम गीत की बारी। राहत फ़तेह अली ख़ान और शिल्पा राव की आवाज़ में "ओ रे बंदे"। सूफ़ी अंदाज़ की यह क़व्वाली है और इसके संगीतकार हैं पीयूष मिश्रा, जिन्होने इस फ़िल्म में केवल इसी गीत को कॊम्पोज़ किया है।
सजीव - पीयूष जो वैसे तो गीतकार के रूप में ही जाने जाते हैं, लेकिन हाल के कुछ सालों में वो संगीत भी दे रहे हैं, जैसे कि फ़िल्म 'गुलाल' में दिया था। रवीन्द्र जैन और प्रेम धवन की तरह पीयूष मिश्रा भी धीरे धीरे गीतकार और संगीतकार, दोनों ही विधाओं में महारथ हासिल कर लेंगे, ऐसा उनके गीतों को सुन कर लगता है।
सुजॊय - और इस बार इस गीत में राहत फ़तेह अली ख़ान ने ऊँचे नोट्स नहीं लगाए हैं, बल्कि बहुत ही कोमल अंदाज़ में इसे गाया है। इस गीत के बारे में ज़्यादा कुछ ना कह कर आइए सीधे इसे सुन लिया जाए।
गीत - ओ रे बंदे...o re bande (lahaur)
"लाहौर" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***१/२
अब ये काफिला और मुसाफिर अल्बम के बेहतरीन गीत है, अन्य गीतों में वो प्रभाव नहीं है. एम् एम् क्रीम बहुत दिनों बाद लौटे हैं, पर हम सब जानते हैं कि वो किस स्तर के संगीतकार हैं, जाहिर है उनसे उम्मीदें भी अधिक रहती हैं, बहरहाल यदि फिल्म सफल रहती है तो संगीत भी सराहा जायेगा अन्यथा एक्स फेक्टर के अभाव में गिने चुने संगीत प्रेमियों तक ही सीमित रह जायेगा लाहौर का ये संगीत.
और अब आज के ३ सवाल
TST ट्रिविया # २८- मुल्क राज आनंद और संजय पूरन सिंह चौहान को आप किस समानता से जोड़ सकते हैं?
TST ट्रिविया # २९ पीयूष मिश्रा को सूरज बरजात्या की एक मशहूर फ़िल्म में बतौर नायक कास्ट करने के बारे में सोचा गया था। बाद में यह फ़िल्म सलमान ख़ान के पास चली गई और एक ब्लॊकबस्टर साबित हुई। बताइए वह फ़िल्म कौन सी थी?
TST ट्रिविया # ३० एम. एम. क्रीम की बहन भी एक संगातकारा हैं, उनका नाम बताइए।
TST ट्रिविया में अब तक -
निर्मला कपिला जी तो अक्सर महफ़िल में आती रहती हैं, विवेक रस्तोगी और एम् वर्मा जी पहली बार पधारे, उनका स्वागत. सीमा जी हर बार की तरफ जवाबों के साथ तत्पर मिली, बधाई
सजीव - सभी को वेरी गुड मॊरनिंग् और 'ताज़ा सुर ताल' के एक और अंक में हम सभी का स्वागत करते हैं। सुजॊय, पिछले दो हफ़्तों में हमने ग़ैर फ़िल्म संगीत का रुख़ किया था, आज हम वापस आ रहे हैं एक आनेवाली फ़िल्म के गीतों और उनसे जुड़ी कुछ बातों को लेकर।
सुजॊय - सजीव, इससे पहले कि आप आज की फ़िल्म का नाम बताएँ, जैसे कि इस साल के दो महीने गुज़र चुके हैं, तो 'माइ नेम इज़ ख़ान' के अलावा किसी भी फ़िल्म ने बॊक्स ऒफ़िस पर कोई जादू नहीं चला पायी है। आलम ऐसा है कि जनवरी के महीने में रिलीज़ होने बाद 'चांस पे डांस' सिनेमाघरों से उतरकर इतनी जल्दी ही टीवी के पर्दे पर आ रही है। देखना है कि 'अतिथि तुम कब जाओगे' और 'रोड मूवी' क्या कमाल दिखाती है इस हफ़्ते! वैसे इन फ़िल्मों के संगीत में ज़्यादा कुछ नया नहीं है, शायद इसीलिए 'टी. एस. टी' में इन्हे जगह न मिली हो!
सजीव - बिल्कुल! तो चलो अब बात करें आज की फ़िल्म 'लाहौर' की। यह एक ऐसी फ़िल्म है जो हमारे यहाँ तो अगले हफ़्ते रिलीज़ होगी, लेकिन पिछले साल इस फ़िल्म को इटली के 'सालेण्टो इंटरनैशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल' में कई पुरस्कार मिले। संजय पूरन सिंह चौहान की यह फ़िल्म है, और जैसा कि नाम से ही लोग अंदाज़ा लगा लेंगे कि इस फ़िल्म का भारत - पाक़िस्तान के रिश्ते से ज़रूर कोई रिश्ता होगा। यह सच है कि यह फ़िल्म भारत पाकिस्तान के बीच भाइचारा को बढ़ाने की तरफ़ एक प्रयास है, लेकिन इसे व्यक्त किया गया है किक्-बॊक्सिंग् खेल के माध्यम से जो इन दो देशों के बीच खेली जाती है।
सुजॊय - यह वाक़ई हैरानी में डाल देनेवाली बात है कि क्रिकेट और हॊकी जैसे लोकप्रिय खेलों के रहते हुए किक्-बॊक्सिंग् को क्यों चुना गया है!
सजीव - तभी तो यह फ़िल्म अलग है। और एक और वजह से यह फ़िल्म अलग है, और वह यह कि इसमें संगीत दिया है एम. एम. क्रीम और पीयूष मिश्रा ने।
सुजॊय - एम. एम. क्रीम ने बहुत कम काम हिंदी में किया है, लेकिन जितनी भी फ़िल्मों में उन्होने काम किया है, उन सभी के गानें बेहद सुरीले और कामयाब रहे हैं। अब देखना है कि इस फ़िल्म के गीतों को जनता कैसे ग्रहण करती है। एम. एम. क्रीम और 'लाहौर' की बातों को आगे बढ़ाने से पहले आइए सुनते हैं इस फ़िल्म का पहला गीत "अब ये काफ़िला"।
गीत - अब ये काफ़िला...ab ye kaafila (lahaur)
सजीव - इस गीत में आवाज़ें थीं के.के, कार्तिक और ख़ुद एम. एम. क्रीम की। गीत को शुरु करते हैं क्रीम साहब "ज़मीन छोड़ भर आसमाँ बाहों में, परवाज़ कर नई दिशाओं में" बोलों के साथ। फिर उसके बाद मुखड़ा शुरु करते हैं कार्तिक "अब ये काफ़िला फ़लक पे जाएगा, सफ़र मंज़िल का ये जो तय जाएगा, सुनहरे हर्फ़ में वो लिखा जाएगा". और उसके बाद के.के और कार्तिक अंग्रेज़ी शब्द "listen carefully move your feet" बात में और ज़्यादा दम डाल देती है। कुल मिलाकर यह एक दार्शनिक गीत है, जिसमें ज़िंदगी के सफ़र को बिना रुके लगातार चलते रहने की सलाह दी गई है।
सुजॊय - वैसे तो इस तरह के उपदेशात्मक गानें बहुत सारे बनें हैं, लेकिन इस गीत का अंदाज़-ए-बयाँ, इसका संगीत संयोजन और ऐटिट्युड बिल्कुल नया है, और मेरा ख़याल है कि आज की पीढ़ी यह गीत हाथों हाथ ग्रहण करेंगे। गीतकार का इस गीत में उतना ही योगदान है जितना क्रीम साहब का है।
सजीव - अच्छा, हम इस गीत से पहले बात कर रहे थे कि इस फ़िल्म में किक्-बॊक्सिंग् का सहारा क्यों लिया गया है। इस फ़िल्म में सौरभ शुक्ला ने अभिनय किया है, जो कि ख़ुद एक बड़े निर्देशक भी हैं। तो उन्होने कहा है कि "चौहान किसी भी खेल को चुन सकता था। लेकिन क्योंकि उनका व्यक्तिगत झुकाव किक्-बॊक्सिंग् की तरफ़ है और उन्हे इस खेल की बारिकियों का पता है, शायद इसी वजह से उन्होने इस खेल को चुना अपनी फ़िल्म के लिए। वो कोई ऐसा खेल नहीं चुनना चाहते थे जिसमें उनकी जानकारी १००% नहीं हो। अगर वो वैसा करते तो शायद फ़िल्म के साथ न्याय नहीं कर पाते।"
सुजॊय - यह बहुत अच्छी बात आप ने बताई, एक अच्छे फ़नकार और एक प्रोफ़ेशनल फ़िल्मकार की यही निशानी होती है कि वो जो कुछ भी करे पूरे परफ़ेक्शन के साथ करे। देखते हैं कि उनकी इस मेहनत और लगन का जनता क्या मोल चुकाती है!
सजीव - ख़ैर, वह तो बाद की बात है, चलो अब सुनते हैं दूसरा गीत दलेर मेहंदी की आवाज़ में। यह भी पहले गीत की तरह सफ़र और मुसाफ़िर के ज़रिए ज़िंदगी के फ़लसफ़े का बयाँ करती है।
गीत - मुसाफ़िर है मुसाफ़िर...musafir (lahaur)
सुजॊय - इस गीत की खासियत मुझे यही लगी कि यह आमतौर पर दलेर मेहंदी का जौनर नहीं है। जिस तरह से उनके गाए गीतों से मस्ती, ख़ुशी और एक थिरकन छलकती है, यह गीत उसके बिल्कुल विपरीत है। केवल एक बार सुन कर शायद यह गीत आप के दिल पर छाप ना छोड़े, लेकिन गीत के बोलों को ध्यान से सुनने पर इसकी अहमियत का पता चलता है।
सजीव - और अब बारी है 'लाहौर' की टीम से आपका परिचय करवाने की। निर्माता विवेक खटकर की यह फ़िल्म है। कहानी व निर्देशन संजय पूरन सिंह चौहान की है। गीतकार और संगीतकार के अलावा पीयूष मिश्रा का इस फ़ि्ल्म के लेखन में भी योगदान है। फ़िल्म के मुख्य कलाकर हैं आनाहद, नफ़ीसा अली, सब्यसाची चक्रवर्ती, केली दोरजी, निर्मल पाण्डेय, मुकेश ऋषी, जीवा, प्रमोद मुथु, श्रद्धा निगम, फ़ारुख़ शेख़, सौरभ शुक्ला, सुशांत सिंह और आशीष विद्यार्थी। एम. एम. क्रीम और पीयूष मिश्रा के संगीतकार होने की बात तो हम कर ही चुके हैं, पार्श्व संगीत वेइन शार्प का है।
सुजॊय - अच्छा, अब हम अगला गीत सुनेंगे, जो कि एक थिरकता हुआ नग़मा है शंकर महादेवन और शिल्पा रव की आवाज़ों में, "रंग दे रंग दे"। सजीव, यह गीत ऐसा एक गीत है कि जिसकी कल्पना हम दलेर मेहंदी की आवाज़ में कर सकते हैं। लेकिन एम. एम. क्रीम का निर्णय देखिए कि उन्होने पहला वाला ग़मज़दा गीत दलेर साहब से गवाया और इस गीत में उनकी आवाज़ नहीं ली।
सजीव - यही तो महान संगीतकार का लक्षण है कि प्रचलित लीग से हट के कुछ कर दिखाया जाए। लेकिन इस "रंग दे" गीत में नया कुछ सुनने में नहीं मिला।
सुजॊय - हाँ, और ऒर्केस्ट्रेशन में ही नहीं, गीत के बोलों और गायकी में भी 'रंग दे बसंती' के उस शीर्षक गीत की ही झलक मिलती है। इस गीत को लिखा है जुनैद वसी ने। मेरे ख़याल से तो यह एक बहुत ही ऐवरेज गीत है।
सजीव - चलो, गीत सुनवाते हैं अपने श्रोताओं को और उन्ही पर भी छोड़ते हैं इस गीत की रेटिंग्!
गीत - रंग दे रंग दे...rang de (lahaur)
सुजॊय - अब अगला गीत जो हम सुनेंगे उसे एम. एम. क्रीम ने अपनी एकल आवाज़ दी है। तो क्यों ना यहाँ पर क्रीम साहब की थोड़ी चर्चा की जाए!
सजीव - ज़रूर! मैं तो उनकी बात यहीं से शुरु करूँगा कि जब १९९४-९५ में महेश भट्ट की फ़िल्म 'क्रिमिनल' से उनका पदार्पण हुआ तो युं लगा कि मानो संगीत की दुनिया में एक ताज़ा हवा का झोंका आ गया हो। "तुम मिले दिल खिले" गीत की अपार सफलता के बाद फ़िल्म 'ज़ख़्म' के गीत "गली में आज चांद निकला" ने भी कमाल किया।
सुजॊय - "गली में आज चांद निकला" तो मेरे कॊलर ट्युन में एक लम्बे समय तक बजता रहा है, मेरा बहुत ही पसंदीदा गीतों में से एक है। अच्छा, एम. एम. क्रीम साहब का पूरा नाम शायद बहुत लोगों को मालूम ना हो, उनका असली और पूरा नाम है मरगथा मणि किरवानी। उनका जन्म आंध्र प्रदेश में हुआ था। वे कर्नाटक और चेन्नई में भी रह चुके हैं। उनके पिता शिव दत्त दक्षिण के जाने माने लेखक, चित्रकार और फ़िल्मकार रह चुके हैं। क्रीम साहब को बचपन से ही संगीत का शौक था। उन्होने कर्नाटकी और भारतीय शास्त्रीय संगीत में बाक़ायदा तालीम प्राप्त की।
सजीव - वैसे मूलत: वो एक वायलिन वादक हैं जिसका प्रमाण हमें मिलता है उनके संगीतबद्ध किए तमाम गीतों में। फ़िल्म 'सुर' में कम से कम दो ऐसे गीत हैं जो इस बात का प्रमाण है। ये गानें हैं "आ भी जा ऐ सुबह आ भी जा" और "कभी शम ढले तो मेरे दिल में आ जाना"। उन्होने दक्षिण के फ़िल्मी गीतों में कई सालों तक वायलिन वादक के रूप में काम किया और वे जाने माने संगीतकार चक्रवर्ती के सहायक भी रह चुके हैं।
सुजॊय - १९९० में रामोजी रा की फ़िल्म 'मारासो मरुथा' में क्रीम साहब ने पहली बार एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में काम किया। तब से लेकर आज तक उन्होने हिंदी और दक्षिण की सभी भाषाओं के गीतों को स्वरबद्ध किया है। फ़िल्म 'अन्ना मैया' के लिए उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। दक्षिण के सफल संगीतकार होने के बावजूद उन्हे हिंदी से बेहद लगाव है। उनके पसंदीदा संगीतकार हैं राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, मदन मोहन और शंकर जयकिशन। उनकी वेस्टर्ण क्लासिकल म्युज़िक में गहरी दिलचस्पी रही है जो उनके गीतों में साज झलकता है।
सजीव - एम. एम. क्रीम की पहली हिंदी थी राम गोपाल वर्मा की 'द्रोही', जिसमें उन्होने दो गानें कॊम्पोज़ किए, बाक़ि गानें राहुल देव बर्मन के थे। उनकी पहली स्वतंत्र हिंदी फ़िल्म थी 'क्रिमिनल'। हालाँकि उन्होने बहुत कम हिंदी फ़िल्मों में संगीत दिया है, पर उनका हर एक गीत हिट साबित हुआ। 'क्रिमिनल' और 'ज़ख़्म' के अलावा 'सुर', 'इस रात की सुबह नहीं', 'जिस्म', 'साया', 'रोग', 'पहेली' जैसी फ़िल्मों में उनका उत्कृष्ट संगीत हमें सुनने को मिला। तो चलिए अब उन्ही के संगीत और उन्ही की आवाज़ में सुनते हैं फ़िल्म 'लाहौर' का चौथा गीत "साँवरे"।
सुजॊय - इस गीत में दर्द है और एम. एम. क्रीम ने क्या ख़ूब दर्दीले अंदाज़ में इसे गाया है और इसमें जान डाल दी है। कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हुआ है जिससे कि शब्दों की गहराई और भी बढ़ गई है। आइए सुना जाए।
गीत - साँवरे...saanvare (lahaur)
सजीव - इससे पहले कि हम आज का अंतिम गीत सुनें, आपको 'लाहौर' फ़िल्म की भूमिका बताना चाहेंगे। 'नैशनल इंडीयन किक्-बॊक्सिंग्' के लिए खिलाड़ियों की चुनाव प्रक्रिया चल रही है। एक मंत्री हैं जो चाहते हैं कि उनके फ़ेवरीट प्लेयर को चुना जाए, जब कि कोच चाहते हैं कि सब से योग्य खिलाड़ी को यह मौका मिले। दूसरी तरफ़, दो प्रतिभागी ऐसे हैं जिनमें से एक तो अपने बलबूते और योग्यता के आधार पर आगे बढ़ना चाहता है, जब कि दूसरे का अपने कनेक्शन्स् पर पूरा भरोसा है। ऐसे में अचानक क्वालालमपुर में भारत और पाक़िस्तान के बीच एक प्रतियोगिता की घोषणा हो जाती है। एक तरफ़ से धीरेन्द्र सिंह, जिन्हे मैन ऒफ़ स्टील कहा जाता है और जिन्हे इस खेल में अपने आप पर पूरा विश्वास है। उधर पाक़िस्तान की तरफ़ से हैं नूर मोहम्मद, जिन्हे इस तरह से तैयार किया गया है कि उन्हे लगता है कि विजय हर क़ीमत पर मिलनी चाहिए। लेकिन ज़िंदगी ने इन दोनों के लिए कुछ और ही सोच रखा है। एक के फ़ाउल प्ले की वजह से दूसरे की मृत्यु हो जाती है जब कि पूरी दुनिया चुपचाप इसका नज़ारा देखती है। क़िस्मत फिर एक बार इन दो देशों के दो खिलाड़ियों को आमने सामने लाती है। इनमें से एक खिलाड़ी वही है जिसकी वजह से पिछली बार दूसरे की मौत हुई थी। और दूसरा खिलाड़ी अपने देश की खोयी हुई इज़्ज़त को वापस हासिल करने के लिए जी जान लगाने को तैयार है। इस तरह से शुरु होती है प्रतिस्पर्धा की कहानी। और यही है 'लाहौर' फ़िल्म की मूल कहानी।
सुजॊय - और अब आज के अंतिम गीत की बारी। राहत फ़तेह अली ख़ान और शिल्पा राव की आवाज़ में "ओ रे बंदे"। सूफ़ी अंदाज़ की यह क़व्वाली है और इसके संगीतकार हैं पीयूष मिश्रा, जिन्होने इस फ़िल्म में केवल इसी गीत को कॊम्पोज़ किया है।
सजीव - पीयूष जो वैसे तो गीतकार के रूप में ही जाने जाते हैं, लेकिन हाल के कुछ सालों में वो संगीत भी दे रहे हैं, जैसे कि फ़िल्म 'गुलाल' में दिया था। रवीन्द्र जैन और प्रेम धवन की तरह पीयूष मिश्रा भी धीरे धीरे गीतकार और संगीतकार, दोनों ही विधाओं में महारथ हासिल कर लेंगे, ऐसा उनके गीतों को सुन कर लगता है।
सुजॊय - और इस बार इस गीत में राहत फ़तेह अली ख़ान ने ऊँचे नोट्स नहीं लगाए हैं, बल्कि बहुत ही कोमल अंदाज़ में इसे गाया है। इस गीत के बारे में ज़्यादा कुछ ना कह कर आइए सीधे इसे सुन लिया जाए।
गीत - ओ रे बंदे...o re bande (lahaur)
"लाहौर" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***१/२
अब ये काफिला और मुसाफिर अल्बम के बेहतरीन गीत है, अन्य गीतों में वो प्रभाव नहीं है. एम् एम् क्रीम बहुत दिनों बाद लौटे हैं, पर हम सब जानते हैं कि वो किस स्तर के संगीतकार हैं, जाहिर है उनसे उम्मीदें भी अधिक रहती हैं, बहरहाल यदि फिल्म सफल रहती है तो संगीत भी सराहा जायेगा अन्यथा एक्स फेक्टर के अभाव में गिने चुने संगीत प्रेमियों तक ही सीमित रह जायेगा लाहौर का ये संगीत.
और अब आज के ३ सवाल
TST ट्रिविया # २८- मुल्क राज आनंद और संजय पूरन सिंह चौहान को आप किस समानता से जोड़ सकते हैं?
TST ट्रिविया # २९ पीयूष मिश्रा को सूरज बरजात्या की एक मशहूर फ़िल्म में बतौर नायक कास्ट करने के बारे में सोचा गया था। बाद में यह फ़िल्म सलमान ख़ान के पास चली गई और एक ब्लॊकबस्टर साबित हुई। बताइए वह फ़िल्म कौन सी थी?
TST ट्रिविया # ३० एम. एम. क्रीम की बहन भी एक संगातकारा हैं, उनका नाम बताइए।
TST ट्रिविया में अब तक -
निर्मला कपिला जी तो अक्सर महफ़िल में आती रहती हैं, विवेक रस्तोगी और एम् वर्मा जी पहली बार पधारे, उनका स्वागत. सीमा जी हर बार की तरफ जवाबों के साथ तत्पर मिली, बधाई
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