ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 371/2010/71
'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ३७१-वीं कड़ी में हम सभी श्रोताओं व पाठकों का हार्दिक स्वागत करते हैं। मित्रों, हमारी मुख्य धारा की हिंदी फ़िल्मों की आत्मा लगभग एक ही तरह की होती है, जिसे हम आम भाषा में फ़ॊरमुला फ़िल्में भी कहते हैं। नायक, नायिका, और खलनायक के इर्द-गिर्द घूमने वाली फ़िल्में ही संख्या में सब से ज़्यादा हैं, और इस तरह का आधार व्यावसायिक तौर पर फ़िल्म की सफलता की चाबी का काम करता है। लेकिन समय समय पर हमारे प्रतिभाशाली फ़िल्मकारों ने बहुत सी ऐसी फ़िल्में भी बनाई हैं जिनकी कहानी, जिनका पार्श्व, बिल्कुल अलग है, लीग से बिल्कुल हट के है। ये फ़िल्में हो सकता है कि बॊक्स ऒफ़िस पर अपना छाप न छोड़ सकी हो, लेकिन अच्छे फ़िल्मों के क़द्रदान इन फ़िल्मों को याद रखा करते हैं। इन फ़िल्मों को समानांतर सिनेमा या आम भाषा में पैरलेल सिनेमा कहा जाता है। इनमें से कई फ़िल्में ऐसी हैं जिनके गीत संगीत में भी अनूठापन है, जो साधारण फ़िल्मी गीतों से अलग सुनाई देते हैं। फ़िल्म के ना चलने से इनमें से कुछ गीतों की तरफ़ लोगों का कम ही ध्यान गया, लेकिन कुछ गानें ऐसे भी हुए जो बेहद मक़बूल हुए और आज भी रेडियो या टीवी पर अक्सर सुनाई दे जाते हैं। ऐसे ही कु्छ लीग से बाहर की फ़िल्मों के कुछ चर्चित और कुछ कमचर्चित गीतों को लेकर हम आज से शुरु कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला '१० गीत समानांतर सिनेमा के'। तो आज इसकी शुरुआत करते हैं घर से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'घर' के एक गीत से, "फिर वही रात है, रात है ख़्वाब की"। किशोर कुमार की आवाज़ में इस गीत को आप ने कई कई बार सुना होगा, लेकिन चाहे कितनी भी बार इसे सुन लें, हर बार सुन कर अच्छा ही लगता है। और क्यों ना लगे, जब गुलज़ार साहब के बोलों पर पंचम का संगीत हो, और उस पर किशोर दा की दिलकश आवाज़! "मासूम सी नींद में जब कोई सपना चले, हमको बुला लेना तुम पलकों के परदे तले"। जब इस तरह के शब्द हों, तो गीत खुद ब ख़ुद ही एक अलग मुक़ाम बना लेता है, क्यों!
फ़िल्म 'घर' आई थी सन् १९७८ में एन.एन. सिप्पी प्रोडक्शन्स के बैनर तले। विनोद मेहरा और रेखा अभिनीत इस फ़िल्म के निर्देशक थे मानिक चटर्जी और लेखक थे दिनेश ठाकुर। दिनेश थाकुर को इस फ़िल्म के लिए उस साल के सर्वश्रेष्ठ कहानी का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। और रेखा का नाम सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए नामांकित हुआ था। क्योंकि हम लीग से हटके फ़िल्मों के गानें सुन रहे हैं, तो ऐसे में फ़िल्म की कहनी से आपका परिचय करवाना थोड़ा जरूरी हो जाता है। कहानी कुछ इस तरह की है कि नवविवाहित जोड़ी विकास (विनोद मेहरा) और आरती (रेखा) अपने नए फ़्लैट में रहने लगते हैं और उनकी ज़िंदगी बड़े प्यार से गुज़र रही होती है। एक रात दोनों थिएटर में फ़िल्म देख कर लौटते वक़्त टैक्सी के ना मिलने से पैदल ही घर वापस आ रहे होते हैं। ऐसे में चार गुंडे उन्हे घेर लेते हैं, विकास को पीट कर बेहोश कर देते हैं और आरती को उठाकर ले जाते हैं। होश आने पर विकास अपने आप को अस्पताल में पाता है, और आरती, जिसका सामूहिक बलात्कार हो चुका होता है, उसका भी उसी अस्पतल में इलाज हो रहा होता है। यह घटना अगले ही दिन सभी समाचार पत्रों, रेडियो और टीवी पर आ जाती है, पूरे शहर में बवाल मच जाता है, नेता लोग अपने अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए इस पर राजनीति शुरु कर देते हैं। ऐसे में विकास को लगता है कि वह समाज में अलग थलग पड़ गया है। आरती भी मानसिक तौर पर असंतुलित हो जाती है और हर पुरुष को शक़ की नज़र से देखती है। विकास और आरती के संबम्ध से वह मिठास, वह प्यार ग़ायब हो जाता है। फ़िल्म का क्या अंत होता है, यह तो आप ख़ुद ही कभी देखिएगा। दोस्तों, आजकल का जो माहौल है, जो समाज है, इस तरह की घटना किसी भी आम आदमी के साथ कहीं भी कभी भी घट सकती है। ऐसे में यह फ़िल्म बड़ी ही सार्थक बन जाती है, और आज के दौर में तो और भी ज़्यादा। ख़ैर, अब हम आते हैं फ़िल्म के गीतों पर। इस फ़िल्म में कुल पाँच गानें हैं और सभी के सभी सुपर हिट। लता की आवाज़ में "आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे" और "तेरे बिना जिया जाए ना", लता-किशोर की आवाज़ में "आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं", आशा-रफ़ी का गाया "बोतल से एक बात चली है", तथा आज का प्रस्तुत गीत। आइए अब गीत सुना जाए, और दोस्तों, गीत के बोलों पर ग़ौर ज़रूर कीजिएगा क्योंकि भई यह गुलज़ार साहब की रचना है, बोलों के तह तक पहुँचने के लिए दिमाग पर थोड़ा ज़ोर तो लगाना ही पड़ेगा! है ना!
क्या आप जानते हैं...
कि गुलज़ार और राहुल देव बर्मन की साथ साथ पहली फ़िल्म थी सन् १९७२ की फ़िल्म 'परिचय'
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. एक अंतरा खतम होता है इस शब्द पर -"महल", गीत बताएं -३ अंक.
2. बासु चट्टर्जी के निर्देशन में बनी इस फिल्म का नाम बताएं.
3. गीतकार बताएं इस गीत के-२ अंक.
4. अपने उत्कृष्ट संगीत के लिए जाने जाने वाले इस संगीतकार का नाम बताएं-२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम-
गीत पहचाना शरद जी ने तो अन्य सभी भी सही जवाब लेकर उपस्थित हुए, बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ३७१-वीं कड़ी में हम सभी श्रोताओं व पाठकों का हार्दिक स्वागत करते हैं। मित्रों, हमारी मुख्य धारा की हिंदी फ़िल्मों की आत्मा लगभग एक ही तरह की होती है, जिसे हम आम भाषा में फ़ॊरमुला फ़िल्में भी कहते हैं। नायक, नायिका, और खलनायक के इर्द-गिर्द घूमने वाली फ़िल्में ही संख्या में सब से ज़्यादा हैं, और इस तरह का आधार व्यावसायिक तौर पर फ़िल्म की सफलता की चाबी का काम करता है। लेकिन समय समय पर हमारे प्रतिभाशाली फ़िल्मकारों ने बहुत सी ऐसी फ़िल्में भी बनाई हैं जिनकी कहानी, जिनका पार्श्व, बिल्कुल अलग है, लीग से बिल्कुल हट के है। ये फ़िल्में हो सकता है कि बॊक्स ऒफ़िस पर अपना छाप न छोड़ सकी हो, लेकिन अच्छे फ़िल्मों के क़द्रदान इन फ़िल्मों को याद रखा करते हैं। इन फ़िल्मों को समानांतर सिनेमा या आम भाषा में पैरलेल सिनेमा कहा जाता है। इनमें से कई फ़िल्में ऐसी हैं जिनके गीत संगीत में भी अनूठापन है, जो साधारण फ़िल्मी गीतों से अलग सुनाई देते हैं। फ़िल्म के ना चलने से इनमें से कुछ गीतों की तरफ़ लोगों का कम ही ध्यान गया, लेकिन कुछ गानें ऐसे भी हुए जो बेहद मक़बूल हुए और आज भी रेडियो या टीवी पर अक्सर सुनाई दे जाते हैं। ऐसे ही कु्छ लीग से बाहर की फ़िल्मों के कुछ चर्चित और कुछ कमचर्चित गीतों को लेकर हम आज से शुरु कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला '१० गीत समानांतर सिनेमा के'। तो आज इसकी शुरुआत करते हैं घर से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'घर' के एक गीत से, "फिर वही रात है, रात है ख़्वाब की"। किशोर कुमार की आवाज़ में इस गीत को आप ने कई कई बार सुना होगा, लेकिन चाहे कितनी भी बार इसे सुन लें, हर बार सुन कर अच्छा ही लगता है। और क्यों ना लगे, जब गुलज़ार साहब के बोलों पर पंचम का संगीत हो, और उस पर किशोर दा की दिलकश आवाज़! "मासूम सी नींद में जब कोई सपना चले, हमको बुला लेना तुम पलकों के परदे तले"। जब इस तरह के शब्द हों, तो गीत खुद ब ख़ुद ही एक अलग मुक़ाम बना लेता है, क्यों!
फ़िल्म 'घर' आई थी सन् १९७८ में एन.एन. सिप्पी प्रोडक्शन्स के बैनर तले। विनोद मेहरा और रेखा अभिनीत इस फ़िल्म के निर्देशक थे मानिक चटर्जी और लेखक थे दिनेश ठाकुर। दिनेश थाकुर को इस फ़िल्म के लिए उस साल के सर्वश्रेष्ठ कहानी का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। और रेखा का नाम सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए नामांकित हुआ था। क्योंकि हम लीग से हटके फ़िल्मों के गानें सुन रहे हैं, तो ऐसे में फ़िल्म की कहनी से आपका परिचय करवाना थोड़ा जरूरी हो जाता है। कहानी कुछ इस तरह की है कि नवविवाहित जोड़ी विकास (विनोद मेहरा) और आरती (रेखा) अपने नए फ़्लैट में रहने लगते हैं और उनकी ज़िंदगी बड़े प्यार से गुज़र रही होती है। एक रात दोनों थिएटर में फ़िल्म देख कर लौटते वक़्त टैक्सी के ना मिलने से पैदल ही घर वापस आ रहे होते हैं। ऐसे में चार गुंडे उन्हे घेर लेते हैं, विकास को पीट कर बेहोश कर देते हैं और आरती को उठाकर ले जाते हैं। होश आने पर विकास अपने आप को अस्पताल में पाता है, और आरती, जिसका सामूहिक बलात्कार हो चुका होता है, उसका भी उसी अस्पतल में इलाज हो रहा होता है। यह घटना अगले ही दिन सभी समाचार पत्रों, रेडियो और टीवी पर आ जाती है, पूरे शहर में बवाल मच जाता है, नेता लोग अपने अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए इस पर राजनीति शुरु कर देते हैं। ऐसे में विकास को लगता है कि वह समाज में अलग थलग पड़ गया है। आरती भी मानसिक तौर पर असंतुलित हो जाती है और हर पुरुष को शक़ की नज़र से देखती है। विकास और आरती के संबम्ध से वह मिठास, वह प्यार ग़ायब हो जाता है। फ़िल्म का क्या अंत होता है, यह तो आप ख़ुद ही कभी देखिएगा। दोस्तों, आजकल का जो माहौल है, जो समाज है, इस तरह की घटना किसी भी आम आदमी के साथ कहीं भी कभी भी घट सकती है। ऐसे में यह फ़िल्म बड़ी ही सार्थक बन जाती है, और आज के दौर में तो और भी ज़्यादा। ख़ैर, अब हम आते हैं फ़िल्म के गीतों पर। इस फ़िल्म में कुल पाँच गानें हैं और सभी के सभी सुपर हिट। लता की आवाज़ में "आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे" और "तेरे बिना जिया जाए ना", लता-किशोर की आवाज़ में "आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं", आशा-रफ़ी का गाया "बोतल से एक बात चली है", तथा आज का प्रस्तुत गीत। आइए अब गीत सुना जाए, और दोस्तों, गीत के बोलों पर ग़ौर ज़रूर कीजिएगा क्योंकि भई यह गुलज़ार साहब की रचना है, बोलों के तह तक पहुँचने के लिए दिमाग पर थोड़ा ज़ोर तो लगाना ही पड़ेगा! है ना!
क्या आप जानते हैं...
कि गुलज़ार और राहुल देव बर्मन की साथ साथ पहली फ़िल्म थी सन् १९७२ की फ़िल्म 'परिचय'
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. एक अंतरा खतम होता है इस शब्द पर -"महल", गीत बताएं -३ अंक.
2. बासु चट्टर्जी के निर्देशन में बनी इस फिल्म का नाम बताएं.
3. गीतकार बताएं इस गीत के-२ अंक.
4. अपने उत्कृष्ट संगीत के लिए जाने जाने वाले इस संगीतकार का नाम बताएं-२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम-
गीत पहचाना शरद जी ने तो अन्य सभी भी सही जवाब लेकर उपस्थित हुए, बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
अचानक ये मन किसी के जाने के बाद
करें फिर उसकी याद .....
kripya mujhe sharad ji ke ghar ka phone no, dena jra shikaytkrni hai inki yha aawaj pr aa ke aawaj lga lga kr kahte hain kya kru meri bivi ,mujh se bahut jhgdti hai isliye main net pr hi lga rhta hun .
yakin na ho ye pyare pyare bhole bhale bchche hai na apne sajiv/sujoy unse poochh lijiye ye kbhi jhooth nhi bolte .
aadrniy bhabhi ji
charan sparsh
hm kushal mngl hain pr sharadji aapki itni chugli krte hai na 'aawaj' pr .poochho mt,mere to aansu aa jate hain
kl se unhe is blog pr kattai mt aane dijiyega saal bhr tk
aapki
bholi bhali,sidhi sadi, masoom ,nalayk bhi nhi,nikkmi bhi nahi
indu puri
अवध लाल