महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७६
हर कड़ी में हम ग़ालिब से जुड़ी कुछ नई और अनजानी बातें आपके साथ बाँटते हैं। तो इसी क्रम में आज हाज़िर है ग़ालिब के गरीबखाने यानि कि ग़ालिब के निवास-स्थल की जानकारी। (अनिल कान्त के ब्लाग "मिर्ज़ा ग़ालिब" से साभार):
ग़ालिब का यूँ तो असल वतन आगरा था लेकिन किशोरावस्था में ही वे दिल्ली आ गये थे । कुछ दिन वे ससुराल में रहे फिर अलग रहने लगे । चाहे ससुराल में या अलग, उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली की 'गली क़ासिमजान' में बीता । सच पूंछें तो इस गली के चप्पे-चप्पे से उनका अधिकांश जीवन जुड़ा हुआ था । वे पचास-पचपन वर्ष दिल्ली में रहें, जिसका अधिकांश भाग इसी गली में बीता । यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाख़ाना और हकीम शरीफ़खाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है । इसी गली में ग़ालिब के चाचा का ब्याह क़ासिमजान (जिनके नाम पर यह गली है ।) के भाई आरिफ़जान की बेटी से हुआ था और बाद में ग़ालिब ख़ुद दूल्हा बने आरिफ़जान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाज़ा निकला तो इसी गली से गुज़रा ।
जनाब हमीद अहमदखाँ ने ठीक ही लिखा है :
"गली के परले सिरे से चलकर इस सिरे तक आइए तो गोया आपने ग़ालिब के शबाब से लेकर वफ़ात तक की तमाम मंजिलें तय कर लीं ।"
इन बातों से मालूम होता है कि ग़ालिब वास्तव में आगरा के रहने वाले थे। तो क्यों ना हम आगरा की गलियों का मुआयना कर लें, क्या पता उन गलियों में हमें गज़ल कहते हुए ग़ालिब मिल जाएँ। ("मिर्ज़ा ग़ालिब का घर हुआ ग़ायब" पोस्ट से साभार):
हद ये है कि हमारे देश के सबसे बड़े शायर का घर वीरानियों में गुम है... वीरानियाँ क्या. हमें तो यह भी नहीं पता कि ग़ालिब जब आगरा में थे तो कहाँ रहा करते थे। चलिए... इस बात का शुक्र है कि भले हीं ग़ालिब के निशान ज़मीन से मिट गए हों, लेकिन लोगों के दिलों में जो स्थान ग़ालिब ने बनाया है, उसे कोई मिटा नहीं सकता.. वक़्त के साथ वे निशान और भी पुख्ता होते जा रहे हैं। इसी बात पर क्यों न हम ग़ालिब के चंद शेरों पर नज़र दौड़ा लें:
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर
"ग़ालिब" न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
पिछली महफ़िल में हमने ग़ालिब के जो ख़त पेश किए थे, उनमें ग़म और दु:खों की भरमार थी। माहौल को बदलते हुए आज हम वे दो ख़त पेश कर रहे हैं, जिनसे ग़ालिब का मज़ाकिया लहजा झलकता है। तो ये रहे दो ख़त:
अब हुआ ना माहौल कुछ खुशनुमा। बदले माहौल में निस्संदेह हीं आपमें अब गज़ल सुनने की तलब जाग चुकी होगी। गज़ल तो हम सुना देंगे, लेकिन क्या करें ग़ालिब की लेखनी दु:खों से ज्यादा दूर नहीं रह पाती, इसलिए अगर यह गज़ल सुनकर आप भावुक हो गएँ तो इसमें हमारी कोई गलती न होगी। तो लीजिए पेश है "ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और" एलबम से "मरियम"(इनके बारे में हमें ज़्यादा कुछ पता नहीं चल सका, इसलिए पूरी की पूरी कड़ी हमने ग़ालिब के नाम कर दी, हाँ आवाज़ में वह नशा है वह खनक है, जो यकीनन हीं आपको बाँधकर रखेगी।) की आवाज़ में यह गज़ल:
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं ____
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "अहद" और शेर कुछ यूँ था-
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में
इस शब्द की सबसे पहले पहचान की अवनींद्र जी ने,लेकिन चूँकि उन्होंने तब कोई शेर पेश नहीं किया, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी से नवाज़ा जाता है अवनींद्र जी के बाद महफ़िल में उपस्थित होने वाले शरद जी को। शरद जी, इस बार आप पूरे रंग में दीखे और उस रंगे में आपने महफ़िल को भी रंग दिया। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:
मैनें एहद किया था न उस से मिलूंगा मैं
वो रेत पे लकीर थी पत्थर पे नहीं थी । (स्वरचित)
ग़म तो ये है कि वो अहदे वफ़ा टूट गया
बेवफ़ा कोई भी हो तुम न सही हम ही सही (राही मासूम रज़ा) शुभान-अल्लाह... इस शेर का तो मैं फ़ैन हो गया :)
सीमा जी, आपने दो किश्तों में ४ शेर पेश किए... माज़रा क्या है? :) मज़ाक कर रहा हूँ बस :) यह रही आपकी पेशकश:
कहा था किसने के अहद-ए-वफ़ा करो उससे
जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे (अहमद फ़राज़)
अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहोत थे जागे सुबह हुई आराम किया (मीर तक़ी 'मीर') .. इस शेर को पढकर जाने क्यों मुझे गुलज़ार साहब की पंक्तियाँ याद आ रही हैं... सारी जवानी कतरा के काटी, पीरी में टकरा गए हैं (दिल तो बच्चा है जी)
तुम्हारे अह्द-ए-वफ़ा को अहद मैं क्या समझूं
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐतबार नहीं (साहिर लुधियानवी)
अवनींद्र जी, आपने रूक-रूक कर जो शेरों की बौछार की, उससे मैं भींगे बिना नहीं रह सका। अब चूँकि सारे हीं शेर यहाँ डाले नहीं जा सकते, इसलिए लकी ड्रा के सहारे मैंने इन दो शेरों को चुना है :)
ऐ ज़िन्दगी एक एहद मांगता हूँ तुझसे
फ़िर येही खेल हो तो मेरे साथ ना हो (स्वरचित )
वो जब से उम्र कि बदरिया सफ़ेद हो गयी
एहदे वफ़ा तो छोड़ो मुस्कुराता नहीं कोई (स्वरचित ) हा हा हा... क्या खूब कहा है आपने
नीलम जी, आपको हमारी महफ़िल और हमारी पेशकश पसंद आई, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया। आपने कहा कि आपका शेर चोरी का है, कोई बात नही, लेकिन इस शेर के मालिक का नाम तो बता देतीं। वैसे शेर कमाल का है:
और क्या अहदे वफ़ा होते हैं
लोग मिलते हैं,जुदा होते हैं
शन्नो जी, आपने अनजाने में हीं महफ़िल को जो दुआ दी, उससे मेरा दिल बाग-बाग हो गया... वाह क्या कहा है आपने:
हमें किसी की अहदे वफ़ा का इल्म नहीं
हम और हमारी महफ़िल बरक़रार रहे
मनु जी, आपको समझना इतना आसान नहीं। आप महफ़िल में आए, बड़े दिनों बाद आए, इससे हमें बड़ी हीं खुशी हासिल हुई, लेकिन खतों को पढने के बाद गज़ल सुनना ज़रूरी नहीं समझा.. यह मामला मुझे समझ नहीं आया। थोड़ा खुलकर समझाईयेगा।
सुमित जी और पूजा जी आप लोगों की दुआओं के कारण हीं महफ़िल आज अपनी ७६वीं कड़ी तक पहुँच सकी है। अपना प्यार (और/या) आशीर्वाद इसी तरह बनाए रखिएगा :)
मंजु जी, शेर कहने में आपने बड़ी हीं देर कर दी। अच्छी बात यह है कि आपको वह पता ( http://www.ebazm.com/dictionary.htm ) मिल चुका है, जहाँ से शब्दों के अर्थ मालूम पड़ जाएँगे। यह रहा आपका शेर:
निभानी नहीं आती उसे रस्म अहद वफा की ,
टूटती हैं चूडियाँ हर दिन बेवफाई से .
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
हर कड़ी में हम ग़ालिब से जुड़ी कुछ नई और अनजानी बातें आपके साथ बाँटते हैं। तो इसी क्रम में आज हाज़िर है ग़ालिब के गरीबखाने यानि कि ग़ालिब के निवास-स्थल की जानकारी। (अनिल कान्त के ब्लाग "मिर्ज़ा ग़ालिब" से साभार):
ग़ालिब का यूँ तो असल वतन आगरा था लेकिन किशोरावस्था में ही वे दिल्ली आ गये थे । कुछ दिन वे ससुराल में रहे फिर अलग रहने लगे । चाहे ससुराल में या अलग, उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली की 'गली क़ासिमजान' में बीता । सच पूंछें तो इस गली के चप्पे-चप्पे से उनका अधिकांश जीवन जुड़ा हुआ था । वे पचास-पचपन वर्ष दिल्ली में रहें, जिसका अधिकांश भाग इसी गली में बीता । यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाख़ाना और हकीम शरीफ़खाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है । इसी गली में ग़ालिब के चाचा का ब्याह क़ासिमजान (जिनके नाम पर यह गली है ।) के भाई आरिफ़जान की बेटी से हुआ था और बाद में ग़ालिब ख़ुद दूल्हा बने आरिफ़जान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाज़ा निकला तो इसी गली से गुज़रा ।
जनाब हमीद अहमदखाँ ने ठीक ही लिखा है :
"गली के परले सिरे से चलकर इस सिरे तक आइए तो गोया आपने ग़ालिब के शबाब से लेकर वफ़ात तक की तमाम मंजिलें तय कर लीं ।"
इन बातों से मालूम होता है कि ग़ालिब वास्तव में आगरा के रहने वाले थे। तो क्यों ना हम आगरा की गलियों का मुआयना कर लें, क्या पता उन गलियों में हमें गज़ल कहते हुए ग़ालिब मिल जाएँ। ("मिर्ज़ा ग़ालिब का घर हुआ ग़ायब" पोस्ट से साभार):
शहर के इतिहासकार और वयोवृद्ध बताते हैं कि कालां महल इलाक़े में एक बड़ी हवेली हुआ करती थी, जहाँ सन् १७९७ में ग़ालिब का जन्म हुआ था। लेकिन कालां महल इलाक़े में कोई भी उस जगह के बारे में पक्के तौर पर नहीं कह सकता, जहाँ मियाँ ग़ालिब का जन्म हुआ था। हालाँकि एक इमारत है, जो ग़ालिब की हवेली की ली गई एक बहुत पुरानी तस्वीर से मिलती-जुलती है। बचपन में मुंशी शिव नारायण को ग़ालिब द्वारा लिखे गए एक पत्र से उनकी हवेली के बारे में जानकारी मिलती है, जिसमें उन्होंने अपने घर के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है। उन्हीं को लिखे एक अन्य ख़त में उन्होंने आर्थिक तंगी के चलते पैतृक सम्पत्ति छोड़ने की इच्छा का भी उल्लेख किया है। उन्होंने अपनी सम्पत्ति १८५७ के गदर के आस-पास सेठ लक्ष्मीचंद को बेच दी थी।
अब एक स्कूल ट्रस्ट उस सम्पत्ति का मालिक है, लेकिन ट्रस्ट प्रबंधन के मुताबिक़ उस सम्पत्ति का ग़ालिब से कुछ लेना-देना नहीं है। पुराने रिकॉर्ड के मुताबिक़ वहाँ जो ख़ूबसूरत बग़ीचा था, वह कब का ग़ायब हो चुका है और अब वहाँ एक बड़ा सा पानी का टेंक है। इमारत के वर्तमान मालिक के हिसाब से ग़ालिब का उस भवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। हालाँकि तथ्य कुछ और ही बयान करते हैं। १९५७ में ग़ालिब की सालगिरह के मौक़े पर मशहूर उर्दू शायद मैकश अकबराबादी की एक तस्वीर है, जो प्रधानाचार्य के वर्तमान दफ़्तर के ठीक सामने ली गई है।
ग़ालिब से जुड़े विभिन्न कार्यक्रम १९६० तक बाक़ायदा वहीं आयोजित किए जाते रहे हैं। ट्रस्ट द्वारा बड़े पैमाने पर की गई तोड़-फोड़ और निर्माण के चलते अब भवन काफ़ी बदल चुका है। विख्यात शायर फिराक़ गोरखपुरी और अभिनेता फ़ारुक़ शेख़, जिन्होंने ग़ालिब पर एक फ़िल्म का निर्माण किया था, भी इस इमारत को देखने आए थे। ऐतिहासिक तथ्य पुख़्ता तौर पर इशारा करते हैं कि वही भवन मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्मस्थल है, जहाँ आज एक गर्ल्स इंटर कॉलेज चल रहा है। हालाँकि इस बारे में अभी और शोध की ज़रूरत है कि क्या वही इमारत ग़ालिब की पुश्तैनी हवेली है।
हद ये है कि हमारे देश के सबसे बड़े शायर का घर वीरानियों में गुम है... वीरानियाँ क्या. हमें तो यह भी नहीं पता कि ग़ालिब जब आगरा में थे तो कहाँ रहा करते थे। चलिए... इस बात का शुक्र है कि भले हीं ग़ालिब के निशान ज़मीन से मिट गए हों, लेकिन लोगों के दिलों में जो स्थान ग़ालिब ने बनाया है, उसे कोई मिटा नहीं सकता.. वक़्त के साथ वे निशान और भी पुख्ता होते जा रहे हैं। इसी बात पर क्यों न हम ग़ालिब के चंद शेरों पर नज़र दौड़ा लें:
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर
"ग़ालिब" न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
पिछली महफ़िल में हमने ग़ालिब के जो ख़त पेश किए थे, उनमें ग़म और दु:खों की भरमार थी। माहौल को बदलते हुए आज हम वे दो ख़त पेश कर रहे हैं, जिनसे ग़ालिब का मज़ाकिया लहजा झलकता है। तो ये रहे दो ख़त:
१) ग़ालिब ने अपने एक दोस्त को रमज़ान के महीने में ख़त लिखा। उसमें लिखते हैं "धूप बहुत तेज़ है। रोज़ा रखता हूँ मगर रोज़े को बहलाता रहता हूँ। कभी पानी पी लिया, कभी हुक़्क़ा पी लिया,कभी कोई टुकड़ा रोटी का खा लिया। यहाँ के लोग अजब फ़हम र्खते हैं, मैं तो रोज़ा बहलाता हूँ और ये साहब फ़रमाते हैं के तू रोज़ा नहीं रखता। ये नहीं समझते के रोज़ा न रखना और चीज़ है और रोज़ा बहलाना और बात है"।
२) एक दोस्त को दिसम्बर १८५८ की आखरी तारीखों में ख़त लिखा। उस दोस्त ने उसका जवाब जनवरी १८५९ की पहली या दूसरी तारीख को लिख भेजा। उस खत के जवाब में उस दोस्त को ग़ालिब ख़त लिखते हैं। "देखो साहब ये बातें हमको पसन्द नहीं। १८५८ के ख़त का जवाब १८५९ में भेजते हैं और मज़ा ये के जब तुमसे कहा जाएगा तो ये कहोगे के मैंने दूसरे ही दिन जवाब लिखा है"।
अब हुआ ना माहौल कुछ खुशनुमा। बदले माहौल में निस्संदेह हीं आपमें अब गज़ल सुनने की तलब जाग चुकी होगी। गज़ल तो हम सुना देंगे, लेकिन क्या करें ग़ालिब की लेखनी दु:खों से ज्यादा दूर नहीं रह पाती, इसलिए अगर यह गज़ल सुनकर आप भावुक हो गएँ तो इसमें हमारी कोई गलती न होगी। तो लीजिए पेश है "ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और" एलबम से "मरियम"(इनके बारे में हमें ज़्यादा कुछ पता नहीं चल सका, इसलिए पूरी की पूरी कड़ी हमने ग़ालिब के नाम कर दी, हाँ आवाज़ में वह नशा है वह खनक है, जो यकीनन हीं आपको बाँधकर रखेगी।) की आवाज़ में यह गज़ल:
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं ____
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "अहद" और शेर कुछ यूँ था-
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में
इस शब्द की सबसे पहले पहचान की अवनींद्र जी ने,लेकिन चूँकि उन्होंने तब कोई शेर पेश नहीं किया, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी से नवाज़ा जाता है अवनींद्र जी के बाद महफ़िल में उपस्थित होने वाले शरद जी को। शरद जी, इस बार आप पूरे रंग में दीखे और उस रंगे में आपने महफ़िल को भी रंग दिया। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:
मैनें एहद किया था न उस से मिलूंगा मैं
वो रेत पे लकीर थी पत्थर पे नहीं थी । (स्वरचित)
ग़म तो ये है कि वो अहदे वफ़ा टूट गया
बेवफ़ा कोई भी हो तुम न सही हम ही सही (राही मासूम रज़ा) शुभान-अल्लाह... इस शेर का तो मैं फ़ैन हो गया :)
सीमा जी, आपने दो किश्तों में ४ शेर पेश किए... माज़रा क्या है? :) मज़ाक कर रहा हूँ बस :) यह रही आपकी पेशकश:
कहा था किसने के अहद-ए-वफ़ा करो उससे
जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे (अहमद फ़राज़)
अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहोत थे जागे सुबह हुई आराम किया (मीर तक़ी 'मीर') .. इस शेर को पढकर जाने क्यों मुझे गुलज़ार साहब की पंक्तियाँ याद आ रही हैं... सारी जवानी कतरा के काटी, पीरी में टकरा गए हैं (दिल तो बच्चा है जी)
तुम्हारे अह्द-ए-वफ़ा को अहद मैं क्या समझूं
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐतबार नहीं (साहिर लुधियानवी)
अवनींद्र जी, आपने रूक-रूक कर जो शेरों की बौछार की, उससे मैं भींगे बिना नहीं रह सका। अब चूँकि सारे हीं शेर यहाँ डाले नहीं जा सकते, इसलिए लकी ड्रा के सहारे मैंने इन दो शेरों को चुना है :)
ऐ ज़िन्दगी एक एहद मांगता हूँ तुझसे
फ़िर येही खेल हो तो मेरे साथ ना हो (स्वरचित )
वो जब से उम्र कि बदरिया सफ़ेद हो गयी
एहदे वफ़ा तो छोड़ो मुस्कुराता नहीं कोई (स्वरचित ) हा हा हा... क्या खूब कहा है आपने
नीलम जी, आपको हमारी महफ़िल और हमारी पेशकश पसंद आई, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया। आपने कहा कि आपका शेर चोरी का है, कोई बात नही, लेकिन इस शेर के मालिक का नाम तो बता देतीं। वैसे शेर कमाल का है:
और क्या अहदे वफ़ा होते हैं
लोग मिलते हैं,जुदा होते हैं
शन्नो जी, आपने अनजाने में हीं महफ़िल को जो दुआ दी, उससे मेरा दिल बाग-बाग हो गया... वाह क्या कहा है आपने:
हमें किसी की अहदे वफ़ा का इल्म नहीं
हम और हमारी महफ़िल बरक़रार रहे
मनु जी, आपको समझना इतना आसान नहीं। आप महफ़िल में आए, बड़े दिनों बाद आए, इससे हमें बड़ी हीं खुशी हासिल हुई, लेकिन खतों को पढने के बाद गज़ल सुनना ज़रूरी नहीं समझा.. यह मामला मुझे समझ नहीं आया। थोड़ा खुलकर समझाईयेगा।
सुमित जी और पूजा जी आप लोगों की दुआओं के कारण हीं महफ़िल आज अपनी ७६वीं कड़ी तक पहुँच सकी है। अपना प्यार (और/या) आशीर्वाद इसी तरह बनाए रखिएगा :)
मंजु जी, शेर कहने में आपने बड़ी हीं देर कर दी। अच्छी बात यह है कि आपको वह पता ( http://www.ebazm.com/dictionary.htm ) मिल चुका है, जहाँ से शब्दों के अर्थ मालूम पड़ जाएँगे। यह रहा आपका शेर:
निभानी नहीं आती उसे रस्म अहद वफा की ,
टूटती हैं चूडियाँ हर दिन बेवफाई से .
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
कायल...
हर एक चेहरे को ज़ख्मों का आईना न कहो
ये ज़िन्दगी तो है रहमत, इसे सज़ा न कहो ...
मैं वाकीयात की ज़ंजीर का नही कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो ...
(राहत इन्दौरी)
तुझे कायल भी कराता जा रहा हूँ
शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं
(फ़िराक़ गोरखपुरी )
हम तो अब भी हैं उसी तन्हा-रवी[1] के कायल
दोस्त बन जाते हैं कुछ लोग सफ़र में खुद ही
(: नोमान शौक़ )
dil,jism aur jaan jab se ghayal ho gaye,
sher o shayari k tab se kayal ho gaye
neelam jee aur shanno jee abhi tak nahi aaye..
sholey film ki story aage kaise chalegi........
is gazal ko sunwane k liye dhanyavaad, ye maine kai baar fm par suni hai..par kafi time se fm sunne ka time nahi mil raha tha..
mehfil e ghazal mei bahut he aachi acchi ghazle sunne ko milti hai..fm ki kami mehsoos nahi hoti aaj kal..
साहेब का दुखड़ा रोकर फिर चंपत हो जाते हैं कुछ दिनों के लिए....सुमीत जी, ये हमारी गब्बर साहिबा हमें भी कई दिनों से नहीं दिखीं आप दोनों का ये '' चूहा भाग बिल्ली आई '' वाला खेल हमारी समझ में नहीं आता है...कभी आप यहाँ हैं तो वो नहीं और कभी वो हैं तो आप नहीं...हम पर तो बंदिश है की आप व नीलम जी पहले तशरीफ़ लायें फिर हमें आने की इज़ाज़त होगी..तो बस यही सबब था हमारे पहले न आने का..और भी एक बात....वो ये की आज हमारी तबियत जरा ढीली है...कुछ जुकाम-बुखार है, सरदर्द है, कुछ देर पहले..ख़ुर्र-ख़ुर्र खांसी भी आना शुरू हो गयी है...नाक का टपकना भी बराबर जारी है...बस यूँ समझो की बड़ी लाचारी है....दिमाग के पुर्जे ढीले हो रहे हैं..मतलब ये की..दिमाग भन्ना रहा है..बस हम डट कर सोने ही वाले हैं कुछ देर में.. फिर भी हम आप सबकी खोज खबर लेने आ ही गये..जरा सी देर के लिए ही सही ...सोचा की चलो सबसे दुआ सलाम तो कर आयें...आक..छूं...आक छूं ...देखा छींकों का आना-जाना भी चालू हो गया है...अब अधिक देर रुकी तो आप लोगों को भी कहीं मुझसे जुकाम-खाँसी न हो जाये..और ये ठाकुर कहाँ हैं..दिख नहीं रहे है कहीं ( ठकुराइन ने ठोंक तो नहीं दिया...जैसा की मुझे किसी से उड़ती-उड़ती खबर मिली थी ). देखो अब ये उनका नसीब रहा...देर बहुत हो गयी है..सरदार गब्बर कहीं झक मार रहे होंगे...सनकी टाइप तो हैं ही..आजकल और फ़िल्में देख रहे हैं..मेरी और नाक में दम करने के लिये...फिर यहाँ आते ही सबको धमका देंगे...यह फिलम कभी ख़तम ही नहीं होगी बस शोले का सीरिअल ही बनता रहेगा हर बार की एपीसोड से..मन धुकुर-धुकुर होता रहता है सरदार की धमकियों से...अब अपनी खैरियत के लिये अपना शेर सुनाकर चलती बनूँ तभी ठीक.. ग़ज़ल तो अच्छी है ही..और गायब शब्द भी ग़ज़ल सुनकर मालूम हो गया... ' कायल ' है. तो आप लोगों से इल्तजा है मेरी की इस नाचीज़ के लिखे दो शेरों की ओर भी मुखातिब हों :
१.
माना हम किसी काबिल नहीं हैं
पर बहाने के हम कायल नहीं हैं
दुआ सलाम भी न करूँ किसी को
इतने भी तो हम जाहिल नहीं हैं.
२.
आज तबियत हमारी बिगड़ रही है
तकलीफ भी हमें बहुत हो रही है
कभी थे लोग मेरे हाल के कायल
आज फिकर उन्हें नहीं हो रही है.
-शन्नो
चलती हूँ...खुदा हाफिज़..आह!...ये परवरदिगार...इस नाक का क्या करूँ ?..टपकती जा रही है.
मेरा शहर दीवानगी का कायल हो गया .
जवाब -कायल
किसी की बातों के इतने कायल हुये
उनकी बातों से भी बड़े घायल हुये
जब सोचा बताना अपने ख्यालों को
इन उंगलियों से नंबर डायल न हुये.
-शन्नो
अब आप सबसे इजाज़त लेती हूँ....आ आआआक..छूं ...अगली बार तक के लिये खुदा हाफ़िज़...
अब आपकी तबीयत कैसी है, कोई दवाई लाए हो, मेरा रूमाल तो मै घर पर भूल आया, तन्हा जी, ने रूमाल तो भेज दिया होगा अगर नही भेजा तो मै कल भेज दूँगा
चलो अब चलता हूँ
bbye take care
have a nice day..
आसमां की ऊंचाइयों के कायल हुये हैं
जमीं पर कदम जिनके पड़ते नहीं हैं.
-शन्नो
अलविदा..
पर अफ़सोस.., मैं तेरे काबिल ना हो सका
hum kuch roj ke liye apne gaaon aaye hue hain .
shabba khair
आपके अफ़सोस पे बड़ी ख़ुशी हुई और अफ़सोस करने रामगढ़ \तक आगई ठाकुर गब्बर से भी ज्यादा खुश हुआ मगर अफ़सोस रामगढ़ मैं ठाकुर ज्यादा खुश नहीं रह सकता शन्नो जी ये गब्बर नज़र नहीं आ रहा लगता है कोई और फिल्म कि शूटिंग मैं व्यस्त हैं !
अब ज्यादा शेर लिखूंगा तो सिप्पी साहेब (तनहा जी )नाराज़ हो जायेंगे ! मगर एक छोटा सा तो लिख ही देता हूँ ----
कौन कहता है कायल हूँ मैं मैखाने का
सूरत -ऐ -साकी ने दीवाना बना रखा है
ताकता रहता हूँ हर वक़्त मैं उसकी आँखें
जहाँ हर वक़्त एक पैमाना बना रखा है !!!
घूमता रहता है वो शमा के इर्द गिर्द बेबस
या खुदा किस मिटटी से परवाना बना रखा है
कुछ ज्यादा ही हो गया ! या ज्यादा ही हो गयी !
ही.....ही.....ही....हा
या खुदा किस मिटटी से परवाना बना रखा है
reallly nice sufiana touch .............gabbar khush hua .
tanha bhaai ,ab gabbar ka role kisi
aur ko de do ..........
pooja aa jao (gabbar banogi )
vicks ki goli lo khich -khich door karo
कोई हमारे आंसुओं का कायल क्यों होगा
जब दिल ही नहीं तो अहसास क्यों कर
( अब हमें कुछ डाउट सा हो रहा है की ये शेर की तरह लग भी रहा है की नहीं..काश ! सुमीत जी कहीं से आकर इसे देखें और बिना सोचे समझे इस पर रहम खाकर पास कर दें ...हा..हा..हा )
अलविदा..अलविदा..अलविदा साथिओं...हम महफ़िल से अब जा रहे साथिओं....अलविदा......अलविदाआआआ....
कोई हमारे आंसुओं का कायल क्यूँ होगा
बसंती ने गब्बर से ये ही तो कहा होगा !!
एक सवाल और मेरे दिल मैं है कि रामगढ मैं जब पानी कि टंकी थी जिसपे वीरू का ड्रामा था .....,
तो बिजली भी होगी तो फ़िर जया जी रात को लालटेन लेकर क्यूँ घूमती थी ?????
शन्नो जी कसम है आपको गब्बर की....इसका राज बताइयेगा ....... !तो जाने
ओऊ अलविदा नहीं कहते ना जाने कब दोबारा मुलाकात या मुक्कालात हो जाये सो कभी अलविदा ना कहना ! ये मैं नही अपना शाहरुख़ कहता है बड़ा ही बूढा बच्चा है
अब आगे आपने कहा की आपने हमरे शेर को छेड़ा..तो इस बारे में हम चुप ही रहेंगे....क्यों कि आफत मचाने से हमारे गब्बर साहेब आपको बहुत धमकायेंगे...सो आप खैरियत मनाइये अपनी...और हम भी चूँ नहीं करेंगे उनसे...और एक बात...वो ये की ये आप '' कभी अलविदा न कहना ''..वाला गाना गा रहे हैं या हमसे गुजारिश कर रहे हैं..साथ में इन सल्लू मियां को भी इस मामले में घसीट रहे हैं...हा हा हाहा..( गब्बर वाली हंसी ) अच्छा अगली बार तक के लिये ..खुदा हाफ़िज़..
to wo un donon ki baat thi ............
thakur saahab ki hi galti thi.
khilte the jab(jisme) phool hayaat ke .
sijde bhi me jo naam pukaarte
mera the
kaayal kyon n hum ho unke deewanepan ke .
v.d
gabaar ko sabaashi mlegi to khush hoga ,nahi to ...........
bahut naainsaafi hai shanno ji basanti ka role to aap kar hi rahi hain ,to pooja ko kaaliya bana denge .
आपके इस शेर का ज़िक्र अगले पोस्ट में नहीं हो सकता...क्योंकि आपने समय-सीमा पार कर ली है..
हाँ, यहाँ पर शाबाशी दिए देता हूँ :)
आगे से यह ध्यान रखियेगा कि किसी भी पोस्ट पर शेर उस आलेख के पोस्ट होने के ६ दिन के अंदर हीं डालें नहीं तो वह शेर अगली कड़ी में उल्लेखित नहीं हो पाएगा।
धन्यवाद,
विश्व दीपक