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कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में.. चचा ग़ालिब की हालत बयां कर रहे हैं मेहदी हसन और तरन्नुम नाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७५

यूसुफ़ मिर्जा,

मेरा हाल सिवाय मेरे ख़ुदा और ख़ुदाबंद के कोई नहीं जानता। आदमी कसरत-ए-ग़म से सौदाई हो जाते हैं, अक़्‍ल जाती रहती है। अगर इस हजूम-ए-ग़म में मेरी कुव्वत मुतफ़क्रा में फ़र्क आ गया हो तो क्या अजब है? बल्कि इसका बावर न करना ग़ज़ब है। पूछो कि ग़म क्या है?

ग़म-ए-मर्ग, ग़म-ए-‍फ़िराक़, ग़म-ए-रिज़्क, ग़म-ए-इज्ज़त? ग़म-ए-मर्ग में क़िलआ़ नामुबारक से क़ताअ़ नज़र करके, अहल-ए-शहर को गिनता हूँ। ख़ुदा ग़म-ए-फ़िराक को जीता रखे। काश, यह होता कि जहाँ होते, वहाँ खुश होते। घर उनके बेचिराग़, वह खुद आवारा। कहने को हर कोई ऐसा कह सकता है़, मगर मैं अ़ली को गवाह करके कहता हूँ कि उन अमावत के ग़म में और ज़ंदों के ‍फ़िराक़ में आ़लम मेरी नज़र में तीर-ओ-तार है। हक़ीक़ी मेरा एक भाई दीवाना मर गया। उसकी बेटी, उसके चार बच्चे, उनकी माँ, यानी मेरी भावज जयपुर में पड़े हुए हैं। इन तीन बरस में एक रुपया उनको नहीं भेजा। भतीजी क्या कहती होगी कि मेरा भी कोई चच्चा है। यहाँ अग़निया और उमरा के अज़दवाज व औलाद भीख माँगते फिरें और मैं देखूँ।

इस मुसीबत की ताब लाने को जिगर चाहिए। अब ख़ास दुख रोता हूँ। एक बीवी, दो बच्चे, तीन-चार आदमी घर के, कल्लू, कल्यान, अय्याज़ ये बाहर। मदारी के जोरू-बच्चे बदस्तूर, गोया मदारी मौजूद है। मियाँ घम्मन गए गए महीना भर से आ गए कि भूखा मरता हूँ। अच्छा भाई, तुम भी रहो। एक पैसे की आमद नहीं। बीस आदमी रोटी खाने वाले मौजूद। मेहनत वह है कि दिन-रात में फुर्सत काम से कम होती है। हमेशा एक फिक्र बराबर चली जाती है। आदमी हूँ, देव नहीं, भूत नहीं। इन रंजों का तहम्मुल क्योंकर करूँ? बुढ़ापा, जोफ़-ए-क़वा, अब मुझे देखो तो जानो कि मेरा क्या रंग है। शायद कोई दो-चार घड़ी बैठता हूँ, वरना पड़ा रहता हूँ, गोया साहिब-ए-फ़राश हूँ, न कहीं जाने का ठिकाना, न कोई मेरे पास आने वाला। वह अ़र्क जो ब-क़द्र-ए-ताक़त, बनाए रखता था, अब मुयस्सर नहीं।

सबसे बढ़कर, आमद आमद-ए-गवर्नमेंट का हंगामा है। दरबार में जाता था, ख़लह-ए-फ़ाख़िरा पाता था। वह सूरत अब नज़र नहीं आती। न मक़बूल हूँ, न मरदूद हूँ, न बेगुनाह हूँ, न गुनहगार हूँ, न मुख़बिर, न मुफ़सिद, भला अब तुम ही कहो कि अगर यहाँ दरबार हुआ और मैं बुलाया जाऊँ त नज़र कहाँ से लाऊँ। दो महीने दिन-रात खन-ए-जिगर खाया और एक क़सीदा चौंसठ बैत का लिखा। मुहम्मद फ़ज़ल मुसव्विर को दे दिया, वह पहली दिसंबर को मुझे दे देगा।

क्या करूँ? किसके दिल में अपना दिल डालूँ?


अभी जो हमने आपके पेश-ए-नज़र किया, वह और कुछ नहीं बल्कि किन्हीं यूसुफ़ मियाँ के नाम ग़ालिब का ख़त था। ग़ालिब के अहवाल (हालात) की जानकारी ग़ालिब के ख़तों से बखूबी मिलती है। इसलिए क्यों ना आज की महफ़िल में ग़ालिब के ख़तों का हीं मुआयना किया जाए। तो पेश है टुकड़ों में ग़ालिब के ख़त:

यह ख़त उन्होंने तब लिखा मालूम होता है, जब दिल्ली में अंग्रेजी फ़ौज़ों और हैज़ा दोनों का एक साथ आक्रमण हुआ था। ग़ालिब लिखते हैं:

पाँच लश्कर का हमला पै दर पै इस शहर पर हुआ। पहला बाग़ियों का लश्कर, उसमें पहले शहर का एतबार लुटा। दूसरा लश्कर ख़ाकियों का, उसमें जान-ओ-माल-नामूस व मकान व मकीन व आसमान व ज़मीन व आसार-ए-हस्ती सरासर लुट गए। तीसरा लश्कर का, उसमें हज़ारहा आदमी भूखे मरे।

चौथा लश्कर हैज़े का, उसमें बहुत-से पेट भरे मरे। पाँचवाँ लश्कर तप का, उसमें ताब व ताक़त अ़मूमन लुट गई। मरे आदमी कम, लेकिन जिसको तप आई, उसने फिर आज़ा में ताक़त न पाई। अब तक इस लश्कर ने शहर से कूच नहीं किया।

मेरे घर में दो आदमी तप में मुब्तिला हैं, एक बड़ा लड़का और एक मेरा दरोग़ा। ख़ुदा इन दोनों को जल्द सेहत दे।

जब शहर में बाढ आई तो ग़लिब ने लिखा:

मेंह का यह आलम है कि जिधर देखिए, उधर दरिया है। आफ़ताब का नज़र आना बर्क़ का चमकना है, यानी गाहे दिखाई दे जाता है। शहर में मकान बहुत गिरते हैं। इस वक़्त भी मेंह बरस रहा है। ख़त लिखता तो हूँ, मगर देखिए डाकघर कब जावे। कहार को कमल उढ़ाकर भेज दूँगा।

आम अब के साल ऐसे तबाह हैं कि अगर बमुश्किल कोई शख़्स दरख़्त पर चढ़े और टहनी से तोड़कर वहीं बैठकर खाए, तो भी सड़ा हुआ और गला हुआ पाए।

अंग्रेजों के हाथों कत्ल हुए अपने परिचितों का मातम करते हुए ग़ालिब लिखते हैं:

यह कोई न समझे कि मैं अपनी बेरौनक़ी और तबाही के ग़म में मरता हूँ। जो दुख मुझको है उसका बयान तो मालूम, मगर उस बयान की तरफ़ इशारा करता हूँ। अँग्रेज़ की क़ौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से क़त्ल हुए, उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शफ़ीक़ और कोई मेरा दोस्त और कोई मेरा यार और कोई मेरा शागिर्द, कुछ माशूक़, सो वे सबके सब खाक़ में मिल गए।

एक अज़ीज़ का मातम कितना सख्त होता है! जो इतने अज़ीज़ों का मातमदार हो, उसको ज़ीस्त क्योंकर न दुश्वार हो। हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा।

एक और ख़त में ग़ालिब अपना दुखड़ा इस तरह व्यक्त करते हैं:

मेरा शहर में होना हुक्काम को मालूम है, मगर चूँकि मेरी तरफ़ बादशाही दफ्तर में से या मुख़बिरों के बयान से कोई बात पाई नहीं गई, लिहाज़ा तलबी नहीं हुई। वरना जहाँ बड़े-बड़े जागीरदार बुलाए हुए या पकड़े हुए आए हैं, मेरी क्या हक़ीकत थी। ग़रज़ कि अपने मकान में बैठा हूँ, दरवाजे से बाहर निकल नहीं सकता।

सवार होना या कहीं जाना तो बहुत बड़ी बात है। रहा यह कि कोई मेरे पास आवे, शहर में है कौन जो आवे? घर के घर बे-चराग़ पड़े हैं, मुजरिम सियासत पाए जाते हैं, जर्नेली बंदोबस्त 11 मई से आज तक, यानी 5 सितंबर सन् 1857 तक बदस्तूर है। कुछ नेक व बद का हाल मुझको नहीं मालूम, बल्कि हनूजल ऐसे अमूर की तरफ़ हुक्काम की तवज्जोह भी नहीं।

देखिए अंजाम-ए-कार क्या होता है। यहाँ बाहर से अंदर कोई बगैर टिकट का आने-जाने नहीं पाता। तुम ज़िनहार यहाँ का इरादा न करना। अभी देखना चाहिए, मुसलमानों की आबादी का हुक्म होता है या नहीं।

और अब ये जान लेते हैं कि ग़ालिब के ये ख़त आखिर छपे कैसे? तो इस बारे में "ग़ालिब के पत्र" नामक किताब की भूमिका में लिखा है:

उनकी आयु के अंतिम वर्षों में उनके एक शिष्य चौधरी अब्दुल गफ़ूर सुरूर ने उनके बहुत से पत्र एकत्र किए और उनको छापने के लिए ग़ालिब से आज्ञा माँगी। परंतु ग़ालिब इस बात पर सहमत न हुए। सुरूर के साथ-साथ ही मुंशी शिवनारायण 'आराम' और मुंशी हरगोपाल तफ़्ता ने भी इसी प्रकार की आज्ञा माँगी। ग़ालिब ने १८ नवंबर को मुंशी शिवनारायण को लिखा :

'उर्दू खतूत जो आप छपवाना चाहते हैं, यह भी ज़ायद बात है। कोई पत्र ही ऐसा होगा कि जो मैंने क़लम संभालकर और दिल लगाकर लिखा होगा। वरना सिर्फ़ तहरीर सरसरी है। क्या ज़रूरत है कि हमारे आपस के मुआमलात औरों पर ज़ाहिर हों। खुलासा यह कि इन रुक्क़आत का छापा मेरे खिलाफ़-ए-तबअ है।’

ऐसा प्रतीत होता है क मुंशी शिवनारायण और तफ़्ता ने ग़ालिब के पत्रों के छापने का इरादा छोड़ दिया। चौधरी अब्दुल ग़फूर सुरूर शायद इस कारण से रुक गए कि कुछ और पत्र मिल जाएँ। इस बात का अभी तक पता नहीं चला कि किस तरह मुंशी गुलाम ग़ौस ख़ाँ बेखबर ने ग़ालिब के पन्नों को छापने की आज्ञा ले ली। बल्कि बेख़बर की फरमाइश के अनुसार ग़ालिब ने अपने कुछ दोस्तों और शिष्यों को लिखकर अपने पत्रों की नकलें उनको भेजीं। ग़ालिब ने पत्रों के छापने की इजाज़त तो दे दी थी, परंतु वह चाहते यह थे कि इस संग्रह में उनके निजी पत्र शामिल न किए जाएँ।

इन ख़तों के बाद ग़ालिब के शेरों पर नज़र दौड़ा लिया जाए। यह तो सबपे जाहिर है कि ग़ालिब के शेर ख़तों से भी ज्यादा जानलेवा हैं:

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना


ग़ालिब के ख़त हुए, एक-दो शेर हो गए तो फिर आज की गज़ल क्योंकर पीछे रहे। तो आप सबों की खिदमत में पेश है "नक़्श फ़रियादी" एलबम से "मेहदी हसन" और "तरन्नुम नाज़" की आवाज़ों में ग़ालिब की यह सदाबहार गज़ल। गज़ल सुनाने से पहले हम इस बात का यकीन दिलाते चलें कि बस ग़ालिब हीं एक वज़ह हैं, जिस कारण से हम हर कड़ी में दूसरे फ़नकारों( जैसे कि यहाँ पर तरन्नुम नाज़) के बारे में कुछ बता नहीं पा रहे, क्या करें ग़ालिब से छूटें तो और कहीं ध्यान जाए, हाँ लेकिन एकबारगी ग़ालिब पर श्रृंखला खत्म होने दीजिए फिर हम रही सही सारी कसर पूरी कर देंगे। फिर भी अगर आपको कोई शिकायत हो तो टिप्पणियों के माध्यम से हमें इसकी जानकारी दें और अगर शिकायत न हों तो ऐसे हीं लुत्फ़ उठाते रहें। क्या ख्याल है?:

कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में
शब-हाए-हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का ___ कर गये आये जो ख़्वाब में

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

’ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तालीम" और शेर कुछ यूँ था-

पर्तौ-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक

बहुत दिनों के बाद किसी ने सीमा जी को पछाड़ा। शरद जी "शान-ए-महफ़िल" बनने की बधाई स्वीकारें। और सीमा जी संभल जाईये.. आपसे मुकाबले के लिए शरद जी मैदान में उतर चुके हैं। यह रही शरद जी की पेशकश:

कहीं रदीफ़, कहीं काफ़िया, कहीं मतला,
शे’र के दाँव-पेच मक्ता-ओ-बहर क्या है ?
अगर मिले मुझे तालीम देने वाला कोई
तो देखना मैं बताऊंगा फिर ग़ज़ल क्या है ? (स्वरचित)

निर्मला जी और सुमित जी, महफ़िल में आने और प्रस्तुति पसंद करने के लिए आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया।

मंजु जी बढिया लिखा है आपने। हाँ, शिल्प पर थोड़ा और काम कर सकती थीं आप, लेकिन कोई बात नहीं। ये रही आपकी पंक्तियाँ:

उनकी निगाहों से तालीम का सबक लेते हैं पर ,
जीवन के पन्ने को भरने के लिए सागर - सी स्याही भी कम पड़ जाती है . (स्वरचित)

नीलम जी और शन्नो जी, आप दोनों के कारण महफ़िल रंगीन बन पड़ी है। अपना प्यार (और डाँट-डपट भी) इसी तरह बनाए रखिएगा। शन्नो जी, मैं कोई गुस्सैल इंसान नहीं जिससे आप इतनी डरती रहें। आप दोनों से बस यही दरख्वास्त है कि बातों के साथ-साथ(या फिर बातों से ज्यादा) शेरो-शायरी को तवज्जो दिया करें (यह एक दरख्वास्त है, धमकी मत मान लीजियेगा...और हाँ नाराज़ भी मत होईयेगा)। ये रहीं आप दोनों की पंक्तियाँ क्रम से: (पहले शन्नो जी, फिर नीलम जी)

हरफन मौला ने पूरी तालीम से रखी दूरी
दवाओं से भी पहचान थी उनकी अधूरी
नीम हकीम खतरे जान बनकर ही सही
एक दिन उन्होंने की अपनी तमन्ना पूरी. (स्वरचित)

तालीम तो देना पर इतना इल्म भी देना उनको
बुजुर्गों कोदिलसे सिजदे का शऊर भी देना उनको (स्वरचित)

सीमा जी, आपके आने के बाद हीं मालूम पड़ता है कि महफ़िल जवान है, इसलिए कभी नदारद मत होईयेगा। ये रहे आपके शेर:

मकतब-ए-इश्क़ ही इक ऐसा इदारा है जहाँ
फ़ीस तालीम की बच्चों से नहीं ली जाती. (मुनव्वर राना)

दुनिया में कहीं इनकी तालीम नहीं होती
दो चार किताबों को घर में पढ़ा जाता है (बशीर बद्र)

अवनींद्र जी, महफ़िल के आप नियमित सदस्य हो चुके हैं। यह हमारे लिए बड़ी हीं खुशी की बात है। ये रहीं आपकी स्वरचित पंक्तियाँ:

तालीम तो ली थी मगर शहूर न आया
संजीदगी से चेहरे पे कभी नूर न आया
तह पड गयी जीभ मैं कलमा रटते रटते
तहजीब का इल्म फिर भी हुज़ूर न आया (स्वरचित )

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

avenindra said…
शब्द हे एहद शेर लिखने कि कोशिश कर रहा हूँ लिखते ही पोस्ट करूंगा
मेहँदी हसन साहेब कि आवाज़ ऐसी है जैसे बांसुरी गाने लगी हो
शब्द है : एहद/अहद
मैनें एहद किया था न उस से मिलूंगा मैं
वो रेत पे लकीर थी पत्थर पे नहीं थी ।
(स्वरचित)
ग़म तो ये है कि वो अहदे वफ़ा टूट गया
बेवफ़ा कोई भी हो तुम न सही हम ही सही
(राही मासूम रज़ा)
हमारे अहद के बच्चों को क्या हुआ यारो
खिलोने छोड़ के चाकू खरीद लाए है (अज्ञात)
seema gupta said…
कहा था किसने के अहद-ए-वफ़ा करो उससे
जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे
(अहमद फ़राज़ )
avenindra said…
गब्बर को ठाकुर का आदाब अपनी ठाकुरायण के लिए कुछ लिखा है हालाँकि सिप्पी साहेब ने उन्हें मौका नहीं दिया था
कुछ इस तरह अहदे वफ़ा निभाई उसने
कब्र पे मेरी चंद मजबूरियां गिनाई उसने (स्वरचित )
seema gupta said…
ज़माना अह्दमें उसके है मह्वे आराइश
बनेंगे और सितारे अब आसमाँ के लिए
(: ग़ालिब )
अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात् बहोत थे जागे सुबह हुई आराम किया
(मीर तक़ी 'मीर' )
तुम्हारे अह्द-ए-वफ़ा को अहद मैं क्या समझूं
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐतबार नहीं
(साहिर लुधियानवी )
regards
neelam said…
बहुत नाइंसाफी है ,इ का हमारी शन्नो जी कहाँ गयी ,शन्नो जी आ जाईये ................................देखो तो जरा ये(ठाकुर) हमे सलाम करता है ,और अच्छी सायरी भी लिखता है ,पर है तो दुश्मन ही ना
सुमित भाई आप " अंग्रेजोंकेजमानेकेजेलर"हैं पर हैं कहाँ???????

और क्या अहदे वफ़ा होते हैं
लोग मिलते हैं,जुदा होते हैं

स्वरचित नहीं है ,चोरी की है
shanno said…
सबको हमारा सलाम...खासकर के हमारी गब्बर साहिबा नीलम जी को...आप आज हमारे बिना फटकारे हुए ही तसरीफ ले आयीं इस बात से हमारे दिल को बड़ी रहत मिली. और हमारे गिरोह के नये मेम्बर इन राकेश जी के सेर ने हमारे सेर को ऐसी पटकी मारी की वह अधमरा हो गया...सरद जी, सीमा जी और बाकी के लोग तो थे ही उस्ताद ...लेकिन ये अवीन्द्र जी या राकेश जी ने तो ( दूसरों की I D चोर..ही ही ही ) आते ही हमको दिन में तारे दिखा दिये...अब हमारे सेर कमजोर हो गये हैं...कुछ सोचना पड़ेगा..उनका दवा इलाज़ करने का. ऐसा झटका लगा हमको की.. अब तक हम संभल नहीं पाये..आप तो अच्छी तरह से वाकिफ हैं की हम आपके गिरोह के पुराने मेम्बर हैं..फिर भी अपने सेर का वजन हल्का रहा. और सबके तो भारी-भरकम सेर होते हैं...फिर हमको सरम न लगे तो क्या हो...फेर यहाँ बिना आपके और सुमीत के हमें आने की मनाही है...ये हमारे तन्हा जी का ही आइडिया है..उनका सख्त हुकुम है..की बिना आपके और सुमीत के हम उनकी महफ़िल में नहीं आ सकते...अगर हमारी बात पर इत्मीनान न हो तो खुद पूँछ लीजिये ..आपके डर से वो सच उगल देंगें.. .तो इसीलिए हम झाँक के वापस उदास होके चले गये..अब आप आयीं..और हम पर चिल्लायीं..तो हम ने सुना और हमारी जान में जान आई...ये क्या...सुमीत जी फेर गायब...कहीं नज़र नहीं आ रहे यहाँ पे...क्या उनको किसी की नज़र लग गयी है क्या ? ना वो दीखते अब ना उनके क्यूट सेर...और हमारी नज़रों में आपकी क्या अहमियत है उसके लिए हमारे पास कोई अल्फाज़ ही नहीं बचे हैं तारीफ़ करने को..आपकी सायरी बड़ी दिल को छू लेने वाली होती है...अब मै भी अपना एक जल्दी में घसीटा हुआ सेर यहाँ लायी हूँ सबको दिखाने व सुनाने के वास्ते...तो..जरा गला साफ कर लूं....हाँ अब पढ़ती हूँ. लेकिन पहले बता दूं की ये सेर आपकी और तनहा जी की दुआ से ही लिख पायी हूँ...लेकिन अब मुझे अवीन्द्र जी से खौफ लगने लगा है...उनके सेरों की तो बस वाह ! वाह! हो गयी...बड़े छुपे रुस्तम निकले...खैर, अब जरा मेरे सेर पर गौर फरमाइये :

हमें किसी की अहदे वफ़ा का इल्म नहीं
हम और हमारी महफ़िल बरक़रार रहे
किसी के दिल पे हमारा कोई जोर नहीं
बस यही काफी है अपने पे एतबार रहे.

-शन्नो
अब हमारा भी चलने का टैम हो गया है तो फेर हमें भी आप इज़ाज़त दें...खुदा हाफ़िज़..
हाँ, भूल गयी थी..माफ़ करियेगा जरा...अब चलते-चलते आपको बता दूं तन्हा जी की आपकी ग़ज़ल की पेसकस भी अच्छी रही...
manu said…
हमारे बड़े अंकल का दरबार लगा हुआ है सुना हमने..

बड़े शौक से आये थे हाजिरी देने...मगर सभी ख़त पढने के बाद..ना कुछ कहने का दिल हो रहा है,,ना कुछ सुनने का..

ठीक ही बताया हुआ है शरद जी ने...
अहद ही है...
shanno said…
सुमीत जी,
ऐसी क्या बात हुई जो आप सबको भुला रहे हैं
आपने मनाया हमें अब आपको हम बुला रहे हैं
आपकी अहदे वफ़ा मिले ना मिले महफ़िल को
पर देखो लोग यहाँ क्या-क्या गुल खिला रहे हैं.

-शन्नो

और मनु जी,
ये क्या बात हुई की मुद्दतों के बाद आप अपने चचा जान को याद करते हुये अपने क़दमों पर चल कर यहाँ तक आये और फिर हम सबसे मुंह फेर कर चल दिये..और आप अपने क़दमों के निशान महफ़िल में ही छोड़ गये...किससे..क्या खता हुई...की हम सबको गुनहगार बना कर चले गये ...ऐसे तो हमें छोड़कर मत जाइये, प्लीज़. आपके चचा की रूह को तकलीफ हो रही होगी की इस महफ़िल में उनकी बात चल रही है लेकिन आप रूठे हुये हैं...अरे भई, अब आप आ भी जायें और हमारे गिरोह में शामिल हो जायें तो आपका मन भी लग जायेगा...बशर्ते आप अगर हमें इतना बुरा नहीं समझते हैं तो :)
manu said…
शन्नो जी ,
नमस्कार....

पहले कमेंट्स पढ़े होते तो और बात हो जाती.....लिंक खुलते ही ग़ालिब के ख़त पढने को मिले...और हम एक एक कर पढ़ते चले गए...
इन्हीं में इतना डूब गए की कोई होश नहीं रहा...

फिर कुछ और कहने सुनने का मन ही नहीं हुआ..बस....


.अरे भई, अब आप आ भी जायें और हमारे गिरोह में शामिल हो जायें तो आपका मन भी लग जायेगा...बशर्ते आप अगर हमें इतना बुरा नहीं समझते हैं तो :)



ऐसा काहे कहती हैं आप.....?

ऐसा नहीं सोचते...
avenindra said…
शन्नोजी
आपने तो हमें चोर साबित करने मैं कसर ना छोड़ी अरे भाई वो हमारे दोस्त कि आई डी थी जिस वक़्त हम अपना शेर पोस्ट कर रहे थे वो अपना मेल जांच रहा था मेरे लैपटॉप पे,, इसीलिए वो शेर उसके आई डी से पोस्ट हो गया !
आपके गिरोह मैं लोग बढ़ते जा रहे हैं और आपकी शोले हित होने वाली है एकाध संवाद बोल ही देता हूँ
ऐ ज़िन्दगी एक एहद मांगता हूँ तुझसे
फ़िर येही खेल हो तो मेरे साथ ना हो (स्वरचित )
neelam said…
ab chor -sipaahi khelna bandkaro .gabbar aa gaya hai sh.........sh .........sh ........
shanno said…
अवीन्द्र जी,
अरे..अरे..ये क्या हो गया ? लगता है अवीन्द्र जी हमसे नाराज़ हो गये..नीलम जी कहाँ हो ..मामला संभालो आकर..अरे, यहाँ कोई है? हम अकेले पड़ गये हैं. ठीक है, आपने अगर मजबूरी में I D चुराई थी तो कोई बात नहीं... हम समझे थे की आपको अक्सर किसी की I D चुराने की आदत है...अब हम आपको माफ करते हैं...और हमारे 'शोले ' के हिट करने की बात की है तो वो हिट हो या न हो...पर हमारे शेर को आपके शेर ने जरूर हिट किया है और हमारे मन को भी हिट किया है इतना की हम दुखी हो गये...( ही ही ) और हमारे गब्बर जी ने आपको दुश्मन बोला तो हम उनकी खबर लेंगे..वो थोड़ी देर को आकर धमकातीं सबको....फिर गायब हो जाती हैं...और हम पर सब भार डाल देती हैं..तो अब आपका मन दुखी किया..अब हम उनको धमकायेंगे...... क्यों रे गब्बर, अवीन्द्र जी को दुश्मन बोला..तो अब बोलो फिर ...'' इनके साथ क्या सलूक किया जाये, छोड़ दिया जाये की साथ लिया जाये ''..हा हा हा हाह...देखा हमने उनको कैसे डांटा..अब आप भी सफ़ेद झंडी दिखाइये..हाँ, अब ये हुई न बात...आपको हम सबके साथ टीम में शामिल करते हैं. अब आप अपना मुँह लटका कर यहाँ ना आयें...ख़ुशी-ख़ुशी आयें और अपने शेरो को भी लायें....असल में नीलम जी दिल की बुरी नहीं हैं पर उनको फिट पड़ने लगे थे गब्बर होने के...जबसे उन्होंने ' शोले ' मूवी देखी..वो अपने को गब्बर समझने लगीं ..गब्बर का भूत सवार हो गया..और अब वो गब्बर की तरह हो गयीं हैं बिलकुल...अब सुधरने का कोई चांस ही नहीं..( सिवा इसके की उनको पागलखाना भेजा जाये )...अब ये बातें आप उनको मत बताना वर्ना हमारा क्या होगा फिर...आप कहेंगे की होगा क्या...बस वो हमको गुस्से में आकर शूट कर देंगीं...क्यों की अपने को गब्बर जो समझती हैं...और फिर हम गये काम से...हाहा...
और मनु जी,
और आप ऐसा क्यों कहते की ' ऐसा काहे को सोचते हम '..क्यों नहीं सोचेंगे हम..अरे आप तो हमारी टीम के ही हैं..फिर भी मुँह लटकाके..उदास होके चले गये...आप आयें जरूर और सुमीत जी का पता मालूम हो तो..उनको भी घसीट लायें साथ में...
अब आप लोगों को मनाने के चक्कर में इस बार भी एक शेर हमने लिख मारा...अब तन्हा जी को फिर अपना सर खुजाते हुये इसको पढ़ना होगा...हमें तो अपने शेर खुद ही समझ में नहीं आतेइसीलिये यहाँ पढ़वाने को ले आते हैं..

यह कैसी है अहद
कोई रूठा है शायद
अब मनाने की भी
तो कोई होती है हद.

-शन्नो

अब जो कहना था सो कह लिया...सब लोग अपना ख्याल रखियेगा....खुदा हाफिज़
avenindra said…
शन्नो जी
आपकी हंसी भरे दुःख को देख कर मेरा मन हल्का हो गया वर्ना ठाकुर तो बहुत दुखी था
अब जिसके हाथ ही नहीं उसे चोर कहना ....बहुत ना इंसाफी हे ये !!!!
वैसे गब्बर हनारे दुश्मन नहीं ! दुश्मन तो हमारे सुफेद बाल हैं अर्ज़ किया है --
वो जब से उम्र कि बदरिया सफ़ेद हो गयी
एहदे वफ़ा तो छोड़ो मुस्कुराता नहीं कोई (स्वरचित )
shanno said…
This post has been removed by the author.
shanno said…
अवीन्द्र जी....तन्हा जी की महफ़िल में आपने जो मजमून पढ़ा आकर अपनी ठकुराइन के लिये....( आपके लाजबाब शेर के बारे में बात कर रही हूँ ) तो हम उसके बारे में कुछ बोलना तो चाहते हैं पर...हा हा हा हा हा हा हा हा हा ह्ह्ह्हह्हह्ह्ह आह्ह....हँसी के मार बोल नहीं निकल रहे...तो अब कहीं जाके अपनी हँसी रोकूँ...लगता है की तन्हा जी भी कहीं गुम हो गये हैं...
sumit said…
manu bhai aap kahan they itne samay se???????
sumit said…
neelam jee aur shanno jee

aaj kal thoda busy hoon isliye time nahi nikal pa raha mehfil mei aane ka..

aaj thoda time mila to mehfil mei aa gaya..

aaj ka shabd hai 'ahad' par sher yaad nahi agli mehfil mei miklenge..

bbye take care..
sumit said…
nahi neelam jee main angrejo k jamane ka jailer nahi.. aaj ke jamane ka vakil hoon :-)
shanno said…
अरे वाह ! वाह ! हमारे सुमीत जी भी अब आ गये...क्या बात है. :) उस ऊपर वाले के यहाँ देर है पर अंधेर नहीं है....सही है ना? अब इनके आने की ख़ुशी में और नीलम जी के अंदाज़ पर एक शेर और आ गया दिमाग में जो आप सब की खिदमत में हाजिर है...

न जाने कितने ही गब्बर के क़दमों में सड़ गये
हम जो आये तो हमारी जान के लाले पड़ गये
अहद का जुनून कुछ ऐसा चढ़ा उस गब्बर पर
नाचते - नाचते बसंती के पैरों में छाले पड़ गये.

-शन्नो

जल्दी से भाग जाऊँ यहाँ से...इसके पहले की गब्बर साहिबा हमें पकड़ ले...वैसे भी लगता है की वह हमसे अब नाराज हैं...हे हे.. और अगर कुछ हमको धमकाया भी तो सुमीत जी आप वकील हैं हमको बचा लेना आप...क्या कुछ बोले आप...? ठीक है.. बाइ...बाइ...
neelam said…
बहुत नाइंसाफी है ...............................सरदार के सामने ईईईईईईइ मजाल इ शन्नो जी (हमको पागल खाने में पहुंचाने की कोसिस )
सुमित बहुत अच्छा बच्चा है ,सरकार इनाम रखी है गब्बर के ऊपर ,सुमित जी इनाम की रकम बढ्वायिये सरकार से बात करके,बाद में आधा आधा बाट लेंगे ..............
शन्नो जी को पागल समझने दो ,उसी में हम सब की भलाई है,
ठाकुर साहब आप कब्र में भी साँसे लेते रहते हैं उनकी मजबूरियां सुनने के लिए भाई शायर हो तो आप के जैसा .


अब जरा थोड़ी संजीदा बाते भी हो जाएँ ,ग़ालिब जी की बदहाली उनके आखिरी दिनों में से तो वाकिफ़ थे ,पर इस खस्ताहाल जिन्दगी से वाबस्ता कतई नहीं थे ,जो खुद उनके ख़तों से पता लगती है ,
और वो छापे भी गए हैं ,इन बातों से भी हम अनजान थे ,शुक्रिया बीडी (v.d )..

ग़ालिब -ए खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं

पर हैं कुछ लोग आज के दौर में भी जो उनके दुःख को सीने से लगाए घूमते हैं ...........हमारा इशारा तो आप सब समझ ही गए होंगे .
shanno said…
हाहाहा हा, सरदार गब्बर जी ( नीलम साहिबा, हाँ...ये आप वाली हँसी हँस रही हूँ आपको खुस करने को ) :)
आपका ही इंतज़ार था सबको की आप अपनी बन्दूक उठाये आ रहे होंगे...लेकिन अब ये कैसी मजाल है आपकी की..ठाकुर को आँख दिखाते फिर कोसते उसको...वो काँपने लगता है फिर....और आप सुमीत को वकील होने पर भी बेईमानी करने को बोलते फिर उसको जेल में ठूंस देंगे सब और आप...जंगल में फिर गायब हो जायेंगे...और दुखी मनु जी की तरफ इशारा करके उनका राज़ खोलते उनकी दुखती रग को और दुखाते...ये कहाँ का इन्साफ है..?...आप अपने दिमाग का ..मेरा मतलब है ..चेक अप कराइये इसी में हम सबकी भलाई या ना भलाई है...अब और कुछ अधिक नहीं बोलना..कोई मुसीबत नहीं लेनी..आप ' शोले ' की शूटिंग करो..मैं चलती अब...ठाकुर को राम..राम...लेकिन हम क्या करें अपनी आदत से मजबूर हैं की बिना शे'र लाये मन नहीं मानता तो कुछ भी हो..अब दो शे'रों को और पचाना होगा तन्हा जी को...तो फिर उनको शूट करती हूँ अब....क्या कहना है आपका सरदार...क्या गूंगे हो गये आप ?...बोलो ना....ठीक है...नहीं भी बोलो तब भी शूट तो करना ही है अब...
१.
अहदे वफ़ा के बिना जिन्दगी कोरा सफा है
फिर भी ना कोई नुकसान न कोई नफा है.
२.
बिन बात जिन्दगी यूँ ही खफा नहीं होती है
अहद के नाम पर कोई जफ़ा नहीं होती है
किसी की साँसों में बसता है कोई मर के भी
जिन्दगी में मोहब्बत हर दफा नहीं होती है.

-शन्नो

अब मैं गायब होती हूँ और फिर मिलती हूँ अगले हफ्ते..वर्ना मेरे शे'र हर बार मेरे साथ आकर सबको परेशान करेंगे...खुदा हाफिज..
avenindra said…
रामू (शन्नोजी ) क़ी नयी शोले के लिए लिखा hai जिसमे जय गब्बर बन बैठा
नीलमजी ठाकुर तो ऐसा ही है कब्र में भी दम रखता है अगली पीढ़ी का कायदा नीचे लिखा है
ठिकाना है जहाँ सबका उनका भी हमारा भी
उठेगा एक दिन डेरा उनका भी हमारा भी
एहद कर ले... फ़िर ज़फ़ा करे, वफ़ा करे
घटेगा क्या जहाँ वाले उनका भी हमारा भी (स्वरचित )
pooja said…
दीपक जी,
ग़ालिब के जीवन से जुडी तमाम बातें एकत्रित कर बेहतरीन आलेख रूप में प्रस्तुत करने और हम सब को उनकी गज़लें सुनवाने का बहुत बहुत शुक्रिया.
ग़ालिब के ख़त उनकी निजी जिंदगी के अलावा उस वक़्त के तमाम हालात बयाँ कर रहे हैं.

नीलम जी,
आप इतनी मीठी हैं कि आपकी मधुर वाणी सुनकर पत्थर दिल भी पिघल जाये.... और मुझे यकीन है कि आपकी बन्दूक में से भी गोलियों की जगह फूल निकलते होंगे..... मतलब रोल तो गब्बर का ही है पर फिर भी नहीं है.....
शन्नो जी ने भी होली पर इतनी मिठाई खाई और खिलाई है कि अब तक उनका नाम लेते ही सब कुछ मीठा हो जाता है :) ...... इसलिए देख लीजिये, उनकी धमकियों में भी मिठास प्रतीत हो रही है :)
और बाकी बचे हुये आप के gang के लोग भी एस प्रभाव (मीठा स्वाभाव) से वंचित नहीं रह सकते.... :)
Manju Gupta said…
आदरणीय विश्व जी
नमस्ते
अहद का अर्थ बता दीजिए . तभी लिख पाउंगी .
मंजु जी, अहद का अर्थ होता है - "प्रतिज्ञा/वादा"

आपको किसी भी शब्द का अर्थ न मालूम हो तो यहाँ से जान सकती हैं। जैसे कि अहद का अर्थ मुझे इस तरह मालूम हुआ:

http://www.ebazm.com/cgi/dict/db.cgi?db=default&uid=default&Urdu=ahad&English=&Hindi=&view_records=View+Records

धन्यवाद,
विश्व दीपक
साईट का पता है:

http://www.ebazm.com/dictionary.htm
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Manju Gupta said…
नमस्ते विश्व दीपक जी
वेब मैने लिख ली है .आपने मुश्किल हल कर दी है.
धन्यवाद .
जवाब -अहद
शेर हाजिर है -
निभानी नहीं आती उसे रस्म अहद वफा की ,
टूटती हैं चूडियाँ हर दिन बेवफाई से .

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