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कहीं दूर जब जब दिन ढल जाए....ऐसे मधुर गीत होठों पे आये....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 131

ल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप ने १९६१ में बनी फ़िल्म 'प्यासे पंछी' का गीत सुना था। आइये आज एक लम्बी छलांग लगा कर १० साल आगे को निकल आते हैं। यानी कि सन् १९७१ में। दोस्तों, यही वह साल था जिसमें बनी थी ऋषिकेश मुखर्जी की कालजयी फ़िल्म 'आनंद'। इस फ़िल्म ने लोगों के दिलों पर कुछ इस क़दर छाप छोड़ी है कि आज लगभग ४ दशक बाद भी जब यह फ़िल्म टी.वी. पर आती है तो लोग उसे बड़े प्यार और भावुकता से देखते हैं। 'आनंद' कहानी है आनंद सहगल (राजेश खन्ना) की, जो एक कैंसर का मरीज़ हैं, और यह जानते हुए भी कि वह यहाँ पर चंद रोज़ का ही मेहमान है, न केवल अपनी बची हुई ज़िंदगी को पूरे जोश और आनंद से जीता है बल्कि दूसरों को भी उतना ही आनंद प्रदान करता है। ठीक विपरीत स्वभाव के हैं भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन), जो उनके डौक्टर हैं, जो देश की दुरवस्था को देख कर हमेशा नाराज़ रहते हैं। आनंद से रोज़ रोज़ की मुलाक़ातें और नोंक-झोंक डा. भास्कर को ज़िंदगी के दुख तक़लीफ़ों के पीछे छुपी हुई ख़ुशियों के रंगों से अवगत कराती है। अपनी चारों तरफ़ ढेर सारी ख़ुशियाँ बिखेर कर, अपने आस पास के कई ज़िंदगियों को आबाद कर, आनंद इस दुनिया को छोड़ जाता है, जो डा. भास्कर को उस पर एक क़िताब लिखने की प्रेरणा देता है। 'आनंद' की मूल कहानी को लिखा था ख़ुद ऋषिकेश मुखर्जी ने, और फ़िल्म के लिये विस्तृत लेखन का काम किया था बिमल दत्त, डी. एन. मुखर्जी, बीरेन त्रिपाठी और गुलज़ार ने। फ़िल्म का निर्माण एन. सी. सिप्पी और ऋषि दा ने मिलकर किया था। फ़िल्म के संगीतकार थे सलिल दा, यानी कि सलिल चौधरी। फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि इसमें ज़्यादा गीतों की गुंजाइश नहीं थी। ज़बरदस्ती अगर गानें डाले जाते तो वह फ़िल्म के हित में नहीं होते। इसलिए ऋषि दा ने फ़िल्म में केवल चार गानें रखे, और उल्लेखनीय बात यह है कि इन चारों गीतों ने अपार लोकप्रियता हासिल की। ये चारों गानें ऐसे हैं कि इन्हे लोकप्रियता या गुणवत्ता की दृष्टि से क्रम नहीं दिया जा सकता। तो जनाब, आज के लिए हमें इस फ़िल्म का एक गीत चुनना था, तो हम ने चुना, उम्मीद है आप भी शायद इसी गीत को सुनना चाह रहे होंगे।

"कहीं दूर जब दिन ढल जाये, चाँद सी दुल्हन बदन चुराये चुपके से आये"। मुकेश की आवाज़ में यह गीत लिखा था गीतकार योगेश ने। शुद्ध हिंदी में गीत लिखने में माहिर गीतकारों की बात करें तो जो परम्परा कवि प्रदीप, पं. नरेन्द्र शर्मा, जी. एस. नेपाली और भरत व्यास जैसे गीतकारों ने शुरु की थी, आगे चलकर योगेश ने भी वही राह अपनाई। वैसे 'आनंद' फ़िल्म के जो दो गीत उन्होने लिखे (दूसरा गीत था "ना जिया लागे ना"), उनमें शुद्ध हिंदी का क्यों प्रयोग हुआ, वह बात योगेश जी ने विविध भारती के एक पुराने कार्यक्रम में कहा था, उन्ही के शब्दों में पढ़िये - "सलिल दा के जो काम्पोसिशन्स होते थे, उनमें उर्दू के शब्दों की गुंजाइश नहीं होती थी। उनकी धुनें ऐसी होती थीं कि उर्दू के शब्द उसमें फ़िट नहीं हो सकते। पहले वहाँ शैलेन्द्र जी लिखते थे, जो सीधे सरल शब्दों में गहरी बात कह जाते थे। एक और बात, मैं तो सलिल दा से यह कह चुका हूँ कि अगर वे संगीत के बजाये लेखन की तरफ़ ध्यान देते तो रबींद्रनाथ ठाकुर के बाद उन्ही की कवितायें जगह जगह गूँजते।" दोस्तों, प्रस्तुत गीत भी किसी ख़ूबसूरत कविता से कम नहीं है। इसके बारे में और ज़्यादा कुछ कहने से बेहतर यही है कि इसे तुरंत सुना जाये!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. गिनी चुनी महिला संगीतकारों में से एक उषा खन्ना का स्वरबद्ध है ये गीत.
2. बहुत खूबसूरत लिखा है इसे जावेद अनवर ने.
3. एक अंतरे की पहली चार पंक्तियों में ये दो शब्द हैं - "तस्कीन" और "जिन्दगी".

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी 34 अंकों के लिए एक बार फिर बधाई. एकदम सही जवाब. स्वप्न जी बस जरा सा पीछे रह गयी. आज महिला संगीतकार की बात है आज देखते हैं कौन बाज़ी मारता है. मुकाबला बहुत दिलचस्प हो चुका है. दिशा जी, पराग जी, संगीता जी, और मनु जी आप सब को भी बधाईयाँ.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

'अदा' said…
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'अदा' said…
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maine rakkha hai mohabbat apne afsaane ka naam tum bhi kuchh acchha sa.. film shabnam mohd.rafi
Dil pe tum haath jo rakh do meri taskeen ho jaye janeman zindagi meri kuchh to rangeen ho jaye.
'अदा' said…
apne liye jeeye to kya jiye
'अदा' said…
aapne sahi bataya hai sharad ji badhai hi badhai, main is geet ko bilkul nahi pehchaan payi
माफ करें अदा जी को दिशा जी लिख गया
दिशा जी
अपने लिए जिए तो क्या .. के गीतकार जावेद अख्तर है जैसा कि मुझे याद है । बहुत पहले काका हाथरसी ने मैनें रक्खा है.. कि पैरोडी बनाई थी मैनें रक्खा हुडक्चुल्लू अपने दीवाने का नाम तुम भी रख सकती हो उल्लू अपने पर्वाने का नाम ..
'अदा' said…
bahut jaldi bhool rahein mujhe sharad ji
'अदा' said…
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manu said…
शरद जी वाला गाना सही है,,,
तुम्हें पहचाना है,
खुदा को समझा है,,
खुदा को जाना है,,
avadh lal said…
Sujoyji ke aalekh mein yah kahna ki Salilda ka lekhan bhi atyant prabhavshali ho sakta tha sach lagta hai. Jahan tak main samajhta hoon unhonen kuchh kahaniyan bhi likhi thi jaise Bimalda ki Film Parakh ki kahani bhi Salilda ki hi thi.
Avadh Lal
Shamikh Faraz said…
मनु जी अगर शरद जी वाला गाना सही है तो शरद जी को बधाई.
Manju Gupta said…
हाआआआआआआ नहीं पता.

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