महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३०
"महफ़िल-ए-गज़ल" के २५वें वसंत (यूँ तो वसंत साल में एक बार हीं आता है, लेकिन हम ने उसे हफ़्ते में दो बार आने को विवश कर दिया है) पर हमने कुछ नया करने का सोचा, सोचा कि क्यों ना अपनी और अपने पाठकों की याद्दाश्त की मालिश की जाए। गौरतलब है कि हम हर बार एक ऐसी गज़ल या गैर फिल्मी नज़्म लेकर हाज़िर होते हैं, जिसे जमाना भुला चुका है या फिर भुलाता जा रहा है। आज कल नए-नए वाद्ययंत्रों की बाढ-सी आ गई है और उस बाढ में सच्चे और अच्छे शब्द गुम होते जा रहे हैं। इन्हीं शब्दों, इन्हीं लफ़्ज़ों को हमें संभाल कर रखना है। तो फिर गज़लों से बढिया खजाना कहाँ मिलेगा, जहाँ शुद्ध संगीत भी है, पाक गायन भी है तो बेमिसाल लफ़्ज़ भी हैं। इसलिए हमारा यह फ़र्ज़ बनता है कि ऐसी गज़लों, ऐसी नज़्मों को न सिर्फ़ एक बार सुने बल्कि बार-बार सुनते रहें। फिर जिन फ़नकारों ने इन गज़लों की रचना की है,उनके बारें में जानना भी तो ज़रूरी है और बस जानना हीं नहीं उन्हें याद रखना भी। अब हम तो एक कड़ी में एक फ़नकार के बारे में बता देते हैं और फिर आगे बढ जाते हैं। अगर हमें उन फ़नकारों को याद रखना है तो कुछ अंतराल पर हमें पीछे भी मुड़ना होगा और बीती कड़ियों की सैर करनी होगी। यही एक वज़ह थी कि हमने २५वें एपिसोड से पिछले एपिसोड तक प्रश्नों की श्रृंखला चलाई थी और यकीन मानिए, उन प्रश्नों का हमें बहुत फ़ायदा हुआ..यकीनन आप सबको भी असर तो दिखा हीं होगा। तो इन पाँच कड़ियों के बीत जाने के बाद हमें अपना विजेता भी मिल गया है। हमने तो यह सोचा था कि विजेता एक होगा, जिससे हम तीन गज़लों की माँग करेंगे और उन गज़लों को ३१वें एपिसोड से ३५वें एपिसोड के बीच में सुनवाएँगे। लेकिन यहाँ तो दो-दो लोग जीत गए हैं। इसलिए हम अपनी पुरानी बात पर अडिग तो नहीं रह सकते,लेकिन वादा भी तो नहीं तोड़ा जा सकता। सारी स्थिति को देखते हुए, हमने यह निर्णय लिया है कि "शरद" जी और "दिशा" जी हमें अपनी पसंद की पाँच-पाँच गज़लों का नाम(हो सके तो एलबम का नाम या फिर फ़नकार का नाम भी) भेज दें, हाँ ध्यान यह रखें कि उन गज़लों में कुछ न कुछ भिन्नता जरूर हो ताकि हर एपिसोड में हमें एक हीं बात न लिखनी पड़े(आखिर उन गज़लों के बारे में हमें जानकारी भी तो देनी है) , फिर उन ५-५ गज़लों में से हम ३-३ उन गज़लों का चुनाव करेंगे जो आसानी से हमें उपलब्ध हो जाएँ और इस तरह जमा हुए इन ६ गज़लों को ३२वें से ४०वें एपिसोड के बीच महफ़िल-ए-गज़ल में पेश करेंगे। तो हम अपने दोनों विजेताओं से यह दरख्वास्त करते हैं कि वे गज़लों (या कोई भी गैर फ़िल्मी नज़्म) की फ़ेहरिश्त hindyugm@gmail.com पर जितनी जल्दी हो सके, मेल कर दें। गज़लें किस क्रम में पोस्ट की जाएँगी, इसका निर्णय पूर्णत: हमारा होगा, ताकि कुछ न कुछ तो सरप्राइज एलिमेंट बचा रहे।
चलिए अब हम अपने पुराने रंग में वापस आते हैं और एक नई गज़ल से अपनी इस महफ़िल को सजाते हैं। आज की गज़ल को हमने जिस एलबम से लिया है उसका नाम है "चंद गज़लें, चंद गीत"। इस एलबम में एक से बढकर एक गज़लें हैं,लेकिन हमने उस गज़ल का चुनाव किया है जो औरों-सी होकर भी औरों से अलग है। ऐसा क्यों है, वह आप खुद समझ जाएँगे। आज की गज़ल को अगर आप गुनगुनाएँगे तो आपको कुछ सालों पहले रीलिज हुई एक हिंदी फ़िल्म "दिल का रिश्ता" के शीर्षक गाने की याद आ जाएगी- "दिल का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है,कितना पागल ये दिल हमारा है।" ना ना- हम अर्थ में समानता की बात नहीं कर रहे, बल्कि इस गाने की धुन उस गज़ल से हू-ब-हू मिलती है, आखिर मिले भी क्यों ना, जब उसी से उठाई हुई है। नदीम-श्रवण साहबान पाकिस्तानी गीतों और गज़लों के जबर्दस्त प्रशंसक रहे हैं और इसका प्रमाण उनके कई सारे गानों की धुनों में छुपा है। मसलन "मुसर्रत नज़ीर" के "चले तो कट हीं जाएगा सफ़र" को इन दोनों ने बना दिया "तुम्हें अपना बनाने की कसम खाई है", "नुसरत" साहब के "सानु एक पल चैन न आए", "किस्सेन दा यार न विछड़े" और "किन्ना सोणा" को इन दोनों फ़नकारों ने क्रमश: "मुझे एक पल चैन न आए", "किसी का यार न बिछड़े" और "कितना प्यारा तुझे रब ने बनाया" का रूप दे दिया। गज़लों से तो इन दोनों का खासा लगाव रहा है। मल्लिका-ए-तरन्नुम "नूरजहां" के "वो मेरा हो न सका", "बेगम अख्तर" के "ऐ मोहब्बत तेरे अंज़ाम पर रोना आया" और "मेहदी हसन" साहब के "ना कोई गिला" को नए रूप में जब ढाला गया तो ये बन गए क्रमश: "दिल मेरा तोड़ दिया उसने" , "कितना प्यारा है ये चेहरा जिसपे हम मरते हैं" और "गा रहा हूँ इस महफ़िल में" । इतनी बेदर्दी से इन गज़लों का दोहन किया गया है कि सुन कर शर्म आती है, लेकिन क्या कीजिएगा पैसों की इस दुनिया में ईमानदारी का क्या मोल। और पहले तो छुप-छुपकर चोरियाँ होती थीं, लेकिन आज तो संगीतकार खुले-आम कहते हैं कि हम नहीं चाहते थे कि किसी अंग्रेजी गाने से धुन की नकल करें,क्योंकि लोगों ने वह गाना सुना होता है, इसलिए हमने यह धुन तुर्की से उठाई है तो यह धुन स्पेन से। वैसे हम भी कहाँ उलझ गए, आज की गज़ल की बात करते-करते न जाने किस भावावेश में बह निकले। जिस गज़ल को लेकर हम प्रस्तुत हुए हैं उसे अपनी आवाज़ से मक़बूल किया है "गुलाम अली" साहब ने। शायद संगीत भी उन्हीं का है। वैसे "गुलाम अली" साहब पर एक कड़ी लेकर हम पहले हीं हाज़िर हो चुके हैं, इसलिए आज की कड़ी को गज़लगो के सुपूर्द करते हैं।
८ दिसम्बर १९२५ को अंबाला में जन्मे "सैय्यद नासिर रज़ा काज़मी" छोटी बहर की गज़लों के बेताज़ बादशाह माने जाते हैं। १९४० में इन्होंने जनाब "अख्तर शेरानी" के अंदाज़ में रूमानी कविताएँ और नज़्मों की रचना शुरू की। आगे चलकर जनाब "हाफ़िज़ होशियारपुरी"(इनकी बात हमने महफ़िल-ए-गज़ल की १८वीं कड़ी में की थी, जब हमने इक़बाल बानो की आवाज़ में "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे" सुनवाया था) की शागिर्दगी में इन्होंने गज़ल-लेखन शुरू किया। "मीर तक़ी मीर" की गज़लों का इन पर गहरा असर था, इसलिए इनकी गज़लों में "अहसास-ए-महरूमी" को आसानी से महसूस किया जा सकता है। "हाफ़िज़" साहब का प्रकृति प्रेम इनकी लेखनी में भी उतर गया था। "याद के बे-निशां जज़ीरों से, तेरी आवाज़ आ रही है अभी"- इस पंक्ति में "जज़ीरों" का प्रयोग देखते हीं बनता है। "नासिर काज़मी" के बारे में कहा जाता है कि ये गज़लों को न सिर्फ़ कलम और कागज़ देते थे, बल्कि अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा भी उनके साथ पिन कर देते थे। इन्होंने ज़िन्दगी की छोटी-छोटी अनुभूतियों को ग़ज़ल का विषय बनाया और अपनी अनुभव सम्पदा से उसे समृद्ध करते हुए एक ऐसे नये रास्ते का निर्माण किया, जिस पर आज एक बड़ा काफ़िला रवाँ-दवाँ है। इनके जीवन काल में इनका सिर्फ़ एक ही ग़ज़ल संग्रह ‘बर्ग-ए-नै’ सन् १९५२ में प्रकाशित हो सका, जिसकी ग़ज़लों ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया। इनका दूसरा और महत्वपूर्ण संग्रह ‘दीवान’ इनके निधन के कुछ महीनों बाद प्रकाशित हुआ, जिसकी ग़ज़लों ने उर्दू जगत में धूम मचा दी। एक ही जमीन में कही गयी इनकी पच्चीस ग़ज़लों का संग्रह ‘पहली बारिश’ भी इनकी मृत्यु के बाद ही सामने आया। इन्होंने न सिर्फ़ गज़लें लिखीं बल्कि एक ऐसा दौर भी आया, जब गज़लों से इन्हें हल्की विरक्ति-सी हो गई । उस दौरान इन्होंने "सुर की छाया" नामक एक नाटिका की रचना की, जो पूरी की पूरी छंद में थी। गज़लों और नाटिकाओं के अलावा इन्हें दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का तर्ज़ुमा करना भी पसंद था। "वाल्ट विटमैन" के "क्रासिंग ब्रुकलिन फ़ेरि" का अनुवाद "ब्रुकलिन घाट के पार" उर्दू भाषा की एक मास्टरपिश मानी जाती है। इनके बारे में बातें करने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन आज बस इतना हीं। चलिए आगे बढने से पहले, इन्हीं का लिखा एक शेर देख लेते हैं, जिन्हें कितनों ने "गुलाम अली" साहब की आवाज़ में कई बार सुना होगा:
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ।
गुलाम अली साहब की आवाज़ की मिठास को ज्यादा देर तक थामे रखना संभव न होगा। इसलिए ज़रा भी देर किए बिना आज की गज़ल से मुखातिब होते हैं। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
दिल में इक लहर-सी उठी है अभी,
कोई ताज़ा हवा चली है अभी।
शोर बरपा है खाना-ए-दिल में,
कोई दीवार-सी गिरी है अभी।
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी,
और ये चोट भी नई है अभी।
याद के बे-निशां जज़ीरों से,
तेरी आवाज़ आ रही है अभी।
शहर की बे-चराग़ गलियों में,
ज़िंदगी तुझको ढूँढती है अभी।
कुछ शेर जो इस गज़ल में नहीं हैं:
सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
भरी दुनिया में दिल नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमीं है अभी
वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
कहीं नहीं कोई ___, धुंआ धुंआ है फिज़ा,
खुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो...
आपके विकल्प हैं -
a) दीपक, b) चाँद, c) सूरज, d) रोशनी
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "वहशत" औए शेर कुछ यूं था -
तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया...
सबसे पहले सही जवाब दिया दिशा जी ने, बधाई हो. दिशा जी ने कुछ शेर भी फरमाए -
वहशत इस कदर इंसा पर छायी है
कि जर्रे जर्रे में दहशत समायी है
कहाँ से लाऊँ अब मैं अमन का पानी
ये मुसीबत खुद ही तो बुलायी है...
बहुत खूब दिशा जी...
शरद जी ज़रा से देरी से आये पर इस शेर को सुनकर समां बाँध दिया आपने -
ग़म मुझे, हसरत मुझे, वहशत मुझे, सौदा मुझे,
एक दिल देके खुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे ।
वाह...
शमिख जी आपने बिलकुल सही पहचाना, साहिर साहब को सलाम...वाह क्या ग़ज़ल याद दिलाई आपने ख़ास कर ये शेर तो लाजवाब है -
फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं
मंजू जी ने अपने शेर में महफिल-ए-ग़ज़ल की ही तारीफ कर डाली, शुक्रिया आपका...और अंत में हम आपको छोड़ते हैं वहशत शब्द पर कहे मनु जी के बड़े अंकल और हम सबके चाचा ग़ालिब के इस सदाबहार शेर के साथ...
इश्क मुझको नहीं 'वहशत' ही सही
मेरी 'वहशत' तेरी शोहरत ही सही...
वाह....मनु जी आप बीच का एक एपिसोड भूल गए...अरे जनाब कहाँ रहता है आपका ध्यान आजकल.....चलिए अब आनंद लीजिये आज की महफिल का, और हमें दीजिये इजाज़त अगले मंगलवार तक.खुदा हाफिज़.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
"महफ़िल-ए-गज़ल" के २५वें वसंत (यूँ तो वसंत साल में एक बार हीं आता है, लेकिन हम ने उसे हफ़्ते में दो बार आने को विवश कर दिया है) पर हमने कुछ नया करने का सोचा, सोचा कि क्यों ना अपनी और अपने पाठकों की याद्दाश्त की मालिश की जाए। गौरतलब है कि हम हर बार एक ऐसी गज़ल या गैर फिल्मी नज़्म लेकर हाज़िर होते हैं, जिसे जमाना भुला चुका है या फिर भुलाता जा रहा है। आज कल नए-नए वाद्ययंत्रों की बाढ-सी आ गई है और उस बाढ में सच्चे और अच्छे शब्द गुम होते जा रहे हैं। इन्हीं शब्दों, इन्हीं लफ़्ज़ों को हमें संभाल कर रखना है। तो फिर गज़लों से बढिया खजाना कहाँ मिलेगा, जहाँ शुद्ध संगीत भी है, पाक गायन भी है तो बेमिसाल लफ़्ज़ भी हैं। इसलिए हमारा यह फ़र्ज़ बनता है कि ऐसी गज़लों, ऐसी नज़्मों को न सिर्फ़ एक बार सुने बल्कि बार-बार सुनते रहें। फिर जिन फ़नकारों ने इन गज़लों की रचना की है,उनके बारें में जानना भी तो ज़रूरी है और बस जानना हीं नहीं उन्हें याद रखना भी। अब हम तो एक कड़ी में एक फ़नकार के बारे में बता देते हैं और फिर आगे बढ जाते हैं। अगर हमें उन फ़नकारों को याद रखना है तो कुछ अंतराल पर हमें पीछे भी मुड़ना होगा और बीती कड़ियों की सैर करनी होगी। यही एक वज़ह थी कि हमने २५वें एपिसोड से पिछले एपिसोड तक प्रश्नों की श्रृंखला चलाई थी और यकीन मानिए, उन प्रश्नों का हमें बहुत फ़ायदा हुआ..यकीनन आप सबको भी असर तो दिखा हीं होगा। तो इन पाँच कड़ियों के बीत जाने के बाद हमें अपना विजेता भी मिल गया है। हमने तो यह सोचा था कि विजेता एक होगा, जिससे हम तीन गज़लों की माँग करेंगे और उन गज़लों को ३१वें एपिसोड से ३५वें एपिसोड के बीच में सुनवाएँगे। लेकिन यहाँ तो दो-दो लोग जीत गए हैं। इसलिए हम अपनी पुरानी बात पर अडिग तो नहीं रह सकते,लेकिन वादा भी तो नहीं तोड़ा जा सकता। सारी स्थिति को देखते हुए, हमने यह निर्णय लिया है कि "शरद" जी और "दिशा" जी हमें अपनी पसंद की पाँच-पाँच गज़लों का नाम(हो सके तो एलबम का नाम या फिर फ़नकार का नाम भी) भेज दें, हाँ ध्यान यह रखें कि उन गज़लों में कुछ न कुछ भिन्नता जरूर हो ताकि हर एपिसोड में हमें एक हीं बात न लिखनी पड़े(आखिर उन गज़लों के बारे में हमें जानकारी भी तो देनी है) , फिर उन ५-५ गज़लों में से हम ३-३ उन गज़लों का चुनाव करेंगे जो आसानी से हमें उपलब्ध हो जाएँ और इस तरह जमा हुए इन ६ गज़लों को ३२वें से ४०वें एपिसोड के बीच महफ़िल-ए-गज़ल में पेश करेंगे। तो हम अपने दोनों विजेताओं से यह दरख्वास्त करते हैं कि वे गज़लों (या कोई भी गैर फ़िल्मी नज़्म) की फ़ेहरिश्त hindyugm@gmail.com पर जितनी जल्दी हो सके, मेल कर दें। गज़लें किस क्रम में पोस्ट की जाएँगी, इसका निर्णय पूर्णत: हमारा होगा, ताकि कुछ न कुछ तो सरप्राइज एलिमेंट बचा रहे।
चलिए अब हम अपने पुराने रंग में वापस आते हैं और एक नई गज़ल से अपनी इस महफ़िल को सजाते हैं। आज की गज़ल को हमने जिस एलबम से लिया है उसका नाम है "चंद गज़लें, चंद गीत"। इस एलबम में एक से बढकर एक गज़लें हैं,लेकिन हमने उस गज़ल का चुनाव किया है जो औरों-सी होकर भी औरों से अलग है। ऐसा क्यों है, वह आप खुद समझ जाएँगे। आज की गज़ल को अगर आप गुनगुनाएँगे तो आपको कुछ सालों पहले रीलिज हुई एक हिंदी फ़िल्म "दिल का रिश्ता" के शीर्षक गाने की याद आ जाएगी- "दिल का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है,कितना पागल ये दिल हमारा है।" ना ना- हम अर्थ में समानता की बात नहीं कर रहे, बल्कि इस गाने की धुन उस गज़ल से हू-ब-हू मिलती है, आखिर मिले भी क्यों ना, जब उसी से उठाई हुई है। नदीम-श्रवण साहबान पाकिस्तानी गीतों और गज़लों के जबर्दस्त प्रशंसक रहे हैं और इसका प्रमाण उनके कई सारे गानों की धुनों में छुपा है। मसलन "मुसर्रत नज़ीर" के "चले तो कट हीं जाएगा सफ़र" को इन दोनों ने बना दिया "तुम्हें अपना बनाने की कसम खाई है", "नुसरत" साहब के "सानु एक पल चैन न आए", "किस्सेन दा यार न विछड़े" और "किन्ना सोणा" को इन दोनों फ़नकारों ने क्रमश: "मुझे एक पल चैन न आए", "किसी का यार न बिछड़े" और "कितना प्यारा तुझे रब ने बनाया" का रूप दे दिया। गज़लों से तो इन दोनों का खासा लगाव रहा है। मल्लिका-ए-तरन्नुम "नूरजहां" के "वो मेरा हो न सका", "बेगम अख्तर" के "ऐ मोहब्बत तेरे अंज़ाम पर रोना आया" और "मेहदी हसन" साहब के "ना कोई गिला" को नए रूप में जब ढाला गया तो ये बन गए क्रमश: "दिल मेरा तोड़ दिया उसने" , "कितना प्यारा है ये चेहरा जिसपे हम मरते हैं" और "गा रहा हूँ इस महफ़िल में" । इतनी बेदर्दी से इन गज़लों का दोहन किया गया है कि सुन कर शर्म आती है, लेकिन क्या कीजिएगा पैसों की इस दुनिया में ईमानदारी का क्या मोल। और पहले तो छुप-छुपकर चोरियाँ होती थीं, लेकिन आज तो संगीतकार खुले-आम कहते हैं कि हम नहीं चाहते थे कि किसी अंग्रेजी गाने से धुन की नकल करें,क्योंकि लोगों ने वह गाना सुना होता है, इसलिए हमने यह धुन तुर्की से उठाई है तो यह धुन स्पेन से। वैसे हम भी कहाँ उलझ गए, आज की गज़ल की बात करते-करते न जाने किस भावावेश में बह निकले। जिस गज़ल को लेकर हम प्रस्तुत हुए हैं उसे अपनी आवाज़ से मक़बूल किया है "गुलाम अली" साहब ने। शायद संगीत भी उन्हीं का है। वैसे "गुलाम अली" साहब पर एक कड़ी लेकर हम पहले हीं हाज़िर हो चुके हैं, इसलिए आज की कड़ी को गज़लगो के सुपूर्द करते हैं।
८ दिसम्बर १९२५ को अंबाला में जन्मे "सैय्यद नासिर रज़ा काज़मी" छोटी बहर की गज़लों के बेताज़ बादशाह माने जाते हैं। १९४० में इन्होंने जनाब "अख्तर शेरानी" के अंदाज़ में रूमानी कविताएँ और नज़्मों की रचना शुरू की। आगे चलकर जनाब "हाफ़िज़ होशियारपुरी"(इनकी बात हमने महफ़िल-ए-गज़ल की १८वीं कड़ी में की थी, जब हमने इक़बाल बानो की आवाज़ में "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे" सुनवाया था) की शागिर्दगी में इन्होंने गज़ल-लेखन शुरू किया। "मीर तक़ी मीर" की गज़लों का इन पर गहरा असर था, इसलिए इनकी गज़लों में "अहसास-ए-महरूमी" को आसानी से महसूस किया जा सकता है। "हाफ़िज़" साहब का प्रकृति प्रेम इनकी लेखनी में भी उतर गया था। "याद के बे-निशां जज़ीरों से, तेरी आवाज़ आ रही है अभी"- इस पंक्ति में "जज़ीरों" का प्रयोग देखते हीं बनता है। "नासिर काज़मी" के बारे में कहा जाता है कि ये गज़लों को न सिर्फ़ कलम और कागज़ देते थे, बल्कि अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा भी उनके साथ पिन कर देते थे। इन्होंने ज़िन्दगी की छोटी-छोटी अनुभूतियों को ग़ज़ल का विषय बनाया और अपनी अनुभव सम्पदा से उसे समृद्ध करते हुए एक ऐसे नये रास्ते का निर्माण किया, जिस पर आज एक बड़ा काफ़िला रवाँ-दवाँ है। इनके जीवन काल में इनका सिर्फ़ एक ही ग़ज़ल संग्रह ‘बर्ग-ए-नै’ सन् १९५२ में प्रकाशित हो सका, जिसकी ग़ज़लों ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया। इनका दूसरा और महत्वपूर्ण संग्रह ‘दीवान’ इनके निधन के कुछ महीनों बाद प्रकाशित हुआ, जिसकी ग़ज़लों ने उर्दू जगत में धूम मचा दी। एक ही जमीन में कही गयी इनकी पच्चीस ग़ज़लों का संग्रह ‘पहली बारिश’ भी इनकी मृत्यु के बाद ही सामने आया। इन्होंने न सिर्फ़ गज़लें लिखीं बल्कि एक ऐसा दौर भी आया, जब गज़लों से इन्हें हल्की विरक्ति-सी हो गई । उस दौरान इन्होंने "सुर की छाया" नामक एक नाटिका की रचना की, जो पूरी की पूरी छंद में थी। गज़लों और नाटिकाओं के अलावा इन्हें दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का तर्ज़ुमा करना भी पसंद था। "वाल्ट विटमैन" के "क्रासिंग ब्रुकलिन फ़ेरि" का अनुवाद "ब्रुकलिन घाट के पार" उर्दू भाषा की एक मास्टरपिश मानी जाती है। इनके बारे में बातें करने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन आज बस इतना हीं। चलिए आगे बढने से पहले, इन्हीं का लिखा एक शेर देख लेते हैं, जिन्हें कितनों ने "गुलाम अली" साहब की आवाज़ में कई बार सुना होगा:
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ।
गुलाम अली साहब की आवाज़ की मिठास को ज्यादा देर तक थामे रखना संभव न होगा। इसलिए ज़रा भी देर किए बिना आज की गज़ल से मुखातिब होते हैं। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
दिल में इक लहर-सी उठी है अभी,
कोई ताज़ा हवा चली है अभी।
शोर बरपा है खाना-ए-दिल में,
कोई दीवार-सी गिरी है अभी।
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी,
और ये चोट भी नई है अभी।
याद के बे-निशां जज़ीरों से,
तेरी आवाज़ आ रही है अभी।
शहर की बे-चराग़ गलियों में,
ज़िंदगी तुझको ढूँढती है अभी।
कुछ शेर जो इस गज़ल में नहीं हैं:
सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
भरी दुनिया में दिल नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमीं है अभी
वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
कहीं नहीं कोई ___, धुंआ धुंआ है फिज़ा,
खुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो...
आपके विकल्प हैं -
a) दीपक, b) चाँद, c) सूरज, d) रोशनी
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "वहशत" औए शेर कुछ यूं था -
तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया...
सबसे पहले सही जवाब दिया दिशा जी ने, बधाई हो. दिशा जी ने कुछ शेर भी फरमाए -
वहशत इस कदर इंसा पर छायी है
कि जर्रे जर्रे में दहशत समायी है
कहाँ से लाऊँ अब मैं अमन का पानी
ये मुसीबत खुद ही तो बुलायी है...
बहुत खूब दिशा जी...
शरद जी ज़रा से देरी से आये पर इस शेर को सुनकर समां बाँध दिया आपने -
ग़म मुझे, हसरत मुझे, वहशत मुझे, सौदा मुझे,
एक दिल देके खुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे ।
वाह...
शमिख जी आपने बिलकुल सही पहचाना, साहिर साहब को सलाम...वाह क्या ग़ज़ल याद दिलाई आपने ख़ास कर ये शेर तो लाजवाब है -
फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं
मंजू जी ने अपने शेर में महफिल-ए-ग़ज़ल की ही तारीफ कर डाली, शुक्रिया आपका...और अंत में हम आपको छोड़ते हैं वहशत शब्द पर कहे मनु जी के बड़े अंकल और हम सबके चाचा ग़ालिब के इस सदाबहार शेर के साथ...
इश्क मुझको नहीं 'वहशत' ही सही
मेरी 'वहशत' तेरी शोहरत ही सही...
वाह....मनु जी आप बीच का एक एपिसोड भूल गए...अरे जनाब कहाँ रहता है आपका ध्यान आजकल.....चलिए अब आनंद लीजिये आज की महफिल का, और हमें दीजिये इजाज़त अगले मंगलवार तक.खुदा हाफिज़.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
’कोई सुराग पाएं किसी यार-ए-नामबर का
हर अजनबी से पूछें जो पता था तेरे घर क” ।
शेर(स्वरचित)
गर न चमके सूरज तो दुनिया में रोशनी कहाँ होगी
न तो सुबह का नाम बचेगा न चाँद में चाँदनी रहेगी
स्व रचित कविता है -राह दिखता सूरज जग को , रीति,नीति ,विवेक बतलाता .
सत्य ,नियम आनुसाशन का पालन , जीवन को सफल बनता
सुराग रखने से वजन गिरेगा शे'र का....
यार बना कर मुझ को सीढी, तू बेशक सूरज हो जा..........
देख ज़रा मेरी भी जानिब, मुझको भी कुछ बख्श जलाल...
अभी सूरज उधर ही चल पड़ा है हाथ फैलाए
हमारा दूसरा कमेंट ..दुसरे शे'र के लिए..
और अपने सुमित भाई के तीन-तीन.....?????????
निदा फाजली साहब का कलाम है
ग़ज़ल को चित्रा सिंह जी ने पूरी खूबसूरती से गया है
किन्तु ये शेर ग़ज़ल में शामिल नहीं है ........
शुक्रिया
मंजू जी और दिशा जी को देखकर मेरे भी मन में एक ख्याल आ रहा है कि मैं भी अपनी एक नज़्म कह दूँ जिसमे सूरज. लफ्ज़ आता है.
तेरी यादों ने पिघलाया है ऐसे
कि सूरज को छुआ हो मैंने जैसे
हाँ मैंने हर सिम्त हर तरफ से
हाँ मैंने हर लपट और कुछ निकट से.