ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 140
सन् १९२४ में इराक़ के बग़दाद में जन्मे मदन मोहन कोहली को द्वितीय विश्व युद्ध के समय फ़ौजी बनकर बंदूक थामनी पड़ी थी। लेकिन बंदूक की जगह साज़ों को थामने की उनकी बेचैनी उन्हे संगीत के क्षेत्र में आख़िरकार ले ही आयी। १९४६ में आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र में वो कार्यरत हुए और वहीं वो सम्पर्क में आये उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब और बेग़म अख्तर जैसे नामी फ़नकारों के। १९५० में देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म 'आँखें' में उन्होने बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली बार संगीत दिया। फ़िल्म 'मदहोशी' के एक गीत में उन्होने पहली बार लता मंगेशकर और तलत महमूद को एक साथ ले आये थे। १९८० में उनके संगीत से सजी फ़िल्म आयी थी 'चालबाज़'. १९५० से १९८० के इन ३० सालों में उन्होने एक से बढ़कर एक धुन बनायी और सुननेवालों को मंत्रमुग्ध किया। उनका हर गीत जैसे हम से यही कहता कि "मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो"। फ़िल्म 'नौनिहाल' के इस गीत की तरह कई अन्य गानें उनके ऐसे हैं जिनको समझने के लिए अहसास की ज़बान ही काफ़ी है। मदन मोहन के संगीत में समुन्दर सी गहराई है, रात की तन्हाई है, उनके दर्द भरे गानें भी अत्यन्त मीठे लगते हैं। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में आज सुनिये फ़िल्म 'नौनिहाल' का प्यार का राग सुनाता यही गीत। गीतकार हैं कैफ़ी आज़मी।
फ़िल्म 'नौनिहाल' बनी थी सन् १९६७ में। बलराज साहनी, संजीव कुमार और इंद्राणी मुखर्जी अभिनीत यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर ज़्यादा नहीं चली, लेकिन मदन मोहन का संगीत ज़रूर चला। यूं तो लता मंगेशकर, आशा भोंसले, उषा मंगेशकर, कमल बारोट और कृष्णा कल्ले ने इस फ़िल्म के कई गीत गाये, लेकिन रफ़ी साहब के गाये दोनों के दोनों एकल गीतों ने बाज़ी मार ली। आज इस फ़िल्म को याद किया जाता है रफ़ी साहब के गाये हुए इन दो गीतों की वजह से। एक तो है आज का प्रस्तुत गीत और दूसरा गीत है "तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साये में शाम कर लूँगा, सफ़र एक उम्र का पल में तमाम कर लूँगा"। इस गीत को कैफ़ी आज़मी ने नहीं बल्कि राजा मेहंदी अली ख़ान ने लिखा था। बहरहाल वापस आते हैं आज के गीत पर। "मेरी आवाज़ सुनो" की अवधि है ६ मिनट ४३ सेकन्ड्स। उस समय की औसत अवधि से जो काफ़ी लम्बी है। संगीत वही है जिसकी संगती दिल को मोह ले। संगीत जो सिर्फ़ कानों में ही नहीं बल्कि दिल में भी रस घोल दे। मदन मोहन की धुनों का सुरूर भी कुछ ऐसा ही है। तो लीजिये पेश है मदन साहब की एक और बेमिसाल रचना। चलने से पहले आप को यह भी बता दें कि कल है १४ जुलाई, यानी कि मदन मोहन साहब का स्मृति दिवस और इस 'मदन मोहन विशेष' की अंतिम कड़ी। तो आज की तरह कल भी 'आवाज़' के इस स्तंभ पर पधारियेगा ज़रूर!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. मदन साहब के मास्टरपीस गीतों में से एक.
2. अभिनेत्री अनीता गुहा पर फिल्माया गया है ये गीत.
3. मुखड़े की आखिरी पंक्ति में शब्द है - "घटा".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी को बधाई, ४४ अंक हो गए हैं आपके. पराग जी वाकई आपका दिल बड़ा है....मान गए. शमिख फ़राज़ और मनु जी आपका भी आभार. निर्मला जी आपकी पसंद का गीत पहले ही ओल्ड इस गोल्ड पर आ चुका है, लीजिये आप भी सुनिए यहाँ.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
सन् १९२४ में इराक़ के बग़दाद में जन्मे मदन मोहन कोहली को द्वितीय विश्व युद्ध के समय फ़ौजी बनकर बंदूक थामनी पड़ी थी। लेकिन बंदूक की जगह साज़ों को थामने की उनकी बेचैनी उन्हे संगीत के क्षेत्र में आख़िरकार ले ही आयी। १९४६ में आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र में वो कार्यरत हुए और वहीं वो सम्पर्क में आये उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब और बेग़म अख्तर जैसे नामी फ़नकारों के। १९५० में देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म 'आँखें' में उन्होने बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली बार संगीत दिया। फ़िल्म 'मदहोशी' के एक गीत में उन्होने पहली बार लता मंगेशकर और तलत महमूद को एक साथ ले आये थे। १९८० में उनके संगीत से सजी फ़िल्म आयी थी 'चालबाज़'. १९५० से १९८० के इन ३० सालों में उन्होने एक से बढ़कर एक धुन बनायी और सुननेवालों को मंत्रमुग्ध किया। उनका हर गीत जैसे हम से यही कहता कि "मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो"। फ़िल्म 'नौनिहाल' के इस गीत की तरह कई अन्य गानें उनके ऐसे हैं जिनको समझने के लिए अहसास की ज़बान ही काफ़ी है। मदन मोहन के संगीत में समुन्दर सी गहराई है, रात की तन्हाई है, उनके दर्द भरे गानें भी अत्यन्त मीठे लगते हैं। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में आज सुनिये फ़िल्म 'नौनिहाल' का प्यार का राग सुनाता यही गीत। गीतकार हैं कैफ़ी आज़मी।
फ़िल्म 'नौनिहाल' बनी थी सन् १९६७ में। बलराज साहनी, संजीव कुमार और इंद्राणी मुखर्जी अभिनीत यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर ज़्यादा नहीं चली, लेकिन मदन मोहन का संगीत ज़रूर चला। यूं तो लता मंगेशकर, आशा भोंसले, उषा मंगेशकर, कमल बारोट और कृष्णा कल्ले ने इस फ़िल्म के कई गीत गाये, लेकिन रफ़ी साहब के गाये दोनों के दोनों एकल गीतों ने बाज़ी मार ली। आज इस फ़िल्म को याद किया जाता है रफ़ी साहब के गाये हुए इन दो गीतों की वजह से। एक तो है आज का प्रस्तुत गीत और दूसरा गीत है "तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साये में शाम कर लूँगा, सफ़र एक उम्र का पल में तमाम कर लूँगा"। इस गीत को कैफ़ी आज़मी ने नहीं बल्कि राजा मेहंदी अली ख़ान ने लिखा था। बहरहाल वापस आते हैं आज के गीत पर। "मेरी आवाज़ सुनो" की अवधि है ६ मिनट ४३ सेकन्ड्स। उस समय की औसत अवधि से जो काफ़ी लम्बी है। संगीत वही है जिसकी संगती दिल को मोह ले। संगीत जो सिर्फ़ कानों में ही नहीं बल्कि दिल में भी रस घोल दे। मदन मोहन की धुनों का सुरूर भी कुछ ऐसा ही है। तो लीजिये पेश है मदन साहब की एक और बेमिसाल रचना। चलने से पहले आप को यह भी बता दें कि कल है १४ जुलाई, यानी कि मदन मोहन साहब का स्मृति दिवस और इस 'मदन मोहन विशेष' की अंतिम कड़ी। तो आज की तरह कल भी 'आवाज़' के इस स्तंभ पर पधारियेगा ज़रूर!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. मदन साहब के मास्टरपीस गीतों में से एक.
2. अभिनेत्री अनीता गुहा पर फिल्माया गया है ये गीत.
3. मुखड़े की आखिरी पंक्ति में शब्द है - "घटा".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी को बधाई, ४४ अंक हो गए हैं आपके. पराग जी वाकई आपका दिल बड़ा है....मान गए. शमिख फ़राज़ और मनु जी आपका भी आभार. निर्मला जी आपकी पसंद का गीत पहले ही ओल्ड इस गोल्ड पर आ चुका है, लीजिये आप भी सुनिए यहाँ.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
Singer : Lata mangeshkar
स्वप्न मंजूषा जी , कहाँ हैं आप ?
सुजॉय जी, सच्चाई को स्वीकार करना अच्छी बात है, यह मेरा मानना है. और हम लोग यहापर संगीत, खुशिया और आनंद बाट रहे है. आप की लिखावट और लगान दोनों भी पुर-असर है.
लता जी का यह गाना तो बहुत सुरीला है, मगर विविधभारती ने इतनी बार सुनाया है, की उसका जादू थोडा फीका सा हो गया है मुझपर.
पराग