ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 128
आकाश की सुंदरता केवल चाँद और सूरज से ही नहीं है। इनके अलावा भी जो असंख्य सितारे हैं, जिनमें से कुछ उज्जवल हैं तो कुछ धुंधले, इन सभी को एक साथ लेकर ही आकाश की सुंदरता पूरी होती है। यही बात फ़िल्म संगीत के आकाश पर भी लागू होती है। भले ही कुछ फ़नकार बहुत ज़्यादा प्रसिद्ध हुए हों, फ़िल्म संगीत जगत पर छाये रहे हों, लेकिन इनके अलावा भी बहुत सारे गीतकार, संगीतकार और गायक-गायिकायें ऐसे भी थे जिनका इनके मुकाबले नाम ज़रा कम हुआ। लेकिन वही बात कि इन सभी को मिलाकर ही फ़िल्म संगीत सागर अनमोल मोतियों से समृद्ध हो सका है। इन कम चर्चित फ़नकारों के योगदान को अगर अलग कर दिया जाये, फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने से निकाल दिया जाये, तो शायद इस ख़ज़ाने की विविधता ख़त्म हो जायेगी, एकरसता का शिकार हो जायेगा फ़िल्म संगीत संसार। इसीलिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिये समय समय पर 'हिंद-युग्म' सलाम करती है ऐसे कमचर्चित फ़नकारों को। आज का गीत भी एक कमचर्चित संगीतकार द्वारा स्वरबद्ध किया हुआ है, जिन्हें हम और आप जानते हैं जी. एस. कोहली के नाम से। कोहली साहब का पूरा नाम था गुरुशरण सिंह कोहली, और उपलब्ध जानकारी के अनुसार उनका जन्म पंजाब में सन 1928 में हुआ था। धर्म से वो सिख थे लेकिन दाढ़ी-मूँछ उन्होंने नहीं रखी। 1951 में ओ. पी. नय्यर की पहली ही फ़िल्म 'आसमान' से जी. एस. कोहली नय्यर साहब के सहायक बन गये थे, और आगे चलकर उनकी एक से एक 'हिट' फ़िल्मों में उन्होने नय्यर साहब को ऐसिस्ट किया। नय्यर साहब के बहुत से गीतों में कोहली साहब ने शानदार तबला भी बजाये। बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनकी पहली फ़िल्म थी 'लम्बे हाथ' (1960)। अपने पूरे कैरीयर में उन्होंने कुछ 10-11 फ़िल्मों में संगीत दिया, लेकिन दो फ़िल्में जिनके संगीत की वजह से लोग उन्हें पहचानते हैं, वो दो फ़िल्में हैं- 'नमस्तेजी' और 'शिकारी', और आज इसी 'शिकारी' से एक सदाबहार नग़मा आप की ख़िदमत में हम लेकर आये हैं।
'शिकारी' 1963 की फ़िल्म थी। 'ईगल फ़िल्म्स' के बैनर तले एफ़. सी. मेहरा ने इस फ़िल्म का निर्माण किया था, कहानी सुरिंदर मेहरा की थी, पटकथा ब्रजेन्द्र गौड़ का, और निर्देशन मोहम्मद हुसैन का। अजीत और रागिनी अभिनीत इस छोटी फ़िल्म को आज अगर याद किया जाता है तो केवल इसके गानों की वजह से। इस फ़िल्म में चार गाने लिखे फ़ारूख़ क़ैसर ने और दो गानें क़मर जलालाबदी ने भी लिखे। इस फ़िल्म का जो सब से मशहूर गीत है वह है लता मंगेशकर और उषा मंगेशकर की आवाज़ों में। क़ैसर साहब के लिखे इस गीत का शुमार सर्वाधिक कामयाब 'फ़ीमेल डुएट्स' में होता है। "तुम को पिया दिल दिया कितने नाज़ से" गीत की कामयाबी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इस गीत के बनने के 40 साल बाद, यानी कि हाल ही में इस गीत का रीमिक्स बना और वह भी ख़ूब चला। लेकिन अफ़्सोस की बात यह है कि इस गीत के मूल संगीतकार को न तो इसका कोई श्रेय मिल सका और न ही उस समय उन्हें किसी फ़िल्मकार ने बड़ी बजट की कोई फ़िल्म दी। हालाँकि इस गीत को परदे पर मैंने कभी देखा नहीं है, लेकिन गीत के बोलों को सुनकर गीत को सुनकर यह कोई मुजरा गीत जान पड़ता है। अगर मैं ग़लत हूँ तो ज़रूर संशोधन कर दीजियेगा। अब बस यह बताते हुए कि लता और उषा, इन दो बहनों ने एक साथ सब से पहले फ़िल्म 'आज़ाद' में गाया था। याद है न आप को वह "अपलम चपलम" वाला गीत! यह गीत भी आगे चलकर हम ज़रूर सुनवाने की कोशिश करेंगे, फ़िल्हाल सुनिये जी. एस कोहली और फ़ारूख़ क़ैसर की याद में फ़िल्म 'शिकारी' का यह दिलकश नग़मा।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. गीत के गायक ने 'नवरंग' फिल्म में भी गाने गाये हैं।
2. इस गीत को आशा भोसले ने भी गाया है।
।3. गीत के बोल 1999 में आई फिल्म 'सरफरोश' की ग़ज़ल से मिलते-जुलते हैं।
पिछली पहेली का परिणाम-
कल भी काँटे की टक्कर रही। स्वप्न मंजूषा 2 मिनट आगे रहीं। बधाई। स्वप्न मंजूषा बहुत तेज़ी से शरद जी के 30 अंकों के करीब बढ़ रही हैं। आपके 24 अंक हो गये हैं। शरद जी, मंजू और मनु जी, इसी तरह से हमारी महफिल को गुलज़ार करते रहें। पराग जी, आपके उस आलेख का हमें भी इंतज़ार रहेगा।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
आकाश की सुंदरता केवल चाँद और सूरज से ही नहीं है। इनके अलावा भी जो असंख्य सितारे हैं, जिनमें से कुछ उज्जवल हैं तो कुछ धुंधले, इन सभी को एक साथ लेकर ही आकाश की सुंदरता पूरी होती है। यही बात फ़िल्म संगीत के आकाश पर भी लागू होती है। भले ही कुछ फ़नकार बहुत ज़्यादा प्रसिद्ध हुए हों, फ़िल्म संगीत जगत पर छाये रहे हों, लेकिन इनके अलावा भी बहुत सारे गीतकार, संगीतकार और गायक-गायिकायें ऐसे भी थे जिनका इनके मुकाबले नाम ज़रा कम हुआ। लेकिन वही बात कि इन सभी को मिलाकर ही फ़िल्म संगीत सागर अनमोल मोतियों से समृद्ध हो सका है। इन कम चर्चित फ़नकारों के योगदान को अगर अलग कर दिया जाये, फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने से निकाल दिया जाये, तो शायद इस ख़ज़ाने की विविधता ख़त्म हो जायेगी, एकरसता का शिकार हो जायेगा फ़िल्म संगीत संसार। इसीलिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिये समय समय पर 'हिंद-युग्म' सलाम करती है ऐसे कमचर्चित फ़नकारों को। आज का गीत भी एक कमचर्चित संगीतकार द्वारा स्वरबद्ध किया हुआ है, जिन्हें हम और आप जानते हैं जी. एस. कोहली के नाम से। कोहली साहब का पूरा नाम था गुरुशरण सिंह कोहली, और उपलब्ध जानकारी के अनुसार उनका जन्म पंजाब में सन 1928 में हुआ था। धर्म से वो सिख थे लेकिन दाढ़ी-मूँछ उन्होंने नहीं रखी। 1951 में ओ. पी. नय्यर की पहली ही फ़िल्म 'आसमान' से जी. एस. कोहली नय्यर साहब के सहायक बन गये थे, और आगे चलकर उनकी एक से एक 'हिट' फ़िल्मों में उन्होने नय्यर साहब को ऐसिस्ट किया। नय्यर साहब के बहुत से गीतों में कोहली साहब ने शानदार तबला भी बजाये। बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनकी पहली फ़िल्म थी 'लम्बे हाथ' (1960)। अपने पूरे कैरीयर में उन्होंने कुछ 10-11 फ़िल्मों में संगीत दिया, लेकिन दो फ़िल्में जिनके संगीत की वजह से लोग उन्हें पहचानते हैं, वो दो फ़िल्में हैं- 'नमस्तेजी' और 'शिकारी', और आज इसी 'शिकारी' से एक सदाबहार नग़मा आप की ख़िदमत में हम लेकर आये हैं।
'शिकारी' 1963 की फ़िल्म थी। 'ईगल फ़िल्म्स' के बैनर तले एफ़. सी. मेहरा ने इस फ़िल्म का निर्माण किया था, कहानी सुरिंदर मेहरा की थी, पटकथा ब्रजेन्द्र गौड़ का, और निर्देशन मोहम्मद हुसैन का। अजीत और रागिनी अभिनीत इस छोटी फ़िल्म को आज अगर याद किया जाता है तो केवल इसके गानों की वजह से। इस फ़िल्म में चार गाने लिखे फ़ारूख़ क़ैसर ने और दो गानें क़मर जलालाबदी ने भी लिखे। इस फ़िल्म का जो सब से मशहूर गीत है वह है लता मंगेशकर और उषा मंगेशकर की आवाज़ों में। क़ैसर साहब के लिखे इस गीत का शुमार सर्वाधिक कामयाब 'फ़ीमेल डुएट्स' में होता है। "तुम को पिया दिल दिया कितने नाज़ से" गीत की कामयाबी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इस गीत के बनने के 40 साल बाद, यानी कि हाल ही में इस गीत का रीमिक्स बना और वह भी ख़ूब चला। लेकिन अफ़्सोस की बात यह है कि इस गीत के मूल संगीतकार को न तो इसका कोई श्रेय मिल सका और न ही उस समय उन्हें किसी फ़िल्मकार ने बड़ी बजट की कोई फ़िल्म दी। हालाँकि इस गीत को परदे पर मैंने कभी देखा नहीं है, लेकिन गीत के बोलों को सुनकर गीत को सुनकर यह कोई मुजरा गीत जान पड़ता है। अगर मैं ग़लत हूँ तो ज़रूर संशोधन कर दीजियेगा। अब बस यह बताते हुए कि लता और उषा, इन दो बहनों ने एक साथ सब से पहले फ़िल्म 'आज़ाद' में गाया था। याद है न आप को वह "अपलम चपलम" वाला गीत! यह गीत भी आगे चलकर हम ज़रूर सुनवाने की कोशिश करेंगे, फ़िल्हाल सुनिये जी. एस कोहली और फ़ारूख़ क़ैसर की याद में फ़िल्म 'शिकारी' का यह दिलकश नग़मा।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. गीत के गायक ने 'नवरंग' फिल्म में भी गाने गाये हैं।
2. इस गीत को आशा भोसले ने भी गाया है।
।3. गीत के बोल 1999 में आई फिल्म 'सरफरोश' की ग़ज़ल से मिलते-जुलते हैं।
पिछली पहेली का परिणाम-
कल भी काँटे की टक्कर रही। स्वप्न मंजूषा 2 मिनट आगे रहीं। बधाई। स्वप्न मंजूषा बहुत तेज़ी से शरद जी के 30 अंकों के करीब बढ़ रही हैं। आपके 24 अंक हो गये हैं। शरद जी, मंजू और मनु जी, इसी तरह से हमारी महफिल को गुलज़ार करते रहें। पराग जी, आपके उस आलेख का हमें भी इंतज़ार रहेगा।
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
Ishq kehte hain kise aur aashiqui kya cheez
Pradeep kumar & faryal
ye meri maa ki pasandida ghazal hai main jab bhi india jaati hun wo zaroor sunti hain mujhse
tumko piya gaane ki picturization, mujra hi hai, ismein Helen aur Padmini ne ntritya kiya hai, Ajit ke samne
film- jindagi aur maut
film- jindagi aur maut
आज भी बधाई ! इस रचना को हम ग़ज़ल नहीं कह सकते है यह गीत ही है क्योंकि इसके अन्तरे में तीन पंक्तियां हैं जबकि ग़ज़ल में शे’र में दो पंक्तियां होती हैं
Bhool sudhar ke liye dhanyawaad, aapne bilkul theek kaha
दर्द भरा गीत,,
ghazal nahi..
और अच्छा बाबा कान पकड़ कर उठक-बैठक लगा कर मान लेती हूँ , यह गीत है ग़ज़ल नहीं है
:):):)
मनु जी ............
संगीतकार जी एस कोहली साहब के बारे में हमारे मित्र श्री जी का लिखा हुआ एक छोटा सा आलेख प्रस्तुत है:
G S Kohli remains a highly under-rated music director - and his name is practically in oblivion - I came across some books about music directors which do not even mention his name !! One only has to listen to some of his beautiful compositions for Shikari, Adventures of Robin Hood, Faulad, Mr India, Char Darvesh, Jaalsaaz etc. to understand the quality of this music director. Such great tunes and what excellent orchestration ! And why not ? After all he gained some really high class experience working as an assistant to the highly successful O P Nayyar for around 15 years during OPN's best period.
Film after film of O P Nayyar - each one such a great hit - had the contribution of G S Kohli somewhere in the songs, in the rhythm, in the background music etc - films like Aar Paar, Mr & Mrs 55, CID, Tumsa nahin dekha, Naya Daur, Howrah bridge, 12 O'clock, Ek musafir ek hasina, Kashmir ki kali, Mere Sanam, Sawan ki ghata, Mohabbat zindagi hai, Yeh raat phir na aayegi, Kismat, Dil aur mohabbat etc etc.- all had his contributions.
The sad part of the story is that when he tried to step out on his own as a music director - despite making such wonderful, high-quality songs like Rafi's 'Maana mere haseen sanam' (1965) and Asha's 'Yeh rangeen mehfil' (1963) - he was unsuccessful commercially and had to return to a background role as assistant to O P Nayyar. Must have been a great disappointment for him, no doubt. But such is the world of films. No mercy - even for talented individuals