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बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..... एक फ़रमाईश जो पहुँची कफ़ील आज़र तक

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३२

ज महफ़िल-ए-गज़ल की ३२वीं कड़ी है और वादे के अनुसार हम फ़रमाईश की पहली गज़ल/नज़्म लेकर हाज़िर हैं। जिन लोगों को फ़रमाईश वाली बात पता नहीं, उनके लिए हम पिछली बार के पोस्ट पर की गई टिप्पणी वापस यहाँ पेस्ट किए दे रहे हैं। पिछली बार "शामिख" जी ने यह सवाल उठाया था तो हमारा जवाब कुछ यूँ था: हमने २५वें से २९वें एपिसोड के बीच प्रश्नों का एक सिलसिला चलाया था। उन पहेलियों/प्रश्नों का जिन्होंने भी सही जवाब दिया, उन्हें हमने अंकों से नवाज़ा। इस तरह पाँच एपिसोडों के अंकों को मिलाने से हमें दो विजेता मिले - शरद साहब और दिशा जी। हमने वादा किया था कि जो भी विजेता होगा वो हमसे ५ गज़लों की फ़रमाईश कर सकता है, जिनमें से हम किन्हीं भी ३ गज़लों की फ़रमाईश पूरी करेंगे। इस तरह चूँकि दो विजेता हैं इसलिए हम फ़रमाईश की ६ गज़लों/नज़्मों को ३२वें से ४२वें एपिसोड के बीच पेश करेंगे। तो लीजिए हम हाज़िर हैं अपनी पहली पेशकश के साथ....अहा! अपनी नहीं, "शरद" जी की पहली पेशकश के साथ। आज की नज़्म की फ़रमाईश शरद जी ने हीं की थी। वैसे "दिशा" जी को हम याद दिलाना चाहेंगे कि उनकी फ़रमाईशों की फ़ेहरिश्त अभी तक हम तक पहुँची नहीं है। इसलिए कृप्या वे शीघ्रता दिखाएँ। चलिए अब बढते हैं नज़्म की ओर। इस नज़्म की खासियत यह है कि इसे अमूमन सभी लोग सुन चुके हैं और लगभग सभी को यह पता है कि इसे "जगजीत सिंह" जी ने गाया है। लेकिन चूँकि आप "महफ़िल-ए-गज़ल" के मुखातिब हैं तो आपको यह भी मालूम होगा कि हम आसानी से हासिल होने वाली चीज तो आपके सामने लाते नहीं। जी हाँ! हम आज अपनी इस महफ़िल में "जगजीत सिंह" की बात नहीं करेंगे। यह इसलिए नहीं है कि हमारी उनसे कुछ ठनी हुई है, बल्कि इस लिए हैं क्योंकि हमने पुरानी लगभग तीन कड़ियों में इनकी बातें की थी। यूँ तो जगजीत सिंह एक ऐसे शख्सियत हैं, जिन पर बिना रूके कई सारे आलेख लिखे जा सकते हैं, लेकिन कभी-कभार उन्हें भी याद कर लेना चाहिए जिन्हें दुनिया उतना भाव नहीं देती जितने के वे हक़दार होते हैं। यहाँ हमारा इशारा उन शायरों की तरफ़ है, जो खुद तो गुमनामी के अंधेरों में कहीं गुम हो गए लेकिन उनकी गज़लों/नज़्मों को गाकर कई सारे फ़नकार बुलंदियों के सातवें आसमान तक पहुँच गए। यही सोचकर हमने यह फ़ैसला लिया कि क्यों न आज की महफ़िल को हम नज़्मकार के हवाले कर दें।

बात कुछ संजीदा है, लेकिन मेरे अनुसार इस बात को कभी न कभी तो उठाया हीं जाना चाहिए। बहुत दिनों से मेरे जहन में यह बात थी, लेकिन ढूँढते-ढूँढते मुझे "पवन झा" (गुलज़ार साहब के शायद सबसे बड़े प्रशंसक) का एक आलेख मिला जिसमें उन्होंने "निदा फ़ाज़ली" के कुछ अल्फ़ाज़ पेश किए थे। निदा फ़ाज़ली कहते हैं: एक शायर मुझे अक्सर बांद्रा में एक ईरानी होटल के बाहर फुटपाथ पर, शंभू पान वाले की दुकान के पास खड़े नज़र आते थे। पहली मुलाकात में ख़ूबसूरत चेहरे के जवान इंसान थे। कुछ दिन बाद मिले, तो बिखरे-बिखरे परेशान थे। तीसरी बार कई महीनों के बाद नज़र आए, तो वह जानदार होते हुए बेजान थे; उनके शहर लखनऊ की शान थी न शरीर और आंखों में पहले जैसी पहचान थी। उस वक्त वह अनूप जलोटा के लिए भजनों का एक कामयाब एलबम लिख चुके थे। उस एलबम से आवाज़ ने लाखों कमाए, लेकिन शब्दों ने उनकी बेवक्त मृत्यु तक, फुटपाथ पर ही बिस्तर बिछाए, ज़रूरतों में आते-जाते लोगों के सामने हाथ फैलाए--

गीत बहुत सुंदर है लेकिन सच-सच कहना यार
पिछले हफ्ते बिन भोजन के सोए कितनी बार।

शास्त्रीनगर के एक क़ब्रिस्तान में साहिर, जांनिसार और राही के साथ, अपने युग की हसीन हीरोइन मधुबाला और ख़ूबसूरत आवाज़ के गायक मुहम्मद रफ़ी भी आराम कर रहे हैं। लेकिन दुनिया की भागदौड़ से दूर इस आराम के स्थान में बाज़ार अपने तराजू-बाट लेकर घुस आया है। बाज़ार ने मधुबाला के चेहरे की कीमत ज्यादा लगाई और उसकी क़ब्र संगमरमर की बनाई। मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ का भाव भी अच्छा लगाया, और उनकी क़ब्र को ग्रेनाइट से सजाया। साहिर, जांनिसार और राही के पास न चेहरा था, न आवांज वे सिर्फ अल्फ़ाज़ थे और अल्फ़ाज़ की कीमत सबसे कम लगाई गई, इसीलिए उनको गहरी नींद से जगाकर उन्हीं के अंतिम घरों में दूसरों के लिए जगह बनाई गई। अब साहिर के साथ और भी कई दूसरे उनके तंग मकान में रहते हैं। जांनिसार भी ग़ैरज़रूरी मेहमानों की मौजूदगी का अज़ाब सहते हैं और आधा गांव वाले राही भी बाज़ार के बहाव में इधर-उधर बहते हैं। शायद बाज़ार की इसी हठधर्मी को देखकर लेखिका इस्मत चुग़ताई और शायर नून मीम राशिद ने, अपनी वसीयत में खुद को दफ़नाने के बजाए, जलाए जाने की ख़्वाहिश की थी। पंडित नेहरू के जमाने में, इलाहाबाद में एक कवि था। कई वर्षों से उसके सर पर आसमान की छत थी और उसका नाम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला था। निराला जी की लाइनें हैं-

दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज जो नहीं कही।


इसी कड़ी में वे आज के नज़्मकार का ज़िक्र ले आते हैं: जगजीत सिंह और पंकज उधास विश्व भर में आदर से सुने जाने वाले ग़ज़ल गायकों में हैं। जगजीत सिंह ग़ज़ल गायन से लाखों कमाते हैं और रेस कोर्स में आज घोड़े दौड़ाते हैं। मशहूर नज़्म 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी' के शायर कफ़ील आज़र, ग़रीबी में मज़ार बन कर दिल्ली के एक क़ब्रिस्तान में भूले-भटके परिचितों को रूलाते हैं। पंकज उधास जिनकी ग़ज़लें गा कर, मुंबई के सबसे पॉश इलाके में अपनी किस्मत को आईना दिखाते हैं, उनके लिए ग़ज़लें लिखने वाले मुमताज़ राशिद को माहिम दरगाह में एक कमरे के मकान से लोखंडवाला के डेढ़ कमरे वाले मकान तक आते-आते 35 साल लग जाते हैं। इस तरह "निदा फ़ाज़ली" साहब ने शायरों के दर्द को अपनी आवाज़ दी है। शायरों की अजनबियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमें जगजीत सिंह के बारे में सब कुछ पता है,लेकिन "कफ़ील आज़र" के बारे में कुछ भी जानकारी ढूँढने से भी नहीं मिलती। इनका कब जन्म हुआ,इनकी परवरिश कहाँ हुई, इन्होंने कितनी सारी गज़लें/नज़्में लिखीं, इसका ब्योरा शायद हीं किसी के पास हो। बमुश्किल मुझे इतना पता चल सका है कि दिनांक २७ नवंबर २००३ को अमरोहा में इन्होंने अपनी अंतिम साँसें लीं। इतिहास के पन्नों को कुरेदने इस बात का ज़िक्र मिलता है कि "कमाल अमरोही" की सदाबहार प्रस्तुति "पाकीज़ा" के ये "असिसटेंट डायरेक्टर" रह चुके हैं। इन्होंने कुछ फिल्मों और एलबमों के लिए गाने भी लिखे, जिनमें प्रमुख हैं: फिल्म "कर्त्तव्य" में "मेरा दिल लेके चल दिये", "दूरी ना रहे कोई", "छैला बाबू तू कैसा दिलदार", फिल्म "एक हसीना दो दीवाने" से "दो क़दम तुम भी चलो", फिल्म "काँच की दीवार" से "अईयो ना मारो", "ना इधर के रहे", "बिछड़ गए हैं", "अरी ओ सखी", "जलवों की हमारे", एलबम "चोर दरवाज़ा" से "तुम जहाँ जाएगो मुझको भी वहीं", एलबम "द जीनियस आफ़ तलत महमूद" से "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी"। जी हाँ, जगजीत सिंह से पहले तलत महमूद ने भी इस नज़्म को अपनी आवाज़ दी थी। अब चूँकि इससे ज्यादा इनके बारे में कहीं कुछ दर्ज नहीं है, इसलिए अच्छा है कि इनका लिखा एक शेर हीं देख लिया जाए:

मोम के रिश्ते हैं गर्मी से पिघल जायेंगे
धूप के शहर में 'आज़र' ये तमाशा न करो|


रिश्ते तो नहीं पिघले,लेकिन ’आज़र’ साहब वो तमाशा करके चले गए जिससे आए दिनों सुनने वालों के दिल पिघलते रहते हैं। हम तो यही दुआ करेंगे कि वह बात जो हमने आज यहाँ निकाली है, ज़रूर हीं दूर तलक जाए और आने वाले दिनों में शायरों को भी वही रूतबा हासिल हो जो गायकों और संगीतकारों को है। आमीन! चलिए अब आज की नज़्म का नज़ारा करते हैं। सुनिए और महसूस कीजिए कि ’आज़र’ साहब ने अपनी "प्रेमिका" के बहाने से कितनी गूढ बात कही है:

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी
लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे
ये भी पूछेंगे कि तुम इतनी परेशां क्यूं हो
उगलियां उठेंगी सुखे हुए बालों की तरफ
इक नज़र देखेंगे गुज़रे हुए सालों की तरफ
चूड़ियों पर भी कई तन्ज़ किये जायेंगे
कांपते हाथों पे भी फिकरे कसे जायेंगे

लोग ज़ालिम हैं हर इक बात का ताना देंगे
बातों बातों मे मेरा ज़िक्र भी ले आयेंगे
उनकी बातों का ज़रा सा भी असर मत लेना
वर्ना चेहरे के तासुर से समझ जायेंगे
चाहे कुछ भी हो सवालात न करना उनसे
मेरे बारे में कोई बात न करना उनसे
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

ऊंची इमारतों से ___ मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए...

आपके विकल्प हैं -
a) समान, b) मकान, c) मचान, d) जहान

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था -"परेशां" और शेर कुछ यूं था -

फ़ल्सफ़े इश्क़ में पेश आये सवालों की तरह
हम परेशां ही रहे अपने ख़यालों की तरह...

इस शब्द को सबसे पहले पकड़ा दिशा जी ने। दिशा जी का शेर गौर फरमाएं -

हर कोइ है परेशाँ हर कोइ है हैरान
कौन लाया है यह नफरत का तूफान
किसने बदल दी आबोहवा वतन की
टुकड़ों में बाँट दिया सारा हिन्दुस्तान।

बड़ी हीं गूढ बात कही है आपने। सच में आखिर कौन है जो हमारे इस अमन-पसंद वतन को खुश नहीं देख सकता।

शामिख फ़राज़ साहब कुछ देर तक "परेशां" और "पशेमां" के बीच पशोपेश में दिखे। लेकिन आखिरकार उन्होंने सही शब्द का हीं चुनाव किया। फ़राज़ साहब ने ना सिर्फ़ "परेशां" पर एक शेर पेश किया बल्कि हमें वो गज़ल भी सुनाई जिससे पिछली बार का शेर लिया गया था। फ़राज़ साहब का बहुत-बहुत शुक्रिया। तो पेश है वो शेर जिसे फ़राज़ साहब ने जनाब क़तील शिफ़ाई की एक गज़ल से लिया है:

परेशा रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सुक़ूत-ए-मर्ग ता'री है, सितारो तुम तो सो जाओ।

मंजु जी भी स्वरचित शेर के साथ महफ़िल में तशरीफ़ लाईं। उनका शेर कुछ यूँ था:

परेशाँ रहती हूं उससे सवालों की तरह
इंतजार रहता है उसका जवाबों की तरह।

क्या मंजू जी, यहाँ भी सवालों का हीं ज़िक्र। लगता है कि सवालों और महफ़िल-ए-गज़ल में कोई गहरा नाता है :)

सुमित जी की अदा भी काबिल-ए-तारीफ़ है। शेर की जगह पर रफ़ी साहब के एक गाने की याद दिला दी और शेर सुनाया भी तो तबाही और हवालों वाला। अब तो आप हवालों का मतलब जान गए होंगे।

और सबसे ज्यादा जिनकी अदा हमें चकित करती है, उन महानुभाव का नाम है "मनु जी"। इन्हें सही जवाब से कोई लेना-देना हीं नहीं है, जवाब में भी सवाल दाग के चल दिए और शेर सुनाया भी तो "सवालों" वाला हीं। भाई साहब अगर परेशां जवाब सही लगा तो ये क्यों लिखा की "परेशा/पशेमान जो भी हो".... कहीं आपके लिए हीं तो ये पंक्ति नहीं लिखी गई थी - "अपनी धुन में रहता हूँ।" :)

चलिए इन्हीं बातों के साथ आज की महफ़िल की शम्मा बुझाई जाए। अगली महफ़िल तक के लिए खुदा हाफ़िज़!!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

Disha said…
सही शब्द है मकान
घर इंसा से बनता है ईंटों से नहीं
इनसे तो खाली मकान बना करते हैं
जो डाल दे इन पत्थरों में भी जान
उसे ही तो परिवार कहा करते हैं
Disha said…
सही शब्द है मकान(स्वरचित शेर)
घर इंसा से बनता है ईंटों से नहीं
इनसे तो खाली मकान बना करते हैं
जो डाल दे इन पत्थरों में भी जान
उसे ही तो परिवार कहा करते हैं
मैं तो सिर्फ गज़ल गीत सुनने आती हूँ जो मुझेआपकी पसंद की दाद देनी भी जरूरी है क्यों कि इसे दिन मे कई बार सुनती हूँ पहेलियों के जवाब के लिये दिशाजी हैं ना बहुत बहुत शुक्रिया
Shamikh Faraz said…
परेशा रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सुक़ूत-ए-मर्ग ता'री है, सितारो तुम तो सो जाओ।

विश्व दीपक "तन्हा" जी यह शेअर मेरा नहीं बल्कि उर्दू के मशहूर शायर क़तील शिफाई साहब का है. और यह बात मैंने पिछले comment में ही लिख दी थी. मेरे ख्याल से गलती की कोई गुंजाईश नहीं होना चाहिए था. लेकिन फिर भी अगर गलती हो गई तो ठीक कर दें. ये शेअर मेरा नहीं है.
Shamikh Faraz said…
This post has been removed by the author.
Shamikh Faraz said…
सही लफ्ज़ मकान ही है. मैं इस बार बिलकुल भी कशमकश में नहीं हूँ. ये जावेद अख्तर साहब का शेअऱ है

ऊंची इमारतों से मकान मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए...
Shamikh Faraz said…
मकान पर शैलेश जैदी जी की एक के दो शेअर.

ज़िन्दगी किराये का मकान बन गयी।
अब खुशी भी दर्द के समान बन गयी॥

पत्थरों को छेनियों की चोट जब लगी।
एक अमूर्त कल्पना महान बन गयी॥
Shamikh Faraz said…
जावेद साहब के कुछ और शेअर

कौन सा शे'र सुनाऊं मैं तुम्हे, सोचता हूँ
नया मुब्हम है बहुत और पुराना मुश्किल (उलझा हुआ)
==================================

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए

==================================

हमको उठना तो मुहं अंधेरे था
लेकिन इक ख्वाब हमको घेरे था

==================================

सब का खुशी से फासला एक कदम है
हर घर मे बस एक ही कमरा कम है

===================================

इस शहर में जीने के अंदाज निराले हैं
होठों पर लतीफे हैं आवाज में छाले हैं

===================================

सब हवाएं ले गया मेरे समंदर की कोई
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया

ये तीन शेर बहुत ही खास और मेरे दिल के करीब हैं.
===================================

आज की दुनिया मे जीने का करीना समझो (तरीका)
जो मिले प्यार से उन लोगों को जीना समझो (सीढ़ी)
==================================

वह शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे
अजीब बात हुई उसे भुलाने में

=================================

अपनी वजहें-बरबादी सुनिए तो मजे की है
जिंदगी से यूं खेले जैसे दूसरे की है
Shamikh Faraz said…
This post has been removed by the author.
Shamikh Faraz said…
सही लफ्ज़ पर सबसे पहले पकड़ने के लिए दिशा जी को मुबारकबाद.
Shamikh Faraz said…
चलते चलते मुझे याद आ रही है मशहूर अदाकार मीना कुमारी साहिबा की एक ग़ज़ल. फर्क सिर्फ इतना है की इसमें मकान को मकां इस्तेमाल किया गया है. समाअत फरमाएं

चाँद तन्हा है आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

जिंदगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी,
दोनों चलते रहें कहाँ तन्हा

जलती-बुझती-सी रोशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकां तन्हा

राह देखा करेगा सदियॊं तक
छोड़ जायेंगे यह जहाँ तन्हा.

अच्छा चलता हूँ. दसविदानिया (रूसी भाषा का एक शब्द जिसका मतलब होता है फिर मिलेंगे.)
फ़राज़ साहब!
गलती हुई इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। आपके कहे अनुसार पोस्ट में आवश्यक परिवर्त्तन कर दिए गए हैं।

धन्यवाद,
विश्व दीपक
sumit said…
सही शब्द मकान लग रहा है
शेर - कैफ परदेश में मत याद करो अपना मकान,
अबके बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
sumit said…
सही शब्द मकान लग रहा है
शेर - कैफ परदेश में मत याद करो अपना मकान,
अबके बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
sumit said…
हाँ जी, तन्हा जी अब मुझे हवालों शब्द का अर्थ पता चल गया है
Shamikh Faraz said…
shukriya tanha ji.
aap k bare me aik bat kahna chahunga k vishva deepka tanha hi hota hai kyonki wo vishva deepak hota hai.
sher pesh hai :
'deewar kya giri mere kachche makan ki,
logon ne mere jehan mein raste bana liye.
मेरी पसन्द की नज़्म सुनवाने के लिये धन्यवाद !
'अदा' said…
irfan siddiqui:

kabhi zair-e-makhraab kabhi bala-e-makaan bolti he
khamushi aa ke sar-e-khalwat-e-jaan bolti he
lo! swal-e-dakhn-e-basta ka aata he jawaab
teer sargoshian kartay hein, kamaan bolti he
Manju Gupta said…
जवाब है -मकान
स्व रचित शेर -ईंट -पत्थर के मकान में हर कोई रह लेता है ,
इन्सान तो वह जो लोगो के दिल में घर बनता है .
आप के कमेंट्स अच्छे लगते है .
manu said…
ये क्या बस्ती है या रब जाने क्या इसकी कहानी है
मकां रहते हैं बस कायम, नहीं मिलते मकां वाले..
:)
जी सही शब्द मकान है
तनहा जी कुछ महफ़िल मिस करने के लिए माफ़ी चाहूँगा
वक़्त ही नहीं मिला .....................
जनाब इफ्तिकखर साहब का बड़ा ही मशहूर शेर है ...............

मेरे खुदा मूझे इतना तो मोअतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे

Motabar = Reliable

bas itna hi

alvida
manu said…
शामिख जी,,,
यहाँ भी मकां ही आना है....
मकान मिस प्रिंटिंग से छापा होगा
:)

ऊंची इमारतों से मकां मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए...

बड़े वाले अंकल का शे'र याद आया है...
मंजर इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से इधर होता काश के मकां अपना....

ये भी बेचारे क़र्ज़ की पीते पीते ही चले गए...
:(

इन फाका-मस्तियों का हुनर तू भी कुछ समझ.
इस इल्म के माहिर तेरे अजदाद बहुत थे.....

शायद ज़रा वजन से बाहर है...पर मेरी जान बस्ती है इस शे'र में...
Shamikh Faraz said…
This post has been removed by the author.
pooja said…
बहुत सही फ़रमाया आपने तन्हा जी कि बात कुछ संजीदा है, और इसे कभी ना कभी तो उठाया जाना ही चाहिए...... शायरों की किस्मत कभी तो बदलेगी , उन्हें भी गायकों, संगीतकारों के जैसा रुतबा हासिल होगा. आमीन .

एक अजनबी शायर के बारे में आपने इतनी जानकारी हमें हासिल कराई उसके लिए साधुवाद.
कफ़ील आज़र से मिलवाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया. सही बात है... "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी" लाइन कई बार सुनी पर कभी पता न था किसकी है. मीना कुमारी की ग़ज़ल पढ़वाने के लिए भी शुक्रिया, उनकी आवाज में ये नायाब है.
sanjeevsaxena said…
jisme sooraj ka tarafdaar harek saaya hai...maine us shahar main ghar mom ka banwaya hai

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