ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 334/2010/34
फ़िल्म संगीत के कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को याद करने का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की विशेष लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' के तहत। ये कमचर्चित गायिकाएँ फ़िल्म संगीत के मैदान के वो खिलाड़ी हैं जिन्होने बहुत ज़्यादा लम्बी पारी तो नहीं खेली, पर अपनी छोटी सी पारी में ही कुछ ऐसे सदाबहार गानें हमें दे गए हैं कि जिन्हे हम आज भी याद करते हैं, गुनगुनाते हैं, हमारे सुख दुख के साथी बने हुए हैं। यह हमारी बदकिस्मती ही है कि अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी ये कलाकार चर्चा में कम ही रहे, प्रसिद्धी इन्हे कम ही मिली, और आज की पीढ़ी के लिए तो इनकी यादें दिन ब दिन धुंधली होती जा रही हैं। पर अपने कुछ चुनिंदा गीतों से अपनी अमिट छाप छोड़ जाने वाली ये गायिकाएँ सुधी श्रोताओं के दिलों पर हमेशा राज करती रहेंगी। आज एक ऐसी ही प्रतिभा संपन्न गायिका का ज़िक्र इस मंच पर। आप हैं सुधा मल्होत्रा। जी हाँ, वही सुधा मल्होत्रा जिन्होने 'नरसी भगत' में "दर्शन दो घनश्याम", 'दीदी' में "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको", 'काला पानी' में "ना मैं धन चाहूँ", 'बरसात की रात' में "ना तो कारवाँ की तलाश है" और 'प्रेम रोग' में "ये प्यार था कि कुछ और था" जैसे हिट गीत गाए हैं। लेकिन ज़्यादातर उन्हे कम बजट वाली फ़िल्मों में ही गाने के अवसर मिलते रहे। 'अब दिल्ली दूर नहीं' फ़िल्म में बच्चे के किरदार का प्लेबैक करने के बाद तो जैसे वो टाइप कास्ट से हो गईं और बच्चों वाले कई गीत उनसे गवाए गए। आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह है १९६० की फ़िल्म 'बाबर' का। साहिर लुधियानवी का लिखा और रोशन का स्वरबद्ध किया यह गीत सुधा जी की करीयर का एक बेहद महत्वपूर्ण गीत रहा है, "सलाम-ए-हसरत क़ुबूल कर लो"। हेमेन गुप्ता निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे गजानन जागिरदार, आज़रा, सुलोचना चौधरी और शुभा खोटे। प्रस्तुत गीत शुभा खोटे पर फ़िल्माया गया है।
आइए आज सुधा जी के बारे में आपको कुछ जानकारी दी जाए। सुधा मल्होत्रा का जन्म नई दिल्ली में ३० नवंबर १९३६ में हुआ था। उनका बचपन कुल तीन शहरों में बीता - लाहौर, भोपाल और फ़िरोज़पुर। आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और भारतीय शास्त्रीय संगीत में पारदर्शी बनीं उस्ताद अब्दुल रहमान ख़ान और पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरवाले जैसे गुरुओं से तालीम हासिल कर। उनकी यह लगन और संगीत के प्रति उनका प्यार उनके गीतों और उनकी गायकी में साफ़ झलकता है। जहाँ तक करीयर का सवाल है, सुधा जी ने ५ साल की उम्र से गाना शुरु किया। उनकी प्रतिभा को पूरी दुनिया के सामने लाने का पहला श्रेय जाता है उस ज़माने के मशहूर संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर को, जिन्होने सुधा जी को फ़िरोज़पुर में रेड क्रॊस के एक जलसे में गाते हुए सुना था। सुधा जी की शारीरिक सुंदरता और मधुर आवाज़ की वजह से वो ऒल इंडिया रेडियो लाहौर में एक सफ़ल बाल कलाकार बन गईं। और सही मायने में यहीं से शुरु हुआ उनका संगीत सफ़र। उसके बाद उनका आगमन हुआ फ़िल्म संगीत में। इस क्षेत्र में उन्हे पहला ब्रेक दिया अनिल बिस्वास ने। साल था १९५० और फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, इसी फ़िल्म में अनिल दा ने तलत महमूद को भी पहला ब्रेक दिया था। इस फ़िल्म में सुधा जी से एक गीत गवाया गया जिसे ख़ूब पसंद किया गया। गाना था "मिला गए नैन"। और दोस्तों, यहीं से शुरुआत हुई सुधा जी के फ़िल्मी गायन की। आगे की दास्तान हम फिर कभी सुनाएँगे, फिलहाल सुनवा रहे हैं सुधा जी का गाया 'बाबर' फ़िल्म का यह नायाब गीत, आप भी हमारा सलाम-ए-हसरत क़बूल फ़रमाएँ।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
नींद की बाहों में टूटती निगाहों को क्या मालूम,
है इन्तेज़ार में उसके कोई ख्वाब हैरानी से भरा,
या फिर छुपा खंजर हाथ लिए कोई बुरा सपना,
सिर्फ भुला दिए जाने के काबिल बेचैनी से सना...
अतिरिक्त सूत्र- खय्याम ने संगीत से संवारा है इस गीत को
पिछली पहेली का परिणाम-
बहुत बढ़िया चल रहे हैं अवध जी, लगता है शरद जी को तगड़ी टक्कर मिलेगी...१३ अंक हुए आपके बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
फ़िल्म संगीत के कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को याद करने का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की विशेष लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' के तहत। ये कमचर्चित गायिकाएँ फ़िल्म संगीत के मैदान के वो खिलाड़ी हैं जिन्होने बहुत ज़्यादा लम्बी पारी तो नहीं खेली, पर अपनी छोटी सी पारी में ही कुछ ऐसे सदाबहार गानें हमें दे गए हैं कि जिन्हे हम आज भी याद करते हैं, गुनगुनाते हैं, हमारे सुख दुख के साथी बने हुए हैं। यह हमारी बदकिस्मती ही है कि अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी ये कलाकार चर्चा में कम ही रहे, प्रसिद्धी इन्हे कम ही मिली, और आज की पीढ़ी के लिए तो इनकी यादें दिन ब दिन धुंधली होती जा रही हैं। पर अपने कुछ चुनिंदा गीतों से अपनी अमिट छाप छोड़ जाने वाली ये गायिकाएँ सुधी श्रोताओं के दिलों पर हमेशा राज करती रहेंगी। आज एक ऐसी ही प्रतिभा संपन्न गायिका का ज़िक्र इस मंच पर। आप हैं सुधा मल्होत्रा। जी हाँ, वही सुधा मल्होत्रा जिन्होने 'नरसी भगत' में "दर्शन दो घनश्याम", 'दीदी' में "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको", 'काला पानी' में "ना मैं धन चाहूँ", 'बरसात की रात' में "ना तो कारवाँ की तलाश है" और 'प्रेम रोग' में "ये प्यार था कि कुछ और था" जैसे हिट गीत गाए हैं। लेकिन ज़्यादातर उन्हे कम बजट वाली फ़िल्मों में ही गाने के अवसर मिलते रहे। 'अब दिल्ली दूर नहीं' फ़िल्म में बच्चे के किरदार का प्लेबैक करने के बाद तो जैसे वो टाइप कास्ट से हो गईं और बच्चों वाले कई गीत उनसे गवाए गए। आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह है १९६० की फ़िल्म 'बाबर' का। साहिर लुधियानवी का लिखा और रोशन का स्वरबद्ध किया यह गीत सुधा जी की करीयर का एक बेहद महत्वपूर्ण गीत रहा है, "सलाम-ए-हसरत क़ुबूल कर लो"। हेमेन गुप्ता निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे गजानन जागिरदार, आज़रा, सुलोचना चौधरी और शुभा खोटे। प्रस्तुत गीत शुभा खोटे पर फ़िल्माया गया है।
आइए आज सुधा जी के बारे में आपको कुछ जानकारी दी जाए। सुधा मल्होत्रा का जन्म नई दिल्ली में ३० नवंबर १९३६ में हुआ था। उनका बचपन कुल तीन शहरों में बीता - लाहौर, भोपाल और फ़िरोज़पुर। आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और भारतीय शास्त्रीय संगीत में पारदर्शी बनीं उस्ताद अब्दुल रहमान ख़ान और पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरवाले जैसे गुरुओं से तालीम हासिल कर। उनकी यह लगन और संगीत के प्रति उनका प्यार उनके गीतों और उनकी गायकी में साफ़ झलकता है। जहाँ तक करीयर का सवाल है, सुधा जी ने ५ साल की उम्र से गाना शुरु किया। उनकी प्रतिभा को पूरी दुनिया के सामने लाने का पहला श्रेय जाता है उस ज़माने के मशहूर संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर को, जिन्होने सुधा जी को फ़िरोज़पुर में रेड क्रॊस के एक जलसे में गाते हुए सुना था। सुधा जी की शारीरिक सुंदरता और मधुर आवाज़ की वजह से वो ऒल इंडिया रेडियो लाहौर में एक सफ़ल बाल कलाकार बन गईं। और सही मायने में यहीं से शुरु हुआ उनका संगीत सफ़र। उसके बाद उनका आगमन हुआ फ़िल्म संगीत में। इस क्षेत्र में उन्हे पहला ब्रेक दिया अनिल बिस्वास ने। साल था १९५० और फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, इसी फ़िल्म में अनिल दा ने तलत महमूद को भी पहला ब्रेक दिया था। इस फ़िल्म में सुधा जी से एक गीत गवाया गया जिसे ख़ूब पसंद किया गया। गाना था "मिला गए नैन"। और दोस्तों, यहीं से शुरुआत हुई सुधा जी के फ़िल्मी गायन की। आगे की दास्तान हम फिर कभी सुनाएँगे, फिलहाल सुनवा रहे हैं सुधा जी का गाया 'बाबर' फ़िल्म का यह नायाब गीत, आप भी हमारा सलाम-ए-हसरत क़बूल फ़रमाएँ।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
नींद की बाहों में टूटती निगाहों को क्या मालूम,
है इन्तेज़ार में उसके कोई ख्वाब हैरानी से भरा,
या फिर छुपा खंजर हाथ लिए कोई बुरा सपना,
सिर्फ भुला दिए जाने के काबिल बेचैनी से सना...
अतिरिक्त सूत्र- खय्याम ने संगीत से संवारा है इस गीत को
पिछली पहेली का परिणाम-
बहुत बढ़िया चल रहे हैं अवध जी, लगता है शरद जी को तगड़ी टक्कर मिलेगी...१३ अंक हुए आपके बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
ROHIT RAJPUT
जगजीत कौर
शगुन
अवध लाल
बुरा क्या है अगर यह दुःख यह हैरानी मुझे दे दो.
आज ज़रा लेट हो गया ।
’ये माना मैं किसी काबिल नहीं हूँ इन निगाहों में,
बुरा क्या है अगर ये दु:ख ये हैरानी मुझे दे दो ।
हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया.
वैसे न जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि आप यह केवल प्रोत्सहन हेतु कह रहे हैं.
यह भी आपकी महानता का परिचायक है.
शुभेच्छु
अवध लाल