ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 341/2010/41
दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने देखते ही देखते लगभग एक साल का सफ़र पूरा कर लिया है। पिछले साल २० फ़रवरी की शाम से शुरु हुई थी यह शृंखला। गुज़रे ज़माने के सदाबहार नग़मों को सुनते हुए हम साथ साथ जो सुरीला सफ़र तय किया है, उसको हमने समय समय पर १० गीतों की विशेष लघु शृंखलाओं में बाँटा है, ताकि फ़िल्म संगीत के अलग अलग पहलुओं और कलाकारों को और भी ज़्यादा नज़दीक से और विस्तार से जानने और सुनने का मौका मिल सके। आज १० फ़रवरी है और आज से जो लघु शृंखला शुरु होगी वह जाकर समाप्त होगी १९ फ़रवरी को, यानी कि उस दिन जिस दिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पूरा करेगा अपना पहला साल। इसलिए यह लघु शृंखला बेहद ख़ास बन पड़ी है, और इसे और भी ज़्यादा ख़ास बनाने के लिए हम इसमें लेकर आए हैं ४० के दशक के १० सदाबहार सुपर डुपर हिट गीत, जो ४० के दशक के १० अलग अलग सालों में बने हैं। यानी कि १९४० से लेकर १९४९ तक, दस गीत दस अलग अलग सालों के। हम यह दावा तो नहीं करते कि ये गीत उन सालों के सर्वोत्तम गीत रहे, लेकिन इतना आपको विश्वास ज़रूर दिला सकते हैं कि इन गीतों को आप ज़रूर पसंद करेंगे और उस पूरे दशक को, उस ज़माने के फ़नकारों को एक बार फिर सलाम करेंगे। तो पेश-ए-ख़िदमत है आज से लेकर अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पहले वर्ष की आख़िरी लघु शृंखला 'प्योर गोल्ड'। फ़िल्म संगीत के दशकों का अगर हम मानवीकरण करें तो मेरे ख़याल से ३० का दशक इसका शैशव है, ४० का दशक इसका बचपन, ५० और ६० के दशक इसका यौवन। क्यों सही कहा ना? यानी कि इस शृंखला में फ़िल्म संगीत के बचपन की बातें। १९३१ में 'आलम आरा' से जो यात्रा फ़िल्मों ने और फ़िल्म संगीत ने शुरु की थी, जिन कलाकारों की उंगलियाँ थामे संगीत की इस विधा ने चलना सीखा था, उनमें से कई कलाकार ४० के दशक में भी सक्रीय रहे। उस ज़माने में कलकत्ता हिंदी फ़िल्म निर्माण का एक मुख्य केन्द्र हुआ करता था। युं तो कई छोटी बड़ी कपनियाँ थीं वहाँ पर, पर उन सब में अग्रणी हुआ करता था 'न्यु थिएटर्स'। और अग्रणी क्यों ना हो, राय चंद बोराल, पंकज मल्लिक, कुंदन लाल सहगल, तिमिर बरन, कानन देवी, के. सी. डे जैसे कलाकार जिस कंपनी के पास हो, वो तो सब से आगे ही रहेगी ना! इस पूरी टीम ने ३० के दशक के मध्य भाग में फ़िल्म संगीत के घोड़े को विशुद्ध शास्त्रीय संगीत और नाट्य संगीत की भीड़ से बाहर खींच निकाला, और सुगम संगीत, लोक संगीत और पाश्चात्य ऒर्केस्ट्रेशन के संगम से फ़िल्म संगीत को एक निर्दिष्ट स्वरूप दिया, एक अलग पहचान दी। और फिर उसके बाद साल दर साल नये नये कलाकार जुड़ते गये, नये नये प्रयोग होते गये, और फ़िल्म संगीत एक विशाल वटवृक्ष की तरह फैल गया। आज यह वृक्ष इतना व्यापक हो गया है कि यह ना केवल मनोरंजन का सब से लोकप्रिय साधन है, बल्कि फ़िल्मों से भी ज़्यादा उनके गीत संगीत की तरफ़ लोग आकर्षित होते हैं।
ख़ैर, ४० के दशक का पहला साल १९४०, और इस साल के एक बेहतरीन गीत से इस शृंखला की शुरुआत हम कर रहे हैं। न्यु थिएटर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म 'ज़िंदगी' का गीत कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में, संगीतकार हैं पंकज मल्लिक और गीतकार हैं किदार शर्मा। फ़िल्म 'देवदास' के बाद सहगल साहब और जमुना इसी फ़िल्म में फिर एक बार एक ही पर्दे पर नज़र आये थे। और यह फ़िल्म भी प्रमथेश बरुआ के निर्देशन में ही बनी थी। इस गीत को अगर एक ट्रेंडसेटर गीत भी कहा जाए तो ग़लत ना होगा, क्योंकि इसमें मल्लिक जी ने जो पाश्चात्य ऒर्केस्ट्रेशन के नमूने पेश किए हैं, वह उस ज़माने के हिसाब से नये थे। दोस्तों, हम इस शृंखला में पंकज मल्लिक का गाया फ़िल्म 'कपालकुण्डला' का गीत "पिया मिलन को जाना" भी सुनवाना चाहते थे, लेकिन जैसे कि इस शृंखला की रवायत है कि एक साल का एक ही गीत सुनवा रहे हैं, इसलिए इस गीत को हम फिर कभी आपको ज़रूर सुनवाएँगे। लेकिन मल्लिक साहब के बारे में कुछ बातें यहाँ पर हम ज़रूर आपको बताना चाहेंगे। १० मई १९०५ को कलकत्ता में जन्मे पंकज मल्लिक ने कई फ़िल्मों में अभिनय किया था। संगीत के प्रति उनमें गहरा रुझान था। संगीत की बारीकियाँ सीखी दुर्गादास बैनर्जी और दीनेन्द्रनाथ टैगोर से। पंकज मल्लिक भारतीय सिनेमा संगीत आकाश के ध्रुव नक्षत्र हैं। महात्मा का मन और राजर्षी का हृदय, दोनों विधाता ने उन्हे दिए थे। सन् १९२६ में पंकज दा का पहला ग्रामोफ़ोन रिकार्ड रिलीज़ हुआ विडियोफ़ोन कंपनी से। १९२७ में इंडियन ब्रॊडकास्टिंग् कंपनी से जुड़े जहाँ उन्होने लम्बे अरसे तक प्रस्तुतकर्ता, संगीतकार और संगीत शिक्षक के रूप में काम किया। १९२९ से रेडियो पर संगीत शिक्षा पर केन्द्रित उनका कार्यक्रम प्रसारित होना शुरु हुआ। १९२९ में ही उनका एक और कार्यक्रम हर वर्ष दुर्गा पूजा के उपलक्ष्य पर रेडियो पर प्रसारित होता रहा, जिसका शीर्षक था 'महीषासुरमर्दिनी'। दोस्तों, यह रेडियो कार्यक्रम तब से लेकर आज तक प्रति वर्ष आकाशवाणी कोलकाता, अगरतला और पोर्ट ब्लेयर जैसे केन्द्रों से महालया (जिस दिन दुर्गा पूजा का देवी पक्ष शुरु होता है) की सुबह ४:३० बजे से ६ बजे तक प्रसारित होता है। एक साल ऐसा हुआ कि आकाशवाणी कोलकाता ने सोचा कि इस कार्यक्रम का एक नया संस्करण निकाला जाए और उस साल महालया की सुबह 'महीषासुरमर्दिनी' का नया संस्करण प्रसारित कर दिया गया। इसके चलते अगले दिन आकाशवाणी के कोलकाता केन्द्र में जनता ने इस क़दर विरोध प्रदर्शन किया और इस तरह इसकी समालोचना हुई कि अगले वर्ष से फिर से वही पंकज मल्लिक वाला संस्करण ही बजने लगा और आज तक बज रहा है। और आइए अब वापस आते हैं आज के गीत की फ़िल्म 'ज़िंदगी' पर। 'ज़िंदगी प्रमथेश बरुआ की न्यु थिएटर्स के लिए अंतिम फ़िल्म थी। इसी साल, यानी कि १९४० में एक भयंकर अग्निकांड ने न्यु थिएटर्स को भारी नुकसान पहुँचाया। बेहद अफ़सोस इस बात का रहा कि इस कंपनी की सारी फ़िल्मों के नेगेटिव्स उस आग की चपेट में आ गए। चलिए दोस्तों, अब आज का गीत सुना जाए, ४० के दशक की और भी कई रोचक जानकारी हम इस शृंखला में आपको देते रहेंगे, फ़िल्हाल १९४० को सलाम करता हुआ सहगल साहब की आवाज़, "मैं क्या जानू क्या जादू है"। भई हम तो यही कहेंगे कि यह जादू है सहगल साहब की आवाज़ का, मल्लिक साहब की धुनों का, और शर्मा जी के बोलों का।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
ओ भंवरे मंडलाये क्यों,
तू फूल फूल हरजाई,
नैन तेरे बतियाते हैं,
किस भाषा में सौदाई...
1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. ये गायिका का पहला हिंदी फ़िल्मी गीत है, कौन है ये गायिका - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
3. इस संगीतकार के नाम से पहले "मास्टर" लगता है, इनका पूरा नाम बताईये -सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.
4. १९४१ में आई इस फिल्म का नाम क्या है जिसका ये गीत है - सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.
पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी आपके सुझाव पर आज से हम पहेली का रूप रंग बदल रहे हैं. आज से एक बार फिर नए सिरे से मार्किंग करेंगे. शरद जी आप अब तक आगे चल रहे थे, पर मुझे लगता है इस नए प्रारूप में आपको भी मज़ा आएगा.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने देखते ही देखते लगभग एक साल का सफ़र पूरा कर लिया है। पिछले साल २० फ़रवरी की शाम से शुरु हुई थी यह शृंखला। गुज़रे ज़माने के सदाबहार नग़मों को सुनते हुए हम साथ साथ जो सुरीला सफ़र तय किया है, उसको हमने समय समय पर १० गीतों की विशेष लघु शृंखलाओं में बाँटा है, ताकि फ़िल्म संगीत के अलग अलग पहलुओं और कलाकारों को और भी ज़्यादा नज़दीक से और विस्तार से जानने और सुनने का मौका मिल सके। आज १० फ़रवरी है और आज से जो लघु शृंखला शुरु होगी वह जाकर समाप्त होगी १९ फ़रवरी को, यानी कि उस दिन जिस दिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पूरा करेगा अपना पहला साल। इसलिए यह लघु शृंखला बेहद ख़ास बन पड़ी है, और इसे और भी ज़्यादा ख़ास बनाने के लिए हम इसमें लेकर आए हैं ४० के दशक के १० सदाबहार सुपर डुपर हिट गीत, जो ४० के दशक के १० अलग अलग सालों में बने हैं। यानी कि १९४० से लेकर १९४९ तक, दस गीत दस अलग अलग सालों के। हम यह दावा तो नहीं करते कि ये गीत उन सालों के सर्वोत्तम गीत रहे, लेकिन इतना आपको विश्वास ज़रूर दिला सकते हैं कि इन गीतों को आप ज़रूर पसंद करेंगे और उस पूरे दशक को, उस ज़माने के फ़नकारों को एक बार फिर सलाम करेंगे। तो पेश-ए-ख़िदमत है आज से लेकर अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पहले वर्ष की आख़िरी लघु शृंखला 'प्योर गोल्ड'। फ़िल्म संगीत के दशकों का अगर हम मानवीकरण करें तो मेरे ख़याल से ३० का दशक इसका शैशव है, ४० का दशक इसका बचपन, ५० और ६० के दशक इसका यौवन। क्यों सही कहा ना? यानी कि इस शृंखला में फ़िल्म संगीत के बचपन की बातें। १९३१ में 'आलम आरा' से जो यात्रा फ़िल्मों ने और फ़िल्म संगीत ने शुरु की थी, जिन कलाकारों की उंगलियाँ थामे संगीत की इस विधा ने चलना सीखा था, उनमें से कई कलाकार ४० के दशक में भी सक्रीय रहे। उस ज़माने में कलकत्ता हिंदी फ़िल्म निर्माण का एक मुख्य केन्द्र हुआ करता था। युं तो कई छोटी बड़ी कपनियाँ थीं वहाँ पर, पर उन सब में अग्रणी हुआ करता था 'न्यु थिएटर्स'। और अग्रणी क्यों ना हो, राय चंद बोराल, पंकज मल्लिक, कुंदन लाल सहगल, तिमिर बरन, कानन देवी, के. सी. डे जैसे कलाकार जिस कंपनी के पास हो, वो तो सब से आगे ही रहेगी ना! इस पूरी टीम ने ३० के दशक के मध्य भाग में फ़िल्म संगीत के घोड़े को विशुद्ध शास्त्रीय संगीत और नाट्य संगीत की भीड़ से बाहर खींच निकाला, और सुगम संगीत, लोक संगीत और पाश्चात्य ऒर्केस्ट्रेशन के संगम से फ़िल्म संगीत को एक निर्दिष्ट स्वरूप दिया, एक अलग पहचान दी। और फिर उसके बाद साल दर साल नये नये कलाकार जुड़ते गये, नये नये प्रयोग होते गये, और फ़िल्म संगीत एक विशाल वटवृक्ष की तरह फैल गया। आज यह वृक्ष इतना व्यापक हो गया है कि यह ना केवल मनोरंजन का सब से लोकप्रिय साधन है, बल्कि फ़िल्मों से भी ज़्यादा उनके गीत संगीत की तरफ़ लोग आकर्षित होते हैं।
ख़ैर, ४० के दशक का पहला साल १९४०, और इस साल के एक बेहतरीन गीत से इस शृंखला की शुरुआत हम कर रहे हैं। न्यु थिएटर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म 'ज़िंदगी' का गीत कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में, संगीतकार हैं पंकज मल्लिक और गीतकार हैं किदार शर्मा। फ़िल्म 'देवदास' के बाद सहगल साहब और जमुना इसी फ़िल्म में फिर एक बार एक ही पर्दे पर नज़र आये थे। और यह फ़िल्म भी प्रमथेश बरुआ के निर्देशन में ही बनी थी। इस गीत को अगर एक ट्रेंडसेटर गीत भी कहा जाए तो ग़लत ना होगा, क्योंकि इसमें मल्लिक जी ने जो पाश्चात्य ऒर्केस्ट्रेशन के नमूने पेश किए हैं, वह उस ज़माने के हिसाब से नये थे। दोस्तों, हम इस शृंखला में पंकज मल्लिक का गाया फ़िल्म 'कपालकुण्डला' का गीत "पिया मिलन को जाना" भी सुनवाना चाहते थे, लेकिन जैसे कि इस शृंखला की रवायत है कि एक साल का एक ही गीत सुनवा रहे हैं, इसलिए इस गीत को हम फिर कभी आपको ज़रूर सुनवाएँगे। लेकिन मल्लिक साहब के बारे में कुछ बातें यहाँ पर हम ज़रूर आपको बताना चाहेंगे। १० मई १९०५ को कलकत्ता में जन्मे पंकज मल्लिक ने कई फ़िल्मों में अभिनय किया था। संगीत के प्रति उनमें गहरा रुझान था। संगीत की बारीकियाँ सीखी दुर्गादास बैनर्जी और दीनेन्द्रनाथ टैगोर से। पंकज मल्लिक भारतीय सिनेमा संगीत आकाश के ध्रुव नक्षत्र हैं। महात्मा का मन और राजर्षी का हृदय, दोनों विधाता ने उन्हे दिए थे। सन् १९२६ में पंकज दा का पहला ग्रामोफ़ोन रिकार्ड रिलीज़ हुआ विडियोफ़ोन कंपनी से। १९२७ में इंडियन ब्रॊडकास्टिंग् कंपनी से जुड़े जहाँ उन्होने लम्बे अरसे तक प्रस्तुतकर्ता, संगीतकार और संगीत शिक्षक के रूप में काम किया। १९२९ से रेडियो पर संगीत शिक्षा पर केन्द्रित उनका कार्यक्रम प्रसारित होना शुरु हुआ। १९२९ में ही उनका एक और कार्यक्रम हर वर्ष दुर्गा पूजा के उपलक्ष्य पर रेडियो पर प्रसारित होता रहा, जिसका शीर्षक था 'महीषासुरमर्दिनी'। दोस्तों, यह रेडियो कार्यक्रम तब से लेकर आज तक प्रति वर्ष आकाशवाणी कोलकाता, अगरतला और पोर्ट ब्लेयर जैसे केन्द्रों से महालया (जिस दिन दुर्गा पूजा का देवी पक्ष शुरु होता है) की सुबह ४:३० बजे से ६ बजे तक प्रसारित होता है। एक साल ऐसा हुआ कि आकाशवाणी कोलकाता ने सोचा कि इस कार्यक्रम का एक नया संस्करण निकाला जाए और उस साल महालया की सुबह 'महीषासुरमर्दिनी' का नया संस्करण प्रसारित कर दिया गया। इसके चलते अगले दिन आकाशवाणी के कोलकाता केन्द्र में जनता ने इस क़दर विरोध प्रदर्शन किया और इस तरह इसकी समालोचना हुई कि अगले वर्ष से फिर से वही पंकज मल्लिक वाला संस्करण ही बजने लगा और आज तक बज रहा है। और आइए अब वापस आते हैं आज के गीत की फ़िल्म 'ज़िंदगी' पर। 'ज़िंदगी प्रमथेश बरुआ की न्यु थिएटर्स के लिए अंतिम फ़िल्म थी। इसी साल, यानी कि १९४० में एक भयंकर अग्निकांड ने न्यु थिएटर्स को भारी नुकसान पहुँचाया। बेहद अफ़सोस इस बात का रहा कि इस कंपनी की सारी फ़िल्मों के नेगेटिव्स उस आग की चपेट में आ गए। चलिए दोस्तों, अब आज का गीत सुना जाए, ४० के दशक की और भी कई रोचक जानकारी हम इस शृंखला में आपको देते रहेंगे, फ़िल्हाल १९४० को सलाम करता हुआ सहगल साहब की आवाज़, "मैं क्या जानू क्या जादू है"। भई हम तो यही कहेंगे कि यह जादू है सहगल साहब की आवाज़ का, मल्लिक साहब की धुनों का, और शर्मा जी के बोलों का।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
ओ भंवरे मंडलाये क्यों,
तू फूल फूल हरजाई,
नैन तेरे बतियाते हैं,
किस भाषा में सौदाई...
1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. ये गायिका का पहला हिंदी फ़िल्मी गीत है, कौन है ये गायिका - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
3. इस संगीतकार के नाम से पहले "मास्टर" लगता है, इनका पूरा नाम बताईये -सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.
4. १९४१ में आई इस फिल्म का नाम क्या है जिसका ये गीत है - सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.
पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी आपके सुझाव पर आज से हम पहेली का रूप रंग बदल रहे हैं. आज से एक बार फिर नए सिरे से मार्किंग करेंगे. शरद जी आप अब तक आगे चल रहे थे, पर मुझे लगता है इस नए प्रारूप में आपको भी मज़ा आएगा.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
लता मंगेशकर
पहला गाना-'माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तु '
तटस्थता त्यागनी पड़ी
उत्तर सही ही हो जरुरी नही
जहाँ तक मुझे जानकारी है ,मैंने लिख दिया
बता दिया ,बाकि............अवधजी,शरद जी और पाबला भैया मास्टर पीस हैं
अपन तो उन्ही की शिष्या हैं ,गुरु तो हैं ,गुरु क्या?
दादा गुरु हैं .
ROHIT RAJPUT