मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था.. इक़बाल अज़ीम के बोल और नय्यारा नूर की आवाज़.. फिर क्यूँकर रंज कि बुरा हुआ
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६९
इंसानी मन प्रशंसा का भूखा होता है। भले हीं उसे लाख ओहदे हासिल हो जाएँ, करोड़ों का खजाना हाथ लग जाए, फिर भी सुकून तब तक हासिल नहीं होता, जब तक कोई अपना उसके काम, उसकी नियत को सराह न दे। ऐसा हीं कुछ आज हमारे साथ हो रहा है। जहाँ तक आप सबको मालूम है कि आज महफ़िल-ए-गज़ल की ६९वीं कड़ी है और यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते हमने दस महिने का सफ़र तय कर लिया है.. इस दौरान बहुत सारे मित्रों ने टिप्पणियों के माध्यम से हमारी हौसला-आफ़ज़ाई की और यही एकमात्र कारण था जिसकी बदौलत हमलोग निरंतर बिना रूके आगे बढते रहे.. फिर भी दिल में यह तमन्ना तो जरूर थी कि कोई सामने से आकर यह कहे कि वाह! क्या कमाल की महफ़िल सजाते हैं आप.. गज़लों को सुनकर और बातों को गुनकर दिल बाग-बाग हो जाता है। यही एक कमी खलती आ रही थी जो दो दिन पहले पूरी हो गई। दिल्ली के प्रगति मैदान नें चल रहे वार्षिक विश्व पुस्तक मेला में लगे "हिन्द-युग्म" के स्टाल पर जब आवाज़ का कार्यक्रम रखा गया तो देश भर से आवाज़ के सहयोगी और प्रशंसक जमा हुए और उस दौरान कई सारे लोगों ने हमसे महफ़िल-ए-गज़ल की बातें कीं और आवाज़ के इस प्रयास को तह-ए-दिल से सराहा। कईयों को इस बात का आश्चर्य था कि हम ऐसी सदाबहार लेकिन बहुतों के द्वारा भूला दी गई गज़लें कहाँ से चुनकर लाते हैं। और न सिर्फ़ गज़लें हीं बल्कि उन गज़लों और गज़लों से जुड़े फ़नकारों के बारे में ऐसी अमूल्य जानकारियाँ हम ढूँढते हैं तो कहाँ से! कहते हैं ना कि आपकी मेहनत तब सफ़ल हो जाती हैं जब आपकी मेहनत का एक छोटा-सा हिस्सा भी किसी को खुशियाँ दे जाता है... आज हम उसी सफ़लता की अनुभूति कर रहे हैं। हम बता नहीं सकते कि इस आलेख को लिखते समय हमारे दिल और दिमाग की स्थिति क्या है... दिल को छोड़िये हमारा तो अपनी अंगुलियों की जुंबिश पर कोई नियंत्रण नहीं रहा... इसलिए इस कड़ी में अगर काम से ज्यादा बेकाम की बातें हो जाएँ (या हो रही हैं) तो इसमें हमारे चेतन मन का कोई दोष नहीं.. कुछ तो अचेतन है जो हमें लीक से हटने पर मजबूर कर रहा है। वैसे हमें यह पता है कि हमें इतने से हीं खुश नहीं होना है.. अभी और आगे जाना है, अभी और हदें ढकेलनी हैं, गज़लों की वो सारी किताबें खोज निकालनी हैं, जिनके जिल्द तक फट चुके हैं, दीमक जिन्हें कुतर चुका है, लेकिन सपहों पे पड़े हर्फ़ दूर से हीं चमक रहे हैं और हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। आपका साथ अगर इसी तरह मिलता रहा तो हमें पूरा यकीन है कि हम उन सारी किताबों को एक नया रूप देने में जरूर सफ़ल होंगे। आमीन!
चलिए.. बातें बहुत हो गईं, अब आज की महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं। आज की गज़ल को जिन फ़नकारा ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है, उनके सीधेपन और चेहरे से टपकती मासूमियत की मिसालें दी जाती हैं। कहते हैं कि संगीत की दुनिया में उनका आना एक करामात के जैसा था... जो भी हुआ बड़े हीं आनन-फ़ानन में हो गया। बात १९६८ की है। ये फ़नकारा लाहौर के नेशनल कालेज आफ़ आर्ट में टेक्स्टाईल डिजाईन में डिप्लोमा कर रही थीं। उस दौरान कालेज में कई सारे कार्यक्रम होते रहते थे। वैसे हीं किसी एक कार्यक्रम में इस्लामिया कालेज के प्रोफ़ेसर इसरार ने इन्हें गाते हुए सुन/देख लिया। प्रोफ़ेसर साहब ने इनसे युनिवर्सिटी के रेडियो पाकिस्तान के कार्यक्रमों के लिए गाने का अनुरोध किया... और फिर देखिए एक वह दिन था और एक आज का दिन है। आपने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह फ़नकारा, जिनकी हम बातें कर रहे हैं , उनका नाम है नय्यारा नूर। "नय्यारा" का जन्म १९५० में असम में हुआ था। ये लोग रहने वाले तो थे अमृतसर के लेकिन चूँकि व्यवसायी इनका मुख्य पेशा था, इसलिए ये लोग असम में जा बसे थे। "नय्यारा" के अब्बाजान की गिनती मुस्लिम लीग के अगली पंक्ति के सदस्यों में की जाती थी। ठीक-ठाक वज़ह तो नहीं मालूम लेकिन शायद इसी कारण से इनका परिवार १९५८ में पाकिस्तान चला गया। १९७१ आते-आते , नय्यारा ने टीवी और फिल्मों के लिए गाना शुरू कर दिया था। "घराना" और "तानसेन" जैसी फिल्मों ने इन्हें आगे बढने का मौका दिया। पीटीवी के एक कार्यक्रम "सुखनवर" में इनके द्वारा रिकार्ड की गई गज़ल "ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज मुक़ाबिल आ जाए, मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए" ने इनकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। वैसे देखा जाए तो यह गज़ल इन्हीं के लिए लिखी मालूम होती है। जानकारी के लिए बता दें कि इस गज़ल को लिखा था बहज़ाद लखनवी ने और संगीत से सजाया था मास्टर मंज़ूर हुसैन ने। नय्यारा नूर बेग़म अखर से काफ़ी प्रभावित थीं। कालेज के दिनों में भी वो बेग़म अख्तर की गज़लें और नज़्में गाया करती थीं। उन गज़लों ने हीं नय्यारा को लोगों की नज़रों में चढाया था। बेगम अख्तर की गायिकी का नय्यारा पर इस कदर असर था कि वो बेग़म की गज़लें पुराने तरीके से आर एम पी ग्रामोफ़ोन रिकार्ड प्ल्यर्स पर हीं सुना करती थीं, जबकि आडियो कैसेट्स बाज़ार में आने लगे थे। नय्यारा गायिकी की दूसरी विधाओं की तुलना में गज़लों को बेहतर मानती थीं(हैं)। इनका मानना है कि "गज़लें श्रोताओं पर गहरा असर करती हैं और यह असर दीर्घजीवी होता है।" नय्यारा ने अनगिनत गज़लें गाई है। उनमें से कुछ हैं- "आज बाज़ार में पा-बजौला चलो", "अंदाज़ हु-ब-हु तेरी आवाज़-ए-पा का था", "रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आई", "ऐ इश्क़ हमें बरबाद न कर", "कहाँ हो तुम", "वो जो हममें तुममें करार था", "रूठे हो तुम, तुमको कैसे मनाऊँ पिया".... नय्यारा पाकिस्तान के जाने-माने गायक और संगीत-निर्देशक "मियाँ शहरयार ज़ैदी" की बीवी हैं। नय्यारा के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है..लेकिन वो सब कभी दूसरी कड़ी में..
फ़नकारा के बाद अब वक्त है इस गज़ल के गज़लगो से रूबरू होने का, गुफ़्तगू करने का। चूँकि हम भी लेखन से हीं ताल्लुक रखते हैं, इसलिए जायज है कि गज़लगो का नाम आते हीं हममें रोमांच की लहर दौड़ पड़े। लेकिन क्या कीजियेगा... इन शायर की किस्मत भी ज्यादातर शायरों के जैसी हीं है... या फिर ये कहिए कि हमारी किस्मत हीं खराब है कि हमें अपनी धरोहर संभालकर रखना नहीं आता.. तभी तो इनके बारे में जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं। खोज-बीन करने पर बस एक फ़ेहरिश्त हासिल हुई है, जिसमें इनकी लिखी कुछ गज़लें दर्ज़ हैं। अब चूँकि हमें इन गज़लों से ज्यादा कुछ भी नहीं मालूम इसलिए हम यही फ़ेहरिश्त आपके सामने पेश किए देते हैं:
१) मगर जुबां से कभी हमने कुछ कहा तो नहीं
२) हमें जिन दोस्तों ने बेगुनाही की सज़ा दी है
३) तुमने दिल की बात कह दी आज यह अच्छा हुआ
४) हँसना नहीं आता मुझे, यह बात नहीं है
५) ये मेरी अना की शिकस्त है, न दवा करो, न दुआ करो
६) उनको मेरी वफ़ाओं का इकरार भी नहीं
७) सोज़-ए-ग़म से जिस कदर शिकवा सदा होते हैं लोग
८) न मिन्नत किसी की, न शिकवा किसी से
९) लाख मैं सबसे खफ़ा होके घर को चला
१०) पैमाने छलक हीं जाते हैं जब कैफ़ का आलम होता है
आपको इनकी ये सब गज़लें या फिर बाकी की और भी गज़लें पढनी हों तो यहाँ जाएँ। अहा! देखिए तो इस हरबराहट में हम इन शायर का नाम बताना हीं भूल गए। तो इन्हीं अज़ीम-उस-शान शायर "इक़बाल अज़ीम" का एक शेर सुनाकर हम इस गलती को सुधारना चाहेंगे:
हमें जिन दोस्तों ने बेगुनाही की सज़ा दी है,
हमारा ज़र्फ़ देखो हमने उनको भी दुआ दी है।
इस शेर के बाद अब पेश है कि आज की वह गज़ल जिसके लिए हमने यह महफ़िल सजाई है। तो डूब जाईये दर्द की इस मदहोशी में... हाँ चलते-चलते यह भी बता दें कि यहाँ पर दो-तीन शेर ज्यादा हीं हैं... वैसे भी शेर हैं जो नय्यारा नूर ने इस गज़ल में नहीं गाए। पर जैसा कि ग़ालिब ने कहा है कि "मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है", इसलिए न हमें शिकायत है और यकीन मानिए आपको भी कोई शिकायत नहीं होगी:
मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था, सर-ए-बज़्म रात ये क्या हुआ
मेरी आँख कैसे छलक गयी, मुझे रंज है ये बुरा हुआ
जो नज़र बचा के गुज़र गये, मेरे सामने से अभी अभी
ये मेरे ही शहर के लोग थे, मेरे घर से घर है मिला हुआ
मेरी ज़िन्दगी के चिराग का, ये ____ कुछ नया नहीं
अभी रोशनी अभी तीरगी, ना जला हुआ ना बुझा हुआ
मुझे हमसफ़र भी मिला कोई, तो शिकस्ता हाल मेरी तरह
कई मंजिलों का थका हुआ, कई रास्तों का लुटा हुआ
मुझे जो भी दुश्मन-ए-जाँ मिला, वो ही पुख़्ताकार जफ़ा मिला
न किसी के जख़्म गलत पड़े, न किसी का तीर ख़ता हुआ
मुझे रास्ते मे पड़ा हुआ, एक अजनबी का खत मिला
कहीं खून-ए-दिल से लिखा हुआ, कहीं आँसुओं से मिटा हुआ
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "फरियाद" और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं -
किसी के दिल की तू फरियाद है क़रार नहीं,
खिलाए फूल जो ज़ख्मों के वो बहार नहीं
नज़्म को सुनकर इस शब्द की सबसे पहले पहचान की सीमा जी ने। सीमा जी, आप जिस तरह से एक हीं टिप्पणी में सारे शेर एक के बाद एक पेश करती हैं, उससे हमें बड़ी हीं सहूलियत होती है। मैं बाकी मित्रों से भी यह दरख्वास्त करना चाहता हूँ कि आप अपनी पेशकश को एक टिप्पणी या फिर दो टिप्पणियों तक हीं सीमित रखें। इसके लिए आप सबों को अग्रिम धन्यवाद। हम वापस आते हैं सीमा जी की टिप्पणी पर। तो ये रहे आपके शेर:
उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं। (ख़्वाजा हैदर अली 'आतिश')
ख़ुदा से हश्र में काफ़िर! तेरी फ़रियाद क्या करते?
अक़ीदत उम्र भर की दफ़अतन बरबाद क्या करते? (सीमाब अकबराबादी)
नाला, फ़रियाद, आह और ज़ारी,
आप से हो सका सो कर देखा| (ख़्वाजा मीर दर्द)
सीमा जी के बाद इस महफ़िल में शरद जी और मंजु जी खुद के लिखे शेरों के साथ हाज़िर हुए। मंजु जी, पिछली बार भले हीं हमने आपको उलाहना दी थी, लेकिन इस बार उसी गलती (आपकी नहीं... हमारी) के लिए हम आपकी प्रशंसा करने को बाध्य हैं... आप भले हीं देर आईं लेकिन दुरूस्त तो आईं। ये रहे आप दोनों के शेर क्रम से:
उन हसीं लम्हों को फिर आबाद करना
तुम लडकपन के भी वो दिन याद करना
लौट आएं फिर से वो गुज़रे ज़माने
बस खुदा से इक यही फ़रियाद करना । (शरद जी)
मेरे मालिक !तेरे दरबार में ,
करूँ बार - बार फरियाद मैं .
मानव में उदय हो मानवतावाद ,
न होगा फिर आतंक का नामोनिशान (मंजु जी)
सुमित जी और राज सिंह जी, आप दोनों बड़ी हीं मुद्दतों के बाद इस महफ़िल में नज़र आए। राज सिंह जी, यह क्या.. जब आप हमारी महफ़िल तक का सफ़र तय कर हीं लेते हैं तो बस मंज़िल (टिप्पणी) से पहले लौट क्यों जाते हैं... उम्मीद करता हूँ कि आप आगे से ऐसा नहीं करेंगे। सुमित जी, यह रही आपकी पेशकश:
कोई फ़रियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे,
तूने आँखों से कोई बात कही हो जैसे। (फ़ैज़ अनवर)
शामिख साहब, गणतंत्र दिवस की आपको भी ढेरों बधाईयाँ। आपने ग़ालिब के कई सारे शेर हमारी महफ़िल के सामने रखे... इसी खुशी में हम आपसे यह खुशखबरी बाँटना चाहेंगे कि आने वाले कुछ हीं दिनों में हम ग़ालिब पर एक शृंखला (बस एक महफ़िल नहीं..बल्कि महफ़िलों की लड़ी) लेकर हाज़िर होने वाले हैं। तो संभालिए अपनी धड़कन को और उठने दीजिए चिलमन को :) उससे पहले पेश हैं आपके ये शेर:
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया (ग़ालिब)
चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब (जावेद अख्तर)
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते (अकबर इलाहाबादी)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
इंसानी मन प्रशंसा का भूखा होता है। भले हीं उसे लाख ओहदे हासिल हो जाएँ, करोड़ों का खजाना हाथ लग जाए, फिर भी सुकून तब तक हासिल नहीं होता, जब तक कोई अपना उसके काम, उसकी नियत को सराह न दे। ऐसा हीं कुछ आज हमारे साथ हो रहा है। जहाँ तक आप सबको मालूम है कि आज महफ़िल-ए-गज़ल की ६९वीं कड़ी है और यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते हमने दस महिने का सफ़र तय कर लिया है.. इस दौरान बहुत सारे मित्रों ने टिप्पणियों के माध्यम से हमारी हौसला-आफ़ज़ाई की और यही एकमात्र कारण था जिसकी बदौलत हमलोग निरंतर बिना रूके आगे बढते रहे.. फिर भी दिल में यह तमन्ना तो जरूर थी कि कोई सामने से आकर यह कहे कि वाह! क्या कमाल की महफ़िल सजाते हैं आप.. गज़लों को सुनकर और बातों को गुनकर दिल बाग-बाग हो जाता है। यही एक कमी खलती आ रही थी जो दो दिन पहले पूरी हो गई। दिल्ली के प्रगति मैदान नें चल रहे वार्षिक विश्व पुस्तक मेला में लगे "हिन्द-युग्म" के स्टाल पर जब आवाज़ का कार्यक्रम रखा गया तो देश भर से आवाज़ के सहयोगी और प्रशंसक जमा हुए और उस दौरान कई सारे लोगों ने हमसे महफ़िल-ए-गज़ल की बातें कीं और आवाज़ के इस प्रयास को तह-ए-दिल से सराहा। कईयों को इस बात का आश्चर्य था कि हम ऐसी सदाबहार लेकिन बहुतों के द्वारा भूला दी गई गज़लें कहाँ से चुनकर लाते हैं। और न सिर्फ़ गज़लें हीं बल्कि उन गज़लों और गज़लों से जुड़े फ़नकारों के बारे में ऐसी अमूल्य जानकारियाँ हम ढूँढते हैं तो कहाँ से! कहते हैं ना कि आपकी मेहनत तब सफ़ल हो जाती हैं जब आपकी मेहनत का एक छोटा-सा हिस्सा भी किसी को खुशियाँ दे जाता है... आज हम उसी सफ़लता की अनुभूति कर रहे हैं। हम बता नहीं सकते कि इस आलेख को लिखते समय हमारे दिल और दिमाग की स्थिति क्या है... दिल को छोड़िये हमारा तो अपनी अंगुलियों की जुंबिश पर कोई नियंत्रण नहीं रहा... इसलिए इस कड़ी में अगर काम से ज्यादा बेकाम की बातें हो जाएँ (या हो रही हैं) तो इसमें हमारे चेतन मन का कोई दोष नहीं.. कुछ तो अचेतन है जो हमें लीक से हटने पर मजबूर कर रहा है। वैसे हमें यह पता है कि हमें इतने से हीं खुश नहीं होना है.. अभी और आगे जाना है, अभी और हदें ढकेलनी हैं, गज़लों की वो सारी किताबें खोज निकालनी हैं, जिनके जिल्द तक फट चुके हैं, दीमक जिन्हें कुतर चुका है, लेकिन सपहों पे पड़े हर्फ़ दूर से हीं चमक रहे हैं और हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। आपका साथ अगर इसी तरह मिलता रहा तो हमें पूरा यकीन है कि हम उन सारी किताबों को एक नया रूप देने में जरूर सफ़ल होंगे। आमीन!
चलिए.. बातें बहुत हो गईं, अब आज की महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं। आज की गज़ल को जिन फ़नकारा ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है, उनके सीधेपन और चेहरे से टपकती मासूमियत की मिसालें दी जाती हैं। कहते हैं कि संगीत की दुनिया में उनका आना एक करामात के जैसा था... जो भी हुआ बड़े हीं आनन-फ़ानन में हो गया। बात १९६८ की है। ये फ़नकारा लाहौर के नेशनल कालेज आफ़ आर्ट में टेक्स्टाईल डिजाईन में डिप्लोमा कर रही थीं। उस दौरान कालेज में कई सारे कार्यक्रम होते रहते थे। वैसे हीं किसी एक कार्यक्रम में इस्लामिया कालेज के प्रोफ़ेसर इसरार ने इन्हें गाते हुए सुन/देख लिया। प्रोफ़ेसर साहब ने इनसे युनिवर्सिटी के रेडियो पाकिस्तान के कार्यक्रमों के लिए गाने का अनुरोध किया... और फिर देखिए एक वह दिन था और एक आज का दिन है। आपने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह फ़नकारा, जिनकी हम बातें कर रहे हैं , उनका नाम है नय्यारा नूर। "नय्यारा" का जन्म १९५० में असम में हुआ था। ये लोग रहने वाले तो थे अमृतसर के लेकिन चूँकि व्यवसायी इनका मुख्य पेशा था, इसलिए ये लोग असम में जा बसे थे। "नय्यारा" के अब्बाजान की गिनती मुस्लिम लीग के अगली पंक्ति के सदस्यों में की जाती थी। ठीक-ठाक वज़ह तो नहीं मालूम लेकिन शायद इसी कारण से इनका परिवार १९५८ में पाकिस्तान चला गया। १९७१ आते-आते , नय्यारा ने टीवी और फिल्मों के लिए गाना शुरू कर दिया था। "घराना" और "तानसेन" जैसी फिल्मों ने इन्हें आगे बढने का मौका दिया। पीटीवी के एक कार्यक्रम "सुखनवर" में इनके द्वारा रिकार्ड की गई गज़ल "ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज मुक़ाबिल आ जाए, मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए" ने इनकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। वैसे देखा जाए तो यह गज़ल इन्हीं के लिए लिखी मालूम होती है। जानकारी के लिए बता दें कि इस गज़ल को लिखा था बहज़ाद लखनवी ने और संगीत से सजाया था मास्टर मंज़ूर हुसैन ने। नय्यारा नूर बेग़म अखर से काफ़ी प्रभावित थीं। कालेज के दिनों में भी वो बेग़म अख्तर की गज़लें और नज़्में गाया करती थीं। उन गज़लों ने हीं नय्यारा को लोगों की नज़रों में चढाया था। बेगम अख्तर की गायिकी का नय्यारा पर इस कदर असर था कि वो बेग़म की गज़लें पुराने तरीके से आर एम पी ग्रामोफ़ोन रिकार्ड प्ल्यर्स पर हीं सुना करती थीं, जबकि आडियो कैसेट्स बाज़ार में आने लगे थे। नय्यारा गायिकी की दूसरी विधाओं की तुलना में गज़लों को बेहतर मानती थीं(हैं)। इनका मानना है कि "गज़लें श्रोताओं पर गहरा असर करती हैं और यह असर दीर्घजीवी होता है।" नय्यारा ने अनगिनत गज़लें गाई है। उनमें से कुछ हैं- "आज बाज़ार में पा-बजौला चलो", "अंदाज़ हु-ब-हु तेरी आवाज़-ए-पा का था", "रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आई", "ऐ इश्क़ हमें बरबाद न कर", "कहाँ हो तुम", "वो जो हममें तुममें करार था", "रूठे हो तुम, तुमको कैसे मनाऊँ पिया".... नय्यारा पाकिस्तान के जाने-माने गायक और संगीत-निर्देशक "मियाँ शहरयार ज़ैदी" की बीवी हैं। नय्यारा के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है..लेकिन वो सब कभी दूसरी कड़ी में..
फ़नकारा के बाद अब वक्त है इस गज़ल के गज़लगो से रूबरू होने का, गुफ़्तगू करने का। चूँकि हम भी लेखन से हीं ताल्लुक रखते हैं, इसलिए जायज है कि गज़लगो का नाम आते हीं हममें रोमांच की लहर दौड़ पड़े। लेकिन क्या कीजियेगा... इन शायर की किस्मत भी ज्यादातर शायरों के जैसी हीं है... या फिर ये कहिए कि हमारी किस्मत हीं खराब है कि हमें अपनी धरोहर संभालकर रखना नहीं आता.. तभी तो इनके बारे में जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं। खोज-बीन करने पर बस एक फ़ेहरिश्त हासिल हुई है, जिसमें इनकी लिखी कुछ गज़लें दर्ज़ हैं। अब चूँकि हमें इन गज़लों से ज्यादा कुछ भी नहीं मालूम इसलिए हम यही फ़ेहरिश्त आपके सामने पेश किए देते हैं:
१) मगर जुबां से कभी हमने कुछ कहा तो नहीं
२) हमें जिन दोस्तों ने बेगुनाही की सज़ा दी है
३) तुमने दिल की बात कह दी आज यह अच्छा हुआ
४) हँसना नहीं आता मुझे, यह बात नहीं है
५) ये मेरी अना की शिकस्त है, न दवा करो, न दुआ करो
६) उनको मेरी वफ़ाओं का इकरार भी नहीं
७) सोज़-ए-ग़म से जिस कदर शिकवा सदा होते हैं लोग
८) न मिन्नत किसी की, न शिकवा किसी से
९) लाख मैं सबसे खफ़ा होके घर को चला
१०) पैमाने छलक हीं जाते हैं जब कैफ़ का आलम होता है
आपको इनकी ये सब गज़लें या फिर बाकी की और भी गज़लें पढनी हों तो यहाँ जाएँ। अहा! देखिए तो इस हरबराहट में हम इन शायर का नाम बताना हीं भूल गए। तो इन्हीं अज़ीम-उस-शान शायर "इक़बाल अज़ीम" का एक शेर सुनाकर हम इस गलती को सुधारना चाहेंगे:
हमें जिन दोस्तों ने बेगुनाही की सज़ा दी है,
हमारा ज़र्फ़ देखो हमने उनको भी दुआ दी है।
इस शेर के बाद अब पेश है कि आज की वह गज़ल जिसके लिए हमने यह महफ़िल सजाई है। तो डूब जाईये दर्द की इस मदहोशी में... हाँ चलते-चलते यह भी बता दें कि यहाँ पर दो-तीन शेर ज्यादा हीं हैं... वैसे भी शेर हैं जो नय्यारा नूर ने इस गज़ल में नहीं गाए। पर जैसा कि ग़ालिब ने कहा है कि "मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है", इसलिए न हमें शिकायत है और यकीन मानिए आपको भी कोई शिकायत नहीं होगी:
मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था, सर-ए-बज़्म रात ये क्या हुआ
मेरी आँख कैसे छलक गयी, मुझे रंज है ये बुरा हुआ
जो नज़र बचा के गुज़र गये, मेरे सामने से अभी अभी
ये मेरे ही शहर के लोग थे, मेरे घर से घर है मिला हुआ
मेरी ज़िन्दगी के चिराग का, ये ____ कुछ नया नहीं
अभी रोशनी अभी तीरगी, ना जला हुआ ना बुझा हुआ
मुझे हमसफ़र भी मिला कोई, तो शिकस्ता हाल मेरी तरह
कई मंजिलों का थका हुआ, कई रास्तों का लुटा हुआ
मुझे जो भी दुश्मन-ए-जाँ मिला, वो ही पुख़्ताकार जफ़ा मिला
न किसी के जख़्म गलत पड़े, न किसी का तीर ख़ता हुआ
मुझे रास्ते मे पड़ा हुआ, एक अजनबी का खत मिला
कहीं खून-ए-दिल से लिखा हुआ, कहीं आँसुओं से मिटा हुआ
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "फरियाद" और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं -
किसी के दिल की तू फरियाद है क़रार नहीं,
खिलाए फूल जो ज़ख्मों के वो बहार नहीं
नज़्म को सुनकर इस शब्द की सबसे पहले पहचान की सीमा जी ने। सीमा जी, आप जिस तरह से एक हीं टिप्पणी में सारे शेर एक के बाद एक पेश करती हैं, उससे हमें बड़ी हीं सहूलियत होती है। मैं बाकी मित्रों से भी यह दरख्वास्त करना चाहता हूँ कि आप अपनी पेशकश को एक टिप्पणी या फिर दो टिप्पणियों तक हीं सीमित रखें। इसके लिए आप सबों को अग्रिम धन्यवाद। हम वापस आते हैं सीमा जी की टिप्पणी पर। तो ये रहे आपके शेर:
उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं। (ख़्वाजा हैदर अली 'आतिश')
ख़ुदा से हश्र में काफ़िर! तेरी फ़रियाद क्या करते?
अक़ीदत उम्र भर की दफ़अतन बरबाद क्या करते? (सीमाब अकबराबादी)
नाला, फ़रियाद, आह और ज़ारी,
आप से हो सका सो कर देखा| (ख़्वाजा मीर दर्द)
सीमा जी के बाद इस महफ़िल में शरद जी और मंजु जी खुद के लिखे शेरों के साथ हाज़िर हुए। मंजु जी, पिछली बार भले हीं हमने आपको उलाहना दी थी, लेकिन इस बार उसी गलती (आपकी नहीं... हमारी) के लिए हम आपकी प्रशंसा करने को बाध्य हैं... आप भले हीं देर आईं लेकिन दुरूस्त तो आईं। ये रहे आप दोनों के शेर क्रम से:
उन हसीं लम्हों को फिर आबाद करना
तुम लडकपन के भी वो दिन याद करना
लौट आएं फिर से वो गुज़रे ज़माने
बस खुदा से इक यही फ़रियाद करना । (शरद जी)
मेरे मालिक !तेरे दरबार में ,
करूँ बार - बार फरियाद मैं .
मानव में उदय हो मानवतावाद ,
न होगा फिर आतंक का नामोनिशान (मंजु जी)
सुमित जी और राज सिंह जी, आप दोनों बड़ी हीं मुद्दतों के बाद इस महफ़िल में नज़र आए। राज सिंह जी, यह क्या.. जब आप हमारी महफ़िल तक का सफ़र तय कर हीं लेते हैं तो बस मंज़िल (टिप्पणी) से पहले लौट क्यों जाते हैं... उम्मीद करता हूँ कि आप आगे से ऐसा नहीं करेंगे। सुमित जी, यह रही आपकी पेशकश:
कोई फ़रियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे,
तूने आँखों से कोई बात कही हो जैसे। (फ़ैज़ अनवर)
शामिख साहब, गणतंत्र दिवस की आपको भी ढेरों बधाईयाँ। आपने ग़ालिब के कई सारे शेर हमारी महफ़िल के सामने रखे... इसी खुशी में हम आपसे यह खुशखबरी बाँटना चाहेंगे कि आने वाले कुछ हीं दिनों में हम ग़ालिब पर एक शृंखला (बस एक महफ़िल नहीं..बल्कि महफ़िलों की लड़ी) लेकर हाज़िर होने वाले हैं। तो संभालिए अपनी धड़कन को और उठने दीजिए चिलमन को :) उससे पहले पेश हैं आपके ये शेर:
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया (ग़ालिब)
चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब (जावेद अख्तर)
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते (अकबर इलाहाबादी)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
शे’र :
गए दिनों में मुहब्बत मिज़ाज उसका था
मगर कुछ और ही अन्दाज़ आज उसका था ।
(मुदस्सर हुसैन)
मौहब्बत का मिजाज उनका अब तक ना बन सका ,
मेरे हजूर!क्या खता है हम से कुछ तो अर्ज कर .
pichli kuch mehfilo mei isliye nahi aa paaya kyuki mujhe un shabdo se sher nahi aata tha......halaki maine wo ghazale bhi suni thi....
aaj ki mehfil ka sher...ye maine internet se copy kiya hai kyuki thik se yaad nahi aa raha htha ye sher......last line mein kuch shabd bhool gya tha....
Koi Haath Bhii Naa Milayega,
Jo Gale Miloge Tapaak See
Yeh Naye Mizaz Ka Shahar Hai
Zara Faasle See Mila Karo…..
tab tak ke liye bye bye......
:-)
आज एक अरसे के बाद आपकी महफ़िल में मैंने फिर से एक बार कुछ झिझकते और कुछ डरते हुए अपने कदम रखे हैं.आपकी पेश की हुई नय्यारा नूर की आवाज़ में दर्द से सराबोर यह ग़ज़ल ''मुझे अपने जब्त पे नाज़ था...'' सुनी और फिर मैं उस दर्दीली आवाज़ में डूब गयी. पता ही नहीं चला उन गुजरते हुए लम्हों का.....क्योंकि कई बार सुनने का मन किया.
और यहाँ आपकी महफ़िल में देख रही हूँ की पहले की तरह ही तमाम लोग आज भी ताज पहने मौजूद हैं जिनके आगे अपनी तो कोई औकात ही नहीं. लेकिन फिर भी जैसा की कुछ लोगों को याद होगा की जब हम यहाँ आते थे तो अपनी भी गजल बिना कहे यहाँ से टलते ही नहीं थे. तो लीजिये आज भी हम अपनी लिखी एक
ग़ज़ल पेश कर रहे हैं. आप सबकी गजलों के आगे तो यह कुछ भी नहीं...लेकिन फिर भी अपनी-अपनी नज़रें-इनायत करिए जरा:
जिन्दगी के मिजाज़ अक्सर बदलते रहते हैं
और हम उसे खुश करने में ही लगे रहते हैं.
-शन्नो अग्रवाल
जाने के पहले आप सबका शुक्रिया कहना चाहती हूँ और इस महफ़िल की रौनक ऐसी ही बनी रहे ऐसी दुआ करती हूँ. खुदा हाफ़िज़.