तुम अपना रंजो गम, अपनी परेशानी मुझे दे दो....कितनी आत्मीयता के कहा था जगजीत कौर ने इन अल्फाजों को, याद कीजिये ज़रा...
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 335/2010/35
"मेरी याद आएगी आती रहेगी, मुझे तू भुलाने की कोशिश ना करना"। दोस्तों, कुछ आवाज़ें भुलाई नहीं भूलती। ये आवाज़ें भले ही बहुत थोड़े समय के लिए या फिर बहुत चुनिंदा गीतों में ही गूंजी, लेकिन इनकी गूंज इतनी प्रभावी थे कि ये आज भी हमारी दिल की वादियों में प्रतिध्वनित होते रहते हैं। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं पर केन्द्रित लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की आज की कड़ी में एक और अनूठी आवाज़ वाली गायिका का ज़िक्र। ये वो गायिका हैं जिन्होने हमारा रंज-ओ-ग़म और परेशानियाँ हम से अपने सर ले लिया था। आप यक़ीनन समझ गए होंगे कि हम आज बात कर रहे हैं गायिका जगजीत कौर की। जगजीत जी ने फ़िल्मों के लिए बहुत कम गीत गाए हैं लेकिन उनका गाया हर एक गीत ख़ास मुकाम रखता है अच्छे संगीत के रसिकों के दिलों में। जगजीत कौर १९४८-४९ में बम्बई आ गईं थीं। उन्होने संगीतकार श्याम सुंदर के साथ फ़िल्म 'लाहौर' ('४९) के गीतों, "नज़र से...", "बहारें फिर भी आएँगी..." आदि की रिहर्सल की थीं, लेकिन बाद में वे गीत लता जी से गवा लिए गए। इसी तरह 'जाल' ('५२) फ़िल्म का मशहूर गीत "ये रात ये चांदनी फिर कहाँ" भी पहले जगजीत कौर गाने वाली थीं, लेकिन एक बार फिर यह गीत लता जी की झोली में डाल दिया गया। दोस्तों, ऐसा केवल जगजीत जी के ही साथ नहीं हुआ, बल्कि कई कई गायिकाओं के साथ हुआ है और ८० के दशक तक ऐसा होता रहा है। इसमें लता जी का कोई क़सूर नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया ही लता जी के आवाज़ की ऐसी दीवानी थी कि हर फ़िल्मकार यही सोचता था कि किस तरह से लता जी को अपनी फ़िल्म में गवाया जाए। ख़ैर, वापस आते हैं जगजीत कौर पर। संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने उन्हे सब से पहले १९५३ की फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' में गवाया था - "ख़ामोश ज़िंदगी को एक अफ़साना मिल गया" और "चंदा गाए रागिनी छम छम बरसे चांदनी"। यहीं से उनकी फ़िल्मी गायन की शुरुआत हुई थी।
जगजीत कौर के गाए उल्लेखनीय और यादगार गीतों में फ़िल्म 'बाज़ार' का गीत "देख लो आज हमको जी भर के" और फ़िल्म 'शगुन' का गीत "तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी हमें दे दो" सब से उपर आता है। इनके अलावा उनके गाए गीतों में जो गानें मुझे इस वक़्त याद आ रहे हैं वो हैं फ़िल्म 'चंबल की क़सम' का "बाजे शहनाई रे बन्नो तोरे अंगना", फ़िल्म 'शगुन' का ही "गोरी ससुराल चली डोली सज गई", फ़िल्म 'हीर रांझा' का गीत "नाचे अंग वे", जिसमें उन्होने अपनी आवाज़ मिलाई थी नूरजहाँ और शमशाद बेग़म जैसे लेजेन्डरी सिंगर्स के साथ, फ़िल्म 'उमरावजान' का गीत "काहे को ब्याही बिदेस", फ़िल्म 'शोला और शबनम' का गीत "लड़ी रे लड़ी तुझसे आँख जो लड़ी" और "फिर वही सावन आया", फ़िल्म 'प्यासे दिल' का "सखी री शरमाए दुल्हन सा बनके" आदि। दोस्तों, एक बात आप ने नोटिस किया कि जगजीत कौर के गाए ज़्यादातर गीत शादी ब्याह वाले गीत हैं। शायद उनकी आवाज़ में ऐसी मिट्टी की ख़ुशबू है कि इस तरह के गीतों में जान डाल देती थी। सचमुच उनकी आवाज़ में इस मिट्टी की ख़ुशबू है जो हौले हौले दिल पर असर करती है, जिसका नशा आहिस्ता आहिस्ता चढ़ता है। आज हमने उनका गाया कोई शादी वाला गाना नहीं बल्कि फ़िल्म 'शगुन' का वही रंज-ओ-ग़म वाला गाना ही चुना है, जिसे आप ने एक लम्बे अरसे से नहीं सुना होगा! इस फ़िल्म का ज़िक्र तो अभी हाल ही में हमने किया था, आइए आज बस इस गीत की कशिश में खो जाते हैं। दोस्तों, जिस तरह से इस गीत के बोल हैं कि अपने ग़म और अपनी परेशानियाँ मुझे दे दो, वाक़ई इस गीत को सुनते हुए जैसे हम अपनी सारी तक़लीफ़ें कुछ देर के लिए भूल जाते हैं और इस गीत के बहाव में बह जाते हैं। साहिर साहब के बोल और ख़य्याम साहब का ठहराव वाला सुरीला संगीत, और उस पर जगजीत जी की इस मिट्टी से जुड़ी आवाज़। भला और क्या चाहिए एक सुधी श्रोता को! आइए सुनते हैं। जिन्हे मालूम नहीं है उनके लिए हम हम बताते चलें कि जगजीत कौर संगीतकार ख़य्याम साहब की धर्मपत्नी भी हैं।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
अपनी बेकरारियां बयां क्या करें,
पहले से ही अब बात क्या करें,
सितम ये कम तो नहीं कि दूर है तू,
उस पर ये बरसात क्या करें...
अतिरिक्त सूत्र- एक मशहूर संगीतकार जोड़ी की पहली फिल्म का था ये गीत
पिछली पहेली का परिणाम-
रोहित जी ऐसे हिम्मत हारते आप अच्छे नहीं लगते, गायिका तो आपने सही पहचान ही ली थी, कोशिश करते तो जवाब भी मिल जाता, खैर अवध जी को बधाई...१ अंक का और इजाफा हुआ है आपके स्कोर में...शरद जी आप और लेट ? कभी नहीं :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
"मेरी याद आएगी आती रहेगी, मुझे तू भुलाने की कोशिश ना करना"। दोस्तों, कुछ आवाज़ें भुलाई नहीं भूलती। ये आवाज़ें भले ही बहुत थोड़े समय के लिए या फिर बहुत चुनिंदा गीतों में ही गूंजी, लेकिन इनकी गूंज इतनी प्रभावी थे कि ये आज भी हमारी दिल की वादियों में प्रतिध्वनित होते रहते हैं। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं पर केन्द्रित लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की आज की कड़ी में एक और अनूठी आवाज़ वाली गायिका का ज़िक्र। ये वो गायिका हैं जिन्होने हमारा रंज-ओ-ग़म और परेशानियाँ हम से अपने सर ले लिया था। आप यक़ीनन समझ गए होंगे कि हम आज बात कर रहे हैं गायिका जगजीत कौर की। जगजीत जी ने फ़िल्मों के लिए बहुत कम गीत गाए हैं लेकिन उनका गाया हर एक गीत ख़ास मुकाम रखता है अच्छे संगीत के रसिकों के दिलों में। जगजीत कौर १९४८-४९ में बम्बई आ गईं थीं। उन्होने संगीतकार श्याम सुंदर के साथ फ़िल्म 'लाहौर' ('४९) के गीतों, "नज़र से...", "बहारें फिर भी आएँगी..." आदि की रिहर्सल की थीं, लेकिन बाद में वे गीत लता जी से गवा लिए गए। इसी तरह 'जाल' ('५२) फ़िल्म का मशहूर गीत "ये रात ये चांदनी फिर कहाँ" भी पहले जगजीत कौर गाने वाली थीं, लेकिन एक बार फिर यह गीत लता जी की झोली में डाल दिया गया। दोस्तों, ऐसा केवल जगजीत जी के ही साथ नहीं हुआ, बल्कि कई कई गायिकाओं के साथ हुआ है और ८० के दशक तक ऐसा होता रहा है। इसमें लता जी का कोई क़सूर नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया ही लता जी के आवाज़ की ऐसी दीवानी थी कि हर फ़िल्मकार यही सोचता था कि किस तरह से लता जी को अपनी फ़िल्म में गवाया जाए। ख़ैर, वापस आते हैं जगजीत कौर पर। संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने उन्हे सब से पहले १९५३ की फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' में गवाया था - "ख़ामोश ज़िंदगी को एक अफ़साना मिल गया" और "चंदा गाए रागिनी छम छम बरसे चांदनी"। यहीं से उनकी फ़िल्मी गायन की शुरुआत हुई थी।
जगजीत कौर के गाए उल्लेखनीय और यादगार गीतों में फ़िल्म 'बाज़ार' का गीत "देख लो आज हमको जी भर के" और फ़िल्म 'शगुन' का गीत "तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी हमें दे दो" सब से उपर आता है। इनके अलावा उनके गाए गीतों में जो गानें मुझे इस वक़्त याद आ रहे हैं वो हैं फ़िल्म 'चंबल की क़सम' का "बाजे शहनाई रे बन्नो तोरे अंगना", फ़िल्म 'शगुन' का ही "गोरी ससुराल चली डोली सज गई", फ़िल्म 'हीर रांझा' का गीत "नाचे अंग वे", जिसमें उन्होने अपनी आवाज़ मिलाई थी नूरजहाँ और शमशाद बेग़म जैसे लेजेन्डरी सिंगर्स के साथ, फ़िल्म 'उमरावजान' का गीत "काहे को ब्याही बिदेस", फ़िल्म 'शोला और शबनम' का गीत "लड़ी रे लड़ी तुझसे आँख जो लड़ी" और "फिर वही सावन आया", फ़िल्म 'प्यासे दिल' का "सखी री शरमाए दुल्हन सा बनके" आदि। दोस्तों, एक बात आप ने नोटिस किया कि जगजीत कौर के गाए ज़्यादातर गीत शादी ब्याह वाले गीत हैं। शायद उनकी आवाज़ में ऐसी मिट्टी की ख़ुशबू है कि इस तरह के गीतों में जान डाल देती थी। सचमुच उनकी आवाज़ में इस मिट्टी की ख़ुशबू है जो हौले हौले दिल पर असर करती है, जिसका नशा आहिस्ता आहिस्ता चढ़ता है। आज हमने उनका गाया कोई शादी वाला गाना नहीं बल्कि फ़िल्म 'शगुन' का वही रंज-ओ-ग़म वाला गाना ही चुना है, जिसे आप ने एक लम्बे अरसे से नहीं सुना होगा! इस फ़िल्म का ज़िक्र तो अभी हाल ही में हमने किया था, आइए आज बस इस गीत की कशिश में खो जाते हैं। दोस्तों, जिस तरह से इस गीत के बोल हैं कि अपने ग़म और अपनी परेशानियाँ मुझे दे दो, वाक़ई इस गीत को सुनते हुए जैसे हम अपनी सारी तक़लीफ़ें कुछ देर के लिए भूल जाते हैं और इस गीत के बहाव में बह जाते हैं। साहिर साहब के बोल और ख़य्याम साहब का ठहराव वाला सुरीला संगीत, और उस पर जगजीत जी की इस मिट्टी से जुड़ी आवाज़। भला और क्या चाहिए एक सुधी श्रोता को! आइए सुनते हैं। जिन्हे मालूम नहीं है उनके लिए हम हम बताते चलें कि जगजीत कौर संगीतकार ख़य्याम साहब की धर्मपत्नी भी हैं।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
अपनी बेकरारियां बयां क्या करें,
पहले से ही अब बात क्या करें,
सितम ये कम तो नहीं कि दूर है तू,
उस पर ये बरसात क्या करें...
अतिरिक्त सूत्र- एक मशहूर संगीतकार जोड़ी की पहली फिल्म का था ये गीत
पिछली पहेली का परिणाम-
रोहित जी ऐसे हिम्मत हारते आप अच्छे नहीं लगते, गायिका तो आपने सही पहचान ही ली थी, कोशिश करते तो जवाब भी मिल जाता, खैर अवध जी को बधाई...१ अंक का और इजाफा हुआ है आपके स्कोर में...शरद जी आप और लेट ? कभी नहीं :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
फ़िल्म : पारसमणि
फिर ये सितम हम पे कि देखना गुरूर से
ओ दीवाने, तू क्या जाने,
दिल की बेकरारियां हैं क्या ?
गायिकाएं : लता और कमल बारोट
इस युगल गीत तो पहचानना आसान नहीं था. काम से काम मेरे जैसे के लिए तो कतई नहीं.
लेकिन आपने तो पलक झपकते ही समझ लिया.इसी लिए तो आपको चैम्पियन कहा जाता है.
अवध लाल