ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 357/2010/57
दर्द भरे गीतों के हमदर्द तलत महमूद की मख़मली आवाज़ और कोमल स्वभाव से यही निचोड़ निकलता है कि फूल से भी चोट खाने वाला नाज़ुक दिल था उनका। और वैसी ही उनके गीत जो आज भी हमें सुकून देते हैं, हमारे दर्द के हमदर्द बनते हैं। तलत साहब का रहन सहन, उनका स्वभाव, उनके गीतों की ही तरह संजीदा और उनके दिल वैसा ही नाज़ुक था, बिल्कुल उनके नग़मों की तरह; सॊफ़्ट स्पोकेन नेचर वाली तलत साहब के अमर, लाजवाब गीतों और ग़ज़लों को आज भी चाहते हैं लोग। और यही वजह है कि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आयोजित की है उनकी गाई हुई ग़ज़लों पर आधारित एक ख़ास शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। आज हम जिस ग़ज़ल को सुनवाने जा रहे हैं वह है सन् १९६० की एक फ़िल्म का। दोस्तों, ५० का दशक तलत महमूद का दशक था। या युं कहिए कि ५० के दशक मे तलत साहब सब से ज़्यादा सक्रीय भी रहे और सब से ज़्यादा उनके कामयाब गानें इस दशक में बनें। ६० के दशक के आते आते फ़िल्म संगीत में जो बदलाव आ रहे थे, गीतों से और फ़िल्मों से मासूमियत जिस तरह से कम होती जा रही थी, ऐसे में तलत साहब का कोमल अंदाज़ भी किरदारों के पक्ष में नहीं जा रहा था। फलस्वरूप, तलत साहब के गानें कम होते चले गए। और एक समय के बाद उन्होने ख़ुद ही फ़िल्मों के लिए गाना छोड़ दिया। लेकिन फिर भी ६० के दशक में उन्होने कई लाजवाब गानें गाए हैं। पिछली ६ कड़ियों में ५० के दशक के ग़ज़लों को सुनने के बाद आज और अगली दो और कड़ियों में हम आपको ६० के दशक में तलत साहब द्वारा गाई तीन ग़ज़लें सुनवाने जा रहे हैं। आज सुनिए १९६० की फ़िल्म 'रेशमी रूमाल' से राजा मेहन्दी अली ख़ान का लिखा और बाबुल का स्वरबद्ध किया हुआ "जब छाए कहीं सावन की घटा, रो रो के ना करना याद मुझे"।
दोस्तों, 'रेशमी रूमाल' फ़िल्म का एक युगल गीत हमने आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी नं. १२७ में सुनवाया था "ज़ुल्फ़ों की घटा लेकर सावन की परी आई"। उस कड़ी में हमने आपको ना केवल इस फ़िल्म से संबम्धित जानकारियाँ दी थी, बल्कि संगीतकार बाबुल का भी परिचय करवाया था। उस गीत में और आज के गीत में एक समानता तो है, और वह है "सावन"। राजा मेहन्दी अली ख़ान साहब के अलग अलग नज़रिए पर ग़ौर कीजिएगा दोस्तों। एक तरफ़ ख़ुशमिज़ाज अंदाज़ में सावन का मानवीकरण हुआ है कि जैसे सावन एक परी हो और बादल उसके काले घने बाल। वहीं दूसरी तरफ़ आज की ग़ज़ल में सावन के आ जाने से जुदाई के दर्द के और ज़्यादा बढ़ जाने की व्याख्या हुई है। युं तो तंस लिखने में माहिर समझे जाते रहे ख़ान साहब, पर उनको पहली पहली प्रसिद्धी मिली थी रमेश सहगल की देश भक्ति फ़िल्म 'शहीद' से। इस फ़िल्म के "वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों" गीत से उस समय हर देशवासी के दिल में देश भक्ति की लहर दौड़ गई थी। राजा साहब के गीतों में उर्दू ग़ज़ल की क्लासिकल शायरी की झलक मिलती है। उनके गीतों में मोहब्बत करने वाला घुट घुट कर आँसू बहाता है। शायद लोगों को अपनी दर्द भरी कहानी इन गीतों और ग़ज़लों में नज़र आती है जिसकी वजह से लोग उनके ऐसे गीतों को पसंद करते हैं और उन्हे बार बार याद करते हैं। राजा साहब और मदन मोहन की ट्युनिंग् बहुत अच्छी जमी थी और इस जोड़ी ने एक से बढ़कर एक लाजवाब ग़ज़लें फ़िल्म संगीत को दिए हैं। लेकिन आज की ग़ज़ल को बाबुल ने स्वरबद्ध किया है, और क्या ख़ूब किया है। दोस्तों, इस ग़ज़ल को सुनते हुए आप एक चीज़ जो ज़रूर महसूस करेंगे वह यह कि अब तक जितनी भी ग़ज़लें इस शृंखला में बजी हैं, उन से इस ग़ज़ल का ऒर्केस्ट्रेशन उन्नत है। फ़र्क वही है जो ५० और ६० के दशक के फ़िल्म संगीत का है। आइए आनंद उठाते हैं इस ग़ज़ल का, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के चार शेर-
जब छाए कहीं सावन की घटा रो रो के ना करना याद मुझे,
ऐ जान-ए-तमन्ना ग़म तेरा कर दे ना कहीं बरबाद मुझे।
जो मस्त बहारें आईं थीं वो रूठ गईं उस गुल्शन से,
जिस गुल्शन में दो दिन के लिए क़िस्मत ने किया आबाद मुझे।
वो राही हूँ पल भर के लिए जो ज़ुल्फ़ के साए में ठहरा,
अब लेके चली है दूर कहीं ऐ इश्क़ तेरी बेदाद मुझे।
ऐ याद-ए-सनम अब लौट भी जा क्यों आ गई तू समझाने को,
मुझको मेरा ग़म काफ़ी है तू और ना कर नाशाद मुझे।
क्या आप जानते हैं...
कि सुविख्यात बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया की पहली फ़िल्मी रिकार्डिंग् तलत महमूद साहब की गाई ग़ज़ल "फिर वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है" (फ़िल्म: जहाँ आरा) के लिए थी।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. मतले के बाद के पहले शेर की पहली पंक्ति में शब्द है - "मालिक", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. इस फिल्म का निर्माण खुद गीतकार ने किया था, उनका नाम बताएं - ३ अंक.
3. मुकेश की आवाज़ में इसी फिल्म का एक दर्द भरा गीत जो ओल्ड इस गोल्ड में बज चुका है वो कौन सा है- २ अंक.
4. गज़ल के संगीतकार कौन हैं - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
विशेष सूचना - यदि आप ओल्ड इस गोल्ड में कोई विशेष गीत सुनना चाहते हैं या पेश करने के इच्छुक हैं, या कोई भी अन्य जानकारी हमारे साथ बांटना चाहते हैं तो हमें oig@hindyugm.com पर भी संपर्क कर सकते हैं
पिछली पहेली का परिणाम-
जबरदस्त टक्कर जारी है, कल इंदु जी ने ३ अंक कमाए तो शरद जी भी कहाँ पीछे रहने वाले थे, अवध जी आपका अंदाज़ हिंट देने का हमें तो खूब भाया...
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
दर्द भरे गीतों के हमदर्द तलत महमूद की मख़मली आवाज़ और कोमल स्वभाव से यही निचोड़ निकलता है कि फूल से भी चोट खाने वाला नाज़ुक दिल था उनका। और वैसी ही उनके गीत जो आज भी हमें सुकून देते हैं, हमारे दर्द के हमदर्द बनते हैं। तलत साहब का रहन सहन, उनका स्वभाव, उनके गीतों की ही तरह संजीदा और उनके दिल वैसा ही नाज़ुक था, बिल्कुल उनके नग़मों की तरह; सॊफ़्ट स्पोकेन नेचर वाली तलत साहब के अमर, लाजवाब गीतों और ग़ज़लों को आज भी चाहते हैं लोग। और यही वजह है कि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आयोजित की है उनकी गाई हुई ग़ज़लों पर आधारित एक ख़ास शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। आज हम जिस ग़ज़ल को सुनवाने जा रहे हैं वह है सन् १९६० की एक फ़िल्म का। दोस्तों, ५० का दशक तलत महमूद का दशक था। या युं कहिए कि ५० के दशक मे तलत साहब सब से ज़्यादा सक्रीय भी रहे और सब से ज़्यादा उनके कामयाब गानें इस दशक में बनें। ६० के दशक के आते आते फ़िल्म संगीत में जो बदलाव आ रहे थे, गीतों से और फ़िल्मों से मासूमियत जिस तरह से कम होती जा रही थी, ऐसे में तलत साहब का कोमल अंदाज़ भी किरदारों के पक्ष में नहीं जा रहा था। फलस्वरूप, तलत साहब के गानें कम होते चले गए। और एक समय के बाद उन्होने ख़ुद ही फ़िल्मों के लिए गाना छोड़ दिया। लेकिन फिर भी ६० के दशक में उन्होने कई लाजवाब गानें गाए हैं। पिछली ६ कड़ियों में ५० के दशक के ग़ज़लों को सुनने के बाद आज और अगली दो और कड़ियों में हम आपको ६० के दशक में तलत साहब द्वारा गाई तीन ग़ज़लें सुनवाने जा रहे हैं। आज सुनिए १९६० की फ़िल्म 'रेशमी रूमाल' से राजा मेहन्दी अली ख़ान का लिखा और बाबुल का स्वरबद्ध किया हुआ "जब छाए कहीं सावन की घटा, रो रो के ना करना याद मुझे"।
दोस्तों, 'रेशमी रूमाल' फ़िल्म का एक युगल गीत हमने आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी नं. १२७ में सुनवाया था "ज़ुल्फ़ों की घटा लेकर सावन की परी आई"। उस कड़ी में हमने आपको ना केवल इस फ़िल्म से संबम्धित जानकारियाँ दी थी, बल्कि संगीतकार बाबुल का भी परिचय करवाया था। उस गीत में और आज के गीत में एक समानता तो है, और वह है "सावन"। राजा मेहन्दी अली ख़ान साहब के अलग अलग नज़रिए पर ग़ौर कीजिएगा दोस्तों। एक तरफ़ ख़ुशमिज़ाज अंदाज़ में सावन का मानवीकरण हुआ है कि जैसे सावन एक परी हो और बादल उसके काले घने बाल। वहीं दूसरी तरफ़ आज की ग़ज़ल में सावन के आ जाने से जुदाई के दर्द के और ज़्यादा बढ़ जाने की व्याख्या हुई है। युं तो तंस लिखने में माहिर समझे जाते रहे ख़ान साहब, पर उनको पहली पहली प्रसिद्धी मिली थी रमेश सहगल की देश भक्ति फ़िल्म 'शहीद' से। इस फ़िल्म के "वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों" गीत से उस समय हर देशवासी के दिल में देश भक्ति की लहर दौड़ गई थी। राजा साहब के गीतों में उर्दू ग़ज़ल की क्लासिकल शायरी की झलक मिलती है। उनके गीतों में मोहब्बत करने वाला घुट घुट कर आँसू बहाता है। शायद लोगों को अपनी दर्द भरी कहानी इन गीतों और ग़ज़लों में नज़र आती है जिसकी वजह से लोग उनके ऐसे गीतों को पसंद करते हैं और उन्हे बार बार याद करते हैं। राजा साहब और मदन मोहन की ट्युनिंग् बहुत अच्छी जमी थी और इस जोड़ी ने एक से बढ़कर एक लाजवाब ग़ज़लें फ़िल्म संगीत को दिए हैं। लेकिन आज की ग़ज़ल को बाबुल ने स्वरबद्ध किया है, और क्या ख़ूब किया है। दोस्तों, इस ग़ज़ल को सुनते हुए आप एक चीज़ जो ज़रूर महसूस करेंगे वह यह कि अब तक जितनी भी ग़ज़लें इस शृंखला में बजी हैं, उन से इस ग़ज़ल का ऒर्केस्ट्रेशन उन्नत है। फ़र्क वही है जो ५० और ६० के दशक के फ़िल्म संगीत का है। आइए आनंद उठाते हैं इस ग़ज़ल का, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के चार शेर-
जब छाए कहीं सावन की घटा रो रो के ना करना याद मुझे,
ऐ जान-ए-तमन्ना ग़म तेरा कर दे ना कहीं बरबाद मुझे।
जो मस्त बहारें आईं थीं वो रूठ गईं उस गुल्शन से,
जिस गुल्शन में दो दिन के लिए क़िस्मत ने किया आबाद मुझे।
वो राही हूँ पल भर के लिए जो ज़ुल्फ़ के साए में ठहरा,
अब लेके चली है दूर कहीं ऐ इश्क़ तेरी बेदाद मुझे।
ऐ याद-ए-सनम अब लौट भी जा क्यों आ गई तू समझाने को,
मुझको मेरा ग़म काफ़ी है तू और ना कर नाशाद मुझे।
क्या आप जानते हैं...
कि सुविख्यात बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया की पहली फ़िल्मी रिकार्डिंग् तलत महमूद साहब की गाई ग़ज़ल "फिर वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है" (फ़िल्म: जहाँ आरा) के लिए थी।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. मतले के बाद के पहले शेर की पहली पंक्ति में शब्द है - "मालिक", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. इस फिल्म का निर्माण खुद गीतकार ने किया था, उनका नाम बताएं - ३ अंक.
3. मुकेश की आवाज़ में इसी फिल्म का एक दर्द भरा गीत जो ओल्ड इस गोल्ड में बज चुका है वो कौन सा है- २ अंक.
4. गज़ल के संगीतकार कौन हैं - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
विशेष सूचना - यदि आप ओल्ड इस गोल्ड में कोई विशेष गीत सुनना चाहते हैं या पेश करने के इच्छुक हैं, या कोई भी अन्य जानकारी हमारे साथ बांटना चाहते हैं तो हमें oig@hindyugm.com पर भी संपर्क कर सकते हैं
पिछली पहेली का परिणाम-
जबरदस्त टक्कर जारी है, कल इंदु जी ने ३ अंक कमाए तो शरद जी भी कहाँ पीछे रहने वाले थे, अवध जी आपका अंदाज़ हिंट देने का हमें तो खूब भाया...
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
बी एस पाबला
jhagdne ka irada hai holi pr?
kyon pnga lene pr tule hain sb ?
''vishesh tyohar vishesh pangaa, vishesh logon se ''
ha ha ha
aaj uttar aap denge ,Pabla bhaiya
अवध लाल
तेरी रहमत चुप रही, मैं रोते-रोते मर गया
वो बहारें नाच उठी थीं, झूम उठी थीं बदलियाँ
अपनी क़िस्मत याद आते ही मेरा दिल डर गया
मेरे मालिक क्या कहूँ, तेरी दुआओं का फ़रेब
मुझ पे यूँ छा गया, कि मुझको घर से बेघर कर गया ।
मालिक शब्द मतले के बाद के शे’र में न आकर मतले के बाद दूसरे शे’र में आ रहा है ।