ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 353/2010/53
यह है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल और आप इन दिनों इस पर सुन रहे हैं तलत महमूद साहब पर केन्द्रित शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। तलत साहब की गाई ग़ज़लों के अलावा इसमें हम आपको उनके जीवन से जुड़ी बातें भी बता रहे हैं। कल हमने आपको उनके शुरुआती दिनों का हाल बताया था, आइए आज उनके शब्दों में जानें कि कैसा था उनका पहला पहला अनुभव बतौर अभिनेता। ये उन्होने विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहे थे। "कानन देवी, एक और महान फ़नकार। उनके साथ मैंने न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'राजलक्ष्मी' में एक छोटा सा रोल किया थ। उस फ़िल्म में एक रोल था जिसमें उस चरित्र को एक गाना भी गाना था। निर्देशक साहब ने कहा कि आप तो गाते हैं, आप ही यह रोल कर लीजिये। मं अगले दिन ख़ूब शेव करके, दाढ़ी बनाकर सेट पर पहुँच, और तब मुझे पता चला कि दरसल रोल साधू का है। मेक-अप मैन आकर मेरा पूरा चेहरा सफ़ेद दाढ़ी से ढक दिया। जब गोंद सूखने लगा तो चेहरा इतना खिंचने लगा कि मुझसे मुंह भी खोला नहीं जा रहा था। निर्देशक साहब ने कहा कि ज़रा मुंह खोल कर तो गाओ! मुझे उन पर बड़ा ग़ुस्सा आया और दिल किया कि दाढ़ी उतार कर फेंक दूँ। तभी वहाँ आ पहुँची कानन देवी और मैं अपने आप को संभाल लिया।" दोस्तों, थी यह एक मज़ेदार क़िस्सा। 'राजलक्ष्मी' तलत महमूद साहब की पहली फ़िल्म थी बतौर अभिनेता और गायक। साल था १९४५। इसके बाद उन्होने १२ और फ़िल्मों में अभिनय किया जिनकी फ़ेहरिस्त इस प्रकार है - तुम और मैं ('४७), समाप्ति ('४९), आराम ('५१), दिल-ए-नादान ('५३), डाक बाबू ('५४), वारिस ('५४), रफ़्तार ('५५), दिवाली की रात ('५६), एक गाँव की कहानी ('५७), लाला रुख़ ('५८), मालिक ('५८) और सोने की चिड़िया ('५८)। आज के अंक के लिए हमने जिस ग़ज़ल को चुना है वह है १९५६ की फ़िल्म 'दिवाली की रात' का। "ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे, हर ख़ुशी रोती नज़र आई मुझे"। नक्श ल्यालपुरी का क़लाम और मौसिक़ी कमचर्चित संगीतकार स्नेहल भाटकर की।
'दिवाली की रात' फ़िल्म में तलत महमूद साहब के साथ पर्दे पर नज़र आईं रूपमाला और शशिकला। फ़िल्म के निर्मता थे विशनदास सप्रू और राम रसीला, तथा निर्देशक थे दीपक आशा। प्रस्तुत ग़ज़ल के शायर नक्श ल्यायलपुरी के अलावा इस फ़िल्म के गानें लिखे मधुकर राजस्थानी ने। आपको यहाँ बताना चाहेंगे कि नक्श साहब ने फ़िल्मी दुनिया में बतौर गीतकार क़दम रखा था सन् १९५२ में जगदीश सेठी की फ़िल्म 'जग्गू' में, जिसमें उन्होने एक कैबरे गीत लिखा था। जसवंत राय के नाम से पंजाब के ल्यायलपुर में जन्मे नक्श साहब अपने स्कूली दिनों से ही लिखने में प्रतिभा रखते थे। उनके उर्दू टीचर परीक्षाओं के बाद उनकी कॊपियाँ अपने पास रख लेते थे, नोट्स के लिए नहीं बल्कि उन शेरों और कविताओं के लिए जो आख़िरी पन्नों पर वो लिखा करते थे। नक्श साहब की यह प्रतिभा परवान चढ़ती गई और वो स्कूल से कॊलेज में दाख़िल हुए। देश के बंटवारे के बाद वो अपने परिवार के साथ लखनऊ आ गए, लेकिन उनकी सृजनात्मक पिपासा और उनकी बेरोज़गारी ने उन्हे लखनऊ छोड़ बम्बई चले जाने पर मजबूर किया। उस समय उनकी आयु १९ वर्ष की थी और साल था १९५१। बम्बई के वो शुरुआती बहुत सुखद नहीं थे। लेकिन उन्हे कुछ राहत मिली जब डाक-तार विभाग में उन्हे एक नौकरी मिल गई। लेकिन उनके जैसे प्रतिभाशाली इंसान की वह जगह नहीं थी। बहरहाल वहाँ पर उन्होने कुच दोस्त बनाए और उन्ही दोस्तों के आग्रह पर उन्होने एक नाटक लिखा 'तड़प', जो उनके लिए फ़िल्म जगत में दाख़िले के लिए मददगार साबित हुआ। राम मोहन, जो उस नाटक के नायक थे और फ़िल्मकार जगदीश सेठी के सहायक भी, नक्श साहब को सेठी साहब के पास ले गए, और इस तरह से उन्हे फ़िल्म 'जग्गू' में गीत लिखने का मौका मिला और हिंदी फ़िल्म जगत में उनकी एंट्री हो गई। नक्श साहब की बातें आगे भी जारी रहेंगे, फ़िल्हाल सुना जाए तलत साहब की मख़मली आवाज़, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के चार शेर।
ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे,
हर ख़ुशी रोती नज़र आई मुझे।
जिनके दामन में सुहाने ख़्वाब थे,
फिर उन्ही रातों की याद आई मुझे।
हो गई वीरान महफ़िल प्यार की,
ये फ़िज़ा भी रास ना आई मुझे।
छीन कर मुझसे मेरे होश-ओ-हवास,
अब जहाँ कहता है सौदाई मुझे।
क्या आप जानते हैं...
तलत महमूद की फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' के हीरोइन की तलाश के लिए ए. आर. कारदार ने 'ऒल इंडिया बिउटी कॊंटेस्ट' का आयोजन किया जिसे प्रायोजित किया उस ज़माने की मशहूर टूथपेस्ट कंपनी 'कोलीनोस' ने। इस कॊंटेस्ट की विजेयता बनीं पीस कंवल (Peace Kanwal), जो नज़र आए तलत साहब के साथ 'दिल-ए-नादान' में।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
1. तलत की गाई इस ग़ज़ल के मतले में शब्द है- "नवाज़िश", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. कौन हैं इस गज़ल के शायर- २ अंक.
3. नानुभाई वकील निर्देशित इस फिल्म के संगीतकार का नाम बताएं जो बेहद कमचर्चित ही रहे- २ अंक.
4. एक और मकबूल संगीतकार का भी नाम जुड़ा है इस गीत के साथ उनका भी नाम बताएं- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी, आप बड़ी हैं, कुछ विपक्ष में कहने की हिम्मत नहीं होती, इसलिए अपनी जान बचने की खातिर हम ये इलज़ाम शरद जी के सर डाल देते हैं, दरअसल उनका सुझाव था और इससे हमें भी इत्तेफाक है कि यदि सारे जवाब आ जाते हैं तो बाकी श्रोता मूक दर्शक बने रहते हैं, और हमारा उद्देश्य सबकी भागीदारी है, वैसे कल के सवाल का कोई सही जवाब नहीं आया. अवध जी बहुत दिनों में आये और जवाब दिए बिना चले गए. :), खैर आज सही
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
यह है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल और आप इन दिनों इस पर सुन रहे हैं तलत महमूद साहब पर केन्द्रित शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। तलत साहब की गाई ग़ज़लों के अलावा इसमें हम आपको उनके जीवन से जुड़ी बातें भी बता रहे हैं। कल हमने आपको उनके शुरुआती दिनों का हाल बताया था, आइए आज उनके शब्दों में जानें कि कैसा था उनका पहला पहला अनुभव बतौर अभिनेता। ये उन्होने विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहे थे। "कानन देवी, एक और महान फ़नकार। उनके साथ मैंने न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'राजलक्ष्मी' में एक छोटा सा रोल किया थ। उस फ़िल्म में एक रोल था जिसमें उस चरित्र को एक गाना भी गाना था। निर्देशक साहब ने कहा कि आप तो गाते हैं, आप ही यह रोल कर लीजिये। मं अगले दिन ख़ूब शेव करके, दाढ़ी बनाकर सेट पर पहुँच, और तब मुझे पता चला कि दरसल रोल साधू का है। मेक-अप मैन आकर मेरा पूरा चेहरा सफ़ेद दाढ़ी से ढक दिया। जब गोंद सूखने लगा तो चेहरा इतना खिंचने लगा कि मुझसे मुंह भी खोला नहीं जा रहा था। निर्देशक साहब ने कहा कि ज़रा मुंह खोल कर तो गाओ! मुझे उन पर बड़ा ग़ुस्सा आया और दिल किया कि दाढ़ी उतार कर फेंक दूँ। तभी वहाँ आ पहुँची कानन देवी और मैं अपने आप को संभाल लिया।" दोस्तों, थी यह एक मज़ेदार क़िस्सा। 'राजलक्ष्मी' तलत महमूद साहब की पहली फ़िल्म थी बतौर अभिनेता और गायक। साल था १९४५। इसके बाद उन्होने १२ और फ़िल्मों में अभिनय किया जिनकी फ़ेहरिस्त इस प्रकार है - तुम और मैं ('४७), समाप्ति ('४९), आराम ('५१), दिल-ए-नादान ('५३), डाक बाबू ('५४), वारिस ('५४), रफ़्तार ('५५), दिवाली की रात ('५६), एक गाँव की कहानी ('५७), लाला रुख़ ('५८), मालिक ('५८) और सोने की चिड़िया ('५८)। आज के अंक के लिए हमने जिस ग़ज़ल को चुना है वह है १९५६ की फ़िल्म 'दिवाली की रात' का। "ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे, हर ख़ुशी रोती नज़र आई मुझे"। नक्श ल्यालपुरी का क़लाम और मौसिक़ी कमचर्चित संगीतकार स्नेहल भाटकर की।
'दिवाली की रात' फ़िल्म में तलत महमूद साहब के साथ पर्दे पर नज़र आईं रूपमाला और शशिकला। फ़िल्म के निर्मता थे विशनदास सप्रू और राम रसीला, तथा निर्देशक थे दीपक आशा। प्रस्तुत ग़ज़ल के शायर नक्श ल्यायलपुरी के अलावा इस फ़िल्म के गानें लिखे मधुकर राजस्थानी ने। आपको यहाँ बताना चाहेंगे कि नक्श साहब ने फ़िल्मी दुनिया में बतौर गीतकार क़दम रखा था सन् १९५२ में जगदीश सेठी की फ़िल्म 'जग्गू' में, जिसमें उन्होने एक कैबरे गीत लिखा था। जसवंत राय के नाम से पंजाब के ल्यायलपुर में जन्मे नक्श साहब अपने स्कूली दिनों से ही लिखने में प्रतिभा रखते थे। उनके उर्दू टीचर परीक्षाओं के बाद उनकी कॊपियाँ अपने पास रख लेते थे, नोट्स के लिए नहीं बल्कि उन शेरों और कविताओं के लिए जो आख़िरी पन्नों पर वो लिखा करते थे। नक्श साहब की यह प्रतिभा परवान चढ़ती गई और वो स्कूल से कॊलेज में दाख़िल हुए। देश के बंटवारे के बाद वो अपने परिवार के साथ लखनऊ आ गए, लेकिन उनकी सृजनात्मक पिपासा और उनकी बेरोज़गारी ने उन्हे लखनऊ छोड़ बम्बई चले जाने पर मजबूर किया। उस समय उनकी आयु १९ वर्ष की थी और साल था १९५१। बम्बई के वो शुरुआती बहुत सुखद नहीं थे। लेकिन उन्हे कुछ राहत मिली जब डाक-तार विभाग में उन्हे एक नौकरी मिल गई। लेकिन उनके जैसे प्रतिभाशाली इंसान की वह जगह नहीं थी। बहरहाल वहाँ पर उन्होने कुच दोस्त बनाए और उन्ही दोस्तों के आग्रह पर उन्होने एक नाटक लिखा 'तड़प', जो उनके लिए फ़िल्म जगत में दाख़िले के लिए मददगार साबित हुआ। राम मोहन, जो उस नाटक के नायक थे और फ़िल्मकार जगदीश सेठी के सहायक भी, नक्श साहब को सेठी साहब के पास ले गए, और इस तरह से उन्हे फ़िल्म 'जग्गू' में गीत लिखने का मौका मिला और हिंदी फ़िल्म जगत में उनकी एंट्री हो गई। नक्श साहब की बातें आगे भी जारी रहेंगे, फ़िल्हाल सुना जाए तलत साहब की मख़मली आवाज़, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के चार शेर।
ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे,
हर ख़ुशी रोती नज़र आई मुझे।
जिनके दामन में सुहाने ख़्वाब थे,
फिर उन्ही रातों की याद आई मुझे।
हो गई वीरान महफ़िल प्यार की,
ये फ़िज़ा भी रास ना आई मुझे।
छीन कर मुझसे मेरे होश-ओ-हवास,
अब जहाँ कहता है सौदाई मुझे।
क्या आप जानते हैं...
तलत महमूद की फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' के हीरोइन की तलाश के लिए ए. आर. कारदार ने 'ऒल इंडिया बिउटी कॊंटेस्ट' का आयोजन किया जिसे प्रायोजित किया उस ज़माने की मशहूर टूथपेस्ट कंपनी 'कोलीनोस' ने। इस कॊंटेस्ट की विजेयता बनीं पीस कंवल (Peace Kanwal), जो नज़र आए तलत साहब के साथ 'दिल-ए-नादान' में।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
1. तलत की गाई इस ग़ज़ल के मतले में शब्द है- "नवाज़िश", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. कौन हैं इस गज़ल के शायर- २ अंक.
3. नानुभाई वकील निर्देशित इस फिल्म के संगीतकार का नाम बताएं जो बेहद कमचर्चित ही रहे- २ अंक.
4. एक और मकबूल संगीतकार का भी नाम जुड़ा है इस गीत के साथ उनका भी नाम बताएं- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी, आप बड़ी हैं, कुछ विपक्ष में कहने की हिम्मत नहीं होती, इसलिए अपनी जान बचने की खातिर हम ये इलज़ाम शरद जी के सर डाल देते हैं, दरअसल उनका सुझाव था और इससे हमें भी इत्तेफाक है कि यदि सारे जवाब आ जाते हैं तो बाकी श्रोता मूक दर्शक बने रहते हैं, और हमारा उद्देश्य सबकी भागीदारी है, वैसे कल के सवाल का कोई सही जवाब नहीं आया. अवध जी बहुत दिनों में आये और जवाब दिए बिना चले गए. :), खैर आज सही
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
गर तेरा इशारा हो जाये
हर मौज सहारा दे जाये
तूफान किनारा बन जाये
फिल्म -'गुल-बहार'
नोट --सुजोय ने मुझे आज बुढ़िया बोला .
नही बोला ?
झूठ भी बोलते हो ? 'सिनिअर' लिखा था ना?
बाबा ! पंगा तो ले ही लिया तुमने,बचकर कहाँ जाओगे?
हा हा हा
Lyricist: Shewan Rizvi. he has given many beautiful songs teaming with O.P.Nayyar & if I am not mistaken with Usha Khanna also.
I think I also know the answer to Q.3. but Q.4 totally floors me unless the answer is obvious.
Thanks & regards
Avadh Lal
p.s.: I am sorry.For some reason my computer does not let me use Hindi script. Hence, my apologies for answering in English.
सादर अभिवादन और बधाई.
यह प्रश्न सचमुच आसान नहीं था. पर आपने तो चटपट हल कर कम से कम हम लोगों की इज्ज़त बचा ली. वर्ना यह लोग कह रहे हैं कि कोई भी सामने नहीं आ रहा है.
रही बात दूसरी, तो अगर हम इनको बच्चा कहेंगे तो पलट कर अपने को बुजुर्गों की श्रेणी में तो जाना ही पड़ेगा.
है न ठीक बात. :-))
अवध लाल
bilkul sahi kah rhe ahin aap .
inka bujurg,budhiya ya mataji,dadeeji kahna achchha lgta hai.
pr.......sharart karanaa,chhed khani karna mujhe psnd hai.
vese aapse mil kr achchha lga .
I feel pleasure n proud to meet u,sir.accept my pranaam .
kahan chle gaye sb?
main de dun?
marks mt dena baba .
bahut rokti hun khud ko pr.....
' dil hai ki maanta nhi'
ha ha ha
कल शाम से ही नेट कनेक्शन नहीं मिल रहा था अब जा कर ठीक हुआ