Skip to main content

अखियाँ मिलके जिया भरमा के चले नहीं जाना...जोहराबाई अंबालेवाली की आवाज़ थी जैसे कोई जादू

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 345/2010/45

१९४४ का साल फ़िल्म संगीत के इतिहास का एक और महत्वपूर्ण साल रहा, लेकिन इस साल की शुरुआत भारतीय सिनेमा के भीष्म पितामह दादा साहब फाल्के के निधन से हुआ था। दिन था १६ फ़रवरी। दादा साहब ने पहली भारतीय फ़िल्म 'दि बर्थ ऒफ़ ए पी प्लाण्ट' का निर्माण किया था जिसमें एक बीज के एक पौधे में परिनत होते हुए दिखाया गया था। देश की पहला कहानी केन्द्रित फ़िल्म 'राजा हरीशचन्द्र' का निर्माण भी दादा साहब ने ही किया था जिसका प्रदर्शन २१ अप्रैल १९१३ को बम्बई के कोरोनेशन सिनेमा में किया गया था। उनके उल्लेखनीय फ़िल्मों में शामिल हैं 'लंका दहन' ('१९१६), 'हाउ फ़िल्म्स कैन मेड' (१९१७), 'श्री कृष्ण जनम' (१९१८), 'कालिया दमन' (१९१९), और 'भक्त प्रह्लाद' (१९२६)। ये सब मूक फ़िल्में थीं। दादा साहब को सम्मान स्वरूप उनके नाम पर भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' की स्थापना की गई और इसका पहला पुरस्कार १९७० में देवीका रानी को दिया गया था। ख़ैर, वापस आते हैं १९४४ के साल पर। यह साल नौशाद साहब के करीयर का टर्निंग् पॊयण्ट साबित हुआ, जब उनके संगीत में फ़िल्म 'रतन' के संगीत ने पूरे देश में एक सुरीला तहलका मचा दिया। इस फ़िल्म के बाद नौशाद साहब को फिर कभी पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उन्होने ज़ोहराबाई अंबालेवाली से इस फ़िल्म में एक ऐसा गीत गवाया जो ट्रेंडसेटर साबित हुआ। ट्रेंडसेटर इसलिए कि उत्तर प्रदेश के लोक संगीत का इस तरह का फ़िल्मी गीत में इस्तेमाल इससे पहले शायद ही किसी संगीतकार ने किया होगा। अगर ग़ुलाम हैदर पंजाबी लोक संगीत को फ़िल्मी गीतों में लेकर आए थे तो नौशाद साहब ने उत्तर प्रदेश के लोक संगीत को फ़िल्मों में लोकप्रिय बनाया। यु.पी का लोकसंगीत, उस पर कर्णप्रिय ऒर्केस्ट्रेशन, और साथ में ग़ुलाम मोहम्मद के तबले और ढोलक के ठेके, कुल मिलाकर एक ज़बरदस्त कामयाबी का समां बंध गया था। तो आइए १९४४ के साल का प्रतिनिधित्व करने के लिए आज के इस अंक में हम ज़ोहराबाई के गाए इसी गीत को सुनते हैं, "अखियाँ मिलाके जिया भरमाके चले नहीं जाना"। डी. एन. मधोक हैं इस गीत के रचयिता।

गीत लेखन में अच्छी ख़ासी उपलब्धि हासिल करने के पश्चात् दीना नाथ मधोक ने ख़ुद एक फ़िल्म बनाने की सोची। लेकिन क्योंकि वह युद्ध कालीन दौर था, और फ़िल्म निर्माण भी लाइसेन्स नियंत्रित हुआ करता था जिसका नियंत्रण अंग्रेज़ सरकार के पास था, ऐसे में मधोक साहब के लिए फ़िल्म निर्माण करना संभव नहीं था। अत: उन्होने जेमिनि दीवान का दामन थामा जिनके पास फ़िल्म निर्माण लाइसेन्स मौजूद था और इस तरह से जेमिनि पिक्चर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म 'रतन'। मधोक साहब के लिखे गीत और नौशाद साहब के हिट संगीत ने धूम मचा दी। आपको यह भी बता दें कि आज का प्रस्तुत गीत सब से पुराना गीत है जिसका रीमिक्स वर्ज़न निकला है हाल के सालों में। इसी से इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। एम. सादिक़ निर्देशित और स्वर्णलता व करण दीवान अभिनीत 'रतन' ने एक फ़िल्म की हैसियत से भी ज़बरदस्त कामयाबी बटोरी। कहा जाता है कि 'रतन' का निर्माण ८०,००० रुपय में हुआ था, जब कि सिर्फ़ इस फ़िल्म के ग्रामोफ़ोन रिकार्ड के विक्रय से ही निर्माता को ३,५०,००० रुपय की रोयल्टी मिली।

इस फ़िल्म के संगीत से जुड़ी कुछ बड़ी ही दिलचस्प और मज़ेदार बातें नौशाद साहब ने विविध भारती के 'नौशादनामा' शृंखला में कहे थे सन् २००० में, आइए आज उन्ही पर एक नज़र दौड़ाएँ। नौशाद साहब से बातचीत कर रहे हैं कमल शर्मा।

प्र: अच्छा वह क़िस्सा कि जब आप की शादी में बैण्ड वाले आप के ही गानें की धुन बजा रहे थे, उसके बारे में कुछ बताइए।

उ: १९४४ में 'रतन' के गानें बहुत हिट हो गए थे। उससे पहले मैं घर छोड़ कर बम्बई आया था। एक दिन मेरे वालिद ने मुझसे कहा था कि 'तुमने मेरा कहना कभी नहीं माना, आज फ़ैसला होके रहेगा, अगर संगीत चाहिए तो घर छोड़ दो और अगर घर चाहिए तो संगीत को छोड़ना होगा'। मैंने १९३५ में घर छोड़ दिया।

प्र: क्या उम्र रही होगी आपकी उस वक़्त?

उ: १३/१४ या १५। उसके बाद मैं घर नहीं गया, कहाँ कहाँ भटका। फ़ूटपाथ पर सोता था, फ़ूटपाथ के उस साइड ब्रॊडवे थिएटर थी जिसकी रोशनी फ़ूटपाथ पर पड़ती थी। और एक बार उसी थिएटर में मेरी फ़िल्म 'बैजु बावरा' की जुबिली हुई। मैं उस थिएटर की बाल्कनी से उस फ़ूटपाथ को देख रहा था कि मेरी आंखों में पानी आ गए। विजय भट्ट ने पूछा कि क्या हुआ, आप रो क्यों रहे हैं? मैंने कहा कि उस फ़ूटपाथ को देख कर आंखें भर आई, १६ साल लगे इस फ़ूटपाथ को पार करने में। ख़ैर, माँ का पैगाम आया कि शादी के लिए लड़की तय हो गई है, मैं घर जा जाऊँ। उस वक़्त मैं नौशाद बन चुका था। माँ ने कहा कि लड़की वाले सूफ़ी लोग हैं, इसलिए उन लोगों से यह नहीं कहना कि तुम संगीत का काम करते हो, बल्कि तुम दर्ज़ी का काम करते हो। मैंने सोचा कि संगीतकार से दर्ज़ी की इज़्ज़त ज़्यादा हो गई है। तो शादी में शामियाना लगाया गया, और बैण्ड वाले मेरा ही गाना बजाए जा रहे हैं और मैं दर्ज़ी बना बैठा हूँ। किसी ने फिर कहीं से कहा कि कौन ये सब गानें बजा रहा है? सब को ख़राब कर रहा है। उस समय यही सब गानें चल रहे थे, "सावन के बादलों", "अखियाँ मिलाके", वगेरह।


तो दोस्तों, अब बारी गीत सुनने की है, नौशाद, डी. एन. मधोक और ज़ोहराबाई अंबालेवाली की शान में पेश-ए-ख़िदमत है फ़िल्म 'रतन' का यह ब्लॊकबस्टर गीत।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

पाके इशारे तेरे कायनात धडके,
पवन चले, और फूल महके,
तोड़ के बंधन सारे नदी बहे,
व्याकुल मनों में ठंडक उतरे...

1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. नूरजहाँ का गाया ये गीत किस गीतकार ने लिखा है- सही जवाब को मिलेंगें २ अंक.
3. इस गीत के संगीत कार का नाम बताएं- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
4. दो शब्दों का नाम है इस फिल्म का. कौन है इस फिल्म का निर्देशक - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी एक बार फिर से आगे निकल चुके हैं, ८ अंकों पर आप हैं रोहित जी से एक कदम आगे. बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

दिया जलाकर आप बुझाया
तेरे काम निराले
दिल तोड के जाने वाले ।
Anonymous said…
2. taveer naqvi

ROHIT RAJPUT

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट