ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 259
१९५८ में गायक तलत महमूद कुल तीन फ़िल्मों में बतौर अभिनेता नज़र आए थे। ये फ़िल्में थीं 'सोने की चिड़िया', 'लाला रुख़' और 'मालिक'। जहाँ पहली दो फ़िल्में 'फ़िल्म इंडिया कॊर्पोरेशन' की प्रस्तुति थीं, 'मालिक' फ़िल्म का निर्माण किया था एस. एम युसूफ़ ने अपनी 'सनी आर्ट प्रोडक्शन्स' के बैनर तले। फ़िल्म की नायिका थीं सुरैया। दोस्तों, १९५८ तक पार्श्वगायन पूरी तरह से अपनी शबाब पर था। ३० और ४० के दशकों के 'सिंगिंग् स्टार्स' फ़िल्म जगत के आसमान से ग़ायब हो चुके थे, कुछ देश विभाजन की वजह से, कुछ बदलते दौर और तकनीक की वजह से। लेकिन कुछ ऐसे कलाकार जिनकी गायन प्रतिभा उनके अभिनय की तरह ही पुख़्ता थी, वो ५० के दशक में भी लोकप्रिय बने रहे। इसका सीधा सीधा उदाहरण है तलत महमूद और सुरैया। ये सच है कि तलत साहब एक गायक के रूप में ही जाने जाते हैं, लेकिन अभिनय में रुचि और नायक जैसे दिखने की वजह से वो चंद फ़िल्मों में बतौर नायक काम किया था। और सुरैया के तो क्या कहने! अभिनय और गायन, दोनों में लाजवाब! लेकिन दूसरी अभिनेत्रियों के लिए पार्श्वगायन ना करने की सोच ने उन्हे पीछे धकेल दिया था ५० के दशक में। ज़्यादातर फ़िल्मकार उनसे गीत गवाना चाहते थे लेकिन दूसरी अभिनेत्रियों के लिए, जो उन्हे कतई मंज़ूर नहीं था। १९५८ की फ़िल्म 'मालिक' में ये दोनों कलाकार एक साथ नज़र आए और इस तरह से इस फ़िल्म को मिले दो 'सिंगिंग् स्टार्स'। अब ज़ाहिर सी बात है कि इन दोनों ने ही इस फ़िल्म के गाने गाए होंगे। आज हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा रहे हैं इस फ़िल्म से एक बहुत ही प्यारा युगल गीत "मन धीरे धीरे गाए रे, मालूम नहीं क्यों"। फ़िल्म तो बहुत ज़्यादा मशहूर नहीं हुई लेकिन तलत साहब और सुरैया के गाए और गीतकार शक़ील बदायूनी के लिखे इस गीत को ख़ूब सुना गया।
'मालिक' के संगीतकार थे ग़ुलाम मोहम्मद। ऐए आज ग़ुलाम साहब की कुछ बातें की जाए। उन्हे संगीत विरासत में ही मिली थी। उनके पिता नवीबक्श एक तबला वादक थे। अपने पिता के साथ वो भी जलसों में जाया करते थे। ऐल्बर्ट थियटर में ये जलसे हुआ करते थे। तबले के साथ साथ ग़ुलाम मोहम्मद का अभिनय में भी रुचि थी। २५ रुपय प्रति माह के वेतन पर वे ऐल्बर्ट थियटर में शामिल हो गए। कुछ समय तक वहाँ रहे, लेकिन जब थियटर की माली हालात ख़राब हो गई तो उन्हे दूसरे दरवाज़ों पर दस्तक देनी पड़ी। काफ़ी जद्दोजहद के बाद एक कंपनी में उन्हे ४ आने प्रति रोज़ के वेतन पर रख लिया गया। वह कंपनी घूमते घामते जब जुनागढ़ पहुँची तो वहाँ जलसे में एक नामी मंत्री महोदय भी दर्शकों में शामिल थे। ग़ुलाम साहब की कला से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्हे एक रत्न जड़ित तलवार भेंट में दे दी। १९२४ में वे बंबई आए और ८ सालों तक संघर्ष करते रहे। १९३२ में सरोज मूवीटोन में उन्हे बतौर तबला वादक रख लिया गया। 'राजा भार्थहरि' फ़िल्म में उनके तबले की बहुत तारीफ़ हुई। उसके बाद उन्होने संगीतकार अनिल बिस्वास और नौशाद के साथ काम किया। नौशाद साहब के साथ उनकी अच्छी ट्युनिंग् जमती थी। फिर तो नौशाद साहब के गीतों में उनके तबले और ढोलक के ठेके एक ख़ासीयत बन गई। स्वतंत्र संगीतकार बनने के बाद भी ग़ुलाम साहब के ठेके बरक़रार रहे जिसका एक अच्छा उदाहरण है आज का प्रस्तुत गीत। इस गीत का रीदम मुख्य तौर पर मटके के ठेकों पर ही आधारित है। आइए सुनते हैं गुज़रे ज़माने के इस अनमोल गीत को।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. ये उन संगीतकार का गीत है जिन्होंने ने सहगल से सूरदास के भजन गवा कर इतिहास रचा था.
२. इस युगल गीत में पुरुष स्वर है जी एम् दुर्रानी का.
३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"कसम".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपका क्या कहना.....बस कमाल है, दूसरी बार भी आप ४० के अन्कदें तक पहुच गए हैं, लगता है बाकी सब लोग हथियार डाल चुके हैं, रोहित राजपूत और दिलीप जी सब कहाँ है भाई.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
१९५८ में गायक तलत महमूद कुल तीन फ़िल्मों में बतौर अभिनेता नज़र आए थे। ये फ़िल्में थीं 'सोने की चिड़िया', 'लाला रुख़' और 'मालिक'। जहाँ पहली दो फ़िल्में 'फ़िल्म इंडिया कॊर्पोरेशन' की प्रस्तुति थीं, 'मालिक' फ़िल्म का निर्माण किया था एस. एम युसूफ़ ने अपनी 'सनी आर्ट प्रोडक्शन्स' के बैनर तले। फ़िल्म की नायिका थीं सुरैया। दोस्तों, १९५८ तक पार्श्वगायन पूरी तरह से अपनी शबाब पर था। ३० और ४० के दशकों के 'सिंगिंग् स्टार्स' फ़िल्म जगत के आसमान से ग़ायब हो चुके थे, कुछ देश विभाजन की वजह से, कुछ बदलते दौर और तकनीक की वजह से। लेकिन कुछ ऐसे कलाकार जिनकी गायन प्रतिभा उनके अभिनय की तरह ही पुख़्ता थी, वो ५० के दशक में भी लोकप्रिय बने रहे। इसका सीधा सीधा उदाहरण है तलत महमूद और सुरैया। ये सच है कि तलत साहब एक गायक के रूप में ही जाने जाते हैं, लेकिन अभिनय में रुचि और नायक जैसे दिखने की वजह से वो चंद फ़िल्मों में बतौर नायक काम किया था। और सुरैया के तो क्या कहने! अभिनय और गायन, दोनों में लाजवाब! लेकिन दूसरी अभिनेत्रियों के लिए पार्श्वगायन ना करने की सोच ने उन्हे पीछे धकेल दिया था ५० के दशक में। ज़्यादातर फ़िल्मकार उनसे गीत गवाना चाहते थे लेकिन दूसरी अभिनेत्रियों के लिए, जो उन्हे कतई मंज़ूर नहीं था। १९५८ की फ़िल्म 'मालिक' में ये दोनों कलाकार एक साथ नज़र आए और इस तरह से इस फ़िल्म को मिले दो 'सिंगिंग् स्टार्स'। अब ज़ाहिर सी बात है कि इन दोनों ने ही इस फ़िल्म के गाने गाए होंगे। आज हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा रहे हैं इस फ़िल्म से एक बहुत ही प्यारा युगल गीत "मन धीरे धीरे गाए रे, मालूम नहीं क्यों"। फ़िल्म तो बहुत ज़्यादा मशहूर नहीं हुई लेकिन तलत साहब और सुरैया के गाए और गीतकार शक़ील बदायूनी के लिखे इस गीत को ख़ूब सुना गया।
'मालिक' के संगीतकार थे ग़ुलाम मोहम्मद। ऐए आज ग़ुलाम साहब की कुछ बातें की जाए। उन्हे संगीत विरासत में ही मिली थी। उनके पिता नवीबक्श एक तबला वादक थे। अपने पिता के साथ वो भी जलसों में जाया करते थे। ऐल्बर्ट थियटर में ये जलसे हुआ करते थे। तबले के साथ साथ ग़ुलाम मोहम्मद का अभिनय में भी रुचि थी। २५ रुपय प्रति माह के वेतन पर वे ऐल्बर्ट थियटर में शामिल हो गए। कुछ समय तक वहाँ रहे, लेकिन जब थियटर की माली हालात ख़राब हो गई तो उन्हे दूसरे दरवाज़ों पर दस्तक देनी पड़ी। काफ़ी जद्दोजहद के बाद एक कंपनी में उन्हे ४ आने प्रति रोज़ के वेतन पर रख लिया गया। वह कंपनी घूमते घामते जब जुनागढ़ पहुँची तो वहाँ जलसे में एक नामी मंत्री महोदय भी दर्शकों में शामिल थे। ग़ुलाम साहब की कला से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्हे एक रत्न जड़ित तलवार भेंट में दे दी। १९२४ में वे बंबई आए और ८ सालों तक संघर्ष करते रहे। १९३२ में सरोज मूवीटोन में उन्हे बतौर तबला वादक रख लिया गया। 'राजा भार्थहरि' फ़िल्म में उनके तबले की बहुत तारीफ़ हुई। उसके बाद उन्होने संगीतकार अनिल बिस्वास और नौशाद के साथ काम किया। नौशाद साहब के साथ उनकी अच्छी ट्युनिंग् जमती थी। फिर तो नौशाद साहब के गीतों में उनके तबले और ढोलक के ठेके एक ख़ासीयत बन गई। स्वतंत्र संगीतकार बनने के बाद भी ग़ुलाम साहब के ठेके बरक़रार रहे जिसका एक अच्छा उदाहरण है आज का प्रस्तुत गीत। इस गीत का रीदम मुख्य तौर पर मटके के ठेकों पर ही आधारित है। आइए सुनते हैं गुज़रे ज़माने के इस अनमोल गीत को।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. ये उन संगीतकार का गीत है जिन्होंने ने सहगल से सूरदास के भजन गवा कर इतिहास रचा था.
२. इस युगल गीत में पुरुष स्वर है जी एम् दुर्रानी का.
३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"कसम".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपका क्या कहना.....बस कमाल है, दूसरी बार भी आप ४० के अन्कदें तक पहुच गए हैं, लगता है बाकी सब लोग हथियार डाल चुके हैं, रोहित राजपूत और दिलीप जी सब कहाँ है भाई.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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स्वर : गीता द्त्त एवं गी.एम.दुर्रानी
फ़िल्म : दिलरुबा संगीत : ज्ञान दत्त