जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं....हमें नाज़ है कि ये क्लासिक गीत है आज ओल्ड इस गोल्ड के 250वें एपिसोड की शान
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 250
साहिर लुधियानवी के लिखे और सचिन देव बर्मन के स्वरबद्ध किए गीतों को सुनते हुए हम आज आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' की अंतिम कड़ी में। दोस्तों, यह जो शीर्षक हमने चुना था इस शृंखला के लिए, ये आपको पता ही होगा कि किस आधार पर हमने चुना था। जी हाँ, साहिर साहब की एक कालजयी रचना थी फ़िल्म 'प्यासा' में "जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है"। तो फिर इस शृंखला को समाप्त करने के लिए इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता है। मोहम्मद रफ़ी की अविस्मरणीय आवाज़ में यह गीत जब भी हम सुनते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 'प्यासा' १९५७ की फ़िल्म थी। गुरु दत्त ने इससे पहले सचिन दा और साहिर साहब के साथ 'बाज़ी' (१९५१) और 'जाल' (१९५२) में काम कर चुके थे। लेकिन जब उन्होने अपने निजी बैनर 'गुरु दत्त फ़िल्म्स' के बैनर तले फ़िल्मों का निर्माण शुरु किया तो उन्होने ओ. पी. नय्यर को बतौर संगीतकार और मजरूह साहब को बतौर गीतकार नियुक्त किया ('आर पार' (१९५४), 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' (१९५५), 'सी.आइ.डी' (१९५६)। ये तीनों फ़िल्में ख़ुशमिज़ाज किस्म के थे। १९५७ में जब उन्होने 'प्यासा' बनाने का निश्चय किया, जो कि उनकी पहली फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हट कर था, तो उन्होने गीत संगीत का भार सौंपा साहिर साहब और बर्मन दादा पर। यह वही शुरु शुरु का समय था दोस्तों, जब गुरु दत्त अपने निजी जीवन में भी मानसिक अवसाद से गुज़रने लगे थे। 'प्यासा' की कहानी एक ऐसे निराशावादी बेरोज़गार कवि की थी, जिसे ऐसा लगने लगा कि यह दुनिया उसके जैसे ख़यालात वाले लोगों के लिए है ही नहीं। और इस कवि का किरदार स्वयं गुरु दत्त ने निभाया था। माला सिंहा और वहीदा रहमान इस फ़िल्म की नायिकाएँ थीं। शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी, जो ख़ुद अपनी ज़िंदगी में एक ऐसे ही निराशावादी समय से गुज़रे थे, वो इस कहानी के 'अंडर करण्ट' को भली भाँती समझ गए और यही वजह थी कि इस फ़िल्म के गीतों, नज़्मों और अशारों में उन्होने जान डाल दी।
फ़िल्म 'प्यासा' के गीतों और नज़्मों में निराशावाद बार बार महसूस की जा सकती है। सब से बड़ा उदाहरण है "ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया, ये इंसाँ के दुश्मन समाजों की दुनिया... ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"। इस गीत के एक अंतरे में साहिर साहब लिखते हैं "यहाँ एक खिलौना है इंसाँ की हस्ती, ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती, यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"। रफ़ी साहब की आवाज़ ने जो पैथोस पैदा किया इस फ़िल्म के गीतों में, वो साहिर साहब के बोलों को जैसे अमर कर दिया। निराशावाद की एक और मिसाल है इस फ़िल्म का प्रस्तुत गीत, "ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवाँ ज़िंदगी के, कहाँ है कहाँ है मुहाफ़िज़ ख़ुदी के, जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है"। समाज में चल रही दुख तक़लीफ़ों की ओर इशारा करते हुए साहिर साहब ने व्यंगात्मक वार किया है कि वो लोग कहाँ है जो इस धरती पर नाज़ करते हैं, क्या उन्हे ये सामाजिक समस्याएँ दिखाई नहीं देती! कुछ इसी तरह का भाव एक बार फिर से साहिर साहब ने उजागर की थी १९५८ की फ़िल्म 'फिर सुबह होगी' के गीत "वो सुबह कभी तो आएगी" में। लेकिन उसमें एक आशावादी अंग भी था कि वो सुबह कभी तो आएगी। लेकिन प्रस्तुत गीत पूरी तरह से निराशा से घिरा हुआ है। कम से कम साज़ों का इस्तेमाल कर बर्मन दादा ने बोलों की महत्ता को बरक़रार रखा है। गीत में पार्श्व ध्वनियों का भी इस्तेमाल हुआ है, जैसे कि किसी गरीब भूखे बच्चे की खांसने की आवाज़, और वेश्यालयों में छम छम करती घुंघुरू की आवाज़। लगभग ६ मिनट का यह गीत फ़िल्म संगीत के धरोहर का एक उत्कृष्ट नगीना है, जो आज के समाज में भी उतना ही सार्थक है जितना कि ५० के उस दशक में था। दोस्तों, जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है ये तो हमें नहीं मालूम, लेकिन हम बस यही कहना चाहेंगे कि साहिर साहब और सचिन दा, आप दोनों पर हिंद को ज़रूर नाज़ है। दोस्तों, सुनिए आज का यह विचारोत्तेजक गीत, और इस विशेष शृंखला को समाप्त करने की दीजिए अपने इस दोस्त को इजाज़त। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आज पूरी कर रही है अपनी २५०-वीं कड़ी, इस ख़ास अवसर को थोड़ा सा और ख़ास बनाते हुए अब हम आपसे पूछते हैं एक बम्पर सवाल। आपको बस इतना बताना है कि अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' अब तक किस संगीतकार के सब से ज़्यादा गानें बजे हैं। अगले १६ घंटों के अंदर सही जवाब देने वाले पहले व्यक्ति को मिलेंगे बोनस ५ अंक। तो ज़रा अपनी याद्दाश्त पर लगाइए ज़ोर, और मुझे दीजिए इजाज़त आज के लिए, नमस्ते!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. इस गीत के गीतकार एक बेहद सफल और अव्वल दर्जे के निर्देशक भी हैं.
२. इस फिल्म में नायिका के साथ थे राज कुमार और अशोक कुमार.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "सूरज".
नोट - आज की पहेली के साथ साथ यदि आप सुजॉय द्वारा उपर पूछे गए सवाल का सही जवाब देते हैं तो जाहिर है ५ अंक बोनस के मिलेंगें, यानी आज एक दिन में आप कम सकते हैं ७ शानदार अंक.
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी यकीनन आप आज के गीत का शीर्षक देखकर चौंक गए होंगें, दरअसल जब मैं (सजीव सारथी) इस पहेली के सूत्र खोज रहा था तब पता नहीं क्यों "ये दुनिया अगर मिल भी जाए" जेहन में आ गया, और सूत्र शब्द "खिलौना" लिखा गया, दिए गए सूत्रों के हिसाब से आपने सही जवाब दिया तो २ अंक तो आपको मिलेंगें पक्का :). पर जिस गीत को मैंने और सुजॉय ने २५० वें एपिसोड के लिए प्लान किया था वो यही है जो आज बजा है. उम्मीद है आप सब को प्रस्तुत गीत भी उतना ही पसंदीदा होगा जितना कि "प्यासा" के अन्य गीत. यूं तो ये फिल्म और इसका संगीत या कहें एक एक गीत एक मास्टरपीस है...कालजयी... पराग जी ३०० वें एपिसोड तक जितने भी प्रतिभागी ५० अंक छू पायें वो सब विजेता माने जायेंगें. ३०१ से सभी के अंक शून्य से शुरू होंगे और हो सकता है कि पहेली का फोर्मेट भी कुछ बदला जाए, फिलहाल आप विजेता है, अपनी पसंद हमें लिख भेजिए. अवध ही और दिलीप जी आभार.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
साहिर लुधियानवी के लिखे और सचिन देव बर्मन के स्वरबद्ध किए गीतों को सुनते हुए हम आज आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' की अंतिम कड़ी में। दोस्तों, यह जो शीर्षक हमने चुना था इस शृंखला के लिए, ये आपको पता ही होगा कि किस आधार पर हमने चुना था। जी हाँ, साहिर साहब की एक कालजयी रचना थी फ़िल्म 'प्यासा' में "जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है"। तो फिर इस शृंखला को समाप्त करने के लिए इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता है। मोहम्मद रफ़ी की अविस्मरणीय आवाज़ में यह गीत जब भी हम सुनते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 'प्यासा' १९५७ की फ़िल्म थी। गुरु दत्त ने इससे पहले सचिन दा और साहिर साहब के साथ 'बाज़ी' (१९५१) और 'जाल' (१९५२) में काम कर चुके थे। लेकिन जब उन्होने अपने निजी बैनर 'गुरु दत्त फ़िल्म्स' के बैनर तले फ़िल्मों का निर्माण शुरु किया तो उन्होने ओ. पी. नय्यर को बतौर संगीतकार और मजरूह साहब को बतौर गीतकार नियुक्त किया ('आर पार' (१९५४), 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' (१९५५), 'सी.आइ.डी' (१९५६)। ये तीनों फ़िल्में ख़ुशमिज़ाज किस्म के थे। १९५७ में जब उन्होने 'प्यासा' बनाने का निश्चय किया, जो कि उनकी पहली फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हट कर था, तो उन्होने गीत संगीत का भार सौंपा साहिर साहब और बर्मन दादा पर। यह वही शुरु शुरु का समय था दोस्तों, जब गुरु दत्त अपने निजी जीवन में भी मानसिक अवसाद से गुज़रने लगे थे। 'प्यासा' की कहानी एक ऐसे निराशावादी बेरोज़गार कवि की थी, जिसे ऐसा लगने लगा कि यह दुनिया उसके जैसे ख़यालात वाले लोगों के लिए है ही नहीं। और इस कवि का किरदार स्वयं गुरु दत्त ने निभाया था। माला सिंहा और वहीदा रहमान इस फ़िल्म की नायिकाएँ थीं। शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी, जो ख़ुद अपनी ज़िंदगी में एक ऐसे ही निराशावादी समय से गुज़रे थे, वो इस कहानी के 'अंडर करण्ट' को भली भाँती समझ गए और यही वजह थी कि इस फ़िल्म के गीतों, नज़्मों और अशारों में उन्होने जान डाल दी।
फ़िल्म 'प्यासा' के गीतों और नज़्मों में निराशावाद बार बार महसूस की जा सकती है। सब से बड़ा उदाहरण है "ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया, ये इंसाँ के दुश्मन समाजों की दुनिया... ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"। इस गीत के एक अंतरे में साहिर साहब लिखते हैं "यहाँ एक खिलौना है इंसाँ की हस्ती, ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती, यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"। रफ़ी साहब की आवाज़ ने जो पैथोस पैदा किया इस फ़िल्म के गीतों में, वो साहिर साहब के बोलों को जैसे अमर कर दिया। निराशावाद की एक और मिसाल है इस फ़िल्म का प्रस्तुत गीत, "ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवाँ ज़िंदगी के, कहाँ है कहाँ है मुहाफ़िज़ ख़ुदी के, जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है"। समाज में चल रही दुख तक़लीफ़ों की ओर इशारा करते हुए साहिर साहब ने व्यंगात्मक वार किया है कि वो लोग कहाँ है जो इस धरती पर नाज़ करते हैं, क्या उन्हे ये सामाजिक समस्याएँ दिखाई नहीं देती! कुछ इसी तरह का भाव एक बार फिर से साहिर साहब ने उजागर की थी १९५८ की फ़िल्म 'फिर सुबह होगी' के गीत "वो सुबह कभी तो आएगी" में। लेकिन उसमें एक आशावादी अंग भी था कि वो सुबह कभी तो आएगी। लेकिन प्रस्तुत गीत पूरी तरह से निराशा से घिरा हुआ है। कम से कम साज़ों का इस्तेमाल कर बर्मन दादा ने बोलों की महत्ता को बरक़रार रखा है। गीत में पार्श्व ध्वनियों का भी इस्तेमाल हुआ है, जैसे कि किसी गरीब भूखे बच्चे की खांसने की आवाज़, और वेश्यालयों में छम छम करती घुंघुरू की आवाज़। लगभग ६ मिनट का यह गीत फ़िल्म संगीत के धरोहर का एक उत्कृष्ट नगीना है, जो आज के समाज में भी उतना ही सार्थक है जितना कि ५० के उस दशक में था। दोस्तों, जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है ये तो हमें नहीं मालूम, लेकिन हम बस यही कहना चाहेंगे कि साहिर साहब और सचिन दा, आप दोनों पर हिंद को ज़रूर नाज़ है। दोस्तों, सुनिए आज का यह विचारोत्तेजक गीत, और इस विशेष शृंखला को समाप्त करने की दीजिए अपने इस दोस्त को इजाज़त। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आज पूरी कर रही है अपनी २५०-वीं कड़ी, इस ख़ास अवसर को थोड़ा सा और ख़ास बनाते हुए अब हम आपसे पूछते हैं एक बम्पर सवाल। आपको बस इतना बताना है कि अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' अब तक किस संगीतकार के सब से ज़्यादा गानें बजे हैं। अगले १६ घंटों के अंदर सही जवाब देने वाले पहले व्यक्ति को मिलेंगे बोनस ५ अंक। तो ज़रा अपनी याद्दाश्त पर लगाइए ज़ोर, और मुझे दीजिए इजाज़त आज के लिए, नमस्ते!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. इस गीत के गीतकार एक बेहद सफल और अव्वल दर्जे के निर्देशक भी हैं.
२. इस फिल्म में नायिका के साथ थे राज कुमार और अशोक कुमार.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "सूरज".
नोट - आज की पहेली के साथ साथ यदि आप सुजॉय द्वारा उपर पूछे गए सवाल का सही जवाब देते हैं तो जाहिर है ५ अंक बोनस के मिलेंगें, यानी आज एक दिन में आप कम सकते हैं ७ शानदार अंक.
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी यकीनन आप आज के गीत का शीर्षक देखकर चौंक गए होंगें, दरअसल जब मैं (सजीव सारथी) इस पहेली के सूत्र खोज रहा था तब पता नहीं क्यों "ये दुनिया अगर मिल भी जाए" जेहन में आ गया, और सूत्र शब्द "खिलौना" लिखा गया, दिए गए सूत्रों के हिसाब से आपने सही जवाब दिया तो २ अंक तो आपको मिलेंगें पक्का :). पर जिस गीत को मैंने और सुजॉय ने २५० वें एपिसोड के लिए प्लान किया था वो यही है जो आज बजा है. उम्मीद है आप सब को प्रस्तुत गीत भी उतना ही पसंदीदा होगा जितना कि "प्यासा" के अन्य गीत. यूं तो ये फिल्म और इसका संगीत या कहें एक एक गीत एक मास्टरपीस है...कालजयी... पराग जी ३०० वें एपिसोड तक जितने भी प्रतिभागी ५० अंक छू पायें वो सब विजेता माने जायेंगें. ३०१ से सभी के अंक शून्य से शुरू होंगे और हो सकता है कि पहेली का फोर्मेट भी कुछ बदला जाए, फिलहाल आप विजेता है, अपनी पसंद हमें लिख भेजिए. अवध ही और दिलीप जी आभार.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
sooraj kaheeM bhee jaaye
mausam hai aashikaanaa
kamaal amarohi-Lyrics
दिलीप जी को बधाई. वैसे स्वयं एक कलाकार होने के कारण उनको तो यह गीत समझना बहुत सरल था.
और आज के गीत के बारे में कुछ कहना तो व्यर्थ ही है. इतना कुछ तो आपने कह ही दिया है. बहुमूल्य जानकारी और गीत के लिए धन्यवाद.
अवध लाल
कहा जाता है, कि सचिन दा की धुनें सिर्फ़ सुनाती ही नहीं है, मगर दिखाती भी है वे भाव.
सलाम उस स्वर महिषी को.
मुझे ये शीर्षक देख कर बिलकुल भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि कल जब मैने सवाल का जवाब दिया तो गलती से मैं भी ’जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है’ गीत लिख गया था किन्तु शीघ्र ही समझ में आ गया कि गीत तो ’ये दुनिया अगर मिल भी जाए है’ मेरे दिमाग में भी वही गीत आ गया था ।
5 ankon kee paheli ke liye koi jawab nahin???????