लकड़ी की काठी, काठी पे घोडा...करीब २५ सालों के बाद भी ये गीत बच्चों के मन को वैसा ही भाता है जैसा पहले...
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 270
दोस्तों, पिछले ९ दिनों से हम इस महफ़िल में कुछ बेहद चर्चित बच्चों वाले फ़िल्मी गीत सुनते चले आ रहे हैं, और आज हम आ पहुँचे हैं इस नन्हे मुन्ने शृंखला 'बचपन के दिन भुला ना देना' की अंतिम कड़ी पर। यूँ तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला में हम ८० के दशक के गानें शामिल नहीं करते, क्योंकि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' सलाम करती है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर को जो ४० के दशक के मध्य भाग से लेकर ७० के दशक के आख़िर तक साधारणत: माना जता है। लेकिन बच्चों वाले गीतों की जब बात चलती है तो एक ऐसी फ़िल्म है जिसके ज़िक्र के बग़ैर, या यूँ कहिए कि जिस फ़िल्म के एक गीत के ज़िक्र के बग़ैर अगर चर्चा समाप्त कर दी जाए तो वह चर्चा अधूरी ही रह जाएगी। यह फ़िल्म है सन् १९८३ में प्रदर्शित शेखर कपूर निर्देशित फ़िल्म 'मासूम' और वह गीत है "लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा"। इस गीत को अगर हम इस शृंखला में शामिल न करें तो यह शृंखला भी काफ़ी हद तक अधूरी रह जाएगी। यह सच है कि ५०, ६० और ७० के दशकों के कई और बच्चों वाले गीतों को हम शामिल नहीं कर सके हैं, लेकिन इस गीत से मुंह मोड़ने को जी नहीं चाहता। तो चलिए, आज सारे नियमों और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के क़ायदे कानूनों को एक तरफ़ रखते हुए सुनते हैं यह सदाबहार गीत जो फूटे थे गुलज़ार साहब की क़लम से। हमने यह शृंखला शुरु की थी १९६० की फ़िल्म 'मासूम' के गीत से और आज इसका समापन हो रहा है १९८३ की फ़िल्म 'मासूम' के गाने से।
१९८३ की 'मासूम' के प्रोड्युसर्स थे चंदा दत्त और देवी दत्त। परिपक्व किरदारों में थे नसीरुद्दिन शाह, शबाना आज़्मी व सुप्रिया पाठक, तथा बाल कलाकारों में थे उर्मिला मातोंडकर, जुगल हंसराज और आराधना। जितना अच्छा अभिनय बड़े अभिनेताओं ने किए, उतनी ही तारीफ़ें बटोरी इन तीनों बाल कलाकारों ने। बताने की ज़रूरत नहीं कि इनमें से दो आगे चलकर हीरो हीरोइन बनें। गुलज़ार के लिखे गीतों को स्वरबद्ध किए राहुल देव बर्मन ने। इस फ़िल्म को निर्देशक शेखर कपूर ने बहुत ही जज़्बाती ट्रीटमेंट दिया है। और बच्चों वाले गीतों के मामले में गुलज़ार साहब तो एक्स्पर्ट हैं ही। याद है ना फ़िल्म 'किताब' का गीत जो हाल ही में आपने सुने, और साथ ही फ़िल्म 'परिचय' का गीत "सा रे के सा रे गा मा को लेकर गाते चले"। इसे भी बहुत जल्द आप इस महफ़िल में सुन पाएँगे। लेकिन आज बात "लकड़ी की काठी" की। गुलज़ार साहब की ख़ासीयत रही है कि किसी आम बात या किसी मामूली चीज़ या जगह को वे इस तरह से पेश करते हैं अपने गीतों में कि उसके बाद वह चीज़ या जगह आम नहीं रह जाती। अब इसी गीत में देखिए उन्होने लिखा है "घोड़ा अपना तगड़ा है, देखो कितनी चर्बी है, चरता है महरोली में पर घोड़ा अपना अरबी है"। जिन्हे मालूम नहीं है उनके लिए बता दें कि महरोली दिल्ली और गुड़गाँव के बीच आनेवाली एक जगह का नाम है, जिसे दिल्ली से बाहर शायद ही किसी को पता होगा। लेकिन इस छोटी सी जगह के नाम को भी कितनी दक्षता से प्रस्तुत किया गया है इस गीत में। यह तो बस एक उदाहरण था, इस तरह के उदारहणों का ज़िक्र शुरु करेंगे तो सुबह हो जाएगी पर गुलज़ार साहब के इन उदाहरण और उपमाओं का ज़िक्र ख़त्म नहीं होगा। "लकड़ी की काठी" को तीन बाल गायिकाओं ने गाया था। ये हैं गौरी बापट, वनिता मिश्रा और गुरप्रीत कौर। इनमें से गौरी बापट ने बड़ी होकर पार्श्वगायन किया है। सन् २००३ की फ़िल्म 'जानशीन' में इन्होने कुछ गानें गाए हैं। ख़ैर, आज बात 'मासूम' की। इस फ़िल्म ने उस साल के तमाम फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते थे, जैसे कि नसीरुद्दिन शाह (सर्वश्रेष्ठ अभिनेता), गुलज़ार (सर्वश्रेष्ठ गीतकार - "तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी"), राहुल देव बर्मन (सर्वश्रेष्ठ संगीतकार), आरती मुखर्जी (सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका - "दो नैना और एक कहानी") तथा शेखर कपूर को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म - क्रिटिक्स का पुरस्कार मिला था। तो लीजिए अब यह गीत सुनिए और इस शृंखला 'बचपन के दिन भुला ना देना' के बारे में अपनी राय लिख भेजना ना भूलिएगा। युं तो और भी बहुत सारे बच्चों वाले गानें हैं, लेकिन इस शृंखला में हमारी कोशिश यही रही कि बच्चों के अलग अलग पहलुओं को छूते हुए उन गीतों को शामिल की जाए जिन्हे बाल कलाकारों ने ही गाए और पर्दे पर भी बाल कलाकारों ने ही लिप-सिंक किए। लता, आशा, रफ़ी, मुकेश, सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट को एक तरफ़ रखते हुए हमने जिन बाल अवाज़ों से आपका परिचय करवाया वो हैं रानू मुखर्जी, शांति माथुर, पद्मिनी कोल्हापुरी, शिवांगी कोल्हापुरी, सुषमा श्रेष्ठ, प्रतिभा, गौरी बापट, वनिता मिश्रा और गुरप्रीत कौर। इसी के साथ दीजिए मुझे इजाज़त और इंतज़ार कीजिए कल से शुरु होने वाली एक नई लघु शंखला का। नमस्ते!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. कल से शुरू होगी एक नयी शृंखला जो समर्पित है उस अमर गायिका को जिनकी कल जयंती है
२. ये भजन है नायिका नर्गिस पर फिल्माया हुआ.
३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"प्रेम". एक बात और इस पहेली को बूझने के आपको मिलेंगें २ की बजाय ३ अंक. यानी कि एक अंक का बोनस...पराग जी इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकेंगें.
पिछली पहेली का परिणाम -
दिलीप जी १२ अनोकों पर आ गए हैं आप, बधाई...बी एस पाबला जी बहुत दिनों बाद लौटे, पोटली में गीत के बोल भी लाये और तमाम जानकारियाँ भी...कहाँ थे जनाब...:), अवध जी, आप भी यदि समय से आयें तो यक़ीनन विजेता बन सकते हैं, श्याम जी आपकी सादगी को पूरे १०० में से १००अंक...
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
दोस्तों, पिछले ९ दिनों से हम इस महफ़िल में कुछ बेहद चर्चित बच्चों वाले फ़िल्मी गीत सुनते चले आ रहे हैं, और आज हम आ पहुँचे हैं इस नन्हे मुन्ने शृंखला 'बचपन के दिन भुला ना देना' की अंतिम कड़ी पर। यूँ तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला में हम ८० के दशक के गानें शामिल नहीं करते, क्योंकि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' सलाम करती है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर को जो ४० के दशक के मध्य भाग से लेकर ७० के दशक के आख़िर तक साधारणत: माना जता है। लेकिन बच्चों वाले गीतों की जब बात चलती है तो एक ऐसी फ़िल्म है जिसके ज़िक्र के बग़ैर, या यूँ कहिए कि जिस फ़िल्म के एक गीत के ज़िक्र के बग़ैर अगर चर्चा समाप्त कर दी जाए तो वह चर्चा अधूरी ही रह जाएगी। यह फ़िल्म है सन् १९८३ में प्रदर्शित शेखर कपूर निर्देशित फ़िल्म 'मासूम' और वह गीत है "लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा"। इस गीत को अगर हम इस शृंखला में शामिल न करें तो यह शृंखला भी काफ़ी हद तक अधूरी रह जाएगी। यह सच है कि ५०, ६० और ७० के दशकों के कई और बच्चों वाले गीतों को हम शामिल नहीं कर सके हैं, लेकिन इस गीत से मुंह मोड़ने को जी नहीं चाहता। तो चलिए, आज सारे नियमों और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के क़ायदे कानूनों को एक तरफ़ रखते हुए सुनते हैं यह सदाबहार गीत जो फूटे थे गुलज़ार साहब की क़लम से। हमने यह शृंखला शुरु की थी १९६० की फ़िल्म 'मासूम' के गीत से और आज इसका समापन हो रहा है १९८३ की फ़िल्म 'मासूम' के गाने से।
१९८३ की 'मासूम' के प्रोड्युसर्स थे चंदा दत्त और देवी दत्त। परिपक्व किरदारों में थे नसीरुद्दिन शाह, शबाना आज़्मी व सुप्रिया पाठक, तथा बाल कलाकारों में थे उर्मिला मातोंडकर, जुगल हंसराज और आराधना। जितना अच्छा अभिनय बड़े अभिनेताओं ने किए, उतनी ही तारीफ़ें बटोरी इन तीनों बाल कलाकारों ने। बताने की ज़रूरत नहीं कि इनमें से दो आगे चलकर हीरो हीरोइन बनें। गुलज़ार के लिखे गीतों को स्वरबद्ध किए राहुल देव बर्मन ने। इस फ़िल्म को निर्देशक शेखर कपूर ने बहुत ही जज़्बाती ट्रीटमेंट दिया है। और बच्चों वाले गीतों के मामले में गुलज़ार साहब तो एक्स्पर्ट हैं ही। याद है ना फ़िल्म 'किताब' का गीत जो हाल ही में आपने सुने, और साथ ही फ़िल्म 'परिचय' का गीत "सा रे के सा रे गा मा को लेकर गाते चले"। इसे भी बहुत जल्द आप इस महफ़िल में सुन पाएँगे। लेकिन आज बात "लकड़ी की काठी" की। गुलज़ार साहब की ख़ासीयत रही है कि किसी आम बात या किसी मामूली चीज़ या जगह को वे इस तरह से पेश करते हैं अपने गीतों में कि उसके बाद वह चीज़ या जगह आम नहीं रह जाती। अब इसी गीत में देखिए उन्होने लिखा है "घोड़ा अपना तगड़ा है, देखो कितनी चर्बी है, चरता है महरोली में पर घोड़ा अपना अरबी है"। जिन्हे मालूम नहीं है उनके लिए बता दें कि महरोली दिल्ली और गुड़गाँव के बीच आनेवाली एक जगह का नाम है, जिसे दिल्ली से बाहर शायद ही किसी को पता होगा। लेकिन इस छोटी सी जगह के नाम को भी कितनी दक्षता से प्रस्तुत किया गया है इस गीत में। यह तो बस एक उदाहरण था, इस तरह के उदारहणों का ज़िक्र शुरु करेंगे तो सुबह हो जाएगी पर गुलज़ार साहब के इन उदाहरण और उपमाओं का ज़िक्र ख़त्म नहीं होगा। "लकड़ी की काठी" को तीन बाल गायिकाओं ने गाया था। ये हैं गौरी बापट, वनिता मिश्रा और गुरप्रीत कौर। इनमें से गौरी बापट ने बड़ी होकर पार्श्वगायन किया है। सन् २००३ की फ़िल्म 'जानशीन' में इन्होने कुछ गानें गाए हैं। ख़ैर, आज बात 'मासूम' की। इस फ़िल्म ने उस साल के तमाम फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते थे, जैसे कि नसीरुद्दिन शाह (सर्वश्रेष्ठ अभिनेता), गुलज़ार (सर्वश्रेष्ठ गीतकार - "तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी"), राहुल देव बर्मन (सर्वश्रेष्ठ संगीतकार), आरती मुखर्जी (सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका - "दो नैना और एक कहानी") तथा शेखर कपूर को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म - क्रिटिक्स का पुरस्कार मिला था। तो लीजिए अब यह गीत सुनिए और इस शृंखला 'बचपन के दिन भुला ना देना' के बारे में अपनी राय लिख भेजना ना भूलिएगा। युं तो और भी बहुत सारे बच्चों वाले गानें हैं, लेकिन इस शृंखला में हमारी कोशिश यही रही कि बच्चों के अलग अलग पहलुओं को छूते हुए उन गीतों को शामिल की जाए जिन्हे बाल कलाकारों ने ही गाए और पर्दे पर भी बाल कलाकारों ने ही लिप-सिंक किए। लता, आशा, रफ़ी, मुकेश, सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट को एक तरफ़ रखते हुए हमने जिन बाल अवाज़ों से आपका परिचय करवाया वो हैं रानू मुखर्जी, शांति माथुर, पद्मिनी कोल्हापुरी, शिवांगी कोल्हापुरी, सुषमा श्रेष्ठ, प्रतिभा, गौरी बापट, वनिता मिश्रा और गुरप्रीत कौर। इसी के साथ दीजिए मुझे इजाज़त और इंतज़ार कीजिए कल से शुरु होने वाली एक नई लघु शंखला का। नमस्ते!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. कल से शुरू होगी एक नयी शृंखला जो समर्पित है उस अमर गायिका को जिनकी कल जयंती है
२. ये भजन है नायिका नर्गिस पर फिल्माया हुआ.
३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"प्रेम". एक बात और इस पहेली को बूझने के आपको मिलेंगें २ की बजाय ३ अंक. यानी कि एक अंक का बोनस...पराग जी इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकेंगें.
पिछली पहेली का परिणाम -
दिलीप जी १२ अनोकों पर आ गए हैं आप, बधाई...बी एस पाबला जी बहुत दिनों बाद लौटे, पोटली में गीत के बोल भी लाये और तमाम जानकारियाँ भी...कहाँ थे जनाब...:), अवध जी, आप भी यदि समय से आयें तो यक़ीनन विजेता बन सकते हैं, श्याम जी आपकी सादगी को पूरे १०० में से १००अंक...
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
film 'jogan'
लौट कर आता हूँ
बी एस पाबला
अवध लाल
सजीव जी और सुजोय जी का बहुत धन्यवाद इस श्रुंखला को आवाज़ पर आयोजित करने के लिए.
पिछले कई दिनोंसे व्यस्तता के कारण हाजरी नहीं लगा पाया, इसलिए माफी.
आभारी
पराग