Skip to main content

दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी है....राग केदार पर आधारित था ये भजन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 229

भारतीय शास्त्रीय संगीत इतना पौराणिक है कि इसके विकास के साथ साथ कई देवी देवताओं के नाम भी इसके साथ जुड़ते चले गए हैं। शिवरंजनी और शंकरा की तरह राग केदार भी भगवान शिव को समर्पित है। जी हाँ, आज हम इसी राग केदार की बात करेंगे। केदार एक महत्वपूर्ण राग है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की रागदारी में जितने भी मौलिक स्तंभ हैं, राग केदार के अलावा शायद ही कोई राग होगा जिसमें ये सारी मौलिकताएँ समा सके। राग केदार की खासियत है कि यह हर तरह के जौनर में आसानी से घुलमिल जाता है जैसे कि ध्रुपद, धमार, ख़याल, ठुमरी वगेरह। पारंपरिक तौर पर राग केदार के प्रकार हैं शुद्ध केदार, मलुहा केदार और जलधर केदार। इनके अलावा केदार के कई वेरियशन्स् हैं जैसे कि बसंती केदार, केदार बहार, दीपक केदार, तिलक केदार, श्याम केदार, आनंदी केदार, आदम्बरी केदार, और नट केदार। केदार राग केवल उत्तर भारत तक ही सीमीत नहीं रहा, बल्कि इसका प्रसार दक्षिण में भी हुआ, कर्नाटक शैली में यह जाना गया हमीर कल्याणी के नाम से। फ़िल्म संगीत में इस राग का प्रयोग बहुत सारे संगीतकारों ने किया है। १९७१ की फ़िल्म 'गुड्डी' में वाणी जयराम की आवाज़ में वसंत देसाई ने कॊम्पोज़ किया था "हमको मन की शक्ति देना"। अनोखे संगीतकार ओ. पी. नय्यर ने १९६१ की फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' में "आप युंही अगर हम से मिलते रहे देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा" को इसी राग पर स्वरबद्ध कर एक कालजयी रचना का निर्माण किया था। नय्यर साहब की आदत थी कि कहीं से अमूमन किसी शास्त्रीय गायक को कोई राग गाते हुए सुन लिया तो झट से उसका इस्तेमाल अपने गीत में कर देते थे। उनके इस अदा का मिसाल उस्ताद अमीर ख़ान साहब भी दे चुके हैं। ख़ैर, आगे बढ़ते हैं, बर्मन दादा ने फ़िल्म 'मुनीमजी' में लता से गवाया था "साजन बिना नींद ना आए", और छोटे नवाब पंचम ने फ़िल्म 'घर' के लिए कॊम्पोज़ किया "आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं"। नौशाद साहब ने १९४९ की फ़िल्म 'अंदाज़' में लता से गवाया था "उठाए जा उनके सितम", यह गीत भी राग केदार पर ही अधारित है।

राग केदार पर आधारित आज जिस गीत को हम आप तक पहुँचा रहे हैं वह है फ़िल्म 'नरसी भगत' का। हेमंत कुमार, सुधा मल्होत्रा और मन्ना डे के गाए इस भजन को संगीतकार रवि ने स्वरबद्ध किया था गीतकार गोपाल सिंह नेपाली के बोलों पर - "दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अखियाँ प्यासी रे"। दोस्तो, रवि द्वारा स्वरबद्ध घनश्याम की इस भजन से मुझे याद आया कि रवि ने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए एक घटना का उल्लेख लिया था जिसका ताल्लुख़ 'घनश्याम' के एक भजन से ही था। "मैं केवल अपने घर पर ही गाता था। एक दिन मेरे पिताजी ने मुझे डाँटा कि घर में ही आँय आँय करता रहता है, बाहर क्यों नहीं गाता? उन दिनों मैं एक ही भजन गाता था "तुम बिन हमरी कौन ख़बर ले गोवरधन गिरिधारी"। मैं स्कूल में भी गाता था इसे। मेरे क्लासमेट्स् मेरा मज़ाक उड़ाते थे, मेरा नाम 'गोवरधन गिरिधारी' रख दिया था लड़कों ने। फिर एक दिन मेरे पिताजी मुझे सत्संग ले गए और मैनें यह भजन सुनाया। जो लोग वहाँ बैठे थे, सब ने मेरे पिताजी से पूछा कि इस हीरे को अब तक कहाँ छुपा रखा था? उस दिन के बाद से मैं पिताजी के साथ हर बुधवार को सत्संग जाने लगा। तो जब मैं वहाँ गाने लगा तो वहाँ के हारमोनियम बजाने वाले को अच्छा नहीं लगा क्योंकि उसका इम्पोर्टैन्स कम हो गया। मुझे सबक सीखाने के लिए उसने क्या किया कि कुछ ऊँचे सुर लगाने लगा हारमोनियम पर, जिसके ताल से ताल मिलाने के लिए मैं भी ऊँचे स्केल पर गाने लगा और बुरी तरह नाकामयाब रहा। उस समय तो मैं नहीं समझ पाया कि यह क्या हुआ। घर वापस आने के बाद पिताजी ने मुझे डाँटते हुए कहा कि अचार खाता रहता है दिन भर। मुझे अहसास हुआ कि यह सब उस हारमोनियम वादक की वजह से हो रहा है। मैने यह निर्णय लिया कि अब मैं वहाँ तभी जाउँगा जब मेरा अपना हारमोनियम होगा और मैं ख़ुद उसे बजाउँगा। जब पिताजी से हारमोनियम की बात की तो उन्होने ख़ुश हो कर मुझे हारमोनियम ख़रीद कर दिया और एक टीचर के पास भेजा उसे सीखाने के लिए। टीचर तो सा रे गा मा से शुरू करना चाहते थे लेकिन मैने उनसे कहा कि आप मुझे बस "तुम बिन हमरी कौन ख़बर ले गोवरधन गिरिधारी" सीखा दीजिए। उसके बाद मैं एक महीने तक प्रैक्टिस करता रहा और फिर सत्संग गया। सब ने मेरी तारीफ़ की कि मैं ख़ुद हारमोनियम भी बजा रहा था और गा भी रहा था।" दोस्तों, रवि जी के इस भजन से जो लगाव रहा, शायद वही वजह रही होगी कि घन्श्याम का आशिर्वाद उन पर रहा और उन्होने आगे चलकर फ़िल्म 'नरसी भगत' के लिए इस कालजयी भजन की रचना की - "दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अखियाँ प्यासी रे, मनमंदिर की ज्योति जगा दो घट घट बाती रे"। हाल ही में यह भजन चर्चा में आ गई थी फ़िल्म 'स्लम्डॊग करोड़पति' के ज़रिए। इस फ़िल्म में इस गीत को एक सूरदास भजन बताया गया, लेकिन हक़ीक़त यही है कि यह नेपाली जी की रचना है। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शाहू मोडक और निरुपा राय। तो सुनवाते हैं आपको हेमंत दा, मन्ना दा और सुधा मल्होत्रा का एकसाथ गाया हुआ यह एकमात्र भजन यह बताते हुए कि इस शीर्षक से १९४० में भी एक फ़िल्म बनी थी जिसका निर्माण विजय भट्ट और शंकर भट्ट ने किया था अपने 'प्रकाश पिक्चर्स' के बैनर तले और जिसमें संगीतकार थे शंकर राव व्यास।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. भारत रत्न से सम्मानित इस महान संगीतकार ने जीते हैं एक से अधिक बार ग्रैमी सम्मान भी.
२. राग है जग सम्मोहिनी (शुभ कल्याण) जिस पर आधारित है ये गीत.
३. शैलेन्द्र है गीतकार यहाँ.

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी बधाई १४ अंकों के साथ आप तेजी से आगे बढ़ रहे हैं....दूसरी बार विजेता बनने की डगर पर. दिलीप जी मेल अवश्य मिली होगी कृपया दुबारा देखें

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

Parag said…
फिल्म अनुराधा के इस गीत को गाया है लता जी ने
हाए रे वोह दिन क्यों ना आये
Parag said…
Haaye ro woh din kyon naa aaye
मेरे विचार से अनुराधा फ़िल्म का ही गीत ’सांवरे सांवरे काहे मोसे करो जोरा जोरी है : संगीत : पं. रविशंकर
परागजी ने ठीक कहा है । फिल्म अनुराधा का गीत हाय रे वो दिन क्यों न आये, जो पंडित रवि शंकर द्वारा संगीतबद्ध किया गया था तथा शैलेन्द्र द्वारा लिखा गया था, राग शुभ कल्याण पर आधारित है ।
हेमंत दा, और मन्ना दा के साथ स्वयं लताजी. एक कालजयी गीत जो बरसों से भारत के जनमानस में श्रेष्ठतम भजनों में से एक.

आपका मेल मिला. आपकी जर्रः नवाज़ी. ज़रूर ....
मना दा के गले का जोनर हेमंत दा से एकदम अलग था. इसीलिये, ये भजन जब दोनों ने अलग अलग गाया, आप को अलग अलग अनुभूतियां होती हैं. जहां मना दा के स्वर की मींड और तरलता आपको मोहती हैं, वहीं हेमंतदा की धीर गंभीर हृदय के अंतरंग से निकलती आवाज़ से आप भक्तोरस में डूब जाते हो. साथ में अमृतमयी लता का सात्विक,शैशव सुर बोनस में आपको पुष्य नक्षत्र की चांदनी बिखेर जाती है.

आपका भी जवाब नहीं.
Shamikh Faraz said…
पराग जी को मुबारकबाद.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट