महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५७
आज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। सीमा जी की पसंद औरों से काफ़ी अलहदा है। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। लोग अमूमन मेहदी हसन साहब, गुलाम अली साहब या फिर जगजीत सिंह जी की गज़लों की फ़रमाईश करते हैं, लेकिन सीमा जी ने जिस गज़ल की फ़रमाईश की है, उसे आशा ताई ने गाया है। इस गज़ल की एक और खासियत है और खासियत यह है कि आज की गज़ल और आज से दो कड़ी पहले पेश की गज़ल (जिसकी फ़रमाईश सीमा जी ने हीं की थी) में दो समानताएँ हैं। दो कड़ी पहले हमने आपको "गमन" फिल्म की गज़ल सुनाई थी और आज हम "उमराव जान" फिल्म की गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण मुज़फ़्फ़र अली ने किया था और इन दोनों गज़लों के गज़लगो शहरयार हैं। ऐसा लगता है कि मुज़फ़्फ़र अली हमारी महफ़िल के नियमित मेहमान बन चुके हैं। अब चूँकि मुज़फ़्फ़र अली और शहरयार के बारे में हम बहुत कुछ कह चुके हैं, इसलिए क्यों न आज आशा ताई के बारे में बातें की जाएँ। ८ सितम्बर १९३३ को जन्मी आशा ताई अब ७६ साल की हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें सुनकर उनकी उम्र का तनिक भी भान नहीं होता। वैसे शायद आपको पता हो कि इसी साल इनके एलबम "प्रीसियश प्लैटीनम" को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ एलबम की सूची में ३७ वाँ स्थान मिला है। इस बारे में पूछने पर वो कहती हैं: मैं उस समय कोलकाता में थी। वहाँ मेरा एक बंगाली एलबम रिलीज़ हो रहा था। पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया, क्योंकि यहाँ अपने देश में तो इस एलबम को लोगों ने सुना भी नहीं है ठीक से। वैसे भी अपने देश से बाहर संगीत को सुनने वाले और सराहने वाले श्रोता बहुत हैं। अपने देश में तब उस संगीत को सराहा जाता है जब विदेश में उसको पसंद किया जाता है। आशा ताई की बात में सच्चाई तो है। अगर हमसे पूछें तो हमने भी अभी तक इस एलबम को नहीं सुना है, हाँ लेकिन फ़ख्र तो होता है कि हमारी एक धरोहर धीरे-धीरे विश्व की धरोहर बनती जा रही है। आज के संगीतकारों में शंकर-एहसान-लाय और मोंटी शर्मा को पसंद करने वाली आशा ताई नए गायक-गायिकाओं में किसी को खास पसंद नहीं करतीं। लता मंगेशकर उन्हें अब भी सबसे प्रिय हैं। इस मामले में उनका कहना है: लता मंगेशकर. हम ४५ साल से एक घर में रहते हैं. मां, हम पाँच भाई-बहन सब साथ रहते थे. जहाँ तक लोगों की बात है तो ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना.’
कब तक गाती रहेंगी..यह पूछने पर वो मजाकिया अंदाज़ में कहती हैं: मैं आखिरी साँस तक गाना चाहती हूँ. एक ज्योतिषी ने मुझे बताया था कि मैं ८ साल और जीवित रहूँगी लेकिन गाने के बारे में पूछने पर उन्होंने कुछ नहीं कहा तो समझ लीजिए कम से कम आठ साल अभी और गाऊँगी. पिछले ६५ सालों से गा रहीं आशा ताई को अब तक ८ बार फिल्म-फ़ेयर अवार्ड मिल चुका है। इस दौरान उन्होंने १४ से भी ज्यादा भाषाओं में १२००० से भी ज्यादा गानें गाए हैं। पहली फिल्म कैसे मिली..इस बाबत उनका कहना था: दीदी एक मराठी फ़िल्म माझा बाड़ में काम कर रही थी. उसमें गाने का मौका मिला. यह फ़िल्म १९४४ में बनी थी. उसके बाद ‘अंधों की दुनिया’ में वसंत देसाई ने मौके दिया. हंसराज बहल ने मुझे हिंदी फ़िल्म में पहली बार किसी अभिनेत्री के लिए गाने का मौका दिया. मेरा पहला गाना हिट हुआ १९४८ में, जिसके बोल थे- गोरे गोरे हाथों में. आज के दौर का संगीत पहले के संगीत से काफ़ी अलग है...इस बात पर जोर देते हुए वह कहती है: मैं उस वक्त को याद करती हूं, जब कलाकार बिना पैसा लिए कार्यक्रम देने के लिए आ जाते थे। मैंने उस वक्त उस्ताद विलायत खान को सुना था। प्रसिद्ध सितार वादक उस्ताद विलायत खान द्वारा संगीतबद्ध १९७६ की फिल्म ‘कादंबरी' में मैंने गाया था। उस दौरान कुछ संगीतकार ऐसे थे, जो कार्यक्रम देने के पहले तैयारी करते थे, जबकि कुछ संगीतकार अचानक कार्यक्रम देते थे। उस्ताद विलायत खान दोनों तरह के संगीतकार थे। जब मैंने गाना शुरू किया था तब और आज के संगीत के परिदृश्य में काफी बदलाव आ गया है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि मुझे उस्ताद अली अकबर खान, उस्ताद विलायत खान, पंडित रविशंकर और शिव हरि ‘पंडित शिवकुमार शर्मा और पंडित हरि प्रसाद चौरसिया' जैसे बड़े संगीतकारों के साथ काम करने का मौका मिला। वक्त के साथ संगीत में काफी फर्क आया है. ‘नया दौर’ से लेकर ‘रंगीला’ के बीच में संगीत में तकनीक का दखल काफी बढ़ गया है और वर्तमान समय का फिल्मी संगीत बिना रूह के इनसान की तरह हो गया है. आजकल का फिल्मी संगीत सुनकर ऐसा लगता है कि संगीत अपनी रूह को खोज रहा है. बेताल को ताल में ढाला जा रहा है और बेसुरे को सुर में ढाला जा सकता है लेकिन भावनाएँ किसी भी सूरत में नहीं ढाली जा सकती हैं. एक जमाने में सुख और दुख, विरह और मिलन एवं वक्त के मुताबिक गीत लिखे जाते थे और उसी भावना से गाए भी जाते थे, लेकिन अब तो फिल्मी गीतों से कोई भाव निकालना बेहद मुश्किल हो गया है। आजकल ज्यादातर गीतों के बोल अच्छे नहीं होते। हालांकि, लिखने वालों की कमी नहीं है, आज भी गुलजार, जावेद अख्तर और समीर जैसे कई अच्छे गीतकार बॉलीवुड में है।
आशा ताई की बात हो और ओ०पी०नैय्यर साहब और पंचम दा का ज़िक्र न हो, यह कैसे संभव है। इन दोनों को याद करते हुए आशा ताई अतीत के पन्नों में खो-सी जाती हैं: मुझे लोकप्रियता नैयर साहब का साथ मिलने के बाद मिली..यह बात कुछ हद तक सही है. उस जमाने में सी रामचंद्र के गाने भी बहुत हिट हुए. ईना-मीना-डीका बहुत हिट रहा. मैं सिर्फ़ आर डी बर्मन का नाम भी नहीं लूँगी. हर संगीत निर्देशक का मेरे करियर में योगदान रहा है. मसलन मदन जी का ‘झुमका गिरा रे’, रवि साहब का ‘आगे भी जाने न तू’, शंकर जयकिशन का ‘पर्दे में रहने दो’. आर डी बर्मन मेरे पहले भी पसंदीदा संगीतकार थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे. ये बात सिर्फ़ मेरे लिए नहीं बल्कि सबके लिए है. सभी संगीत निर्देशक, गायक आज महसूस करते हैं कि उनके जैसा संगीत कोई नहीं दे सकता. उनका गाना सिखाने का तरीका सबसे अलग था. वह गायक को नर्वस नहीं होने देते थे. उन्हें पता था कि गायक को किस तरह गंवाना चाहिए और बड़े ही प्यार से गायक से गीत गवा लेते थे. मुझे उनके गाने गाने में बहुत मजा आता था. वैसे भी मुझे नई चीज़ें करना अच्छा लगता था. बहुत मेहनत से गाते थे. बर्मन साहब को भी अच्छा लगता था कि मैं कितनी मेहनत करती हूँ. तो कुल मिलाकर अच्छी आपसी समझदारी थी. तो मैं कहूँगी कि हमारे बीच संगीत से प्रेम बढ़ा, न कि प्रेम से हम संगीत में नजदीक आए. आजकल जब कोई उनके पुराने गानों को तोड़-मरोड़कर गाता है, उससे दुख होता है. ‘चुरा लिया है तुमने’ को बाद में जिस तरह से गाया गया. उससे मुझे और बर्मन साहब को बहुत दुख हुआ था. अब अगर घर में हीं संगीत-शिरोमणि विराजमान हों तो तुलना होना लाजिमी है। इस बाबत वह कहती हैं: गुलज़ार भाई ने कहा था कि लोग कहते हैं कि आशा नंबर वन है, लता नंबर वन है. उनका कहना था कि अंतरिक्ष में दो यात्री एक साथ गए थे, लेकिन जिसका क़दम पहले पड़ा नाम उसका ही हुआ. मुझे खुशी है कि पहला क़दम दीदी का पड़ा और मुझे इस पर गर्व है. वैसे भी किसी को अच्छा कहने के लिए किसी और को ख़राब कहना ज़रूरी नहीं है. १६ आने खड़ी बात की है आशा ताई ने। तो चलिए आशा ताई के बारे में हमने आपको बहुत सारी जानकारी दे दी, अब हम आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। उससे पहले "शहरयार" साहब का एक बेमिसाल शेर पेश-ए-खिदमत है:
हमराह कोई और न आया तो क्या गिला
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी...
क्या बात है!!! पढकर ऐसा लगता है कि मानो कोई हमारी हीं कहानी सुना रहा हो। आप क्या कहते हैं?
अब पेश है वह गज़ल जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। हमें पूरा यकीन है कि यह आपको बेहद पसंद आएगी। तो लुत्फ़ उठाने के लिए तैयार हो जाईये, हाँ ध्यान देने की बात यह है कि फिल्म उमराव जान में नायिका का नाम "अदा" था, इसलिए शहरयार साहब ने "अदा" तखल्लुस का इस्तेमाल किया है:
जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने
तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी _____ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझको तो बस ख़्वाब में देखा हमने
ऐ "अदा" और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा हमने
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बुनियाद" और शेर कुछ यूं था -
आज जो दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन ये थी कि बुनियाद हिलनी चाहिए....
दुष्यंत कुमार के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना शामिख फ़राज़ ने। आपने "बुनियाद" शब्द पर यह शेर पेश किया:
मुनव्वर मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती। (मुनव्वर राणा)
इनके बाद महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। यह रही आपकी पेशकश:
गहे रस्न-ओ-दार के आग़ोश में झूले
गहे हरम-ओ-दैर की बुनियाद हिला दी (अहमद फ़राज़)
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी (साहिर लुधियानवी)
शामिख जी और सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए शरद जी। आपने पहली मर्तबा खुद के लिखे शेर नहीं कहे। चलिए कोई बात नही...यह भी सही। चाहे यह शेर आपका न हो, लेकिन क्या खूब कहा है:
हम वो पत्थर हैं जो गहरे गढ़े रहे बुनियादों में,
शायद तुमको नज़र न आए इसीलिए मीनारों में। (आर.सी.शर्मा ’आरसी’)
निर्मला जी, आप आतीं कैसे नहीं...आना तो था हीं, आखिर महफ़िल का सवाल है। बस कभी ऐसा हो कि आपके साथ कुछ शेर भी आ जाएँ तो मज़ा आ जाए।
राकेश जी, महफ़िल में आपका स्वागत है। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
डिग नहीं सकती कभी नीयत सरे बाज़ार में.
शर्त इतनी है कि बस बुनियाद पक्की चाहिए.
इन सब के बाद महफ़िल में आईं मंजु जी। यह रहा आपका अपने हीं अंदाज़ का स्वरचित शेर(जिसे पिछली बार शरद जी ने शेरनी घोषित कर दिया था :) ):
हम तो बुनियाद के बेनाम पत्थर हैं ,
जिस पर महल खड़ा .
महफ़िल में आखिरी शेर कहा कुलदीप जी ने। हुजूर, इस बार आपने बड़ी देर लगा दी। अगली बार से समय का ध्यान रखिएगा। आपने मीराज़ साहब का यह शेर महफ़िल में पेश किया:
हम भी हैं तामीले वतन में बराबर के शरीक
दरो दीवार अगर तुम हो तो बुनियाद हैं हम
दिशा जी और सुमित जी, आप दोनों कहाँ रह गए। महफ़िल में आने के बाद शेर कहने की परम्परा है, पता है ना!
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। सीमा जी की पसंद औरों से काफ़ी अलहदा है। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। लोग अमूमन मेहदी हसन साहब, गुलाम अली साहब या फिर जगजीत सिंह जी की गज़लों की फ़रमाईश करते हैं, लेकिन सीमा जी ने जिस गज़ल की फ़रमाईश की है, उसे आशा ताई ने गाया है। इस गज़ल की एक और खासियत है और खासियत यह है कि आज की गज़ल और आज से दो कड़ी पहले पेश की गज़ल (जिसकी फ़रमाईश सीमा जी ने हीं की थी) में दो समानताएँ हैं। दो कड़ी पहले हमने आपको "गमन" फिल्म की गज़ल सुनाई थी और आज हम "उमराव जान" फिल्म की गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण मुज़फ़्फ़र अली ने किया था और इन दोनों गज़लों के गज़लगो शहरयार हैं। ऐसा लगता है कि मुज़फ़्फ़र अली हमारी महफ़िल के नियमित मेहमान बन चुके हैं। अब चूँकि मुज़फ़्फ़र अली और शहरयार के बारे में हम बहुत कुछ कह चुके हैं, इसलिए क्यों न आज आशा ताई के बारे में बातें की जाएँ। ८ सितम्बर १९३३ को जन्मी आशा ताई अब ७६ साल की हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें सुनकर उनकी उम्र का तनिक भी भान नहीं होता। वैसे शायद आपको पता हो कि इसी साल इनके एलबम "प्रीसियश प्लैटीनम" को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ एलबम की सूची में ३७ वाँ स्थान मिला है। इस बारे में पूछने पर वो कहती हैं: मैं उस समय कोलकाता में थी। वहाँ मेरा एक बंगाली एलबम रिलीज़ हो रहा था। पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया, क्योंकि यहाँ अपने देश में तो इस एलबम को लोगों ने सुना भी नहीं है ठीक से। वैसे भी अपने देश से बाहर संगीत को सुनने वाले और सराहने वाले श्रोता बहुत हैं। अपने देश में तब उस संगीत को सराहा जाता है जब विदेश में उसको पसंद किया जाता है। आशा ताई की बात में सच्चाई तो है। अगर हमसे पूछें तो हमने भी अभी तक इस एलबम को नहीं सुना है, हाँ लेकिन फ़ख्र तो होता है कि हमारी एक धरोहर धीरे-धीरे विश्व की धरोहर बनती जा रही है। आज के संगीतकारों में शंकर-एहसान-लाय और मोंटी शर्मा को पसंद करने वाली आशा ताई नए गायक-गायिकाओं में किसी को खास पसंद नहीं करतीं। लता मंगेशकर उन्हें अब भी सबसे प्रिय हैं। इस मामले में उनका कहना है: लता मंगेशकर. हम ४५ साल से एक घर में रहते हैं. मां, हम पाँच भाई-बहन सब साथ रहते थे. जहाँ तक लोगों की बात है तो ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना.’
कब तक गाती रहेंगी..यह पूछने पर वो मजाकिया अंदाज़ में कहती हैं: मैं आखिरी साँस तक गाना चाहती हूँ. एक ज्योतिषी ने मुझे बताया था कि मैं ८ साल और जीवित रहूँगी लेकिन गाने के बारे में पूछने पर उन्होंने कुछ नहीं कहा तो समझ लीजिए कम से कम आठ साल अभी और गाऊँगी. पिछले ६५ सालों से गा रहीं आशा ताई को अब तक ८ बार फिल्म-फ़ेयर अवार्ड मिल चुका है। इस दौरान उन्होंने १४ से भी ज्यादा भाषाओं में १२००० से भी ज्यादा गानें गाए हैं। पहली फिल्म कैसे मिली..इस बाबत उनका कहना था: दीदी एक मराठी फ़िल्म माझा बाड़ में काम कर रही थी. उसमें गाने का मौका मिला. यह फ़िल्म १९४४ में बनी थी. उसके बाद ‘अंधों की दुनिया’ में वसंत देसाई ने मौके दिया. हंसराज बहल ने मुझे हिंदी फ़िल्म में पहली बार किसी अभिनेत्री के लिए गाने का मौका दिया. मेरा पहला गाना हिट हुआ १९४८ में, जिसके बोल थे- गोरे गोरे हाथों में. आज के दौर का संगीत पहले के संगीत से काफ़ी अलग है...इस बात पर जोर देते हुए वह कहती है: मैं उस वक्त को याद करती हूं, जब कलाकार बिना पैसा लिए कार्यक्रम देने के लिए आ जाते थे। मैंने उस वक्त उस्ताद विलायत खान को सुना था। प्रसिद्ध सितार वादक उस्ताद विलायत खान द्वारा संगीतबद्ध १९७६ की फिल्म ‘कादंबरी' में मैंने गाया था। उस दौरान कुछ संगीतकार ऐसे थे, जो कार्यक्रम देने के पहले तैयारी करते थे, जबकि कुछ संगीतकार अचानक कार्यक्रम देते थे। उस्ताद विलायत खान दोनों तरह के संगीतकार थे। जब मैंने गाना शुरू किया था तब और आज के संगीत के परिदृश्य में काफी बदलाव आ गया है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि मुझे उस्ताद अली अकबर खान, उस्ताद विलायत खान, पंडित रविशंकर और शिव हरि ‘पंडित शिवकुमार शर्मा और पंडित हरि प्रसाद चौरसिया' जैसे बड़े संगीतकारों के साथ काम करने का मौका मिला। वक्त के साथ संगीत में काफी फर्क आया है. ‘नया दौर’ से लेकर ‘रंगीला’ के बीच में संगीत में तकनीक का दखल काफी बढ़ गया है और वर्तमान समय का फिल्मी संगीत बिना रूह के इनसान की तरह हो गया है. आजकल का फिल्मी संगीत सुनकर ऐसा लगता है कि संगीत अपनी रूह को खोज रहा है. बेताल को ताल में ढाला जा रहा है और बेसुरे को सुर में ढाला जा सकता है लेकिन भावनाएँ किसी भी सूरत में नहीं ढाली जा सकती हैं. एक जमाने में सुख और दुख, विरह और मिलन एवं वक्त के मुताबिक गीत लिखे जाते थे और उसी भावना से गाए भी जाते थे, लेकिन अब तो फिल्मी गीतों से कोई भाव निकालना बेहद मुश्किल हो गया है। आजकल ज्यादातर गीतों के बोल अच्छे नहीं होते। हालांकि, लिखने वालों की कमी नहीं है, आज भी गुलजार, जावेद अख्तर और समीर जैसे कई अच्छे गीतकार बॉलीवुड में है।
आशा ताई की बात हो और ओ०पी०नैय्यर साहब और पंचम दा का ज़िक्र न हो, यह कैसे संभव है। इन दोनों को याद करते हुए आशा ताई अतीत के पन्नों में खो-सी जाती हैं: मुझे लोकप्रियता नैयर साहब का साथ मिलने के बाद मिली..यह बात कुछ हद तक सही है. उस जमाने में सी रामचंद्र के गाने भी बहुत हिट हुए. ईना-मीना-डीका बहुत हिट रहा. मैं सिर्फ़ आर डी बर्मन का नाम भी नहीं लूँगी. हर संगीत निर्देशक का मेरे करियर में योगदान रहा है. मसलन मदन जी का ‘झुमका गिरा रे’, रवि साहब का ‘आगे भी जाने न तू’, शंकर जयकिशन का ‘पर्दे में रहने दो’. आर डी बर्मन मेरे पहले भी पसंदीदा संगीतकार थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे. ये बात सिर्फ़ मेरे लिए नहीं बल्कि सबके लिए है. सभी संगीत निर्देशक, गायक आज महसूस करते हैं कि उनके जैसा संगीत कोई नहीं दे सकता. उनका गाना सिखाने का तरीका सबसे अलग था. वह गायक को नर्वस नहीं होने देते थे. उन्हें पता था कि गायक को किस तरह गंवाना चाहिए और बड़े ही प्यार से गायक से गीत गवा लेते थे. मुझे उनके गाने गाने में बहुत मजा आता था. वैसे भी मुझे नई चीज़ें करना अच्छा लगता था. बहुत मेहनत से गाते थे. बर्मन साहब को भी अच्छा लगता था कि मैं कितनी मेहनत करती हूँ. तो कुल मिलाकर अच्छी आपसी समझदारी थी. तो मैं कहूँगी कि हमारे बीच संगीत से प्रेम बढ़ा, न कि प्रेम से हम संगीत में नजदीक आए. आजकल जब कोई उनके पुराने गानों को तोड़-मरोड़कर गाता है, उससे दुख होता है. ‘चुरा लिया है तुमने’ को बाद में जिस तरह से गाया गया. उससे मुझे और बर्मन साहब को बहुत दुख हुआ था. अब अगर घर में हीं संगीत-शिरोमणि विराजमान हों तो तुलना होना लाजिमी है। इस बाबत वह कहती हैं: गुलज़ार भाई ने कहा था कि लोग कहते हैं कि आशा नंबर वन है, लता नंबर वन है. उनका कहना था कि अंतरिक्ष में दो यात्री एक साथ गए थे, लेकिन जिसका क़दम पहले पड़ा नाम उसका ही हुआ. मुझे खुशी है कि पहला क़दम दीदी का पड़ा और मुझे इस पर गर्व है. वैसे भी किसी को अच्छा कहने के लिए किसी और को ख़राब कहना ज़रूरी नहीं है. १६ आने खड़ी बात की है आशा ताई ने। तो चलिए आशा ताई के बारे में हमने आपको बहुत सारी जानकारी दे दी, अब हम आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। उससे पहले "शहरयार" साहब का एक बेमिसाल शेर पेश-ए-खिदमत है:
हमराह कोई और न आया तो क्या गिला
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी...
क्या बात है!!! पढकर ऐसा लगता है कि मानो कोई हमारी हीं कहानी सुना रहा हो। आप क्या कहते हैं?
अब पेश है वह गज़ल जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। हमें पूरा यकीन है कि यह आपको बेहद पसंद आएगी। तो लुत्फ़ उठाने के लिए तैयार हो जाईये, हाँ ध्यान देने की बात यह है कि फिल्म उमराव जान में नायिका का नाम "अदा" था, इसलिए शहरयार साहब ने "अदा" तखल्लुस का इस्तेमाल किया है:
जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने
तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी _____ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझको तो बस ख़्वाब में देखा हमने
ऐ "अदा" और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा हमने
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बुनियाद" और शेर कुछ यूं था -
आज जो दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन ये थी कि बुनियाद हिलनी चाहिए....
दुष्यंत कुमार के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना शामिख फ़राज़ ने। आपने "बुनियाद" शब्द पर यह शेर पेश किया:
मुनव्वर मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती। (मुनव्वर राणा)
इनके बाद महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। यह रही आपकी पेशकश:
गहे रस्न-ओ-दार के आग़ोश में झूले
गहे हरम-ओ-दैर की बुनियाद हिला दी (अहमद फ़राज़)
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी (साहिर लुधियानवी)
शामिख जी और सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए शरद जी। आपने पहली मर्तबा खुद के लिखे शेर नहीं कहे। चलिए कोई बात नही...यह भी सही। चाहे यह शेर आपका न हो, लेकिन क्या खूब कहा है:
हम वो पत्थर हैं जो गहरे गढ़े रहे बुनियादों में,
शायद तुमको नज़र न आए इसीलिए मीनारों में। (आर.सी.शर्मा ’आरसी’)
निर्मला जी, आप आतीं कैसे नहीं...आना तो था हीं, आखिर महफ़िल का सवाल है। बस कभी ऐसा हो कि आपके साथ कुछ शेर भी आ जाएँ तो मज़ा आ जाए।
राकेश जी, महफ़िल में आपका स्वागत है। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
डिग नहीं सकती कभी नीयत सरे बाज़ार में.
शर्त इतनी है कि बस बुनियाद पक्की चाहिए.
इन सब के बाद महफ़िल में आईं मंजु जी। यह रहा आपका अपने हीं अंदाज़ का स्वरचित शेर(जिसे पिछली बार शरद जी ने शेरनी घोषित कर दिया था :) ):
हम तो बुनियाद के बेनाम पत्थर हैं ,
जिस पर महल खड़ा .
महफ़िल में आखिरी शेर कहा कुलदीप जी ने। हुजूर, इस बार आपने बड़ी देर लगा दी। अगली बार से समय का ध्यान रखिएगा। आपने मीराज़ साहब का यह शेर महफ़िल में पेश किया:
हम भी हैं तामीले वतन में बराबर के शरीक
दरो दीवार अगर तुम हो तो बुनियाद हैं हम
दिशा जी और सुमित जी, आप दोनों कहाँ रह गए। महफ़िल में आने के बाद शेर कहने की परम्परा है, पता है ना!
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
शे’र अर्ज़ है :
अपने किए पे कोई पशेमान हो गया
लो और मेरी मौत का सामान हो गया ।
--'मिर्जा ग़ालिब' का लिखा शे’र अर्ज़ है --
'की मेरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हाये उस ज़ोदपशेमाँ का पशेमाँ होना'
दिल आखिरकार टूटता है गम से |
सदमात से खुलती हैं बसर की आखें,
फोड़ा गफलत का फूटता है गम से !
इन शायार का नाम याद नहीं पर उनका उपनाम 'बसर " है |
आपकी महफ़िल अच्छी लगी |
regards
छूट जाने दो जो दामन-ए-वफ़ा छूट गया
क्यूँ ये लग़ज़ीदा ख़रामी ये पशेमाँ नज़री
तुम ने तोड़ा नहीं रिश्ता-ए-दिल टूट गया
(कैफ़ी आज़मी )
वो ख़ुद नज़र आते हैं जफ़ाओं पे पशेमाँ
क्या चाहिये और तुम को "शकील" इस के सिवा और
(शकील बँदायूनी )
हजार बार किया तर्के-दोस्ती का ख्याल
मगर फ़राज़ पशेमाँ हर एक बार हुए
(फ़राज़ )
हुस्न को नाहक़ पशेमाँ कर दिया,
ऐ जुनूँ ये भी कोई अन्दाअज़ है|
(मजाज़ लखनवी )
वो आए हैं पशेमाँ लाश पर अब
तुझे ए ज़िन्दगी लाऊँ कहाँ से
एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे
(मोमिन )
regards
ज़िन्दगी तुझको तो बस ख़्वाब में देखा हमने
ये शेर मुझे कुछ खास ही पसंद है...@तन्हा जी एक और शानदार ग़ज़ल की प्रस्तुति पर बेहद आभार.....आशा जी के बारे में भी विस्तार से बहुत कुछ पढ़ने को मिला.... बहुत ही अच्छा लगा, शुक्रिया.
regards
अच्छा ना लगा
हम कोई भी आलेख ऐन मौके पर तैयार नहीं करते...पहले से हीं तैयार करके रखते हैं। तो जो आलेख कल हमने पोस्ट किया था, वह मंगलवार को हीं तैयार हो चुका था। और आपने "मिराज़" साहब का वह शेर बुधवार सुबह/मंगलवार रात को टिप्पणी में डाला और यही कारण है कि वह छूट गया। आपने देखा होगा कि हमने हर किसी का नाम(चाहे उसने कोई शेर डाला हो या न डाला हो) उल्लेखित किया है, फिर हमारी आपसे कोई दुश्मनी थोड़े हीं है कि आपकी टिप्पणी को नज़र-अंदाज़ कर दिया जाएगा। :)
समय पर अगर आपकी टिप्पणी आती तो वह भी उल्लेखित हो जाती। भाई, हम भी तो इंसान हैं :) हमें भी आफिस जाना होता है।
उम्मीद है कि आप हमारी मजबूरी समझ गए होंगे।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
मैने आपकी टिप्पणी को जोड़ दिया है। देख लीजिएगा। अब तो कोई नाराज़गी नहीं है ना?
-विश्व दीपक
age se khayal rakhunga
ग़म पशेमा तबस्सुम में ढल आये होँगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होँगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा
kaifi aazmi
मेरी महफ़िल में जो उनको, पशेमां देख लेते हैं।
safi lakhnavi