महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५२
आकी महफ़िल कुछ खास है। सबब तो समझ हीं गए होंगे। नहीं समझे?... अरे भाई, भुपि(भुपिन्दर सिंह) और गुलज़ार साहब की जोड़ी पहली बार आज महफ़िल में नज़र आने जा रही है। अब जहाँ गुलज़ार का नाम हो, वहाँ सारे बने बनाए ढर्रे नेस्तनाबूत हो जाते हैं। और इसी कारण से हम भी आज अपने ढर्रे से बाहर आकर महफ़िल-ए-गज़ल को गुलज़ार साहब की कविताओं के सुपूर्द करने जा रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि हमारा यह बदलाव आपको अटपटा नहीं लगेगा। तो शुरू करते हैं कविताओं का दौर... उससे पहले एक विशेष सूचना: हमें सीमा जी की पसंद की गज़लों की फ़ेहरिश्त मिल गई है और हम इस सोमवार को उन्हीं की पसंद की एक गज़ल सुनवाने जा रहे हैं। शामिख साहब ने २-३ दिनों की मोहलत माँगी है, हमें कोई ऐतराज नहीं है...लेकिन जितना जल्द आप यह काम करेंगे, हमें उतनी हीं ज्यादा सुहूलियत हासिल होगी। शरद जी, कृपया फूर्त्ति दिखाएँ, आप तो पहले भी इस प्रक्रिया से गुजर चुकें हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के पिछले अंक(जून २००८) में गुलज़ार साहब की कलम ने पांच शहरों की तस्वीरें उकेरी हैं, कविताओं के माध्यम से शहरों के चरित्र को पेश किया है..
प्रस्तुत हैं शहरनामे के कुछ अंश..
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बम्बई
बड़ी लम्बी-सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पाँव जमीं पर हैं
समन्दर छोड़ती है, न समन्दर में उतरती है
ये नगरी बम्बई की...
जुराबें लम्बे-लम्बे साहिलों की, पिंडलियों तक खींच रक्खी है
समन्दर खेलता रहता है पैरों से लिपट कर
हमेशा छींकता है, शाम होती है तो 'टाईड' में।
यहीं देखा है साहिल पर
समन्दर ओक में भर के
'जोशान्दे' की तरह हर रोज पी जाता है सूरज को
बड़ा तन्दरुस्त रहता है
कभी दुबला नहीं होता!
कभी लगता है ये कोई तिलिस्मी-सा जजीरा है
जजीरा बम्बई का...
किसी गिरगिट की चमड़ी से बना है आसमाँ इसका
जो वादों की तरह रंगत बदलता है
'कसीनो' में रखे रोले (Roulette) की सूरत चलता रहता है!
कभी इस शहर की गर्दिश नहीं रुकती
बसे 'बियेरिंग' लगे हैं
किसी 'एक्सेल' पे रक्खा है।
तिलिस्मी शहर के मंजर अजब है
अकेले रात को निकलो, सिया साटिन की सड़कों पर
तिलिस्मी चेहरे ऊपर जगमगाते 'होर्डिंग' पर झूलते हैं
सितारे झाँकते हैं, नीचे सड़कों पर
वहाँ चढ़ने के जीने ढूँढने पड़ते हैं
पातालों में गुम होकर।
यहाँ जीना भी जादू है...
यहाँ पर ख्वाब भी टाँगों पे चलते है
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी में रक्खे मूंग के दाने
चटखते है तो जीभें उगने लगती हैं
यहाँ दिल खर्च हो जाते हैं अक्सर...कुछ नहीं बचता
सभी चाटे हुए पत्तल हवा में उड़ते रहते हैं
समन्दर रात को जब आँख बन्द करता है, ये नगरी
पहन कर सारे जेवर आसमाँ पर अक्स अपना देखा करती है
कभी सिन्दबाद भी आया तो होगा इस जजीरे पर
ये आधी पानी और आधी जमीं पर जिन्दा मछली
देखकर हैराँ हुआ होगा!!
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मद्रास (चेन्नई)
शहर ये बुजुर्ग लगता है
फ़ैलने लगा है अब
जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढ़ने लगता है
ज़बां के ज़ायके वही
लिबास के सलीके भी....
.....
ख़ुशकी बढ़ गयी है जिस्म पर, ’कावेरी’ सूखी रहती है
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कोलकता
कभी देखा है बिल्डिंग में,
किसी सीढ़ी के नीचे
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाये मैले दांतों की तरह
कुछ फ़्यूज़ रक्खे हैं
...
बेहया बदमाश लड़के की तरह वो
खिलखिला के हंसता रहता है!
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दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर
सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहां अब
धूप में आधी रात का सन्नाटा रहता था।
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर...
‘चारपाई’ बुनने वाला जब,
घंटा घर वाले नुक्कड़ से, कान पे रख के हाथ,
इस हांक लगाता था- ‘चार... पई... बनवा लो...!’
ख़सख़स की टट्यों में सोये लोग अंदाज़ा कर लेते थे... डेढ़ बजा है!
दो बजते-बजते जामुन वाला गुज़रेगा
‘जामुन... ठंडे... काले... जामुन...!’
टोकरी में बड़ के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था
बंद कमरों में...
बच्चे कानी आंख से लेटे लेटे मां को देखते थे,
वो करवट लेकर सो जाती थी
तीन बजे तक लू का सन्नाटा रहता था
चार बजे तक ‘लंगरी सोटा’ पीसने लगता था ठंडाई
चार बजे के पास पास ही ‘हापड़ के पापड़!’ आते थे
‘लो... हापड़... के... पापड़...’
लू की कन्नी टूटने पर छिड़काव होता था
आंगन और दुकानों पर!
बर्फ़ की सिल पर सजने लगती थीं गंडेरियां
केवड़ा छिड़का जाता था
और छतों पर बिस्तर लग जाते थे जब
ठंडे ठंडे आसमान पर...
तारे छटकने लगते थे!
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न्यूयार्क
तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूं कर च्युंटियों के घर नहीं हैं
कहीं भी चीटियां नहीं देखी मैने
अगरचे फ़र्श पे चीनी भी डाली
पर कोइ चीटीं नज़र नहीं आयी
हमारे गांव के घर में तो आटा डालते हैं, गर
कोइ क़तार उनकी नज़र आये
तुम्हारे शहर में गरचे..
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड़ हैं
पौधे हैं, फूलों से भरे हैं
कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराये उन पर
मेरा गांव बहुत पिछड़ा हुआ है
मेरे आंगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वे नालायक, वहीं खाते हैं दाना
और वहीं पर बीट करते हैं
तुम्हारे शहर में लेकिन
हर इक बिल्डिंग, इमारत खूबसूरत है, बुलन्द है
बहुत ही खूबसूरत लोग मिलते हैं
मगर ए दोस्त जाने क्यों..
सभी तन्हा से लगते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं
तो बड़ा सुनसान लगता है..
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तो कैसी लगी आपको ये कविताएँ? अच्छी हीं लगी होंगी, इसमें किसी शक की गुंजाईश नहीं है। तो इन कविताओं के बाद अगर हम सीधे आज की नज़्म की ओर रूख कर लें तो महफ़िल-ए-गज़ल का उद्देश्य सफ़ल नहीं होगा। हमारी यही कोशिश रहती है कि हम फ़नकारों की ज़िंदगी के कुछ अनछुए हिस्से आपके सम्मुख प्रस्तुत करते रहें। तो उसी लहज़े में पेश हैं गुलज़ार साहब के बारे में खुद उनके और उनके साथ काम कर चुके या कर रहे फ़नकारों के ख्याल (सौजन्य:बी०बी०सी०) जब मैंने पहला गाना लिखा, उस वक़्त मैं बहुत इच्छुक नहीं था. बस एक के बाद दूसरा कदम लिया. फिर मैं शामिल हो गया बिमल रॉय के साथ असिस्टेंट के तौर पर. उन्हीं के यहां 'प्रेम पत्र' बन रही थी. उसमें मैंने सावन की रातों में ऐसा भी होता है’ लिखा. फिर 'काबुलीवाला' बन रही थी. उसमें मैंने लिखा - गंगा आए कहां से गंगा जाए कहां से – बस यही करते करते में फ़िल्म इंडस्ट्री में शामिल हो गया। शायरी का शौक़ था शेर कहने का शौक था. शायरी अच्छी लगती है. जैसे अंग्रेज़ी में कहते हैं – इट इज़ फर्स्ट लव. शायरी मेरा पहला इश्क़ है.
"क्या नुस्ख़ा है किसी गानें को हिट करने का"- इस प्रश्न के जवाब में गुलज़ार साहब ने कहा "मुझे यूं लगता है और बड़ी निजी-सी राय है ये मेरी. इसे अगर जांच-भाल के भी देखें...कि जो किसी गाने के पॉपुलर होने का सबसे अहम अंग है - वो मेरे ख़याल में धुन है. उसके बाद फिर दूसरी चीज़ें आतीं हैं – आवाज़ भी शामिल हो जाती है औऱ अल्फ़ाज़ भी शामिल हो जाते हैं. लेकिन मूलत धुन बहुत अहम है."
गुलज़ार निर्देशित 'अंगूर' की अभिनेत्री मौसमी चटर्जी बताती हैं कि "गुलज़ार एक बेहतरीन गीतकार हैं। मुझे उनका 'ख़ामोशी' के लिए लिखा गाना "प्यार को प्यार ही रहने दो" बेहद पसंद है। गुलज़ार मेरी सास को उर्दू सिखाते थे और उनसे बांग्ला सीखते थे।
गुलज़ार के साथ 'बंटी और बबली', 'झूम बराबर झूम' फ़िल्में करने वाले शंकर महादेवन ने बीबीसी को बताया- कजरारे कंपोज़ करने के बाद हम गुलज़ार साहब से मिले. उन्होंने गाना सुनने के बाद कहा कि उन्हें इसमें ख़तरा दिख रहा है. मैंने पूछा – क्या? उन्होंने कहा कि इस गाने के बहुत बड़ा हिट होने का ख़तरा है. जो उन्होंने कहा वो एकदम सही हुआ.’ महादेवन कहते हैं कि गुलज़ार से मिलना एक सुखद अनुभव है और उनके साथ काम करना का तजुर्बा ज़िंदगी भर उनके साथ रहेगा गुलज़ार साहब के बारे में जितना भी लिखा जाए कम है। कभी मौका मिलेगा(और मिलेगा हीं) तो हम उनके बारे में और भी बातें करेंगे। अभी बस इतना हीं...
अब वक्त है आज की नज़्म का लुत्फ़ उठाने का। यूँ तो यह नज़्म बड़ी हीं सीधी मालूम पड़ती है, जिसमें गुलज़ार साहब एक जुलाहे से वह तरकीब सीखना चाहते हैं, जिससे वो भी टूटे हुए रिश्तों को बुन सकें। लेकिन अगर आप गौर करेंगे तो महसूस होगा कि गुलज़ार किसी साधारण-से जुलाहे से बात नहीं कर रहे, बल्कि "कबीर" से मुखातिब हैं। वही कबीर जिन्होंने परमात्मा से अपना रिश्ता जोड़ लिया है। है ना बड़ी अजीब-सी बात? आप खुद देखिए:
मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे!
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे उस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनकर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं
मेरे यार जुलाहे
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-___ लेकर
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह
आपके विकल्प हैं -
a) सनम, b) इलाही, c) मसीहा, d) खुदा
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "गुनाह" और शेर कुछ यूं था -
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के...
"फ़ैज़" साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचानकर बाजी मारी सीमा जी ने। उसके बाद आपने कुछ शेर भी पेश किए:
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम (शहरयार)
अब ना माँगेंगे ज़िन्दगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया (गुलज़ार)
दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं (जिगर मुरादाबादी)
सीमा जी के बाद महफ़िल को खुशगवार किया शरद जी और शन्नो जी। ये रहे आप दोनों के स्वरचित शेर(क्रम से):
तेरी जिस पर निगाह होती है
उसे जीने की चाह होती है
दिल दुखा कर किसी को हासिल हो
कामयाबी गुनाह होती है।
निगाह भर के उन्हें देखने का गुनाह कर बैठे
सरे आम ज़माने ने फिर मचाई फजीहत ऐसी।
वैसे आप दोनों ने एक काम कमाल का किया है, अपने-अपने शेर में "निगाह" का इस्तेमाल करके आपने ५०-५० का गेम खेल लिया...मतलब कि या निगाह हो या गुनाह जवाब तो सही रहेगा :)
इनके बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। महफ़िल की शम्मा बुझने तक आपने महफ़िल को आबाद रखा। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है (मुनव्वर राणा)
चलना अगर गुनाह है अपने उसूल पर
सारी उमर सज़ाओं का ही सिल सिला चले (अनाम)
उम्र जिन की गुनाह में गुज़री
उन के दामन से दाग़ ग़ाइब है (राजेन्द्र रहबर)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आकी महफ़िल कुछ खास है। सबब तो समझ हीं गए होंगे। नहीं समझे?... अरे भाई, भुपि(भुपिन्दर सिंह) और गुलज़ार साहब की जोड़ी पहली बार आज महफ़िल में नज़र आने जा रही है। अब जहाँ गुलज़ार का नाम हो, वहाँ सारे बने बनाए ढर्रे नेस्तनाबूत हो जाते हैं। और इसी कारण से हम भी आज अपने ढर्रे से बाहर आकर महफ़िल-ए-गज़ल को गुलज़ार साहब की कविताओं के सुपूर्द करने जा रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि हमारा यह बदलाव आपको अटपटा नहीं लगेगा। तो शुरू करते हैं कविताओं का दौर... उससे पहले एक विशेष सूचना: हमें सीमा जी की पसंद की गज़लों की फ़ेहरिश्त मिल गई है और हम इस सोमवार को उन्हीं की पसंद की एक गज़ल सुनवाने जा रहे हैं। शामिख साहब ने २-३ दिनों की मोहलत माँगी है, हमें कोई ऐतराज नहीं है...लेकिन जितना जल्द आप यह काम करेंगे, हमें उतनी हीं ज्यादा सुहूलियत हासिल होगी। शरद जी, कृपया फूर्त्ति दिखाएँ, आप तो पहले भी इस प्रक्रिया से गुजर चुकें हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के पिछले अंक(जून २००८) में गुलज़ार साहब की कलम ने पांच शहरों की तस्वीरें उकेरी हैं, कविताओं के माध्यम से शहरों के चरित्र को पेश किया है..
प्रस्तुत हैं शहरनामे के कुछ अंश..
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बम्बई
बड़ी लम्बी-सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पाँव जमीं पर हैं
समन्दर छोड़ती है, न समन्दर में उतरती है
ये नगरी बम्बई की...
जुराबें लम्बे-लम्बे साहिलों की, पिंडलियों तक खींच रक्खी है
समन्दर खेलता रहता है पैरों से लिपट कर
हमेशा छींकता है, शाम होती है तो 'टाईड' में।
यहीं देखा है साहिल पर
समन्दर ओक में भर के
'जोशान्दे' की तरह हर रोज पी जाता है सूरज को
बड़ा तन्दरुस्त रहता है
कभी दुबला नहीं होता!
कभी लगता है ये कोई तिलिस्मी-सा जजीरा है
जजीरा बम्बई का...
किसी गिरगिट की चमड़ी से बना है आसमाँ इसका
जो वादों की तरह रंगत बदलता है
'कसीनो' में रखे रोले (Roulette) की सूरत चलता रहता है!
कभी इस शहर की गर्दिश नहीं रुकती
बसे 'बियेरिंग' लगे हैं
किसी 'एक्सेल' पे रक्खा है।
तिलिस्मी शहर के मंजर अजब है
अकेले रात को निकलो, सिया साटिन की सड़कों पर
तिलिस्मी चेहरे ऊपर जगमगाते 'होर्डिंग' पर झूलते हैं
सितारे झाँकते हैं, नीचे सड़कों पर
वहाँ चढ़ने के जीने ढूँढने पड़ते हैं
पातालों में गुम होकर।
यहाँ जीना भी जादू है...
यहाँ पर ख्वाब भी टाँगों पे चलते है
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी में रक्खे मूंग के दाने
चटखते है तो जीभें उगने लगती हैं
यहाँ दिल खर्च हो जाते हैं अक्सर...कुछ नहीं बचता
सभी चाटे हुए पत्तल हवा में उड़ते रहते हैं
समन्दर रात को जब आँख बन्द करता है, ये नगरी
पहन कर सारे जेवर आसमाँ पर अक्स अपना देखा करती है
कभी सिन्दबाद भी आया तो होगा इस जजीरे पर
ये आधी पानी और आधी जमीं पर जिन्दा मछली
देखकर हैराँ हुआ होगा!!
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मद्रास (चेन्नई)
शहर ये बुजुर्ग लगता है
फ़ैलने लगा है अब
जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढ़ने लगता है
ज़बां के ज़ायके वही
लिबास के सलीके भी....
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ख़ुशकी बढ़ गयी है जिस्म पर, ’कावेरी’ सूखी रहती है
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कोलकता
कभी देखा है बिल्डिंग में,
किसी सीढ़ी के नीचे
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाये मैले दांतों की तरह
कुछ फ़्यूज़ रक्खे हैं
...
बेहया बदमाश लड़के की तरह वो
खिलखिला के हंसता रहता है!
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दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर
सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहां अब
धूप में आधी रात का सन्नाटा रहता था।
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर...
‘चारपाई’ बुनने वाला जब,
घंटा घर वाले नुक्कड़ से, कान पे रख के हाथ,
इस हांक लगाता था- ‘चार... पई... बनवा लो...!’
ख़सख़स की टट्यों में सोये लोग अंदाज़ा कर लेते थे... डेढ़ बजा है!
दो बजते-बजते जामुन वाला गुज़रेगा
‘जामुन... ठंडे... काले... जामुन...!’
टोकरी में बड़ के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था
बंद कमरों में...
बच्चे कानी आंख से लेटे लेटे मां को देखते थे,
वो करवट लेकर सो जाती थी
तीन बजे तक लू का सन्नाटा रहता था
चार बजे तक ‘लंगरी सोटा’ पीसने लगता था ठंडाई
चार बजे के पास पास ही ‘हापड़ के पापड़!’ आते थे
‘लो... हापड़... के... पापड़...’
लू की कन्नी टूटने पर छिड़काव होता था
आंगन और दुकानों पर!
बर्फ़ की सिल पर सजने लगती थीं गंडेरियां
केवड़ा छिड़का जाता था
और छतों पर बिस्तर लग जाते थे जब
ठंडे ठंडे आसमान पर...
तारे छटकने लगते थे!
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न्यूयार्क
तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूं कर च्युंटियों के घर नहीं हैं
कहीं भी चीटियां नहीं देखी मैने
अगरचे फ़र्श पे चीनी भी डाली
पर कोइ चीटीं नज़र नहीं आयी
हमारे गांव के घर में तो आटा डालते हैं, गर
कोइ क़तार उनकी नज़र आये
तुम्हारे शहर में गरचे..
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड़ हैं
पौधे हैं, फूलों से भरे हैं
कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराये उन पर
मेरा गांव बहुत पिछड़ा हुआ है
मेरे आंगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वे नालायक, वहीं खाते हैं दाना
और वहीं पर बीट करते हैं
तुम्हारे शहर में लेकिन
हर इक बिल्डिंग, इमारत खूबसूरत है, बुलन्द है
बहुत ही खूबसूरत लोग मिलते हैं
मगर ए दोस्त जाने क्यों..
सभी तन्हा से लगते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं
तो बड़ा सुनसान लगता है..
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तो कैसी लगी आपको ये कविताएँ? अच्छी हीं लगी होंगी, इसमें किसी शक की गुंजाईश नहीं है। तो इन कविताओं के बाद अगर हम सीधे आज की नज़्म की ओर रूख कर लें तो महफ़िल-ए-गज़ल का उद्देश्य सफ़ल नहीं होगा। हमारी यही कोशिश रहती है कि हम फ़नकारों की ज़िंदगी के कुछ अनछुए हिस्से आपके सम्मुख प्रस्तुत करते रहें। तो उसी लहज़े में पेश हैं गुलज़ार साहब के बारे में खुद उनके और उनके साथ काम कर चुके या कर रहे फ़नकारों के ख्याल (सौजन्य:बी०बी०सी०) जब मैंने पहला गाना लिखा, उस वक़्त मैं बहुत इच्छुक नहीं था. बस एक के बाद दूसरा कदम लिया. फिर मैं शामिल हो गया बिमल रॉय के साथ असिस्टेंट के तौर पर. उन्हीं के यहां 'प्रेम पत्र' बन रही थी. उसमें मैंने सावन की रातों में ऐसा भी होता है’ लिखा. फिर 'काबुलीवाला' बन रही थी. उसमें मैंने लिखा - गंगा आए कहां से गंगा जाए कहां से – बस यही करते करते में फ़िल्म इंडस्ट्री में शामिल हो गया। शायरी का शौक़ था शेर कहने का शौक था. शायरी अच्छी लगती है. जैसे अंग्रेज़ी में कहते हैं – इट इज़ फर्स्ट लव. शायरी मेरा पहला इश्क़ है.
"क्या नुस्ख़ा है किसी गानें को हिट करने का"- इस प्रश्न के जवाब में गुलज़ार साहब ने कहा "मुझे यूं लगता है और बड़ी निजी-सी राय है ये मेरी. इसे अगर जांच-भाल के भी देखें...कि जो किसी गाने के पॉपुलर होने का सबसे अहम अंग है - वो मेरे ख़याल में धुन है. उसके बाद फिर दूसरी चीज़ें आतीं हैं – आवाज़ भी शामिल हो जाती है औऱ अल्फ़ाज़ भी शामिल हो जाते हैं. लेकिन मूलत धुन बहुत अहम है."
गुलज़ार निर्देशित 'अंगूर' की अभिनेत्री मौसमी चटर्जी बताती हैं कि "गुलज़ार एक बेहतरीन गीतकार हैं। मुझे उनका 'ख़ामोशी' के लिए लिखा गाना "प्यार को प्यार ही रहने दो" बेहद पसंद है। गुलज़ार मेरी सास को उर्दू सिखाते थे और उनसे बांग्ला सीखते थे।
गुलज़ार के साथ 'बंटी और बबली', 'झूम बराबर झूम' फ़िल्में करने वाले शंकर महादेवन ने बीबीसी को बताया- कजरारे कंपोज़ करने के बाद हम गुलज़ार साहब से मिले. उन्होंने गाना सुनने के बाद कहा कि उन्हें इसमें ख़तरा दिख रहा है. मैंने पूछा – क्या? उन्होंने कहा कि इस गाने के बहुत बड़ा हिट होने का ख़तरा है. जो उन्होंने कहा वो एकदम सही हुआ.’ महादेवन कहते हैं कि गुलज़ार से मिलना एक सुखद अनुभव है और उनके साथ काम करना का तजुर्बा ज़िंदगी भर उनके साथ रहेगा गुलज़ार साहब के बारे में जितना भी लिखा जाए कम है। कभी मौका मिलेगा(और मिलेगा हीं) तो हम उनके बारे में और भी बातें करेंगे। अभी बस इतना हीं...
अब वक्त है आज की नज़्म का लुत्फ़ उठाने का। यूँ तो यह नज़्म बड़ी हीं सीधी मालूम पड़ती है, जिसमें गुलज़ार साहब एक जुलाहे से वह तरकीब सीखना चाहते हैं, जिससे वो भी टूटे हुए रिश्तों को बुन सकें। लेकिन अगर आप गौर करेंगे तो महसूस होगा कि गुलज़ार किसी साधारण-से जुलाहे से बात नहीं कर रहे, बल्कि "कबीर" से मुखातिब हैं। वही कबीर जिन्होंने परमात्मा से अपना रिश्ता जोड़ लिया है। है ना बड़ी अजीब-सी बात? आप खुद देखिए:
मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे!
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे उस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनकर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं
मेरे यार जुलाहे
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-___ लेकर
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह
आपके विकल्प हैं -
a) सनम, b) इलाही, c) मसीहा, d) खुदा
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "गुनाह" और शेर कुछ यूं था -
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के...
"फ़ैज़" साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचानकर बाजी मारी सीमा जी ने। उसके बाद आपने कुछ शेर भी पेश किए:
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम (शहरयार)
अब ना माँगेंगे ज़िन्दगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया (गुलज़ार)
दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं (जिगर मुरादाबादी)
सीमा जी के बाद महफ़िल को खुशगवार किया शरद जी और शन्नो जी। ये रहे आप दोनों के स्वरचित शेर(क्रम से):
तेरी जिस पर निगाह होती है
उसे जीने की चाह होती है
दिल दुखा कर किसी को हासिल हो
कामयाबी गुनाह होती है।
निगाह भर के उन्हें देखने का गुनाह कर बैठे
सरे आम ज़माने ने फिर मचाई फजीहत ऐसी।
वैसे आप दोनों ने एक काम कमाल का किया है, अपने-अपने शेर में "निगाह" का इस्तेमाल करके आपने ५०-५० का गेम खेल लिया...मतलब कि या निगाह हो या गुनाह जवाब तो सही रहेगा :)
इनके बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। महफ़िल की शम्मा बुझने तक आपने महफ़िल को आबाद रखा। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है (मुनव्वर राणा)
चलना अगर गुनाह है अपने उसूल पर
सारी उमर सज़ाओं का ही सिल सिला चले (अनाम)
उम्र जिन की गुनाह में गुज़री
उन के दामन से दाग़ ग़ाइब है (राजेन्द्र रहबर)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
हम परेशाँ ही रहे अपने ख़यालों की तरह
शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-मसीहा लेकर
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह
जब भी अंजाम-ए-मुहब्बत ने पुकार ख़ुद को
वक़्त ने पेश किया हम को मिसालों की तरह
ज़िक्र जब होगा मुहब्बत में तबाही का कहीं
याद हम आयेंगे दुनिया को हवालों की तरह
सुदर्शन फ़ाकिर
regards
आइने दोस्त हैं पर सच नहीं छुपा सकते।
(विनय कुमार )
मसीहा वो करम फ़रमा गया है
सलीबों पर हमें लटका गया है
(प्रफुल्ल कुमार परवेज़ )
सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो
मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने
(कैफ़ी आज़मी )
इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ [२]मेरे नज़दीक
इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा[३] मेरे आगे
(गा़लिब )
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
(जिगर मुरादाबादी )
गिर जाओगे तुम अपने मसीहा की नज़र से
मर कर भी इलाज-ए-दिल-ए-बीमार न माँगो
(क़तील शिफ़ाई )
किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं
(अहमद नदीम क़ासमी )
regards
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह
सुदर्शन फ़ाकिर
कभी ज़िन्दगी में अगर तू अकेला हो
और दर्द हद से गुज़र जाए
आंखें तेरी
बात-बेबात रो रो पड़ें
तब कोई अजनबी
तेरी तन्हाई के चांद का नर्म हाला बने
तेरी क़ामत का साया बने
तेरे ज़्ख़्मों पे मरहम रखे
तेरी पलकों से शबनम चुने
तेरे दुख का मसीहा बने
parveen shakir
अब मसीहा भी क्या दवा देगा
नज़र में सभी की खुदा कर चले
tilak raj kapoor
कहें भी क्या दर्द का फ़साना
जहाँ में हैं लाख दुश्मन-ए-जाँ
कोई मसीहा नफ़स नहीं है
shakeel badauni
हरेक शख्स में इन्सानियत का फ़न भर दे ।
(स्वरचित)
हाँ आप गज़लों के साथ किसी नज़्म या नगमे(गैर-फिल्मी.. फिल्मी नज़्मों या नगमों के लिए ओल्ड इज गोल्ड है) की भी फ़रमाईश कर सकते हैं।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
जब -जब मानवता है रोती ,
तब -तब आंसुओं को पोछने के लिए मसीहा आता है कोई
sher abhi yaad nahi.......jab yaad aayega tab mehfil mei fir aayenge......
क्या मसीहा से मेरे दर्द का दरमां होगा
दरमां शब्द का क्या अर्थ होता है
ये काम आप लोग कर रहे हैं.जियो.