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रौशन दिल, बेदार नज़र दे या अल्लाह...इसी दुआ के साथ लता दीदी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५१

पाँच हफ़्तों और दस कड़ियों की माथापच्ची के बाद हम हाज़िर हैं प्रश्न-पहेली के अंकों का हिसाब लेकर। इन प्रश्न-पहेलियों में मुख्यत: ३ लोगों ने हीं भाग लिया(पिछली कड़ी में मंजु जी ने बस एक सवाल का जवाब दिया..इसलिए उन्हें हम मुख्य प्रतिभागियों में नहीं गिनते)। तो ये तीन लोग थे- सीमा जी, शरद जी और शामिख जी। अगर हम ५०वीं कड़ी के अंकों को छोड़ दें तो अंकों का गणित कुछ यूँ बनता था: सीमा जी: २९.५, शरद जी: १८, शामिख जी: १० अंक। तब तक यह ज़ाहिर हो चुका था कि सीमा जी हार नहीं सकतीं और पहली विजेता वहीं हैं। शरद जी और शामिख जी के बीच ८ अंकों का फ़र्क था। और इतनी दूरी को पाटने के लिए कोई चमत्कार की हीं जरूरत थी। ५०वीं कड़ी में हमने जब बोनस प्रश्न और बोनस अंक(५ अंक) जोड़ा तब भी हमें यह ख्याल नहीं था कि इसके सहारे कोई कमाल हो सकता है। लेकिन शामिख जी छुपे रूस्तम साबित हुए। उन्होंने अपना तुरूप का इक्का तभी इस्तेमाल किया जब उसकी जरूरत थी। हर बारे दूसरे या तीसरे स्थान पर आने वाले शामिख साहब इस बार महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुए। उन्होंने न सिर्फ़ नियमित प्रश्नों के सही जवाब दिये बल्कि बोनस प्रश्न का सही जवाब देकर छक्का मार दिया और एक हीं बार में ९ अंक(४+५) हासिल कर लिए। शाबाश शामिख जी... और इस तरह से आपके कुल १९ अंक हो गए। इस कमाल के बाद एक कमाल यह हुआ कि सीमा जी भले हीं एक दिन देर से हाज़िर हुईं लेकिन शरद जी उनसे भी पीछे आए। शरद जी अगर दूसरे नंबर पर आते तो उन्हें २ अंक मिलते और २० अंकों के साथ जीत उन्हीं की होती। लेकिन तीसरे नंबर पर आने के कारण उन्हें बस १ अंक हीं मिले और उनका कुल जोड़ हुआ १९. तो इस तरह अंततोगत्वा हिसाब ये बनता है: प्रथम: सीमा जी(३१.५..निर्विवाद..निर्विरोध), द्वितीय: शरद जी, शामिख जी(१९ अंक)। संयोग देखिए कि पिछली बार की तरह इस बार भी तीनों के तीनों विजयी हुए। अब बात करते हैं गज़लों की। सीमा जी अपनी पसंद की ५ गज़लें और शरद जी एवं शामिख जी ३-३ गज़लें सुन सकते हैं। आप तीनों से आग्रह है कि शुक्रवार तक इन गज़लों/नज़्मों की फ़ेहरिश्त sajeevsarathie@gmail.com पर भेज दें। ध्यान यह रखें कि गज़लें अलग-अलग फ़नकारों की हों(ताकि ज्यादा से ज्यादा जानकारी हम आपसे शेयर कर पाएँ) और हाँ अगर किसी गज़ल/नज़्म को ढूँढने में हमें मुश्किल आई तो हम आपसे उन गज़लों को बदलने का आग्रह भी कर सकते हैं।

आज हम जो गज़ल लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं,उसके साथ एक ऐसी फ़नकारा का नाम जुड़ा है, जिन्होंने ३६ भाषाओं(जिनमें रूसी, फ़िजीयन और डच भी शामिल है) में २०००० से भी अधिक गाने गाए हैं और जिनका नाम दुनिया भर में सबसे अधिक रिकार्ड की गई गायिका होने के नाते गिनीज बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज है। मजे की बात यह है कि आप हीं ऐसी एकमात्र जीवित व्यक्ति हैं जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं। आपके बारे में और भी कुछ कहने से पहले हम आपको गत २८ सितंबर को मनाए गए आपके जन्मदिन की बधाई देना चाहेंगे। ८० साल की हो चलीं लता जी के बारे में अपने मुख से कुछ भी कहना संभव न होगा, इसलिए हमने निर्णय लिया है कि आज की कड़ी में हम आपसे लता जी की हीं कही गई बातें शेयर करेंगे। उससे पहले हम आपको यह बता दें कि लता जी ने पहली बार वसंत जोगलेकर द्वारा निर्देशित एक मराठी फिल्म 'किती हसाल'(कितना हसोगे?)(१९४२) में गाया था। उनके पिता नहीं चाहते थे कि लता फ़िल्मों के लिये गाये इसलिये इस गाने को फ़िल्म से निकाल दिया गया। लेकिन उनकी प्रतिभा से वसंत जोगलेकर काफी प्रभावित हुये। इसके पाँच साल बाद भारत आज़ाद हुआ और लता मंगेशकर ने हिंदी फ़िल्मों में गायन की शुरूआत की, "आपकी सेवा में" पहली फ़िल्म थी जिसे उन्होंने अपने गायन से सजाया लेकिन उनके गाने ने कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई। लता जी को पहली सफ़लता कमाल अमरोही की फिल्म "महल" के "आएगा आने वाला" गीत से मिली जिसे उस दौर की शीर्ष की हिरोईन मधुबाला पर फिल्माया गया था। उस घटना को याद करते हुए लता जी कहती हैं: जब महल फ़िल्म का गाना रिकॉर्ड हो रहा था तो खेम चंद्र प्रकाश जी जो मुझे अपनी बेटी की तरह प्यार करते थे, उन्होंने कहा था कि देखना महल के गाने खूब चलेंगे। फ़िल्म आई और गाने भी खूब बजे, लेकिन खेम चंद्र प्रकाश जी का देहांत हो गया। वो देख ही नहीं पाए कि आएगा आने वाला....इतना चला। उस गाने की शूटिंग तो बहुत ही मज़ेदार रही है। मलाड में बॉम्बे टाकीज़ का बहुत बड़ा स्टूडियो था। स्टूडियो पूरा खाली था। मैंने गाना शुरू किया, लेकिन उनका कहना था कि वो प्रभाव नहीं आ रहा है कि जैसे आवाज़ दूर से आ रही हो। उन्होंने मुझे स्टूडियो के एक कोने में खड़ा करके माइक बीच में रख दिया गया। माइक मुझसे क़रीब 20 फुट दूर रखा था। जो गाने से पहले का शेर था ख़ामोश है जमाना...वो शेर कहते हुए मैं एक-एक कदम आगे बढ़ती थी और गाना शुरू होने तक मैं माइक के पास पहुँच जाती थी। इस गाने पर बहुत मेहनत की मैंने। यकीनन इसी हौसले और इसी मेहनत का फ़ल है कि लता जी ने वह मुकाम हासिल कर लिया,जहाँ पहुँचना आम इंसानों के लिए मुमकिन नहीं है।

लंदन की वृत्तचित्र निर्माता नसरीन मुन्नी कबीर से बातचीत पर आधारित किताब "लता मंगेशकर इन हर ऑन वाइस" में लता जी से जुड़ी कई सारी बातों का खुलासा हुआ है। उनमें से हम दो बातें आपके सामने पेश कर रहे हैं। एक तो यह कि लता जी छद्म नाम से संगीत देती थीं। इस बारे में वे कहती हैं(सौजन्य:बीबीसी): मैं पुरुष छद्म नाम आनंदघन से फिल्मों में संगीत देती थीं। कोई नहीं जानता था कि मैं संगीतकार हूँ, लेकिन जब 'साधी मानस’ ने १९६६ में महाराष्ट्र सरकार के सर्वश्रेष्ठ संगीत समेत आठ पुरस्कार जीते तब समारोह के आयोजकों ने इस बात का खुलासा कर दिया कि आनंदघन कोई और नहीं बल्कि लता मंगेशकर ही हैं। इसके बाद मुझे सार्वजनिक रूप से सामने आकर पुरस्कार लेना पड़ा था। दूसरी घटना दिलीप साहब से जुड़ी है। इस बारे में लता जी का कहना था कि(सौजन्य:खास खबर): यह कोई १९४७ या ४८ की बात है, एक दिन अनिल विश्वास, युसूफ भाई(दिलीप कुमार) और मैं ट्रेन में सफर कर रहे थे। हम एक कंपार्टमेंट में बैठे थे, और युशूफ भाई ने मेरे बारे में पूछा कि ये कौन हूं। अनिल दा ने जवाब दिया यह एक नई गायिका है, जब आप इसे सुनेंगे तो आप भी इसकी आवाज को पसंद करेंगे। जब अनिल दा ने दिलीप साहब को बताया कि लता महाराष्ट्रीयन है, तो उन्होंने कहा कि इसकी उर्दू अच्छी नहीं है, इसका गाया गाना दाल भात जैसा होता होगा। यह सुनकर मैं बहुत दु:खी हुई। मैंने अनिल दा और नौशाद साहब के सहायक शफ़ी मोहम्मद से कहा कि मैं उर्दू का उच्चारण सुधारना चाहती हूँ। उन्होंने मेरी मुलाकात मौलाना महबूब से कराई, जिन्होंने कुछ समय मुझे उर्दू पढाई। बाद में नर्गिस की मां जद्दनबाई ने भी मेरी उर्दू की तारीफ की। मैं इसके लिए दिलीप साहब का शुक्रिया अदा करती हूँ। उन्होंने न टोका होता तो मेरी उर्दू वैसी हीं रहती। सभी जानते हैं कि लता जी और रफ़ी साहब ने तीन साल तक एक-दूसरे के साथ नहीं गाया था। इस बाबत पूछने पर वे कहती हैं(सौजन्य:पुणे/मुंबई मिरर):१९६० में हमारा एक म्युजिसियन्स’ एसोशिएशन था। उसमें मुकेश भैया, तलत महमूद साहब ने फ़नकारों के लिए रोयाल्टी की माँग रखी थी। मैं पहले से हीं रोयाल्टी लेती आ रही थी,इसलिए मैं चाहती थी कि सबको मिले। रफ़ी साहब इसके खिलाफ़ थे। उनका कहना था कि हम जो गाते हैं, उसका पैसा हमें मिल जाता है और बात वहीं खत्म हो जाती है। ऐसे हीं एक मीटिंग में जब उनसे उनकी राय पूछ गई तो उनका कहना था कि "यह महारानी जो कहेगी वही होगा"। मुझे बुरा लगा। मैंने कहा कि "हाँ, मैं महारानी हूँ, लेकिन आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?" इसपर उन्होंने सबके सामने कह दिया कि मैं तुम्हारे साथ अब नहीं गाऊँगा। मैंने कहा कि "ये कष्ट आप क्यों कर रहे हैं? मैं हीं नहीं गाऊँगी आपके साथ।" मैंने वहाँ मौजूद सारे संगीतकारों को भी बता दिया कि अब हमारे लिए कोई साथ में गाना न बनाएँ। उस घटना के बाद लगभग तीन सालॊं तक हमने साथ नहीं गाया। फ़नकारों के साथ ऐसा होता रहता है, वैसे भी फ़नकार तो नाजुक मिजाज के होते हैं। लता जी की फ़नकारी के और भी कई सारे किस्से हमारे पास हैं,लेकिन समय(पढें:जगह) इज़ाज़त नहीं दे रहा। इसलिए अभी आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की गज़ल के शायर "क़तील शिफ़ाई" साहब को हमने एक पूरी की पूरी कड़ी नज़र की थी, इसलिए अभी हम उनके इस शेर से हीं काम चला लेते हैं:

मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझको, सर मेरा झुक जायेगा।


"क़तील" साहब के इस शेर के बाद लीजिए अब पेश है जगजीत सिंह जी के संगीत से सजी यह गज़ल जिसे हमने "सजदा" एलबम से लिया है:

दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह

मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल, बेदार नज़र दे या अल्लाह

सूरज-सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह

या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

एक फ़ुर्सते-___ मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के


आपके विकल्प हैं -
a) गुनाह, b) निगाह, c) पनाह, d) फिराक़

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मानूस" और शेर कुछ यूं था -

इतना मानूस न हो ख़िलवतेग़म से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो ड़र जायेगा

कहते हैं ना कि "अपने तो अपने होते हैं"। तो शायद इसी कारण से अहमद फ़राज़ साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "शामिख फ़राज़" ने.. फ़राज़-फ़राज़...समझ गए ना :) । आपने मानूस शब्द पर कुछ शेर भी कहे:

तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो (साहिर लुध्यान्वी)

इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है (अहमद नदीम कासमी)

गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो (नसिर क़ाज़मी)

शामिख जी के बाद महफ़िल में तशरीफ़ लाए सुमित जी। सुमित जी, चलिए कोई बात नहीं...शेर याद आए न आए, महफ़िल में आते रहिएगा....बीच में न जाने कहाँ गायब थे आप।

मंजु जी, जब कोई गज़ल/नज़्म या फिर हमारे आलेख की तारीफ़ करता है तो एक हौसला मिलता है, आगे बढते रहने का। धन्यवाद आपका। आपने "फ़राज़" साहब के शेर को एक अलग हीं रंग दे दिया है। कमाल है:

ये पेड़,फूल,सागर ही तो मेरे मानूस हैं ,
खिलवत ए गम की दवा जो है।

शन्नो जी, आपका शेर और मायूस :).. वैसे बड़ा हीं खुबसूरत है ये शेर:

देर हो चुकी है बहुत ये मानूस दिल
अपनी कलम से हम दुश्मन बना बैठे.

सीमा जी, महफ़िल की शम्मा बुझे, उससे पहले आप आ गईं। देर से आईं,लेकिन शुक्र है कि आप आईं तो सही। ये रही आपकी पेशकश:

इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से
पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला (दुष्यंत कुमार)

मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
एक लहर झूमती है मेरे अंग-अंग में (आलम खुर्शीद)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

seema gupta said…
आदरणीय शरद जी, और शामिख जी को हार्दिक बधाई.

regards
seema gupta said…
दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के

वीराँ है मैकदा ख़ुमो-सागर उदास है
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के

इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफ़रेब हैं, ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्करा तो दिए थे वो आज ‘फ़ैज़’
मत पूछ वलवले दिले नाकर्दाकार के

regards
seema gupta said…
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम
(शहरयार )
ढीली हुई गिरफ़्त जुनूँ की के जल उठा
ताक़-ए-हवस में कोई चराग़-ए-गुनाह फिर
(शहरयार )

अब ना माँगेंगे िजन्दगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार िकया
(गुलज़ार )
नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद ।

वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद ।।
( कृष्ण बिहारी 'नूर' )
दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
(जिगर मुरादाबादी )
regards
तेरी जिस पर निगाह होती है
उसे जीने की चाह होती है
दिल दुखा कर किसी को हासिल हो
कामयाबी गुनाह होती है ।
(स्वरचित)
shanno said…
तन्हा जी,
बहुत शुक्रिया! आपके हौसले से मन को दूनी ख़ुशी मिलती है. और अपने शेर लिखने का जुनून अब भी बरक़रार है. तो फिर क्या यह शेर भी चलेगा?

निगाह भर के उन्हें देखने का गुनाह कर बैठे
सरे आम ज़माने ने फिर मचाई फजीहत ऐसी.
shanno said…
जरा हड़बड़ी में कहना भूल गयी थी की लता जी की आवाज़ में गाई कतील साहिब की यह ग़ज़ल बहुत ही अच्छी लगी. इसे सुनवाने का बेहद शुक्रिया.
Shamikh Faraz said…
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के

फैज़ अहमद फैज़ साहब का शे'र है.
Shamikh Faraz said…
आदतन तुम ने कर िदये वादे
आदतन हम ने ऐतबार िकया

तेरी राहों में हर बार रुक कर
हम ने अपना ही इन्तज़ार िकया

अब ना माँगेंगे िजन्दगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार िकया

gulzar
Shamikh Faraz said…
This post has been removed by the author.
Shamikh Faraz said…
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है. मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है

munavvar rana
Shamikh Faraz said…
चलना अगर गुनाह है अपने उसूल पर
सारी उमर सज़ाओं का ही सिल सिला चले
Shamikh Faraz said…
ग़म बढे़ आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह
तुम छिपा लो मुझे, ऐ दोस्त, गुनाहों की तरह

sudarshan fakir
Shamikh Faraz said…
उम्र जिन की गुनाह में गुज़री
उन के दामन से दाग़ ग़ाइब है

rajendra rahbar
Shamikh Faraz said…
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें तो गुनाह करने को जिंदगी कम है.

गौतम राजरिशी
Shamikh Faraz said…
सीमा जी को निर्विरोध जीत के लिए मुबारकबाद. साथ ही शरद जी को भी.
Shamikh Faraz said…
तनहा जी मैं यह जानना चाहता हूँ की क्या किसी भी शायर की कोई भी गज़ल की फरमाइश कर सकता हूँ या इस के लिए किसी तरह की नियम और शर्तें हैं?
शामिख जी,
वैसे तो आप किसी भी शायर की किसी भी गज़ल की फ़रमाईश कर सकते हैं, लेकिन यहाँ दो बातें ध्यान देने की हैं:
१) तीनों गज़लों के फ़नकार अलग-अलग हों ताकि हम ज्यादा से ज्यादा जानकारी लेकर हाज़िर हो सकें
२) वह गज़ल किसी न किसी ने गाई हो, मतलब कि आपने कहीं उस गज़ल को सुना हुआ हो। हम उन गज़लों को पेश नहीं कर सकते, जिसकी रिकार्डिंग या तो हुई हीं ना हो या फिर हमें वह रिकार्डिंग हासिल न हो।

समझ गए ना :)

-विश्व दीपक
Shamikh Faraz said…
tanha ji main gazalen shukravar k bad hi bhej pauna lein shukravar k bad zyada waqt nhi legaga wada raha jald hi 2-3 din me bhej dunga.(koi pareshani ki bat to nahi hai?)

shukriya.

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