ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ.....बॉम्बे माफ़ कीजियेगा मुंबई मेरी जान का नारा लगते गीता दत्त और रफी साहब
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 240
'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आज बारी है गीता दत्त और मोहम्मद रफ़ी साहब के गाये एक युगल गीत की। जो श्रोता व पाठक हमसे हाल में जुड़े हैं, उनकी सहूलीयत के लिए हम यहाँ बता दें कि इससे पहले इस महफ़िल में दो रफ़ी-गीता डुएट्स् बज चुके हैं, पहला गीत था फ़िल्म 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' का "जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी", और दूसरा गीत था फ़िल्म 'मिलाप' का "बचना ज़रा ये ज़माना है बुरा"। और आज तीसरी बार हम किसी रफ़ी-गीता डुएट लेकर हाज़िर हुए हैं। युं तो रफ़ी साहब और गीता जी ने एक साथ कई रोमांटिक गीत गाए हैं, लेकिन उनमें एक हल्की फुल्की कॉमेडी का अंग भी हमेशा रहा है जिसकी चुलबुलाहट हमें गुदगुदा जाती है, फिर चाहे संगीतकार सचिन देव बर्मन हो या फिर हमारे नय्यर साहब। आज सुनिए ओ. पी. नय्यर के संगीत में मजरूह साहब की एक और सुप्रसिद्ध रचना फ़िल्म 'सी. आइ. डी' से। इस फ़िल्म से शम्शाद बेग़म का गाया "बूझ मेरा क्या नाव रे" आप सुन चुके हैं इस महफ़िल में और इस फ़िल्म के बारे में हम आपको बता भी चुके हैं। आज के इस प्रस्तुत गीत के बारे में यही कहेंगे कि यह गीत अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला के १९५६ के वार्षिक कार्यक्रम में सरताज गीत बना था, यानी कि उस साल का सब से लोकप्रिय गीत। जब अमीन सायानी ने गीतमाला कार्यक्रम के पहले २५ वर्षों के सरताज गीतों का ऒडियो कसैट जारी किया था, तब इस गीत को प्रस्तुत करते हुए उन्होने कहा था - "१९५६ के आते आते बिनाका गीतमाला ने तहल्का मचाना शुरु कर दिया, ऐसा कोई रेडियो प्रोग्राम नहीं था जिससे कि हिन्दुस्तानी फ़िल्म संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ा लगाया जा सके। उस लोकप्रियता ने कई संगीतकारों को संगीत प्रेमियों के दिलों में बसा दिया था, जैसे कि अनिल विश्वास, सी. रामचन्द्र, नौशाद, एस. डी. बर्मन, हेमन्त कुमार, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, और १९५६ में ज़ोरों में उभरने लगे सलिल चौधरी, वसंत देसाई और ओ. पी. नय्यर।"
दोस्तों, बम्बई अर्थात आज के मुंबई के प्रति आम लोगों की धारणा ऐसी है कि यह एक रंगीन नगरी है जहाँ पर सारे सपने सच होते हैं, एक सपनों की दुनिया है मुंबई। यह बात और है कि हक़ीक़त कुछ और ही है। ख़ैर, ५० के दशक के कई फ़िल्मों के ज़रिये उस समय के बम्बई का नज़ारा देखा जा सकता है। यहाँ तक कि बम्बई पर समय समय पर कुछ गानें भी बनें हैं जो बम्बई के असली चेहरे का खुलासा करते हैं। इस श्रेणी में जो पहला गीत रहा वह मेरे ख़याल से प्रस्तुत गीत ही होना चाहिए। ५० के दशक के मध्य भाग की बम्बई को जानने के लिए यह गीत मददगार साबित हो सकता है। इस गीत में जॉनी वाकर एक के बाद एक लोगों से टकराते रहते हैं और हर बार उनका बटुआ हथिया लेते हैं। जी हाँ, एक पाकिटमार का किरदार निभाया था उन्होने। गीता दत्त की आवाज़ लेकर कुमकुम का गीत के तीसरे अंतरे में आगमन होता है। जहाँ जॉनी वाकर बम्बई की बुराई करते हैं, वहीं कुमकुम बम्बई पर फ़िदा हैं। एक तरफ़ हताशा और नकारात्मक सोच, तो दूसरी तरफ़ आशा की किरण। कुल मिलाकर इस माया नगरी का एक चित्र जनता के सामने पेश करने का बीड़ा उठाया था गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने। कुछ बातें हमारे समाज की ऐसी है जिन पर समय का कोई प्रभाव नहीं चल पाया है। पचास साल पहले लिखे गए इस गीत में मजरूह साहब ने लिखा था कि "बेघर को आवारा यहाँ कहते हँस हँस", यह बात आज की दुनिया में भी १००% सही है। तो आइए दोस्तों, बम्बई की सैर पर चलें मोहम्मद रफ़ी और गीता दत्त के साथ, "ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ, ज़रा हट के ज़रा बच के ये है बॊम्बे मेरी जान"। गीत का पंच लाइन है "ये है बॊम्बे मेरी जान", जो इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ कि आज भी लोग मुंबई के बारे में कुछ कहते हुए मज़ाकिया तौर पर इसका इस्तेमाल करते हैं। इस शीर्षक से एक फ़िल्म भी बनी थी। 'मिस्टर आशिक़' शीर्षक से एक फ़िल्म बनी थी सैफ़ अली ख़ान और ट्विंकल खन्ना अभिनीत, जिसे रिलीज़ करते वक़्त निर्माता ने इसका नाम बदल कर रख दिया था 'ये है मुंबई मेरी जान'। और लीजिए, अब सुनिए 'सी. आइ. डी' से "ये है बॊम्बे मेरी जान" और याद कीजिये जॊनी वाकर और कुमकुम की उस कॊमिक जोड़ी को।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. कल से शुरू होगी एक विशेष शृंखला जो समर्पित है दो अमर फनकारों के नाम.
२. इनमें से एक गीतकार है और एक संगीतकार, दोनों की पुण्यतिथि इसी माह के आखिरी सप्ताह में आ रही है.
३. गीतकार की पहली फिल्म का है ये गीत जिसके मुखड़े में शब्द है - "जवाँ".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपका जवाब हमने बाद में देखा, आपके दो अंक सुरक्षित हैं, गीतकार के विषय में कुछ संशय था, पर आप और पराग जी बिकुल सही हैं, "ओ बेकरार दिल" के गीतकार कैफी साहब ही हैं, इस भूल के लिए माफ़ी चाहेंगें. पर पराग जी आपने तो बस कमाल ही कर दिया, जेकपोट सवाल का सही जवाब देकर कमा लिए पूरे ४ अंक, अब आप मात्र ६ अंक दूर हैं मंजिल से, मजरूह साहब के सबसे अधिक 37 गीत हैं अब तक के सफ़र में, दूसरे स्थान पर है शैलेन्द्र (३०), साहिर साहब के १९ गीत है और शकील के १४. बधाई बहुत आपको. आज का गीत तो किसी तोहफे से कम नहीं होगा आपके लिए :)
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आज बारी है गीता दत्त और मोहम्मद रफ़ी साहब के गाये एक युगल गीत की। जो श्रोता व पाठक हमसे हाल में जुड़े हैं, उनकी सहूलीयत के लिए हम यहाँ बता दें कि इससे पहले इस महफ़िल में दो रफ़ी-गीता डुएट्स् बज चुके हैं, पहला गीत था फ़िल्म 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' का "जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी", और दूसरा गीत था फ़िल्म 'मिलाप' का "बचना ज़रा ये ज़माना है बुरा"। और आज तीसरी बार हम किसी रफ़ी-गीता डुएट लेकर हाज़िर हुए हैं। युं तो रफ़ी साहब और गीता जी ने एक साथ कई रोमांटिक गीत गाए हैं, लेकिन उनमें एक हल्की फुल्की कॉमेडी का अंग भी हमेशा रहा है जिसकी चुलबुलाहट हमें गुदगुदा जाती है, फिर चाहे संगीतकार सचिन देव बर्मन हो या फिर हमारे नय्यर साहब। आज सुनिए ओ. पी. नय्यर के संगीत में मजरूह साहब की एक और सुप्रसिद्ध रचना फ़िल्म 'सी. आइ. डी' से। इस फ़िल्म से शम्शाद बेग़म का गाया "बूझ मेरा क्या नाव रे" आप सुन चुके हैं इस महफ़िल में और इस फ़िल्म के बारे में हम आपको बता भी चुके हैं। आज के इस प्रस्तुत गीत के बारे में यही कहेंगे कि यह गीत अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला के १९५६ के वार्षिक कार्यक्रम में सरताज गीत बना था, यानी कि उस साल का सब से लोकप्रिय गीत। जब अमीन सायानी ने गीतमाला कार्यक्रम के पहले २५ वर्षों के सरताज गीतों का ऒडियो कसैट जारी किया था, तब इस गीत को प्रस्तुत करते हुए उन्होने कहा था - "१९५६ के आते आते बिनाका गीतमाला ने तहल्का मचाना शुरु कर दिया, ऐसा कोई रेडियो प्रोग्राम नहीं था जिससे कि हिन्दुस्तानी फ़िल्म संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ा लगाया जा सके। उस लोकप्रियता ने कई संगीतकारों को संगीत प्रेमियों के दिलों में बसा दिया था, जैसे कि अनिल विश्वास, सी. रामचन्द्र, नौशाद, एस. डी. बर्मन, हेमन्त कुमार, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, और १९५६ में ज़ोरों में उभरने लगे सलिल चौधरी, वसंत देसाई और ओ. पी. नय्यर।"
दोस्तों, बम्बई अर्थात आज के मुंबई के प्रति आम लोगों की धारणा ऐसी है कि यह एक रंगीन नगरी है जहाँ पर सारे सपने सच होते हैं, एक सपनों की दुनिया है मुंबई। यह बात और है कि हक़ीक़त कुछ और ही है। ख़ैर, ५० के दशक के कई फ़िल्मों के ज़रिये उस समय के बम्बई का नज़ारा देखा जा सकता है। यहाँ तक कि बम्बई पर समय समय पर कुछ गानें भी बनें हैं जो बम्बई के असली चेहरे का खुलासा करते हैं। इस श्रेणी में जो पहला गीत रहा वह मेरे ख़याल से प्रस्तुत गीत ही होना चाहिए। ५० के दशक के मध्य भाग की बम्बई को जानने के लिए यह गीत मददगार साबित हो सकता है। इस गीत में जॉनी वाकर एक के बाद एक लोगों से टकराते रहते हैं और हर बार उनका बटुआ हथिया लेते हैं। जी हाँ, एक पाकिटमार का किरदार निभाया था उन्होने। गीता दत्त की आवाज़ लेकर कुमकुम का गीत के तीसरे अंतरे में आगमन होता है। जहाँ जॉनी वाकर बम्बई की बुराई करते हैं, वहीं कुमकुम बम्बई पर फ़िदा हैं। एक तरफ़ हताशा और नकारात्मक सोच, तो दूसरी तरफ़ आशा की किरण। कुल मिलाकर इस माया नगरी का एक चित्र जनता के सामने पेश करने का बीड़ा उठाया था गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने। कुछ बातें हमारे समाज की ऐसी है जिन पर समय का कोई प्रभाव नहीं चल पाया है। पचास साल पहले लिखे गए इस गीत में मजरूह साहब ने लिखा था कि "बेघर को आवारा यहाँ कहते हँस हँस", यह बात आज की दुनिया में भी १००% सही है। तो आइए दोस्तों, बम्बई की सैर पर चलें मोहम्मद रफ़ी और गीता दत्त के साथ, "ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ, ज़रा हट के ज़रा बच के ये है बॊम्बे मेरी जान"। गीत का पंच लाइन है "ये है बॊम्बे मेरी जान", जो इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ कि आज भी लोग मुंबई के बारे में कुछ कहते हुए मज़ाकिया तौर पर इसका इस्तेमाल करते हैं। इस शीर्षक से एक फ़िल्म भी बनी थी। 'मिस्टर आशिक़' शीर्षक से एक फ़िल्म बनी थी सैफ़ अली ख़ान और ट्विंकल खन्ना अभिनीत, जिसे रिलीज़ करते वक़्त निर्माता ने इसका नाम बदल कर रख दिया था 'ये है मुंबई मेरी जान'। और लीजिए, अब सुनिए 'सी. आइ. डी' से "ये है बॊम्बे मेरी जान" और याद कीजिये जॊनी वाकर और कुमकुम की उस कॊमिक जोड़ी को।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. कल से शुरू होगी एक विशेष शृंखला जो समर्पित है दो अमर फनकारों के नाम.
२. इनमें से एक गीतकार है और एक संगीतकार, दोनों की पुण्यतिथि इसी माह के आखिरी सप्ताह में आ रही है.
३. गीतकार की पहली फिल्म का है ये गीत जिसके मुखड़े में शब्द है - "जवाँ".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपका जवाब हमने बाद में देखा, आपके दो अंक सुरक्षित हैं, गीतकार के विषय में कुछ संशय था, पर आप और पराग जी बिकुल सही हैं, "ओ बेकरार दिल" के गीतकार कैफी साहब ही हैं, इस भूल के लिए माफ़ी चाहेंगें. पर पराग जी आपने तो बस कमाल ही कर दिया, जेकपोट सवाल का सही जवाब देकर कमा लिए पूरे ४ अंक, अब आप मात्र ६ अंक दूर हैं मंजिल से, मजरूह साहब के सबसे अधिक 37 गीत हैं अब तक के सफ़र में, दूसरे स्थान पर है शैलेन्द्र (३०), साहिर साहब के १९ गीत है और शकील के १४. बधाई बहुत आपको. आज का गीत तो किसी तोहफे से कम नहीं होगा आपके लिए :)
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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