Skip to main content

अतिथि संगीतज्ञ का पृष्ठ : पण्डित श्रीकुमार मिश्र



स्वरगोष्ठी – 114 में आज
अतिथि संगीतकार का पृष्ठ
स्वर एक राग अनेक 



‘स्वरगोष्ठी’ के आज के इस विशेष अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी संगीत-प्रेमी पाठकों और श्रोताओं का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, आज का यह अंक एक विशेष अंक है। विशेष इसलिए कि यह अंक संगीत-जगत के एक जाने-माने संगीतज्ञ प्रस्तुत कर रहे हैं। दरअसल इस वर्ष के कार्यक्रमों की समय-सारिणी तैयार करते समय ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ ने माह के पाँचवें रविवार की ‘स्वरगोष्ठी’ किसी संगीतज्ञ लेखक से प्रस्तुत कराने का निश्चय किया था। आज माह का पाँचवाँ रविवार है और आपके लिए आज का यह अंक देश के जाने-माने इसराज व मयूर वीणा-वादक और संगीत-शिक्षक पण्डित श्रीकुमार मिश्र प्रस्तुत कर रहे है। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक के लिए उन्होने तीन ऐसे राग- पूरिया, सोहनी और मारवा का चयन किया है, जिनमें समान स्वरों का प्रयोग किया जाता है। लीजिए, श्रीकुमार जी प्रस्तुत कर रहे हैं, इन तीनों रागों में समानता और कुछ अन्तर की चर्चा, जिनसे इन रागों में और उनकी प्रवृत्ति में अन्तर आ जाता है। 

‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा संचालित ‘स्वरगोष्ठी’ के संगीत-मंच पर संगीतानुरागियों से कुछ बातचीत करने का आज मुझे अवसर दिया गया है, इसके लिए मैं, श्रीकुमार मिश्र इस स्तम्भ के सम्पादक-मण्डल को धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। आज मैं आपका ध्यान भारतीय संगीत के खजाने के तीन ऐसे रागों की तरफ आकर्षित करूँगा, जिनमें प्रयोग किये जाने वाले स्वर-समूह तो समान होते हैं, किन्तु उनके नाम, प्रवृत्ति और भाव में पर्याप्त भेद होता है। ऐसा ही एक स्वर-समूह है-

सा नी रे(कोमल) ग म(तीव्र) ध नी सां

ये स्वर-समूह तीन रागों- पूरिया, मारवा और सोहनी में प्रयुक्त होते हैं। जब तीनों रागों में स्वर एक है तो भाव अलग-अलग क्यों है? आज के आलेख में हम इसी ‘क्यों’ का उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं। जब व्यक्ति दुःखी होकर भारी मन से अभिव्यक्ति देता है तो उसकी आवाज़ अपेक्षाकृत धीमी होती है। ये स्वर इस आवाज़ में राग पूरिया कायम करते हैं। इसी प्रकार जब क्लान्त और व्यथित मन को विश्रान्ति की तलाश होती है तब वह मध्यम आवाज़ में इन स्वरों का उच्चार करेगा, तब मारवा का रूप बनता है। और जब पीड़ा से त्रस्त होकर चीख-चीख कर पुकारने लगे तो यही स्वर राग सोहनी की उत्पत्ति करते हैं। राग पूरिया में वादी स्वर गान्धार और संवादी स्वर निषाद है। गान्धार व्यथा को उभारता है और निषाद थोड़ी देर के लिए शान्ति व एकाग्रता प्रदान कर देता है। भावानुसार पूरिया में विलम्बित रचनाएँ अत्यन्त भावपूर्ण प्रतीत होती हैं। इस राग के गायन-वादन का समय सूर्यास्त के बाद होता है। राग पूरिया में मींड़ के द्वारा भावों को एकसूत्र में रखा जाता है। आपके समक्ष राग पूरिया का स्वरूप और भाव स्पष्ट करने के उद्देश्य मैं आपको विख्यात गायक उस्ताद राशिद खाँ का गाया इस राग में एक खयाल सुनवाता हूँ।


राग पूरिया : ‘फूलवन की सेज बिछाओ...’ : उस्ताद राशिद खाँ



राग पूरिया में प्रयोग किये जाने वाले स्वरों को राग मारवा में भी प्रयोग किया जाता है, परन्तु इसकी प्रवृत्ति और भाव में पूरिया की तुलना में काफी अन्तर आता है। राग मारवा का वादी स्वर धैवत तथा संवादी स्वर ऋषभ होता है। धैवत स्वर उलझन से युक्त व्यथित व क्लान्त मन की अभिव्यक्ति कर देता है और ऋषभ (अपनी मूल श्रुति से उतरा हुआ) मन को शान्ति और विश्रान्ति प्रदान कर देता है। मारवा राग में मध्यलय की रचनाओं का प्रयोग अधिक स्पष्ट भाव कायम करता है। मारवा एक राग का नाम है और थाट का नाम भी होता है और राग मारवा, थाट मारवा का आश्रय राग माना जाता है। यह सूर्यास्त के समय प्रस्तुत किया जाने वाला राग होता है। राग पूरिया की तुलना में राग मारवा में मींड़ के बजाय सीधे स्वरों का सपाट प्रयोग अधिक करके भाव स्पष्ट किया जाता है। इस राग के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए मैं चाहूँगा कि आप सुप्रसिद्ध गायक पण्डित जसराज के स्वरों में राग मारवा की एक भक्तिपरक रचना सुनिए और राग की भावानुभूति कीजिए।


राग मारवा : ‘चरण प्रीत करुणानिधान की...’ : पण्डित जसराज





राग पूरिया और मारवा की तरह राग सोहनी में भी समान स्वरों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु इसके प्रभाव और भावाभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर हो जाता है। राग सोहनी का वादी स्वर धैवत और संवादी स्वर गान्धार होता है। धैवत पीड़ा की अभिव्यक्ति करने में समर्थ होता है। ‘नी सां रें (कोमल) सां’ की स्वर संगति से तीव्र पुकार का वातावरण निर्मित होता है। संवादी गान्धार कुछ देर के लिए इस उत्तेजना को शान्त कर सुकून देता है। वास्तव में वादी और संवादी स्वर राग के प्राणतत्त्व होते हैं, जिनसे रागों के भावों का सृजन होता है। रात्रि के तीसरे प्रहर में राग सोहनी के भाव अधिक स्पष्ट होते हैं। इस राग में मींड़ एवं गमक को कसे हुए ढंग से मध्यलय में प्रस्तुत करने से राग का भाव अधिक मुखरित होता है। अब चलते-चलते तीनों रागों- पूरिया, मारवा और सोहनी के स्वरों के चलन पर एक दृष्टि डालते हैं, जिससे एक ही स्वर के बावजूद रागों में उत्पन्न होने वाले अन्तर स्पष्ट हो जाएँगे।आप इन स्वर-संयोजनों का तुलनात्मक अवलोकन कीजिए और उसके बाद राग सोहनी की एक रचना पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वरों में सुनिए।

राग पूरिया : नी रे(कोमल) ग, म(तीव्र) ध ग म(तीव्र) ग, म(तीव्र) रे(कोमल) ग s रे(कोमल) सा

राग मारवा : नी रे(कोमल) ग म(तीव्र) ध s, म(तीव्र) ग, रे(कोमल), ग रे(कोमल) सा

राग सोहनी : ग s म(तीव्र) ध नी सां s नी ध नी ध, म(तीव्र) ग, ग म(तीव्र) ध ग म(तीव्र) ग, रे(कोमल) सा

राग सोहनी के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए अब आप इस राग में निबद्ध एक रचना सुनिए, जिसे पण्डित कुमार गन्धर्व ने प्रस्तुत किया है।


राग सोहनी : ‘रंग न डारो श्याम जी...’ : पण्डित कुमार गन्धर्व





आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ के 114वें अंक की पहेली में आज हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के 120वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।



1 - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?

2 – यह गीत-अंश किस ताल में निबद्ध किया गया है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 116वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से या swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।


पिछली पहेली के विजेता 


‘स्वरगोष्ठी’ के 112वें अंक में हमने आपको 1996 की एक संगीतप्रधान फिल्म ‘सरदारी बेगम’ से ठुमरी अंग का एक होली गीत सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग पीलू और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल दादरा। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर बैंगलुरु के पंकज मुकेश, जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी, लखनऊ के प्रकाश गोविन्द और जबलपुर से क्षिति तिवारी ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।


झरोखा अगले अंक का 


मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ पर पिछले दो अंकों से विशेष अवसर के कारण हमारे लघु श्रृंखला ‘रागों के रंग रागमाला गीत के संग’ के आगामी अंकों को हमे दो सप्ताह का विराम देना पड़ा। अगले रविवार को हम इस श्रृंखला को जारी रखते हुए आपको एक और रागमाला गीत सुनवाएँगे और उस गीत पर आपसे चर्चा भी करेंगे। प्रत्येक रविवार को प्रातः साढ़े नौ बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ उपस्थित होते हैं। आप सब संगीत-प्रेमियों से अनुरोध है कि इस सांगीतिक अनुष्ठान में आप भी हमारे सहभागी बनें। आपके सुझाव और सहयोग से हम इस स्तम्भ को और अधिक उपयोगी स्वरूप प्रदान कर सकते हैं।


आलेख : पं. श्रीकुमार मिश्र
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट