प्लेबैक वाणी -38 - संगीत समीक्षा - बीट ऑफ इंडियन यूथ
कम साज़ों के साथ शुरू होता ’द वीज़न’ बच्चे की मासूमियत में घुले हुए डॉ कलाम के शब्दों के सहारे खड़ा होता है और फिर सजीव सारथी के शुद्ध हिन्दी के शब्द इसके असर को कभी ठहराव तो कभी गति देते हैं। राष्ट्र को सुखी, समृद्ध एवं स्वावलंबी बनाने की बातें कही गई हैं और यह तभी हो सकता है जब सब मिलकर आगे बढें। इस एलबम की सोच भी यही है, यही वीज़न है। संगीतकार कृष्णा राज और आवाज़ के तीनों हीं फ़नकारों (उन्नी, श्रीराम एवं मीरा) के सपने शब्द-शिल्पियों के जैसे हीं हैं। इसीलिए गाने में संदेश उभरकर आया है। बस मुझे यह लगा कि भावुकता खुलकर आई है, लेकिन जोश में थोड़ी कमी रह गई। शायद ’परकशन इंस्ट्रुमेंट्स’ थोड़े और जोड़े जा सकते थे।
अगला गाना है ’असतो मा सद्गमय’। अक्षि उपनिषद की यह पंक्ति जो शांति मंत्र के रुप में जानी जाती है, एक प्रार्थना है, एक दुआ है। ये शब्द बढने की प्रेरणा देते हैं। लॉयड ऑस्टिन ने इन्हीं शब्दों की नींव पर कोंकणी की इमारत खड़ी की है। संगीत सुलझा हुआ है। रोशन डिसुज़ा संस्कृत और कोंकणी के ट्रांजिशन में अपनी पकड़ कमजोर नहीं होने देते। प्रकाश महादेवन की भी मैं इसी खासियत के लिए तारीफ करूँगा। उनकी आवाज़ में ज़रूरी मात्रा में खनक है, खरापन है, खुलापन है। कोरस का इस्तेमाल बढिया है। कुल मिलाकर यह गीत खुद को बरसों तक जीवित रखने में सफल हुआ जाता है।
’थीम सांग’.. यह नाम है तीसरे गाने का। धुन जितनी मुश्किल है, उतनी हीं आसानी से सजीव सारथी ने इस पर बोल गढे हैं। एक जोश है शब्दों में और गाने की ताल सच में ताथैया करती है। उम्मीद है कि आसमान छूने को प्रेरित करता यह गीत सुनने वालों को झूमने पर भी बाध्य कर देगा। उन्नी की आवाज़ में मधुरता है और कुहू की आवाज़ में हल्का मर्दानापन। इसे अनुपात से संतुलित किया जा सकता था या फिर शायद यह जानबूझकर किया गया है। खैर.. इन बातों से गाने का असर ज़रा भी नहीं बिगड़ता।
भांगड़ा पंजाबियत की पहचान है, एक उत्सव है, अपना दिल खोलकर रखने की एक कवायद है। ’इंडिया सानु’ गाने में अमनदीप अपनी आवाज़ और शब्दों के साथ यही कोशिश करते हैं। संगीत है प्रभजोत सिंह का। हिन्दुस्तान को अपनी जान कहने की यह कोशिश थोड़ी कामयाब भी है, लेकिन गाने के तीनों हीं पक्ष पारंपरिक तरीके के लगते हैं। नीयत सही जगह पर है, लेकिन गाने में उतनी जान नहीं आ पाई। जिस नयेपन की दरकार थी, वह कहीं रह-सी गई है, ऐसा लगता है।
इलेक्ट्रॉनिक गिटार एक गजब की शय है। शांत बैठे हुई साँसों को भी हवा में उड़ाने लगता है। “वा वा जय कलाम” में कलाम की शख्सियत यूँ तो की बोर्ड पर गढी गई है, लेकिन उनकी ऊँचाई नज़र आती है गिटार के परवाज़ से हीं। विष्णु की आवाज़ है और हरेश के बोल। परंतु इस गाने की यू एस पी, इस गाने की जान हैं जिबिन जॉर्ज। संगीत की दृष्टि से यह गाना जितना ज़रूरी है, उतनी हीं इसकी महत्ता राष्ट्रभक्ति और मोटिवेशन के लहजे से है। इस गीत के साथ मैं भी डॉ कलाम को नमन करता हूँ।
बांग्ला भाषा मेरे दिल के करीब है। एक शीतलता, एक सौम्यता दिखती है इसमें। कहते हैं कि जब ज़बान मीठी हो, तो ख्याल, शब्द, संगीत, रिश्ते सब कुछ मीठे हो जाते हैं। ऐसे में अगर ये रिश्ते दूर होने लगें तो दर्द गहरा होगा। इलेक्टॉनिक साजों पर सजा यह गीत अंदर के गुबार को बाहर लाने के लिए आवाज़ में भारीपन का सहारा तो लेता है, लेकिन भीतर छुपी कोई चोट अंत होते-होते मधुरता और भावुकता में तब्दील हो हीं जाती है। शेखर गुप्ता की आवाज़ ऐसे गानों के लिए “टेलर मेड” है। श्रृजा सिन्हा तेज धुन पर साफ सुनाई नहीं देतीं, लेकिन धुन मद्धम होते हीं अपनी रवानी पर आ जाती हैं। जे एम सोरेन का प्रयास दिखता है। हाँ सुमंता चटर्जी से बस यह जानना चाहूँगा कि “मोने पोरे” बहुत हीं कॉमन एक्स्प्रेशन है क्या बंगाल में?
घोर निराशा में उतरा यह दिल आशा की खिड़की तक देख नहीं पाता। ऐसे में डेसमंड फरनांडीज का यह कहना कि ’हेवेनली फादर.. यू टेक अवे माई पेन’ बहुत हीं खास मायने रखता है। आवाज़ में खुद को जगाने की जो जद्दोजहद है, वह बड़ी हीं काबिले-तारीफ है। संगीत सधा हुआ है। शब्द उड़ने के लिए आमंत्रित करते हैं और जैसे हीं ’आई फ्लाई’ का उद्घोष होता है, मन होता है कि सारी बेड़ियाँ कुतर दी जाएँ। गाना जो आधा सफर तय कर चुका होता है तब एक धुन कई बार दुहराई गई है। मुझे यह धुन कुछ सुनी-सुनी-सी लगी या फिर हो सकता है कि इस धुन का असर “देजा वु” की तरह हो। फिर भी मुझे लगा कि इस धुन पर जोशीले शब्द गढे जा सकते थे, जो गीतकार से छूट-से गए। डेसमंड मेरी इस राय से शायद इत्तेफाक रखते हों। खैर…. मुझे पिछले ७ गानों में सबसे ज्यादा इसी ने प्रभावित किया।
अगला गाना है “लफ़्ज़ नहीं मिलते”। यह गाना एलबम में मिसफिट-सा मालूम होता है। बोल कमज़ोर हैं तो वहीं गायक की मेहनत भी कहीं कहीं कन्नी काटकर निकलने जैसी लगती है। ऐसा नहीं है कि आवाज़ में कहीं कोई खामी है, लेकिन दो-चार जगहों पर जबरदस्ती की गई तुकबंदी गायक को शब्द चबाने पर मजबूर कर गई है। संगीत आज के बॉलीवुड गानों जैसा है इसलिए ज़ेहन पर चढ तो जाता है लेकिन नयापन गैरमौजूद है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तीनों हीं पहलुओं पर अनुदत्त और श्रीधर को और ध्यान देने की ज़रूरत थी। गाने का निराशावादी होना भी मुझे खटक गया।
कह नहीं सकता कि जे एम सोरेन की मीठी आवाज़ का कमाल है या फिर संथाली भाषा हीं शक्कर-सी मीठी है कि ’जोनोम देशोम’ दिल में एकबारगी हीं उतर जाता है। साजों का इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से किया गया है, जिससे एक वृत्त में घूमते नृतकों और वाद्य-यंत्रों का माहौल तैयार हो रहा है। शायद मादल है। कहीं कहीं एकतारा-सा भी बजता मालूम होता है। हिमालय, हिन्द महासागर, हिन्दुस्तान और इसके गाँवों की सुंदरता का बखान इससे बेहतर तरीके से शायद हीं हो सकता था। लाउस हंसदक का लिखा यह गाना मुझे बरसों याद रहेगा… यकीनन।
बॉलीवुड में सईद कादरी कई सालों से लिख रहे हैं और हिट पे हिट गाने दिये जा रहे हैं। फिर भी मुझे उनके गानों में एक कमी खटकती है और वह है कुछ नया कहने की जद्दोजहद, जिद्द। “क्या यही प्यार है”.. यह बात न जाने कितनी बार हमें सुनाई जा चुकी है। इसलिए हम किसी अलहदा एक्सप्रेशन की खोज में रहते हैं। “मुझसे दिल” गाने में श्रीधर भी उसी ढर्रे पर चलते नज़र आ रहे हैं। हाँ यहाँ पर संगीतकार अनुदत्त अपनी तरफ से सफल कहे जा सकते हैं। साजों का प्रयोग बेहतर है और उनकी आवाज़ में एक तरलता, एक प्रवाह भी है। फिर भी एक बदलाव के तौर पर प्रोफेशनल गायक का इस्तेमाल किया जा सकता था। शायद शेखर गुप्ता अच्छे चुनाव होते।
एलबम का अगला गाना है ’गेलुवा बा’। यह ’वा वा जय कलाम’ का कन्नड़ संस्करण है, इसलिए संगीत के लिहाज से वहीं ठहरता है जहाँ मूल तमिल गाना था। शब्द सूर्य प्रकाश के हैं। चूँकि मुझे इस भाषा की कोई जानकारी नहीं ,इसलिए मैं कथ्य पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। तमिल के बरक्स इस गाने में आवाज़ खुद जिबिन जॉर्ज की है। ’वा वा कलाम’ में विष्णु सी सलीम खुले गले से गाते मालूम हो रहे थे, लेकिन यहाँ जिबिन की आवाज़ कुछ दबी-सी है और यही इस गाने का कमजोर पक्ष है।
आतंकवाद और इसकी जड़ में छुपे आत्मघाती दस्ते हिन्दुस्तान के इतिहास के लिए नए नहीं हैं। इसलिए दरकार है कि आज की युवा पीढी इनके दुष्परिणामों से परिचित रहे। सजीव सारथी अपने लिखे ’मानव बम’ में यही प्रयास करते दिखते हैं। किसी जन्नत की ख्वाहिश में दुनिया को जहन्नुम करने चले ये मौत के सौदागर कहीं और से तो नहीं आए, यही जन्मे है और यही गढे गए हैं। संदेश साफ है। फिर भी ’है धोखा जैसे खौफ़ का’ जैसी पंक्तियों से बचा जा सकता था। कोशिश तुकबंदी की है, लेकिन न अर्थ खुल रहा है और न हीं धुन सज रही है। रोडर की आवाज़ में एक मासूमियत है, जिसमें जोश पूरा नहीं उतर पाया है। हाँ जे एम सोरेन सौ फीसदी सही रास्ते पर हैं। जॉनर रॉक है, इसलिए लाइव कंसर्ट जैसी फीलिंग है। बस एक फाईनल ड्राफ्ट हो जाता तो यह गाना इस एलबम का बेस्ट साँग होता।
’टु रु टु रु टु रु टु रु’… वाह.. यह सुनते हीं दिल खुद-ब-खुद गाने में डूब जाता है। ऐसा हीं जादू है ’नी एन्निल’ गाने का। बोल मलयालम के हैं, जिसे खुद संगीतकार राकेश ने जिबिन के साथ मिलकर रचा है। वैसे यह गाना पूरा का पूरा राकेश केशव का हीं है। इनकी आवाज़ रेशम की तरह फ्री फ्लोविंग है और हर ठहराव अपनी नियत जगह पर है। संगीत और साजों का इस्तेमाल गाने के मूड को परफेक्टली सूट करते हैं। बाकी यह कहना तो मुश्किल है कि ऐसा कौन-सा तड़का है इस गाने में जो इसे खास बनाता है। कुछ तो है जो बस महसूस किया जा सकता है, शब्दों में उतारा नहीं जा सकता।
तो यह था ’बीट ऑफ इंडियन यूथ’ एलबम के गानो का रिव्यू। मेरी कोशिश थी कि एक संतुलित और ईमानदार राय दे सकूँ। आप भी सुनिए और अपनी राय हमसे शेयर कीजिए। हमें इंतज़ार रहेगा।
संगीत समीक्षा - विश्व दीपक
आवाज़ - अमित तिवारी
यदि आप इस समीक्षा को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
संगीत समीक्षा - बीट ऑफ इंडियन यूथ
Comments