भारत के स्वाधीनता संग्राम में फ़िल्म-संगीत की भूमिका
(भाग-1)
'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! मित्रों, आज 'सिने पहेली' के स्थान पर प्रस्तुत है विशेषालेख 'भारत के स्वाधीनता संग्राम में फ़िल्म-संगीत की भूमिका' का प्रथम भाग।
1930 के
दशक के आते-आते पराधीनता के ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ देश आज़ादी के लिए ज़ोर शोर से
कोशिशें करने लगा। 14 मार्च 1931 को पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम-आरा’ प्रदर्शित हुई तो
इसके ठीक नौ दिन बाद, 23 मार्च को भगत सिंह की फाँसी हो गई। समूचे देश का ख़ून खौल
उठा। राष्ट्रीयता और देश-प्रेम की भावनाओं को जगाने के लिए फ़िल्म और फ़िल्मी गीत-संगीत
मुख्य भूमिकाएँ निभा सकती थीं। पर ब्रिटिश सरकार ने इस तरफ़ भी अपना शिकंजा कसा और
समय-समय पर ऐसी फ़िल्मों और गीतों पर पाबंदियाँ लगाई जो देश की जनता को ग़ुलामी के
ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। ग़ैर फ़िल्मी गीतों और कविताओं पर
भले प्रतिबंध लगा पाना मुश्किल था, पर सेन्सर बोर्ड के माध्यम से फ़िल्मों और
फ़िल्मी गीतों पर प्रतिबंध लगाना ज़्यादा मुश्किल कार्य नहीं था। और यही कारण है कि
स्वाधीनता से पहले कोई भी फ़िल्म निर्माता शहीद भगत सिंह के जीवन पर फ़िल्म बनाने
में असमर्थ रहे। देश आज़ाद होने के बाद उन पर बहुत सी फ़िल्में ज़रूर बनीं।
ब्रिटिश
सरकार की लाख पाबंदियों के बावजूद फ़िल्मकारों ने बार-बार अपनी फ़िल्मों के माध्यम
से देश की जनता को देश-भक्ति का पाठ पढ़ाया है। स्वाधीनता संग्रामियों की ही तरह ये
फ़िल्मकार भी अपनी फ़िल्मों के माध्यम से हमारी स्वाधीनता संग्राम में अंशग्रहण किया
और इस दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। बोलती फ़िल्मों के शुरुआती दो-तीन
वर्षों में देश-भक्ति रचनाएँ फ़िल्मों में सुनने को भले न मिली हों, पर 1935 में
संगीतकार नागरदास नायक ने प्रफ़ुल्ल राय निर्देशित ‘भारत लक्ष्मी पिक्चर्स’ की
फ़िल्म ‘बलिदान’ में “जागो जागो भारतवासी, एक दिन तुम थे जगद्गुरू, जग था उन्नत
अभिलाषी” स्वरबद्ध कर जनता को स्वाधीनता की ओर उत्तेजित करने की कोशिश की थी। इस
गीत के बाद इसी वर्ष नागरदास की ही धुन पर पंडित सुदर्शन का लिखा हुआ एक और
देशभक्ति भाव से ओत-प्रोत गीत आया “भारत की दीन दशा का तुम्हें भारतवालों, कुछ
ध्यान नहीं”; फ़िल्म थी ‘कुँवारी या विधवा’। इन दोनो गीतों के गायकों का पता तो नहीं
चल सका है पर स्वाधीनता संग्राम के शुरुआती देशभक्ति फ़िल्मी गीतों के रूप में इनका
उल्लेख अत्यावश्यक हो जाता है। चन्दुलाल शाह निर्देशित देश-भक्ति फ़िल्म ‘देश दासी’
भी इसी वर्ष आई पर इसके संगीतकार/गीतकार की जानकारी उपलब्ध नहीं है; हाँ इतना ज़रूर
बताया जा सकता है कि इस फ़िल्म में भी एक देशभक्ति गीत था “सेवा ख़ुशी से करो देश की
रे जीवन हो जाए फूलबगिया”, जिसमें देश-सेवा के ज़रिये देश को एक महकता बगीचा बनाने
का सपना देखा गया है। देश सेवा को ईश्वर सेवा बताता हुआ इसी फ़िल्म का एक अन्य गीत
था “यही है पूजा यही इबादत, यही है भगवत भजन हमारा, वतन की ख़िदमत…”। ‘वाडिआ
मूवीटोन’ की 1935 की फ़िल्मों में ‘देश दीपक’ (‘जोश-ए-वतन’ शीर्षक से भी प्रदर्शित)
उल्लेखनीय है जिसमें संगीत दिया था मास्टर मोहम्मद ने और गीत लिखे थे जोसेफ़ डेविड
ने। सरदार मन्सूर की आवाज़ में फ़िल्म का एक देशभक्ति गीत “हमको है जाँ से प्यारा,
प्यारा वतन हमारा, हम बागबाँ हैं इसके…” लोकप्रिय हुआ था। इन बोलों को पढ़ कर इससे
"सारे जहाँ से अच्छा" गीत के साथ समानता नज़र आती है। 1936 में 'वाडिआ
मूवीटोन' की ही एक फ़िल्म आई ‘जय भारत’, जिसमें सरदार मंसूर और प्यारू क़व्वाल के
अलावा मास्टर मोहम्मद ने भी कुछ गीत गाये थे। मास्टर मोहम्मद का गाया इसमें एक देश
भक्ति गीत था “हम वतन के वतन हमारा, भारत माता जय जय जय”। इस तरह से 1935-36 में
हिन्दी फ़िल्मों में देशभक्ति गीत गूंजने लग पड़े थे और जैसे ये गीत स्वाधीनता
संग्राम की अग्नि में घी का काम किया।
कवि प्रदीप |
1939 में
'बॉम्बे टॉकीज़' की फ़िल्म ‘कंगन’ में कवि प्रदीप ने गीत भी लिखे और तीन गीत भी गाए।
यह वह दौर था जब द्वितीय विश्वयुद्ध रफ़्तार पकड़ रहा था। 1 सितम्बर 1939 को जर्मनी
ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया, और चारों तरफ़ राजनैतिक अस्थिरता बढ़ने लगी। इधर
हमारे देश में भी स्वाधीनता के लिए सरगर्मियाँ तेज़ होने लगीं थीं। ऐसे में फ़िल्म
‘कंगन’ में प्रदीप ने एक गीत लिखा “राधा राधा प्यारी राधा, किसने हम आज़ाद परिंदों
को बंधन में बांधा”। अशोक कुमार और लीला चिटनिस ने इस गीत को गाया था। ब्रिटिश राज
में राष्ट्रीयता वाले गीत लिखने और उसका प्रचार करने पर सज़ा मिलती थी, ऐसे में
प्रदीप ने कितनी चतुराई से इस गीत में राष्ट्रीयता के विचार भरे हैं। प्रदीप की
राष्ट्रप्रेम की कविताओं और गीतों का असर कुछ ऐसा हुआ कि बाद में वो ‘राष्ट्रकवि’
की उपाधि से सम्मानित हुए। यह भी स्मरण में लाने योग्य है कि अमर देश-भक्ति गीत “ऐ
मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी” भी उन्हीं के कलम से निकला था। अगर
प्रदीप एक देशभक्त गीतकार थे तो उनकी ही तरह एक देश-भक्त संगीतकार हुए अनिल
बिस्वास, जिन्होंने संगीत क्षेत्र में आने से पहले कई बार जेल जा चुके थे अपनी
राजनैतिक गतिविधियों की वजह से। 1939 में ही ‘सागर मूवीटोन’ की एक फ़िल्म आई
‘कॉमरेड्स’ (हिन्दी में ‘जीवन साथी’ शीर्षक से) जिसमें अनिल दा का संगीत था।
सुरेन्द्र, माया बनर्जी, हरीश और ज्योति अभिनीत इस फ़िल्म में सरहदी और कन्हैयालाल
के साथ साथ आह सीतापुरी ने भी कुछ गीत लिखे थे। फ़िल्म में एक देशभक्ति गीत “कर दे
तू बलिदान बावरे कर दे तू बलिदान, हँसते-हँसते तू दे दे अपने प्राण” स्वयं अनिल
बिस्वास ने ही गाया था और इस गीत का फ़िल्मांकन पृष्ठभूमि में हुआ था। देश पर
न्योछावर होने का पाठ पढ़ाता यह जोशिला गीत उस ज़माने में काफ़ी चर्चित हुआ था।
चर्चित
फ़िल्मों के अलावा कई ऐसी फ़िल्में भी बनीं जो व्यावसायिक दृष्टि से असफल रहीं, पर
ये फ़िल्में इस बात के लिए महत्वपूर्ण थीं कि इनमें देश-भक्ति के गीत थे। और उस दौर
में जब कि देश पराधीन था, निस्संदेह ऐसे गीतों का महत्व और भी बढ़ जाता है। 1939 की
स्टण्ट फ़िल्म ‘पंजाब मेल’ में नाडिया, सरिता देवी, शहज़ादी, जॉन कावस आदि कलाकार
थे। पंडित ‘ज्ञान’ के लिखे गीतों को सरिता, सरदार मन्सूर और मोहम्मद ने स्वर दिया
। फ़िल्म में दो देशभक्ति गीत थे - “इस खादी में देश आज़ादी दो कौड़ी में बेड़ा पार,
देश भक्त ने…” (सरिता, मोहम्मद, साथी) और “क़ैद में आए नन्ददुलारे, दुलारे भारत के
रखवारे” (सरिता, सरदार मन्सूर)। संगीतकार एस. पी. राणे का संगीत इस दशक के आरम्भिक
वर्षों में ख़ूब गूंजा था और 30 के दशक के आख़िर तक कम होता दिखाई दे रहा था। 1939
में उनकी धुनों से सजी एक ही फ़िल्म आई ‘इन्द्र मूवीटोन’ की ‘इम्पीरियल मेल’
(संगीतकार प्रेम कुमार के साथ)। सफ़दर मिर्ज़ा के लिखे इस फ़िल्म के गीत आज विस्मृत
हो चुके हैं, पर इस फ़िल्म में दो देशभक्ति गीत थे “सुनो सुनो हे भाई, भारत माता की
दुहाई, ग़ैरों की ग़ुलामी करते…” और “करेंगे देश को आज़ाद, ज़र्रे-ज़र्रे की है ज़बाँ पर
भारत की फ़रियाद”। देश को आज़ाद कराने की चाहत देश के हर नागरिक के दिल में तो थी
ही, फ़िल्मी देश-भक्ति गीतों में भी यही विचार उभरने लगी। “करेंगे देश को आज़ाद” गीत
पर ब्रिटिश राज की प्रतिबंध लगी जो कोई हैरानी की बात नहीं थी। पर जब समूचा देश
अपने आप को आज़ाद कराने के सपने देख रहा हो तो ऐसे में कोई भी प्रतिबंध इस जोश को
दबा नहीं सकती थी। किसी गीत या फ़िल्म को दबाया जा सकता है पर उस जोश को कैसे
दबायें जो हर भारतवासी के दिल में उमड़ रहा था!
क्रमश:
शोध, आलेख व प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी
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