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‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला...’ शहीद-ए-आजम को नमन



भारतीय सिनेमा के सौ साल – 39
एक गीत सौ कहानियाँ – 23

बलिदानी भगत सिंह का सर्वप्रिय गीत : ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला...’



आपके प्रिय स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी ने 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर गत वर्ष 'एक गीत सौ कहानियाँ' नामक स्तम्भ आरम्भ किया था, जिसके अन्तर्गत हर अंक में वे किसी फिल्मी या गैर-फिल्मी गीत की विशेषताओं और लोकप्रियता पर चर्चा करते थे। यह स्तम्भ 20 अंकों के बाद मई 2012 में स्थगित कर दिया गया था। गत जनवरी माह से हमने इस स्तम्भ का प्रकाशन ‘भारतीय सिनेमा के सौ साल’ श्रृंखला के अन्तर्गत पुनः शुरू किया है। आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' स्तम्भ की 23वीं कड़ी में सुजॉय चटर्जी प्रस्तुत कर रहे हैं, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का अत्यन्त चर्चित गीत- ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला...’ के बारे में कुछ विस्मृत विवरण। यह गीत सरदार भगत सिंह का सर्वप्रिय गीत था, जिसे गाते हुए उन्होने 23 मार्च, 1931 को देश की खातिर अपने दो अन्य साथियों के साथ स्वयं का बलिदान किया था। आज के इस अंक के माध्यम से हम इसी गीत के बहाने इन तीनों बलिदानियों को नमन करते हैं। 


दोस्तों, मैं सुजॉय चटर्जी आज ‘एक गीत सौ कहानियाँ’का यह अंक समर्पित करता हूँ, देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर बलिदानी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के नाम। आज 21 मार्च है। आज से ठीक दो दिन बाद, अर्थात् 23 मार्च का दिन सरदार भगत सिंह के शहीदी दिवस के रूप में पालित होता है। इस मौके पर शहीद-ए-आज़म को याद करते हुए 'एक गीत सौ कहानियाँ' में आज चर्चा में गीत है, "मेरा रंग दे बसन्ती चोला..."।

स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में 'काकोरी काण्ड' के बारे में तो आपने ज़रूर सुना ही होगा। 9 अगस्त 1925 को पण्डित रामप्रसाद ‘बिसमिल’ और उनके क्रान्तिकारी साथियों ने मिल कर शाहजहाँपुर-लखनऊ ट्रेन लूटने की घटना को 'काकोरी काण्ड' के नाम से जाना जाता है। सभी 19 क्रान्तिकारी पकड़े गए, जेल हुई। इसके करीब दो साल बाद की बात है। अर्थात्‍ साल 1927 की बात। बसन्त का मौसम था। लखनऊ के केन्द्रीय कारागार (Lucknow Central Jail) के 11 नंबर बैरक में ये 19 युवा क्रान्तिकारी एक साथ बैठे हुए थे। इनमें से किसी ने पूछा, "पंडित जी, क्यों न हम बसन्त पर कोई गीत बनायें?" और पंडित जी और साथ बैठे सारे जवानों ने मिल कर एक ऐसे गीत की रचना कर डाली जो इस देश के स्वाधीनता संग्राम का एक अभिन्न अंग बन कर रह गया। और वह गीत था "मेरा रंग दे बसन्ती चोला, माये रंग दे", मूल लेखक पंडित रामप्रसाद ‘बिसमिल’। सह-लेखक की भूमिका में उनके मित्रगण थे जिनमें प्रमुख नाम हैं अशफाक उल्लाह ख़ान, ठाकुर रोशन सिंह, सचिन्द्रनाथ बक्शी और रामकृष्ण खत्री। इस गीत के मुखड़े का अर्थ है "ऐ माँ, तू हमारे चोले, या पगड़ी को बासन्ती रंग में रंग दे"; इसका भावार्थ यह है कि ऐ धरती माता, तू हम में अपने प्राण न्योछावर करने की क्षमता उत्पन्न कर। बासन्ती रंग समर्पण का रंग है, बलिदान का रंग है। बिसमिल ने कितनी सुन्दरता से बसन्त और बलिदान को एक दूसरे के मिलाकार एकाकार कर दिया है! इस गीत ने आगे चल कर ऐसी राष्ट्रीयता की ज्वाला को प्रज्वलित किया कि जन-जागरण और कई क्रान्तिकारी गतिविधियों का प्रेरणास्रोत बना। यहाँ तक कि शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह का पसन्दीदा देशभक्ति गीत भी यही गीत था, और 23 मार्च 1931 के दिन फाँसी की बेदी तक पैदल जाते हुए वो इसी गीत को गाते चले जा रहे थे। आश्चर्य की बात है कि वह भी बसन्त का ही महीना था। भले ही इस गीत को रामप्रसाद ‘बिसमिल’ ने लिखे हों, पर आज इस गीत को सुनते ही सबसे पहले भगत सिंह का स्मरण हो आता है।

हिन्दी सवाक फ़िल्मों का निर्माण भी उसी वर्ष से शुरू हो गया था जिस वर्ष भगत सिंह शहीद हुए थे। पर ब्रिटिश शासन की पाबन्दियों की वजह से कोई भी फ़िल्मकार भगत सिंह के जीवन पर फ़िल्म नहीं बना सके। देश आज़ाद होने के बाद सन्‍ 1948 में सबसे पहले 'फ़िल्मिस्तान' ने उन पर फ़िल्म बनाई 'शहीद', जिसमें भगत सिंह की भूमिका में नज़र आये दिलीप कुमार। पर इस फ़िल्म में "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" गीत को शामिल नहीं किया गया। फ़िल्म का एकमात्र देश भक्ति गीत था राजा मेहन्दी अली ख़ाँ का लिखा "वतन की राह में वतन के नौजवाँ शहीद हों"। फ़िल्म के अन्य सभी गीत नायिका-प्रधान गीत थे। इसके बाद 1954 में जगदीश गौतम निर्देशित फ़िल्म बनी 'शहीद-ए-आज़म भगत सिंह' जिसमें प्रेम अदीब, जयराज, स्मृति बिस्वास प्रमुख ने काम किया। इस फ़िल्म में भी "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" गीत के शामिल होने की जानकारी नहीं है, हाँ, बिसमिल के लिखे "सरफ़रोशी की तमन्ना..." को ज़रूर इसमें शामिल किया गया था रफ़ी साहब की आवाज़ में। इसके बाद सन्‍ 1963 में बनी के. एन. बन्सल निर्देशित फिल्म 'शहीद भगत सिंह' जिसमें नायक की भूमिका में शम्मी कपूर नज़र आये। फ़िल्म के गीत लिखे क़मर जलालाबादी और ज्ञानचन्द्र धवन ने तथा संगीत दिया हुस्नलाल भगतराम ने। फ़िल्म के सभी गीत देशभक्ति से भरे थे, और बिसमिल के लिखे दो गीत शामिल किये गये थे- "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" और "मेरा रंग दे बसन्ती चोला"। दोनों गीत मोहम्मद रफ़ी और साथियों की आवाज़ों में थे। इस फ़िल्म को सफलता नहीं मिली, पर इसके ठीक दो साल बाद, 1965 में मनोज कुमार अभिनीत फ़िल्म 'शहीद' ने कमाल कर दिखाया। फ़िल्म ज़बरदस्त कामयाब रही और महेन्द्र कपूर, मुकेश और राजेन्द्र मेहता के गाये "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत बना। इस फ़िल्म को कई राष्ट्रीय पुरसकारों से सम्मानित किया गया, जिनमें शामिल थे 'सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म', राष्ट्रीय एकता पर बनी सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म का 'नरगिस दत्त पुरस्कार', तथा 13-वीं राष्ट्रीय पुरस्कारों में 'सर्वश्रेष्ठ कहानी' का पुरस्कार।

नई पीढ़ी के कई फ़िल्मकारों ने भी भगत सिंह पर कई फ़िल्में बनाई। साल 2002 में इक़बाल ढिल्लों निर्मित व सुकुमार नायर निर्देशित फ़िल्म आई 'शहीद-ए-आज़म', जिसमें भगत सिंह की भूमिका में नज़र आये सोनू सूद। फ़िल्म को लेकर विवाद का जन्म हुआ और पंजाब-हरियाणा हाइकोर्ट के निर्देश पर फ़िल्म का प्रदर्शन बन्द किया गया। इस वजह से फ़िल्म को ज़्यादा नहीं देखा गया। फ़िल्म के गीत पंजाबी रंग के थे पर "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" ऐल्बम से ग़ायब था। इसी साल, 2002 में बॉबी देओल नज़र आये भगत सिंह के किरदार में और फ़िल्म का शीर्षक था '23 मार्च 1931: शहीद'। इस फ़िल्म में "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" को आवाज़ दी भुपिन्दर सिंह, वीर राजिन्दर और उदित नारायण ने। संगीत दिया आनन्द राज आनन्द ने तथा फ़िल्म के अन्य गीत लिखे देव कोहली ने। साल 2002 में तो जैसे भगत सिंह के फ़िल्मों की लड़ी ही लग गई। इसी वर्ष एक और फ़िल्म आई 'दि लीजेन्ड ऑफ़ भगत सिंह', जिसमें शहीदे आज़म की भूमिका में नज़र आये अजय देवगन। ए.आर. रहमान के संगीत निर्देशन में सोनू निगम और मनमोहन वारिस का गाया "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" काफ़ी लोकप्रिय हुआ और 1965 में बनी 'शहीद' के उस गीत के बाद इसी संस्करण को लोगों ने हाथों-हाथ ग्रहण किया। और फिर साल 2006 में आई राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्मित व निर्देशित आमिर ख़ान की फ़िल्म 'रंग दे बसन्ती', जो भगत सिंह के बलिदान का एक नया संस्करण था, आज की युवा पीढ़ी के नज़रिये से। फ़िल्म बेहद कामयाब रही। ए. आर. रहमान के संगीत में फ़िल्म के सभी गीत बेहद मशहूर हुए। जिस तरह से भगत सिंह की कहानी का यह एक नया संस्करण था, ठीक वैसे ही इस फ़िल्म में "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" को भी एक नया जामा पहनाया गया है। जामा पहनाने वाले गीतकार प्रसून जोशी "थोड़ी सी धूल मेरी, धरती की मेरे वतन की, थोड़ी सी ख़ुशबू बौराई सी मस्त पवन की, थोड़ी से धोंकने वाली धक धक धक साँसे, जिनमें हो जुनूं जुनूं वो बूंदे लाल लहू की, ये सब तू मिला मिला ले, फिर रंग तू खिला खिला ले, और मोहे तू रंग दे बसन्ती यारा, मोहे तू रंग दे बसन्ती"।

और अब हम आपको 1965 में प्रदर्शित मनोज कुमार की फिल्म ‘शहीद’ का वह अमर गीत सुनवाते हैं, जिसे महेन्द्र कपूर, मुकेश और राजेन्द्र मेहता ने स्वर दिया है और संगीत प्रेम धवन का है।


फिल्म शहीद : ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला...’ : महेन्द्र कपूर, मुकेश और राजेन्द्र मेहता 




आपको 'एक गीत सौ कहानियाँ' का यह अंक कैसा लगा, हमें अवश्य लिखिएगा। आप अपनी प्रतिक्रिया, अपने सुझाव और अपनी फरमाइश हमें radioplaybackindia@live.com पर भेज सकते हैं। इस स्तम्भ के अगले अंक में हम किसी अन्य गीत और उससे जुड़ी कहानियों के साथ पुनः उपस्थित होंगे, तब तक के लिए हमे अनुमति दीजिए। 


शोध व आलेख : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र



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आज की ब्लॉग बुलेटिन चटगांव विद्रोह के नायक - "मास्टर दा" - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
वाह ... मज़ा आ गया पूरा इतिहास पढ़ के ...
मनोज कुमार की इस फिल्म ने ओर इसके गीतों ने जो कमाल किया है वो आज भी जिन्दा है सभी के दिलों में ...

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