Skip to main content

भोर की लाली का आह्वान करते आठवें प्रहर के राग


स्वरगोष्ठी – 110 में आज


राग और प्रहर – 8 / समापन कड़ी

‘देख वेख मन ललचाय...’ : सोहनी, भटियार, ललित और कलिंगड़ा रागों के रंग



आज एक बार फिर मैं कृष्णमोहन मिश्र ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ संगीत-प्रेमियों की इस गोष्ठी में उपस्थित हूँ। पिछली सात कड़ियों में हमने दिन और रात के सात प्रहरों में गाये-बजाये जाने वाले रागों पर चर्चा की है। आज इस श्रृंखला की समापन कड़ी है और इस कड़ी में हम आपसे आठवें प्रहर अर्थात रात्रि के चौथे प्रहर के कुछ रागों की चर्चा करेंगे। आठवाँ प्रहर रात्रि के लगभग तीन बजे से लेकर सूर्योदय की लाली फूटने तक की अवधि को माना जाता है। इस अवधि में प्रस्तुत किये जाने वाले रागों में उजाले का आह्वान, रात की कालिमा व्यतीत होने की कामना और कुछ अलसाए भावों की अभिव्यक्ति होती है। श्रृंखला की समापन कड़ी में आज हम आपसे राग सोहनी, भटियार, ललित और कलिंगड़ा की संक्षिप्त चर्चा करेंगे और इन रागों में कुछ चुनी हुई रचनाएँ भी प्रस्तुत करेंगे। 




ठवें प्रहर अर्थात रात्रि के अन्तिम प्रहर में गाये-बजाये जाने वाले रागों में आज सबसे पहले हम आपको राग सोहनी सुनवाएँगे और उसका संक्षिप्त परिचय भी प्रस्तुत करेंगे। राग सोहनी का नामोल्लेख कहीं-कहीं शोभिनी या शोभनी भी किया गया है। यह कर्नाटक संगीत के राग हंसनंदिनी के समतुल्य है। यह राग मारवा थाट के अन्तर्गत माना जाता है। औड़व-षाड़व जाति के इस राग के आरोह और अवरोह, दोनों में पंचम स्वर प्रयोग नहीं किया जाता। धैवत स्वर इस राग का वादी और गान्धार स्वर संवादी होता है। यद्यपि सोहनी रात्रि के अन्तिम प्रहर में खूब निखरता है, तथापि विद्वान रात्रि के तीसरे प्रहर में भी इसका गायन-वादन करते हैं। उत्तरांग प्रधान राग सोहनी चंचल प्रकृति का राग है, जिसके गायन-वादन से श्रृंगार का विरह भाव भलीभाँति सम्प्रेषित होता है। इस राग में ठुमरी और खयाल दोनों की प्रस्तुति का प्रचलन है। आज की गोष्ठी में हम आपको उस्ताद राशिद खान के स्वरों में राग सोहनी में निबद्ध, खयाल अंग की, श्रृंगार रस की चाशनी में पगी, द्रुत तीनताल की, एक रचना सुनवाते हैं।


राग सोहनी : ‘देख वेख मन ललचाय...’ : उस्ताद राशिद खाँ 


रात्रि के अन्तिम प्रहर में प्रस्तुत किये जाने वाले रागों में अब हम आपसे राग भटियार की चर्चा कर रहे हैं। उत्तर भारतीय संगीत के कई राग ऐसे हैं, जिनके बारे में यह माना जाता है कि इनकी उत्पत्ति लोकधुनों से हुई है। राग भटियार के बारे में ऐसा ही माना जाता है। एक दूसरी मान्यता के अनुसार पाँचवीं शताब्दी में उज्जैन के राजा भर्तृहरि ने इस राग का सृजन किया था। इस राग के स्वर-समूह ऐसे हैं कि इसे किसी एक थाट से सम्बद्ध करना कठिन है। कुछ विद्वान इसे विलावल थाट से कुछ इसे खमाज थाट का राग मानते हैं। विदुषी पद्मा तलवलकर के अनुसार इसे मारवा थाट से सम्बद्ध किया जा सकता है, जबकि सुप्रसिद्ध इसराज और मयूर वीणा वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र का मत है कि यह थाटविहीन राग है। राग भटियार में शुद्ध मध्यम का प्रयोग अधिकतर और तीव्र मध्यम का प्रयोग कभी-कभी किया जाता है। इस राग में कोमल ऋषभ और शेष सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग किया जाता है। अवरोह के स्वर वक्रगति से लगाए जाते हैं। इस राग का वादी स्वर धैवत और संवादी स्वर निषाद होता है। उत्तरांग प्रधान इस राग को सुनते समय कहीं-कहीं राग माँड की झलक भी मिलती है। आइए, अब सुनते हैं, राग भटियार में एक छोटा खयाल- ‘पिया मिलन को जाऊँ सखी री...’। द्रुत तीनताल में यह रचना प्रस्तुत कर रहे है, विश्वविख्यात गायक पण्डित जसराज के शिष्य पण्डित संजीव अभ्यंकर। इस प्रस्तुति में हारमोनियम संगति प्रमोद मराठे ने और तबला संगति भरत कामत ने की है।


राग भटियार : ‘पिया मिलन को जाऊँ सखी री...’ ; पण्डित संजीव अभ्यंकर


आज ‘राग और प्रहर’ श्रृंखला की समापन कड़ी में हम आपके साथ आठवें प्रहर के कुछ रागों पर चर्चा कर रहे हैं। इस प्रहर का एक अत्यन्त लोकप्रिय राग है, ललित। पूर्वी थाट के अन्तर्गत माना जाने वाला यह राग षाड़व-षाड़व जाति का होता है। राग ललित में पंचम स्वर का प्रयोग नहीं किया जाता। गान्धार इस राग का प्रमुख स्वर होता है। आलाप और तान में शुद्ध मध्यम स्वर पर न्यास किया जाता है। राग का वादी स्वर शुद्ध मध्यम और संवादी स्वर षडज होता है। पंचम स्वर की अनुपस्थिति सूर्य के प्रकाश की अनुपस्थिति का भाव भलीभाँति स्पष्ट करता है। आइए, अब हम आपको राग ललित पर आधारित एक फिल्मी रचना सुनवाते हैं। 1959 में एक फिल्म ‘चाचा जिन्दाबाद’, प्रदर्शित हुई थी, जिसके संगीतकार मदनमोहन थे। उन्होने फिल्म का एक गीत- ‘प्रीतम दरस दिखाओ...’ राग ललित के स्वरों का आधार बना कर स्वरबद्ध किया था। तीनताल के ठेके पर यह गीत मन्ना डे और लता मंगेशकर ने गाया है। लीजिए, यह गीत आप भी सुनिए।


फिल्म चाचा जिन्दाबाद : ‘प्रीतम दरस दिखाओ...’ : राग ललित : मन्ना डे और लता मंगेशकर


‘राग और प्रहर’ श्रृंखला की आज की कड़ी के अन्त में अब हम आपसे राग कलिंगड़ा के विषय में थोड़ी चर्चा करेंगे। राग कलिंगड़ा, भैरव थाट के स्वरों के अनुकूल होता है। प्राचीन काल में इस राग का प्रयोग सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति के रूप में होता था, किन्तु वर्तमान में षाड़व-सम्पूर्ण जाति के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस राग के आरोह में ऋषभ स्वर नहीं लगता। कोमल ऋषभ और कोमल धैवत स्वरॉ का आन्दोलन न करने से यह राग भैरव से भिन्न हो जाता है। शुद्ध गान्धार और शुद्ध निषाद पर न्यास, इस राग का प्रमुख गुण है। राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर षडज होता है। सूर्योदय से ठीक पहले राग कलिंगड़ा, ठुमरी अंग में खूब निखरता है। इस राग के उदाहरणस्वरूप अब हम आपको एक ठुमरी ही सुनवाते हैं। पटियाला, कसूर गायकी के सिद्ध कलासाधक उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ के अनुज उस्ताद बरकत अली खाँ के स्वरों में राग कलिंगड़ा की यह ठुमरी प्रस्तुत है।


राग कलिंगड़ा : ठुमरी- ‘पिया मन मन्दिर में आन बसो...’ : उस्ताद बरकत अली खाँ 


आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ के 110वें अंक की पहेली में आज हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के इस अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।


1 - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?

2 – यह गीत किस फिल्म से लिया गया है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 112वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से या swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता

‘स्वरगोष्ठी’ के 108वें अंक में हमने आपको 1955 में बनी फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ के राग आधारित शीर्षक गीत का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग अड़ाना और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- गायक उस्ताद अमीर खाँ। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर बैंगलुरु के पंकज मुकेश, जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी, लखनऊ के प्रकाश गोविन्द और जबलपुर से क्षिति तिवारी ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।

झरोखा अगले अंक का


मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ पर पिछले आठ अंकों की इस लघु श्रृंखला ‘राग और प्रहर’ के अन्तर्गत आपने दिन और रात के आठो प्रहरों में प्रस्तुत किए जाने वाले कुछ प्रमुख रागों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त किया और इन रागों के उदाहरण भी सुने। आज के अंक में प्रस्तुत किये गए रागों के साथ ही हम इस लघु श्रृंखला को यहीं विराम देते हैं। अगले अंक के लिए हमने एक अनोखा विषय चुना है जिसका विषय है, ‘रागमाला’। आगामी अंक में हम आपके साथ होंगे। प्रत्येक रविवार को प्रातः साढ़े नौ बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ उपस्थित होते हैं। आप सब संगीत-प्रेमियों से अनुरोध है कि इस सांगीतिक अनुष्ठान में आप भी हमारे सहभागी बनें। आपके सुझाव और सहयोग से हम इस स्तम्भ को और अधिक उपयोगी स्वरूप प्रदान कर सकते हैं। 

प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र

Comments

Sajeev said…
a great series it was

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट