अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित एकता कपूर की चर्चित फ़िल्म 'दि डर्टी पिक्चर' में अस्सी के दशक को साकार करने के लिए एक माध्यम गीत-संगीत को भी चुना गया। हर एक की ज़ुबान पर चढ़ने वाला "ऊह ला ला" गीत के बनने की कहानी 'एक गीत सौ कहानियाँ ' की चौदहवीं कड़ी में आज सुजॉय चटर्जी के साथ...
एक गीत सौ कहानियाँ # 14
फ़िल्म-संगीत का सुनहरा दौर ४० के दशक के आख़िरी कुछ वर्षों से लेकर ७० के दशक के अंत तक को माना जाता है। आठवें दशक के आते-आते फ़िल्मों की कहानियों में इतनी ज़्यादा हिंसा और मार-धाड़ शुरु हो गई कि जिसका प्रकोप फ़िल्मी गीतों पर भी पड़ा। प्यार-मोहब्बत से भी मासूमियत ग़ायब हो गई, काव्य और अच्छी शायरी का चलन लगभग समाप्त हो गया। जिन इंदीवर ने कभी "फूल तुम्हे भेजा है ख़त में फूल नहीं मेरा दिल है" जैसे नर्मोनाज़ुक मासूमियत भरे गीत लिखे थे, उन्ही इंदीवर को ८० के दशक में व्यावसायिकता के आगे सारे हथियार डालते हुए "एक आँख मारूँ तो लड़की पट जाए" और "झोपड़ी में चारपाई एक ही है रजाई" जैसे गीत (न चाहते हुए भी) लिखने पड़े। वह दौर ही ऐसा चल पड़ा था कि नए गीतकारों की क्या बात करें, वरिष्ठ गीतकारों के हाथ से भी लगाम निकल चुकी थी। संगीतकारों में ख़य्याम और रवीन्द्र जैन उत्कृष्ट काम करते रहे, पर अन्य अधिकतर संगीतकार निर्माताओं की माँग के चलते चलताउ किस्म के गीत बनाने में लगे रहे। इनमें संगीतकार बप्पी लाहिड़ी का नाम सबसे उपर आता है।
बप्पी लाहिड़ी के शुरुआती दिनों में उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा था क्योंकि वह दौर था लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनन्दजी और आर. डी. बर्मन जैसे दिग्गज और जमे हुए संगीतकारों का। ऐसे में बप्पी दा ने छोटी-छोटी फ़िल्में साइन करनी शुरु कर दी। लो-बजट निमाताओं के लिए वे धुन तैयार करते। लोग उन्हें ग़रीबों का पंचम भी कहने लगे थे। आख़िरकार दक्षिण के निर्माताओं ने बप्पी दा की पुकार सुन ली और बप्पी दा ने मद्रास में अपना कैम्प बनाया। दक्षिण के निर्माताओं को तलाश थी एक ऐसे संगीतकार की जो वक़्त भी कम ले और पैसे भी। बप्पी लाहिड़ी उनकी ज़रूरतों पर खरे उतरे। वे दिन में तीन गीत और हफ़्ते भर में पूरी की पूरी फ़िल्म का संगीत तैयार करके दे देते। और इस तरह उन्होंने घर कर लिया दक्षिण के निर्माताओं के दिलों में। जब क्वांटिटी ज़्यादा हो तब क्वालिटी के साथ समझौता हो ही जाता है; इनके साथ भी यही हुआ। भले बप्पी दा के चलताउ क़िस्म के गानें आम जनता के होठों पर चढ़े ज़रूर, पर फ़िल्म-संगीत के रसिकों ने उन पर यह इलज़ाम लगाया कि ८० के दशक में फ़िल्म-संगीत के स्तर को गिराने में उनका सबसे बड़ा हाथ है और विदेशी धुनों को हू-ब-हू चोरी कर उन्होंने हिन्दी फ़िल्मी गीतों की मौलिकता को ज़बरदस्त ठेस पहुँचाई है। लेकिन हमारे यहाँ एक बात प्रचलित है कि जो हिट है वही फ़िट है। जब तक निर्माताओं को ऐसे संगीत से फ़ायदा ही फ़ायदा हो रहा हो, तो क्यों कोई सुनें आलोचकों की बातें! और इस तरह से ८० का दशक हो गया बप्पी लाहिड़ी के नाम। उनके इतने ज़्यादा गानें इस दशक में आए कि एक तरह से उन्हें इस दशक का प्रतिनिधि संगीतकार कहना भी ग़लत नहीं होगा।
अभिनेत्री सिल्क स्मिता पर बनने वाली एकता कपूर की चर्चित फ़िल्म 'दि डर्टी पिक्चर' की पृष्ठभूमि ८० के दशक की थी। इसी दशक में उनकी सर्वाधिक फ़िल्में आई थीं। पूरे देश भर में वो 'सेक्स-बॉम्ब' के नाम से जानी जाती थी उस समय। ऐसे में इस फ़िल्म के संगीत को भी वैसा ही ८० के दशक वाला ट्रीटमेण्ट चाहिए था। इस काम के लिए एकता कपूर ने चुना विशाल-शेखर को। कहना ज़रूरी है कि इससे पहले विशाल-शेखर इस तरह के प्रयोग कर चुके थे। फ़िल्म 'ओम शांति ओम' के गानें ७०-८० के दशक को ध्यान में रखकर बनाए गए थे; ख़ास कर "धुम ता ना त धुम" गीत में तो वही बात थी (हालांकि यहाँ भी संगीत संयोजन प्यारेलाल का था जिन्हें ड्यू क्रिडीट नहीं दिया गया) उधर 'गोलमाल' फ़िल्म में भी "क्यों आगे पीछे डोलते हो भँवरों की तरह" में ५० के दशक की झलक थी। तो जब एकता कपूर ने विशाल-शेखर को 'दि डर्टी पिक्चर' का भार सौंपा, दोनों जुट गए शोध कार्य में। दोनों ने मिलकर ८० के दशक के तमाम फ़िल्मों के गीतों को एक एक कर सुना और कोशिश की उस एक सूत्र को पहचानने की, जिस सूत्र से वो सभी गीत बंधे हुए हैं। काफ़ी शोध के बाद वो इस निष्कर्ष तक पहुँचे कि अगर ८० के दशक को किसी गीत में पुनर्जीवित करना है तो बप्पी लाहिड़ी का ही कोई गीत चुनना होगा क्योंकि बप्पी लाहिड़ी ही ८० के दशक के सरताज संगीतकार रहे हैं। जीतेन्द्र-श्रीदेवी या जीतेन्द्र-जयाप्रदा का समुन्दर के किनारे नृत्य करना, जहाँ चारों तरफ़ बड़े-बड़े तबले या रंग-बिरंगे मटके सजे हुए हैं, होली के तमाम रंग उड़ रहे हैं, अप्सराओं की वेश-भूषा पहनी युवतियाँ नृत्य कर रही हैं, और गीत बज रहा है बप्पी दा के संगीत में आशा भोसले और किशोर कुमार का गाया हुआ; यही तो प्रतिनिधि दृश्य है ८० के दशक का।
विशाल-शेखर ने जब यह तय कर लिया कि बप्पी दा के ही किसी गीत पर काम करेंगे, तो वो इस दुविधा में पड़ गए कि किस गीत को चुना जाए। उनके दिल में यह बात थी कि अगर कोई बहुत ज़्यादा हिट गीत को चुनेंगे तो मामला उल्टा पड़ सकता है, मूल गीत के साथ बहुत ज़्यादा तुलना की गुंजाइश हो सकती है। इसलिए वो चाहते थे कि कोई ऐसा गीत चुना जाए जो उस ज़माने में तो बहुत चला था पर जिसे लोग आज भूल चुके हैं, साथ ही गीत मस्ती और थिरकन भरा होना चाहिए कि जिसे सुन कर लोग झूम उठे। इसी खोज में दोनों के हाथ लगा १९८३ की फ़िल्म 'मवाली' का एक गीत "ऊइ अम्मा ऊइ अम्मा, मुश्किल ये क्या हो गई, तेरे बदन में तूफ़ाँ उठा तो साड़ी हवा हो गई"। आशा-किशोर की आवाज़ों में इंदीवर का लिखा बड़ा ही सस्ता क़िस्म का गीत है और सिचुएशन भी उतना ही सस्ता है कि जया प्रदा की साड़ी हवा में उड़ जाती है और जीतेन्द्र के साथ मिलकर दोनों यह गीत गाते हैं। विशाल-शेखर ने बप्पी दा से इस गीत का ज़िक्र किया, बप्पी दा राज़ी तो हो गए पर उन्हें यह अंदाज़ा नहीं था कि इस गीत को किस तरह का नया जामा दोनों पहनाएँगे। एकता कपूर को भी इस गीत का कान्सेप्ट पसन्द आया, और क्यों न आता, उनके पिता जीतेन्द्र पर फ़िल्माया हुआ गाना जो था। ख़ैर, फ़िल्म के पटकथा लेखक रजत अरोड़ा, जो फ़िल्म के गीतकार भी थे, उन्होंने "ऊइ अम्मा" की धुन पर नए बोल लिखे, और नए अंदाज़ में यह गीत बना "ऊह ला ला ऊह ला ला, तू है मेरी फ़ैन्टसी, छू ना ना छू ना ना, अब मैं जवाँ हो गई"।
बप्पी लाहिड़ी के शुरुआती दिनों में उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा था क्योंकि वह दौर था लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनन्दजी और आर. डी. बर्मन जैसे दिग्गज और जमे हुए संगीतकारों का। ऐसे में बप्पी दा ने छोटी-छोटी फ़िल्में साइन करनी शुरु कर दी। लो-बजट निमाताओं के लिए वे धुन तैयार करते। लोग उन्हें ग़रीबों का पंचम भी कहने लगे थे। आख़िरकार दक्षिण के निर्माताओं ने बप्पी दा की पुकार सुन ली और बप्पी दा ने मद्रास में अपना कैम्प बनाया। दक्षिण के निर्माताओं को तलाश थी एक ऐसे संगीतकार की जो वक़्त भी कम ले और पैसे भी। बप्पी लाहिड़ी उनकी ज़रूरतों पर खरे उतरे। वे दिन में तीन गीत और हफ़्ते भर में पूरी की पूरी फ़िल्म का संगीत तैयार करके दे देते। और इस तरह उन्होंने घर कर लिया दक्षिण के निर्माताओं के दिलों में। जब क्वांटिटी ज़्यादा हो तब क्वालिटी के साथ समझौता हो ही जाता है; इनके साथ भी यही हुआ। भले बप्पी दा के चलताउ क़िस्म के गानें आम जनता के होठों पर चढ़े ज़रूर, पर फ़िल्म-संगीत के रसिकों ने उन पर यह इलज़ाम लगाया कि ८० के दशक में फ़िल्म-संगीत के स्तर को गिराने में उनका सबसे बड़ा हाथ है और विदेशी धुनों को हू-ब-हू चोरी कर उन्होंने हिन्दी फ़िल्मी गीतों की मौलिकता को ज़बरदस्त ठेस पहुँचाई है। लेकिन हमारे यहाँ एक बात प्रचलित है कि जो हिट है वही फ़िट है। जब तक निर्माताओं को ऐसे संगीत से फ़ायदा ही फ़ायदा हो रहा हो, तो क्यों कोई सुनें आलोचकों की बातें! और इस तरह से ८० का दशक हो गया बप्पी लाहिड़ी के नाम। उनके इतने ज़्यादा गानें इस दशक में आए कि एक तरह से उन्हें इस दशक का प्रतिनिधि संगीतकार कहना भी ग़लत नहीं होगा।
अभिनेत्री सिल्क स्मिता पर बनने वाली एकता कपूर की चर्चित फ़िल्म 'दि डर्टी पिक्चर' की पृष्ठभूमि ८० के दशक की थी। इसी दशक में उनकी सर्वाधिक फ़िल्में आई थीं। पूरे देश भर में वो 'सेक्स-बॉम्ब' के नाम से जानी जाती थी उस समय। ऐसे में इस फ़िल्म के संगीत को भी वैसा ही ८० के दशक वाला ट्रीटमेण्ट चाहिए था। इस काम के लिए एकता कपूर ने चुना विशाल-शेखर को। कहना ज़रूरी है कि इससे पहले विशाल-शेखर इस तरह के प्रयोग कर चुके थे। फ़िल्म 'ओम शांति ओम' के गानें ७०-८० के दशक को ध्यान में रखकर बनाए गए थे; ख़ास कर "धुम ता ना त धुम" गीत में तो वही बात थी (हालांकि यहाँ भी संगीत संयोजन प्यारेलाल का था जिन्हें ड्यू क्रिडीट नहीं दिया गया) उधर 'गोलमाल' फ़िल्म में भी "क्यों आगे पीछे डोलते हो भँवरों की तरह" में ५० के दशक की झलक थी। तो जब एकता कपूर ने विशाल-शेखर को 'दि डर्टी पिक्चर' का भार सौंपा, दोनों जुट गए शोध कार्य में। दोनों ने मिलकर ८० के दशक के तमाम फ़िल्मों के गीतों को एक एक कर सुना और कोशिश की उस एक सूत्र को पहचानने की, जिस सूत्र से वो सभी गीत बंधे हुए हैं। काफ़ी शोध के बाद वो इस निष्कर्ष तक पहुँचे कि अगर ८० के दशक को किसी गीत में पुनर्जीवित करना है तो बप्पी लाहिड़ी का ही कोई गीत चुनना होगा क्योंकि बप्पी लाहिड़ी ही ८० के दशक के सरताज संगीतकार रहे हैं। जीतेन्द्र-श्रीदेवी या जीतेन्द्र-जयाप्रदा का समुन्दर के किनारे नृत्य करना, जहाँ चारों तरफ़ बड़े-बड़े तबले या रंग-बिरंगे मटके सजे हुए हैं, होली के तमाम रंग उड़ रहे हैं, अप्सराओं की वेश-भूषा पहनी युवतियाँ नृत्य कर रही हैं, और गीत बज रहा है बप्पी दा के संगीत में आशा भोसले और किशोर कुमार का गाया हुआ; यही तो प्रतिनिधि दृश्य है ८० के दशक का।
विशाल-शेखर ने जब यह तय कर लिया कि बप्पी दा के ही किसी गीत पर काम करेंगे, तो वो इस दुविधा में पड़ गए कि किस गीत को चुना जाए। उनके दिल में यह बात थी कि अगर कोई बहुत ज़्यादा हिट गीत को चुनेंगे तो मामला उल्टा पड़ सकता है, मूल गीत के साथ बहुत ज़्यादा तुलना की गुंजाइश हो सकती है। इसलिए वो चाहते थे कि कोई ऐसा गीत चुना जाए जो उस ज़माने में तो बहुत चला था पर जिसे लोग आज भूल चुके हैं, साथ ही गीत मस्ती और थिरकन भरा होना चाहिए कि जिसे सुन कर लोग झूम उठे। इसी खोज में दोनों के हाथ लगा १९८३ की फ़िल्म 'मवाली' का एक गीत "ऊइ अम्मा ऊइ अम्मा, मुश्किल ये क्या हो गई, तेरे बदन में तूफ़ाँ उठा तो साड़ी हवा हो गई"। आशा-किशोर की आवाज़ों में इंदीवर का लिखा बड़ा ही सस्ता क़िस्म का गीत है और सिचुएशन भी उतना ही सस्ता है कि जया प्रदा की साड़ी हवा में उड़ जाती है और जीतेन्द्र के साथ मिलकर दोनों यह गीत गाते हैं। विशाल-शेखर ने बप्पी दा से इस गीत का ज़िक्र किया, बप्पी दा राज़ी तो हो गए पर उन्हें यह अंदाज़ा नहीं था कि इस गीत को किस तरह का नया जामा दोनों पहनाएँगे। एकता कपूर को भी इस गीत का कान्सेप्ट पसन्द आया, और क्यों न आता, उनके पिता जीतेन्द्र पर फ़िल्माया हुआ गाना जो था। ख़ैर, फ़िल्म के पटकथा लेखक रजत अरोड़ा, जो फ़िल्म के गीतकार भी थे, उन्होंने "ऊइ अम्मा" की धुन पर नए बोल लिखे, और नए अंदाज़ में यह गीत बना "ऊह ला ला ऊह ला ला, तू है मेरी फ़ैन्टसी, छू ना ना छू ना ना, अब मैं जवाँ हो गई"।
संगीतकार विशाल-शेखर ने इस गीत को बप्पी लाहिड़ी और श्रेया घोषाल से गवाने का फ़ैसला किया जो नसीरुद्दीन शाह और विद्या बालन पर फ़िल्माया जाना था। वैसे यह पहला मौका नहीं था कि जब विशाल-शेखर बप्पी दा से गीत गवा रहे थे। इससे पहले 'टैक्सी ९ २ ११' में "बम्बई नगरिया" गीत उनसे गवाया था जो बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हुआ था। और "ऊह ला ला" भी एक चार्टबस्टर साबित हुआ। बप्पी दा ने एक संक्षिप्त साक्षात्कार में इस गीत के बारे में बताया है कि विशाल-शेखर ने जो लुक इस गीत को दिया है, वह उन्हें बहुत पसन्द आया, और फ़िल्मांकन में भी निर्देशक मिलन लुथरिया ने ८० का ज़माना जैसे वापस ले आए हैं। विद्या बालन का अभिनय और श्रेया घोषाल की गायकी, सभी एक से बढ़ कर एक है। आज की दो सर्वोपरि पार्श्वगायिकाएँ हैं श्रेया घोषाल और सुनिधि चौहान। श्रेया को "लता घराना" और सुनिधि को "आशा घराना" कहा जाता रहा है। पर विशाल-शेखर ने सुनिधि के बजाय श्रेया से इस तरह का गीत गवाकर इस विचारधारा को बदल दिया है। श्रेया, जो अधिकतर नर्मोनाज़ुक गीत गाती चली आई हैं, ने यह सिद्ध कर दिया है कि सेन्सुअस गीतों पर भी उनकी पकड़ उतनी ही मजबूत है।
विद्या बालन के कामोत्तेजक भंगिमाओं ने जहाँ युवा-पीढ़ी के दिल गीत के फ़िल्मांकन की बात करें तो एकता कपूर और मिलन लुथरिया ने फ़िल्मांकन में किसी तरह की कोई कसर नहीं छोड़ी है। यहाँ तक कि गीत के एक दृश्य के लिए तीन टन संतरे हैदराबाद से मँगवाए गए थे, और मिलन लुथरिया ने व्यंग के रूप में बताया कि उस वजह से हैदराबाद में अगले दो-तीन दिनों के लिए किसी को संतरा नसीब नहीं हुआ। विद्या बालन के कामोत्तेजक भंगिमाओं ने जहाँ युवा-पीढ़ी के दिल जीते, वहीं कुछ लोगों ने नसीरुद्दीन शाह के इस गेट-अप पर व्यंगात्मक वार करते हुए कहा कि वो इस गीत में गद्दाफ़ी जैसा दिख रहे हैं। जो कुछ भी हो, "ऊह ला ला" प्रोजेक्ट तो कामयाब रही, और घर-घर में आज इस गीत के चर्चे हैं। और इस कामयाबी ने यह सोचने पर भी मजबूर कर दिया है कि ८० के दशक में जिन गीतों को चल्ताउ और सस्ते कह कर अच्छे घरों के लोग रिजेक्ट कर देते थे, बच्चों द्वारा गुनगुनाए जाने पर उन्हें डाँटा जाता था, उन्हीं गीतों को आज अगर वापस लाया जाए तो क्या वही लोग अब इन्हें ग्रहण करेंगे? क्या समाज और समय सचमुच बदल चुका है?
गीत -"ऊह ला ला" सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें।
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। कैसा लगा ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में या आप मुझ तक पहुँच सकते हैं cine.paheli@yahoo.com के पते पर भी। इस स्तंभ के लिए अपनी राय, सुझाव, शिकायतें और फ़रमाइशें इसी ईमेल आइडी पर ज़रूर लिख भेजें। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर होऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
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