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"डफ़ली वाले डफ़ली बजा..." - शुरू-शुरू में नकार दिया गया यह गीत ही बना फ़िल्म का सफ़लतम गीत


कभी-कभी ऐसे गीत भी कमाल दिखा जाते हैं जिनसे निर्माण के समय किसी को कोई उम्मीद ही नहीं होती। शुरू-शुरू में नकार दिया गया गीत भी बन सकता है फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत। एक ऐसा ही गीत है फ़िल्म 'सरगम' का "डफ़ली वाले डफ़ली बजा"। यही है आज के 'एक गीत सौ कहानियाँ' के चर्चा का विषय। प्रस्तुत है इस शृंखला की १७-वीं कड़ी सुजॉय चटर्जी के साथ...



एक गीत सौ कहानियाँ # 17


फ़िल्म इंडस्ट्री एक ऐसी जगह है जहाँ किसी फ़िल्म के प्रदर्शित होने तक कोई १००% भरोसे के साथ यह नहीं कह सकता कि फ़िल्म चलेगी या नहीं, यहाँ तक कि फ़िल्म के गीतों की सफ़लता का भी पूर्व-अंदाज़ा लगाना कई बार मुश्किल हो जाता है। बहुत कम बजट पर बनी फ़िल्म और उसके गीत भी कई बार बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं और कभी बहुत बड़ी बजट की फ़िल्म और उसके गीत-संगीत को जनता नकार देती है। मेहनत और लगन के साथ-साथ क़िस्मत भी बहुत मायने रखती है फ़िल्म उद्योग में। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था फ़िल्म 'सरगम' का संगीत। १९७९ में प्रदर्शित इस फ़िल्म का "डफ़ली वाले डफ़ली बजा" गीत उस साल बिनाका गीतमाला में चोटी का गीत बना था। और इसी फ़िल्म के संगीत ने एल.पी को १९८० में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी दिलवाया। भले यह पुरस्कार उन्हें मिला पर स्तर की अगर बात करें तो इस फ़िल्म के गीत चल्ताऊ क़िस्म के ही थे। 'सरगम' की तुलना में इसी वर्ष पं रविशंकर के संगीत में फ़िल्म 'मीरा' के गीत या कानु राय के संगीत में फ़िल्म 'गृहप्रवेश' के गीत कई गुणा ज़्यादा उत्कृष्ट थे, पर यह भी एक विडम्बना ही है कि फ़िल्मफ़ेयर कमिटी ने बहुत कम बार के लिए ही गुणवत्ता को पैमाना समझा है। "डफ़ली वाले" गीत के लिए आनन्द बक्शी को सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार का नामांकन मिला था, पर यह पुरस्कार मिला था गुलज़ार को फ़िल्म 'गोलमाल' के "आने वाला पल जाने वाला है" गीत के लिए।

"डफ़ली वाले डफ़ली बजा" को जनता ने भी हाथों हाथ ग्रहण किया। पर मज़े की बात यह है कि शुरू-शुरू में फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक ने इस गीत को फ़िल्म में रखने से इंकार कर दिया था। इस बात पर अभी आते हैं, उससे पहले 'सरगम' के पार्श्व पर एक नज़र डालते हैं। 'सरगम' एन. एन. सिप्पी द्वारा निर्मित फ़िल्म थी। के. विश्वनाथ लिखित व निर्देशित यह फ़िल्म १९७६ की सुपरहिट तेलुगू फ़िल्म 'सिरि सिरि मुव्वा' की रीमेक थी। 'सरगम' ने अभिनेत्री जया प्रदा को स्टार बना दिया, इस फ़िल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नामांकन भी मिला था, और इस फ़िल्म को १९७९ के बॉक्स ऑफ़िस में तीसरा स्थान मिला था। अब आते हैं "डफ़ली वाले" गीत पर। जब लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने इस गीत की धुन बनाई और आनन्द बक्शी ने बोल लिखे, और निर्माता-निर्देशक को सुनाया तो उन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं आया। उन्हें बोल और संगीत दोनों ही बेकार लगे। "डफ़ली वाले डफ़ली बजा, मेरे घुंघरू बुलाते हैं, आ, मैं नाचूँ तू नचा", ये बोल बहुत ही सस्ते और चल्ताऊ किस्म के लगे। सच भी है, फ़िल्म के अन्य गीतों ("पर्बत के इस पार", "कोयल बोली दुनिया डोली", "मुझे मत रोको मुझे गाने दो", "रामजी की निकली सवारी", "हम तो चले परदेस", "कहाँ तेरा इंसाफ़") की तुलना में "डफ़ली वाले" के बोल कम स्तरीय थे। "डफ़ली वाले" गाना रद्द हो गया। फ़िल्म की शूटिंग् शुरू हुई; एक एक कर सारे गानें फ़िल्माए गए। पर लक्ष्मी-प्यारे को पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि "डफ़ली वाले" को पब्लिक स्वीकार करेगी और गाना हिट होगा, पर उनकी बात को कोई नहीं मान रहा था। पूरी फ़िल्म कम्प्लीट हो गई पर "डफ़ली वाले" की क़िस्मत नहीं चमकी। पर अन्त में एल.पी के लगातार अनुरोध करने पर निर्माता मान गए और "डफ़ली वाले" गीत की रेकॉर्डिंग् को अप्रूव कर दिया।

लता और रफ़ी की आवाज़ों में लक्ष्मी-प्यारे ने "डफ़ली वाले डफ़ली बजा" को रेकॉर्ड तो कर लिया गया, पर अब अगली समस्या यह आन पड़ी की फ़िल्म में किसी और गीत की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी। ऐसी कोई सिचुएशन नहीं थी जिसमें "डफ़ली वाले" को फ़िट किया जाए। जिन लोगों ने यह फ़िल्म देखी है, उन्हें पता है कि "डफ़ली वाले" को फ़िल्म के बिल्कुल अन्त में, क्लाइमैक्स से पहले एक ऐसी जगह पर डाल दिया गया है, बल्कि यूं कहें कि ठूस दिया गया है, जहाँ पर गीत का कोई सिचुएशन ही नहीं था। मैंने जब यह फ़िल्म दूरदर्शन पर देखी थी, तब इस गीत को न पा कर शुरू शुरू में ऐसा लगा था जैसे दूरदर्शन वालों ने गीत को काट दिया है (ऐसा दूरदर्शन अक्सर करता था), पर मेरी यह धारणा ग़लत निकली और फ़िल्म के बिल्कुल अन्त में यह गीत सुनाई/दिखाई दिया। इस तरह से "डफ़ली वाले" को फ़िल्म में एन्ट्री तो मिल गई और गीत भी ख़ूब लोकप्रिय हुआ, पर एक अफ़सोस की बात यह रह गई कि फ़िल्म में इस गीत के लिए एक अच्छी सिचुएशन नहीं बन सकी। अगर निर्माता-निर्देशक शुरू में ही एल.पी की बात मान कर गीत को रख लेते तो शायद ऐसा नहीं होता। ख़ैर, अन्त भला तो सब भला।

ॠषी कपूर, डफ़ली और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल की तिकड़ी का एक बार फिर साथ हुआ 'सरगम' के बनने के १० साल बाद। १९८९ में एक फ़िल्म बनी थी 'बड़े घर की बेटी', जिसमें "डफ़ली वाले" गीत जैसा एक गीत बनाने की कोशिशें हुई थी। आनन्द बक्शी की जगह आ गए संतोष आनन्द, जया प्रदा की जगह आ गईं मीनाक्षी शेशाद्री, तथा लता-रफ़ी के जगह आ गए अनुराधा पौडवाल और मोहम्मद अज़ीज़। और गीत बना "तेरी पायल बजी जहाँ मैं घायल हुआ वहाँ, तेरी डफ़ली बजी जहाँ मैं पागल हुई वहाँ"। यह गीत "डफ़ली वाले" की तरह ब्लॉकबस्टर तो नहीं हुआ, पर अच्छी ख़ासी लोकप्रियता ज़रूर हासिल की थी। यूं तो फ़िल्मी गीतों के फ़िल्मांकन में डफ़ली का प्रयोग काफ़ी बार हुआ है, पर गीत के बोलों में डफ़ली का इस्तमाल इन्हीं दो गीतों में सबसे ज़्यादा चर्चित हुआ है। चलते चलते यही कहेंगे कि "डफ़ली वाले डफ़ली बजा" की सफलता से हमें ज़िन्दगी के लिए यही सबक मिलती है कि किसी को भी हमें अंडरेस्टिमेट नहीं करनी चाहिए, कब कौन बड़ा काम कर जाए कह नहीं सकते, किसी को भी कमज़ोर समझ कर उसका अपमान नहीं करना चाहिए; शुरू-शुरू में नकार दिया गया गीत "डफ़ली वाले डफ़ली बजा" ही बना था फ़िल्म का सफ़लतम गीत।

"डफ़ली वाले" सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें।


तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। कैसा लगा ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में या आप मुझ तक पहुँच सकते हैं cine.paheli@yahoo.com के पते पर भी। इस स्तंभ के लिए अपनी राय, सुझाव, शिकायतें और फ़रमाइशें इसी ईमेल आइडी पर ज़रूर लिख भेजें। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर हो‍ऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

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