कई बार कुछ उक्तियाँ लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं। "देहरी भई बिदेस" भी ऐसा ही उदाहरण है जो कभी था नहीं, किन्तु कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये। आज, ११ अप्रैल, सहगल साहब की जयन्ती पर इसी विषय पर चर्चा 'एक गीत सौ कहानियाँ' की १५-वीं कड़ी में सुजॉय चटर्जी के साथ...
एक गीत सौ कहानियाँ # 15
१९३८ में 'न्यू थिएटर्स' की फ़िल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ ने एक बार फिर से १९३७ की फ़िल्म ‘विद्यापति’ जैसी विजयगाथा दोहराई। दोनों ही फ़िल्मों में रायचन्द बोराल का संगीत था। 'स्ट्रीट सिंगर' में कुंदनलाल सहगल और कानन देवी की जोड़ी पहली बार पर्दे पर नज़र आई और फ़िल्म सुपर-डुपर हिट हुई। बतौर निर्देशक यह फणि मजुमदार की भी पहली फ़िल्म थी। ‘स्ट्रीट सिंगर’ की कहानी दो बाल्यकाल के मित्रों – भुलवा (सहगल) और मंजू (कानन) की है जो कलकत्ता में स्ट्रीट सिंगर के रूप में पल कर बड़े होते हैं। भुलवा का सपना है एक स्टेज-आर्टिस्ट बनना जबकि इसमें कामयाबी मिलती है मंजू को। शोहरत और कामयाबी के शिखर पर पहुँचकर मंजू भुलवा को लगभग भुला देती है और दोनों में दूरी आ जाती है। ऐसे में भुलवा के टूटे दिल से आवाज़ आती है “जीवन बीन मधुर न बाजे, झूठे पड़ गए तार”। यह एक ट्रेण्डसेटर फ़िल्म सिद्ध हुई इस बात के लिए कि इस तरह की कहानी पर आगे चलकर कई फ़िल्में आईं जिनमें उल्लेखनीय रहीं अमिताभ-जया अभिनीत ‘अभिमान’ और आमिर-मनीषा अभिनीत ‘अकेले हम अकेले तुम’। सहगल और कानन देवी के गाये युगल गीतों में शामिल हैं “ऋतु है सुहानी मस्त हवाएँ, “घुंघरवा बाजे छनननन”, “सांवरिया प्रेम की बंसी सुनाये”जैसे कर्णप्रिय गीत, पर सहगल-कानन की आवाज़ में फ़िल्म का सर्वाधिक चर्चित और कालजयी युगल गीत था राग भैरवी पर आधारित एक पारम्परिक ठुमरी “बाबुल मोरा नैहर छूट ही जाए”। इस गीत की रेकॉर्डिंग को याद करते हुए बोराल ने विविध भारती के किसी साक्षात्कार में कहा था, “उन दिनों ‘आउटडोर’ में भी रेकॉर्डिंग् करनी पड़ती थी। फ़िल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में तो सड़कों पर, कुछ साज़िन्दे ‘ट्रक’ पर, कुछ टेक्निशियन्स चलते चलते, यह गाना रेकॉर्ड हुआ था।”
जहाँ एक तरफ़ इस ठुमरी ने अपार लोकप्रियता हासिल की है, वहीं दूसरी तरफ़ सहगल ने इस गीत में दो जगह दो बड़ी ग़लतियाँ भी हैं। इस बारे में उदयपुर के ‘राजस्थान साहित्य अकादमी’ द्वारा प्रकाशित ‘मधुमती’ में एक लेख प्रकाशित हुआ जिसके कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं---
“पिछले दिनों लेखिकाओं की आपबीती बयान करने वाली तथा नारी की निष्ठुर नियति का सृजनात्मक चित्रण करने वाली आत्मकथाओं के अंशों का संकलन कर सुविख्यात कथाकार, सम्पादक और चिन्तक राजेन्द्र यादव के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक 'देहरी भई बिदेस' की चर्चा चली तो हमारे मानस में वह दिलचस्प और रोमांचक तथ्य फिर उभर आया कि बहुधा कुछ उक्तियाँ, फिकरे या उदाहरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उदाहरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो उस फिकरे में लोककंठ में आ बसी है। देहरी भई बिदेस भी ऐसा ही उदाहरण है जो कभी था नहीं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये।
पुरानी पीढी के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी “बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय” सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककंठ में समा गये हैं – “चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया टूटो जाय” आदि। उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है – “देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस, लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस”। जैसे परबत उलाँघना दूभर हो जाता है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलाँघी जाएगी, बाबुल का आँगन बिदेस बन जाएगा। यही सही भी है, बिदेस होना आँगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलाँघी जाती है, परबत उलाँघा नहीं जा सकता, अतः उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूँ गा गये “अँगना तो परबत भया देहरी भई बिदेस” और उनकी गाई यह ठुमरी कालजयी हो गई। सब उसे ही उद्धृत करेंगे। बेचारे वाजिद अली शाह को कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि बीसवीं सदी में उसकी उक्ति का पाठान्तर ऐसा चल पड़ेगा कि उसे ही मूल समझ लिया जाएगा। सहगल साहब तो “चार कहार मिल मोरी डोलियो सजावैं भी गा गये” जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाये जाते हैं, सजाती तो सखियाँ हैं। हो गया होगा यह संयोगवश ही अन्यथा हम कालजयी गायक सहगल के परम- प्रशंसक हैं।”
कुंदनलाल सहगल ने केवल इस गीत में ही नहीं एक और गीत में भी गड़बड़ी की थी। अमीरबाई कर्नाटकी के साथ गाया फ़िल्म 'भँवरा' का यह गीत है "क्या हमने बिगाड़ा है, क्यों हमको सताते हो"। इस गीत के आख़िर में अमीरबाई कर्नाटकी की लाइन "तुम हमें अपना बनाते हो" दो बार आना था। लेकिन जैसे ही अमीरबाई एक बार इस लाइन को गाती हैं और दूसरी बार गाने के लिए शुरु करती हैं तो सहगल साहब ग़लती से अपनी लाइन "क्या हमने बिगाड़ा है" गाते गाते रुक जाते हैं। और अमीरबाई की लाइन होने के बाद उसे सही जगह पर गाते हैं। आज कुंदनलाल सहगल साहब की जयन्ती पर उनकी ग़लतियाँ निकालना हमारा मक़सद नहीं था; हमारा मक़सद केवल इन दिलचस्प प्रसंगों को आप तक पहुँचाना था, वरना सहगल साहब का फ़िल्म-संगीत जगत में क्या योगदान है, इस बारे में नया कुछ कहने की आवश्यक्ता नहीं है।
"बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए" सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें।
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। कैसा लगा ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में या आप मुझ तक पहुँच सकते हैं cine.paheli@yahoo.com के पते पर भी। इस स्तंभ के लिए अपनी राय, सुझाव, शिकायतें और फ़रमाइशें इसी ईमेल आइडी पर ज़रूर लिख भेजें। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर होऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
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