ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 438/2010/138
तीन दशक बीत चुके हैं, लेकिन जब भी जुलाई का यह महीना आता है तो कलेण्डर का पन्ना इशारा करती है १४ जुलाई के दिन की तरफ़ जिस दिन एक महान संगीतकार हम से बिछड़े थे। ये वो संगीतकार हैं जो जाते वक़्त हमसे कह गए थे कि "मेरे लिए ना अश्क़ बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या"। कितनी सच बात है कि उनके गानें हमारे साथ वफ़ा ही तो करती आई है आज तक। कुछ ऐसा जादू है उनके गीतों में कि हम चाह कर भी उन्हे नहीं अपने दिल से मिटा सकते। दोस्तों, जुलाई और सावन का जब जब यह महीना आता है, संगीतकार मदन मोहन की सुरीली यादें भी जैसे छम छम बरसने लग पड़ती हैं। ऐसे में जब हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सावन के फुहारों की इन दिनों बातें कर रहे हैं तो आज के दिन मदन मोहन साहब के संगीत से आपको कैसे वंचित रख सकते हैं! आज हम इस कड़ी में सुनने जा रहे हैं मदन साहब की धुनों से सजी एक रिमझिम फुहारों भरा गीत। वैसे तो "रिमझिम" के साथ अगर मदन मोहन को जोड़ा जाए तो सब से पहले फ़िल्म 'वो कौन थी' का वही मशहूर गीत "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम, पिया तोरे आवन की आस" की ही याद आती है। यह गीत भले ही रिमझिम बारिश की याद दिलाती हो, लेकिन यह गीत बारिश का गीत नहीं है। इसलिए हमने आज जिस गीत को चुना है वह है सन् १९६५ की फ़िल्म 'शराबी' का गीत जिसे लिखा है राजेन्द्र कृष्ण ने और गाया है मोहम्मद रफ़ी ने। शराबी अंदाज़ में ही गाया हुआ यह नग़मा है "सावन के महीने में, एक आग सी सीने में, लगती है तो पी लेता हूँ, दो चार घड़ी जी लेता हूँ"। क्योंकि यह गीत शराब में चूर नायक गा रहे हैं, इसकी धुन और संगीत संयोजन भी उसी शराबी अंदाज़ का किया है मदन साहब ने।
प्रस्तुत गीत की खासियत यह है कि इसके दो वर्ज़न हैं। दोनों ही शराब पीकर गाने वाले नायक के। लेकिन एक में है मस्ती तो दूसरे में है ग़म। बात साफ़ है कि पहले में नायक ख़ुश होकर शराब पी कर गीत गा रहे हैं तो दूसरे में किसी दर्द भरी शाम में शराब और सावन को अपना साथी बनाकर यह गीत गा रहे हैं। पहले वर्ज़न में अगर पूरे रीदम और बीट्स के साथ वेस्टर्ण ऒरकेस्ट्रेशन का प्रयोग हुआ है तो दूसरे वर्ज़न में कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हुआ है और उसके अंतरों में तो बिलकुल ही बीट्स नहीं प्रयोग हुआ है। मदन मोहन के शब्दों में "संगीत रचना भी एक तरह का नशा है। सूरज ढल चुका था, सामने जाम था, मीना थीं, और फ़िल्म 'शराबी' की एक सिचुएशन। तो युंही जब जाम ख़ाली होने लगे, तो दो चार मिनटों में मस्तक से पाँव तक एक नग़मा बन चुका था। साज़िंदों के साज़ हाथों पर, और राजेन्द्र कृष्ण के होठों से गाने के बोल फुटते हुए, कुछ ऐसे..." तो लीजिए दोस्तों, पेश है यह गीत, सब से पहले आप सुनेंगे मदन मोहन की बोलती हुई आवाज़ में ये ही शब्द, उसके बाद रफ़ी साहब की आवाज़ में गीत के दोनों वर्ज़न, पहले दर्द भरे अंदाज़ में और फिर उसके बाद मस्ती भरे अंदाज़ में। सावन के महीने में इस नशीले गीत को सुनवाने से पहले हम अपनी तरफ़ से यही कहेंगे कि सावन का आनंद ज़रूर लीजिए लेकिन शराब के साथ नहीं। नशा करना ही है तो ज़िंदगी का नशा कीजिए, यकीन मानिए बड़ी नशीली है यह ज़िंदगी अगर आपने जीना सीख लिया है तो। चलते चलते संगीतकार मदन मोहन को 'आवाज़' की श्रद्धांजली।
क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'वीर ज़ारा' का मशहूर गीत "तेरे लिए हम हैं जिए होठों को सिए" की धुन सब से पहले मदन मोहन ने फ़िल्म 'मौसम' के गीत "दिल ढूंढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन" के लिए तैयार किया था। उस वक्त यह धुन 'मौसम' के गीत में इस्तेमाल नहीं हुई और बरसों बाद उनके बेटे ने इसी धुन को 'वीर ज़ारा' में इस्तेमाल करवाया।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इसी माह में इस अभिनेता की जयंती भी है और पुण्य तिथि भी, जिन पर ये गीत फिल्माया गया है, हम किसकी बात कर रहे हैं - ३ अंक.
२. संगीतकार बताएं इस युगल गीत के- २ अंक.
३. रफ़ी लता के गाये इस गीत को किसने लिखा है - २ अंक.
४. १९६९ में आई इस सुपर हिट संगीतमयी फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर सही साबित हुए शरद जी और अवध जी बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
तीन दशक बीत चुके हैं, लेकिन जब भी जुलाई का यह महीना आता है तो कलेण्डर का पन्ना इशारा करती है १४ जुलाई के दिन की तरफ़ जिस दिन एक महान संगीतकार हम से बिछड़े थे। ये वो संगीतकार हैं जो जाते वक़्त हमसे कह गए थे कि "मेरे लिए ना अश्क़ बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या"। कितनी सच बात है कि उनके गानें हमारे साथ वफ़ा ही तो करती आई है आज तक। कुछ ऐसा जादू है उनके गीतों में कि हम चाह कर भी उन्हे नहीं अपने दिल से मिटा सकते। दोस्तों, जुलाई और सावन का जब जब यह महीना आता है, संगीतकार मदन मोहन की सुरीली यादें भी जैसे छम छम बरसने लग पड़ती हैं। ऐसे में जब हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सावन के फुहारों की इन दिनों बातें कर रहे हैं तो आज के दिन मदन मोहन साहब के संगीत से आपको कैसे वंचित रख सकते हैं! आज हम इस कड़ी में सुनने जा रहे हैं मदन साहब की धुनों से सजी एक रिमझिम फुहारों भरा गीत। वैसे तो "रिमझिम" के साथ अगर मदन मोहन को जोड़ा जाए तो सब से पहले फ़िल्म 'वो कौन थी' का वही मशहूर गीत "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम, पिया तोरे आवन की आस" की ही याद आती है। यह गीत भले ही रिमझिम बारिश की याद दिलाती हो, लेकिन यह गीत बारिश का गीत नहीं है। इसलिए हमने आज जिस गीत को चुना है वह है सन् १९६५ की फ़िल्म 'शराबी' का गीत जिसे लिखा है राजेन्द्र कृष्ण ने और गाया है मोहम्मद रफ़ी ने। शराबी अंदाज़ में ही गाया हुआ यह नग़मा है "सावन के महीने में, एक आग सी सीने में, लगती है तो पी लेता हूँ, दो चार घड़ी जी लेता हूँ"। क्योंकि यह गीत शराब में चूर नायक गा रहे हैं, इसकी धुन और संगीत संयोजन भी उसी शराबी अंदाज़ का किया है मदन साहब ने।
प्रस्तुत गीत की खासियत यह है कि इसके दो वर्ज़न हैं। दोनों ही शराब पीकर गाने वाले नायक के। लेकिन एक में है मस्ती तो दूसरे में है ग़म। बात साफ़ है कि पहले में नायक ख़ुश होकर शराब पी कर गीत गा रहे हैं तो दूसरे में किसी दर्द भरी शाम में शराब और सावन को अपना साथी बनाकर यह गीत गा रहे हैं। पहले वर्ज़न में अगर पूरे रीदम और बीट्स के साथ वेस्टर्ण ऒरकेस्ट्रेशन का प्रयोग हुआ है तो दूसरे वर्ज़न में कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हुआ है और उसके अंतरों में तो बिलकुल ही बीट्स नहीं प्रयोग हुआ है। मदन मोहन के शब्दों में "संगीत रचना भी एक तरह का नशा है। सूरज ढल चुका था, सामने जाम था, मीना थीं, और फ़िल्म 'शराबी' की एक सिचुएशन। तो युंही जब जाम ख़ाली होने लगे, तो दो चार मिनटों में मस्तक से पाँव तक एक नग़मा बन चुका था। साज़िंदों के साज़ हाथों पर, और राजेन्द्र कृष्ण के होठों से गाने के बोल फुटते हुए, कुछ ऐसे..." तो लीजिए दोस्तों, पेश है यह गीत, सब से पहले आप सुनेंगे मदन मोहन की बोलती हुई आवाज़ में ये ही शब्द, उसके बाद रफ़ी साहब की आवाज़ में गीत के दोनों वर्ज़न, पहले दर्द भरे अंदाज़ में और फिर उसके बाद मस्ती भरे अंदाज़ में। सावन के महीने में इस नशीले गीत को सुनवाने से पहले हम अपनी तरफ़ से यही कहेंगे कि सावन का आनंद ज़रूर लीजिए लेकिन शराब के साथ नहीं। नशा करना ही है तो ज़िंदगी का नशा कीजिए, यकीन मानिए बड़ी नशीली है यह ज़िंदगी अगर आपने जीना सीख लिया है तो। चलते चलते संगीतकार मदन मोहन को 'आवाज़' की श्रद्धांजली।
क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'वीर ज़ारा' का मशहूर गीत "तेरे लिए हम हैं जिए होठों को सिए" की धुन सब से पहले मदन मोहन ने फ़िल्म 'मौसम' के गीत "दिल ढूंढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन" के लिए तैयार किया था। उस वक्त यह धुन 'मौसम' के गीत में इस्तेमाल नहीं हुई और बरसों बाद उनके बेटे ने इसी धुन को 'वीर ज़ारा' में इस्तेमाल करवाया।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इसी माह में इस अभिनेता की जयंती भी है और पुण्य तिथि भी, जिन पर ये गीत फिल्माया गया है, हम किसकी बात कर रहे हैं - ३ अंक.
२. संगीतकार बताएं इस युगल गीत के- २ अंक.
३. रफ़ी लता के गाये इस गीत को किसने लिखा है - २ अंक.
४. १९६९ में आई इस सुपर हिट संगीतमयी फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर सही साबित हुए शरद जी और अवध जी बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
Avadh Lal
अवध लाल
'लक्ष्मीकान्त प्यारेलालजी'
ने इसे रचा कोई रच सकता था?
ही हा