महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९३
दिन से महीने और फिर बरस बीत गये
फिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती है
फिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती है
फजाओं में आसमानों में
मुझे यूं महसूस होता है
जैसे तू हयात बन गया है
और मैं मर गया हूं।
अपने पिता "मख़्दूम मोहिउद्दीन" को याद करते हुए उनके जन्म-शताब्दी के मौके पर उनके पुत्र "नुसरत मोहिउद्दीन" की ये पंक्तियाँ मख़्दूम की शायरी के दीवानों को अश्कों और जज़्बातों से लबरेज कर जाती हैं। मैंने "मख़्दूम की शायरी के दीवाने" इसलिए कहा क्योंकि आज भी हममें से कई सारे लोग "मख़्दूम" से अनजाने हैं, लेकिन जो भी "मख्दूम" को जानते हैं उनके लिए मख़्दूम "शायर-ए-इंक़लाब" से कम कुछ भी नहीं। जिसने भी "मख़्दूम" की शायरी पढी या सुनी है, वह उनका दीवाना हुए बिना रह नहीं सकता। हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाला यह शायर "अंग्रेजों" और "निज़ाम" की मुखालफ़त करने के कारण हमेशा हीं लोगों के दिलों में रहा है। उर्दू अदब में कई सारे ऐसे शायर हुए हैं, जिन्हें बस लिखने से काम था, तो कई ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने जहाँ अपनी लेखनी से आग लगाई, वहीं अपनी हरक़तों से "शासन" की नाक में दम तक कर दिया। "मख़्दूम" इसी दूसरी तरह के शायर थे। "तेलंगना" की माँग (यह माँग अभी तक चल हीं रही है) और "हैदराबाद" को "निज़ाम" से मुक्त कराने का जुनून इनकी आँखों में और इनके जज़्बो में बखूबी नज़र आता था। "तेलंगना" की स्त्रियों (जिन्हें तेलंगन कहा जाता है) को जगाने के लिए इनकी लिखी हुई यह नज़्म आज भी वही पुरजोर असर रखती है:
मख़्दूम ऐसी आज़ादी का सपना देखते थे, जिसमें मज़दूरों का राज हो, जहाँ सही मायने में "स्वराज" हो। इस मुद्दे पर लिखी मख़्दूम की यह नज़्म "आजादी के मतवालों" के बीच बेहद मक़बूल थी, भले हीं गाने वालों को इसके "नगमानिगार" की जानकारी न हो:
मख़्दूम का "बागी तेवर" देखकर आप सबको यह यकीन हो चला होगा कि ये बस इंक़लाब की हीं बोली जानते हैं.. इश्क़-मोहब्बत से इनका दूर-दूर का नाता नहीं। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। दर-असल इश्क़े-मजाज़ी में इनका कोई सानी नहीं। प्यार-मोहब्बत की भाषा इनसे बढकर किसी ने नही पढी। कहने वाले यहाँ तक कहते हैं कि "मजाज़ लखनवी" "उर्दू अदब के कीट्स" न कहे जाते, अगर "मख्दूम" ने "मजाज़" के लिए "जमीन" न तैयार की होती। मजाज़ ने इश्क़िया शायरी के जलवे इन्हीं से सीखे हैं। इश्क़ में कोई कहाँ तक लिख सकता है, इसकी मिसाल मख़्दूम साहब का यह शेर है:
न माथे पर शिकन होती, न जब तेवर बदलते थे
खुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे
मख़्दूम की इसी अनोखी अदा पर रीझ कर "ग़ालिब" के शागिर्द "मौलाना हाली" के नाती "ख्वाज़ा अहमद अब्बास" कहते हैं: ”मख्दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूंदे भी। वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूख थे और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी।”
मख़्दूम साहब की जन्म-शताब्दी के मौके पर नुसरत मोहिउद्दीन और "हिन्दी साहित्य संवाद" के संपादक शशिनारायण स्वाधीन के द्वारा संपादित की हुई पुस्तक "सरमाया - मख़्दूम समग्र" का विमोचन किया गया। इस पुस्तक में "बक़लम-मख़्दूम" नाम से एक अध्याय है,जिसमें मख़्दूम साहब ने "शेरो-शायरी" पर खुलकर चर्चा की है। खैर.. इस किताब की बात कभी बाद में करेंगे। वैसे क्या आपको पता है कि मख्दूम ने तेलंगाना में किसानों के साथ जो संघर्ष किया उसे लेकर उर्दू के महान उपन्यासकार कृषन चंदर ने ‘जब खेत जागे’ नाम का उपन्यास लिखा था, जिस पर गौतम घोष ने तेलुगू में ‘मां भूमि’ फिल्म बनाई। मख्दूम की प्रमुख कृतियों में सुर्ख सवेरा, गुल-ए-तर और बिसात-ए-रक्स हैं। इतना हीं नहीं, मख्दूम ने जार्ज बर्नाड शा के नाटक ‘विडोवर्स हाउस’ का उर्दू में ‘होष के नाखून’ नाम से और एंटन चेखव के नाटक ‘चेरी आर्चर्ड’ का ‘फूल बन’ नाम से रूपांतर किया। मख्दूम ने रवींद्रनाथ टैगोर और उनकी शायरी पर एक लंबा लेख भी लिखा। इसके अलावा मख़्दूम ने तीन कविताओं के अनुवाद किए, जिनमें एक कविता "तातरी शायर" जम्बूल जावर की है, तो दो कविताएँ अंग्रेजी कवयित्री इंदिरा देवी धनराजगीर की हैं। अगर जगह की कमी न होती, तो मैं आपका परिचय इन तीन कविताओं से जरूर करवाता।
बातें बहुत हो गईं, फिर भी कहने को कई सारी चीजें बची हैं। सब कुछ तो एक महफ़िल में समेटा नहीं जा सकता, इसलिए अगर आपकी जिज्ञासा शांत न हुई हो तो कृपया यहाँ और यहाँ हो आएँ। चलिए, अब आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की ग़ज़ल एक तरह से बड़ी हीं खास है। एक तरह से क्यों. दोनों हीं तरह से खास है. और वो इसलिए क्योंकि इस ग़ज़ल में आवाज़ें हैं "मुज़फ़्फ़र अली" और "आबिदा परवीन" की। आवाज़ों का ये संगम इससे पहले और इसके अलावा कहीं और सुनने को नहीं मिलता। मुज़फ़्फ़र साहब के आवाज़ की शोखी और आबिदा की आवाज़ का मर्दानापन "ग़ज़ल" को किसी और हीं दुनिया में ले जाता है। तो तैयार हो जाईये, इस अनूठी ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाने को:
उसी अदा से, उसी बांकपन के साथ आओ,
फिर एक बार उसी अंजुमन के साथ आओ,
हम अपने एक दिल-ए-बेखता के साथ आएँ,
तुम अपने महशर-ए-दार-ओ-रसन के साथ आओ।
ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए,
दिलों में चाँदनी रातों का एहतमाम लिए।
चटक रही है किसी याद की कली दिल में,
नज़र में रक़्स-ए-बहारां की सुबहो-शाम लिए।
महक-महक के जगाती रही नसीम-ए-सहर,
लबों पे यार-ए-मसीहा नफ़स का नाम लिए।
किसी खयाल की खुशबू, किसी बदन की महक,
दर-ए-क़फ़स पे खड़ी है ____ पयाम लिए।
बजा रहा था कहीं दूर कोई शहनाई,
उठा हूँ आँखों में इक ख्वाब-ए-नातमाम लिए।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "क़यामत" और शेर कुछ यूँ था-
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
कई हफ़्तों के बाद महफ़िल में पहली हाज़िरी लगाई शरद जी ने और इसलिए उन्हें "शान-ए-महफ़िल" से नवाज़ा जा रहा है। शरद जी के बाद महफ़िल में चहल-कदमी करती हुई शन्नो जी नज़र आईं.. आपने अपने शेर कहने शुरू हीं किए थे कि "जाने-अनजाने" नीलम जी की कही एक बात आपको चुभ गई.. फिर आगे चलकर अवनींद्र जी ने कुछ कहा और उनके कहे पर आपने अपना एक शेर डाल दिया जिससे अवनींद्र जी कुछ उदास हुए और आप परेशान हो गईं। अरे भाईयों, दोस्तों.. ये हो क्या रहा है? हम फिर से वही गलतियाँ क्यों कर रहे हैं, जिनसे सब के सब तौबा कर चुके हैं। यहाँ पर मैं किसी एक पर दोष नहीं डाल रहा, लेकिन इतना तो कहना हीं चाहूँगा कि ये "बचकानी" हरकतें "महफ़िल" में सही नहीं लगती। मेरे अग्रजों एवं मेरी अग्रजाओं(चूँकि आप सब मुझसे बड़े हैं.. उम्र में) ज़रा मेरा भी तो ध्यान करो.. मैं महफ़िल सजाऊँ या फिर महफ़िल पर निगरानी रखूँ। मैं पहले हीं कह चुका हूँ कि महफ़िल आपकी है, इसलिए लड़ना-झगड़ना या महफ़िल छोड़कर जाना (या फिर जाने की सोचना) तो अच्छा नहीं। आपको किसी की बात बुरी लगे तो नज़र-अंदाज़ कर दीजिए... लेकिन उससे बड़ा मसला तो ये है कि ऐसी बात कहीं हीं क्यों जाए। कभी-कभी कहने वाले की मंशा बुरी नहीं होती, लेकिन चूँकि वो खुलकर कह नहीं पाता या फिर "बात" को "आधे" पर हीं रोक देता है, ऐसी स्थिति में अन्य लोग उसका कुछ भी मतलब निकाल सकते हैं.. और अगर मतलब "अहितकारी" हुआ तो "बुरा" भी मान सकते हैं। इसलिए ऐसी बातें करने से बचें। मैंने अभी तक जो भी कहा, वो कोई आदेश नहीं, बल्कि "एक छोटे भाई" का आग्रह-मात्र है। अगर आप मानेंगे तो आपका अनुज "सही से" महफ़िल का संचालन कर पाएगा। चँकि आज इतना कुछ कह दिया, इसलिए दूसरे मित्रों, अग्रजों एवं अग्रजाओं का जिक्र नहीं कर पा रहा हूँ। इस गुस्ताखी के लिए मुझे मुआफ़ कीजिएगा। मैं यकीन दिलाता हूँ कि अगली महफ़िल में सारी "टिप्पणियाँ" सम्मिलित की जाएँगी... बशर्ते ऐसी हीं कोई विकट समस्या उत्पन्न न हो जाए। और हाँ, मेरी तबियत अब ठीक है, आप सबने मेरा ख्याल रखा, इसके लिए आपका तहे-दिल से आभार!
और अब पेश हैं आप सबके शेर:
ग़र खुदा मुझसे कहे कुछ माँग अय बन्दे मेरे
मैं ये माँगू महफ़िलों के दौर यूँ चलते रहें ।
हमनिवाला, हमपियाला, हमसफ़र, हमराज़ हों,
ता कयामत जो चिरागों की तरह जलते रहें ॥ (शरद जी)
माना के तबाही में कुछ हाथ है दुश्मन का
कुछ चाल कयामत की अपने भी तो चलते हैं (नीलम जी)
सुमन जो सेज पर सजे थे .
उन्ही से कयामत की अर्थी सजाई गई . (मंजु जी)
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या ख़ूब ? क़यामत का है गोया कोई दिन और. (ग़ालिब)
ज़िंदगी की राहों में रंजो-ग़म के मेले हैं,
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं।
चेहरे पर झुर्रियों ने कयामत बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रहीं (ख़ुमार बाराबंकवी)
जो दिल को ख़ुशी की आदत न होती
रूह में भी इतनी सदाक़त न होती !
ज़माने की लय पे जिए जाते होते
तेरी बेरुखी भी क़यामत न होती !! (अवनींद्र जी)
मेरी गुस्ताखियों को खुदा माफ़ करना
कि इसके पहले कोई क़यामत आ जाये. (शन्नो जी)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
दिन से महीने और फिर बरस बीत गये
फिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती है
फिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती है
फजाओं में आसमानों में
मुझे यूं महसूस होता है
जैसे तू हयात बन गया है
और मैं मर गया हूं।
अपने पिता "मख़्दूम मोहिउद्दीन" को याद करते हुए उनके जन्म-शताब्दी के मौके पर उनके पुत्र "नुसरत मोहिउद्दीन" की ये पंक्तियाँ मख़्दूम की शायरी के दीवानों को अश्कों और जज़्बातों से लबरेज कर जाती हैं। मैंने "मख़्दूम की शायरी के दीवाने" इसलिए कहा क्योंकि आज भी हममें से कई सारे लोग "मख़्दूम" से अनजाने हैं, लेकिन जो भी "मख्दूम" को जानते हैं उनके लिए मख़्दूम "शायर-ए-इंक़लाब" से कम कुछ भी नहीं। जिसने भी "मख़्दूम" की शायरी पढी या सुनी है, वह उनका दीवाना हुए बिना रह नहीं सकता। हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाला यह शायर "अंग्रेजों" और "निज़ाम" की मुखालफ़त करने के कारण हमेशा हीं लोगों के दिलों में रहा है। उर्दू अदब में कई सारे ऐसे शायर हुए हैं, जिन्हें बस लिखने से काम था, तो कई ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने जहाँ अपनी लेखनी से आग लगाई, वहीं अपनी हरक़तों से "शासन" की नाक में दम तक कर दिया। "मख़्दूम" इसी दूसरी तरह के शायर थे। "तेलंगना" की माँग (यह माँग अभी तक चल हीं रही है) और "हैदराबाद" को "निज़ाम" से मुक्त कराने का जुनून इनकी आँखों में और इनके जज़्बो में बखूबी नज़र आता था। "तेलंगना" की स्त्रियों (जिन्हें तेलंगन कहा जाता है) को जगाने के लिए इनकी लिखी हुई यह नज़्म आज भी वही पुरजोर असर रखती है:
फिरने वाली खेत की मेड़ों पर बलखाती हुई,
नर्मो-शीरीं क़हक़हों के फूल बरसाती हुई,
कंगनों से खेलती, औरों से शरमाती हुई,
अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा,
हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा।
देखने आते हैं तारे शब में सुनकर तेरा नाम,
जलवे सुबह-ओ-शाम के होते हैं तुझसे हमकलाम,
देख फितरत कर रही है, तुझको झुक-झुककर सलाम,
अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा,
हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा।
ले चला जाता हूँ आँखों में लिए तस्वीर को,
ले चला जाता हूँ पहलू में छुपाए तीर को,
ले चला जाता हूँ फैला राग की तनवीर को,
अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा,
हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा।
मख़्दूम ऐसी आज़ादी का सपना देखते थे, जिसमें मज़दूरों का राज हो, जहाँ सही मायने में "स्वराज" हो। इस मुद्दे पर लिखी मख़्दूम की यह नज़्म "आजादी के मतवालों" के बीच बेहद मक़बूल थी, भले हीं गाने वालों को इसके "नगमानिगार" की जानकारी न हो:
वह जंग ही क्या वह अमन ही क्या
दुश्मन जिसमें ताराज़ न हो
वह दुनिया दुनिया क्या होगी
जिस दुनिया में स्वराज न हो
वह आज़ादी आज़ादी क्या
मज़दूर का जिसमें राज न हो
लो सुर्ख़ सवेरा आता है आज़ादी का आज़ादी का
गुलनार तराना गाता है आज़ादी का आज़ादी का
देखो परचम लहराता है आज़ादी का आज़ादी का
मख़्दूम का "बागी तेवर" देखकर आप सबको यह यकीन हो चला होगा कि ये बस इंक़लाब की हीं बोली जानते हैं.. इश्क़-मोहब्बत से इनका दूर-दूर का नाता नहीं। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। दर-असल इश्क़े-मजाज़ी में इनका कोई सानी नहीं। प्यार-मोहब्बत की भाषा इनसे बढकर किसी ने नही पढी। कहने वाले यहाँ तक कहते हैं कि "मजाज़ लखनवी" "उर्दू अदब के कीट्स" न कहे जाते, अगर "मख्दूम" ने "मजाज़" के लिए "जमीन" न तैयार की होती। मजाज़ ने इश्क़िया शायरी के जलवे इन्हीं से सीखे हैं। इश्क़ में कोई कहाँ तक लिख सकता है, इसकी मिसाल मख़्दूम साहब का यह शेर है:
न माथे पर शिकन होती, न जब तेवर बदलते थे
खुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे
मख़्दूम की इसी अनोखी अदा पर रीझ कर "ग़ालिब" के शागिर्द "मौलाना हाली" के नाती "ख्वाज़ा अहमद अब्बास" कहते हैं: ”मख्दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूंदे भी। वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूख थे और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी।”
मख़्दूम साहब की जन्म-शताब्दी के मौके पर नुसरत मोहिउद्दीन और "हिन्दी साहित्य संवाद" के संपादक शशिनारायण स्वाधीन के द्वारा संपादित की हुई पुस्तक "सरमाया - मख़्दूम समग्र" का विमोचन किया गया। इस पुस्तक में "बक़लम-मख़्दूम" नाम से एक अध्याय है,जिसमें मख़्दूम साहब ने "शेरो-शायरी" पर खुलकर चर्चा की है। खैर.. इस किताब की बात कभी बाद में करेंगे। वैसे क्या आपको पता है कि मख्दूम ने तेलंगाना में किसानों के साथ जो संघर्ष किया उसे लेकर उर्दू के महान उपन्यासकार कृषन चंदर ने ‘जब खेत जागे’ नाम का उपन्यास लिखा था, जिस पर गौतम घोष ने तेलुगू में ‘मां भूमि’ फिल्म बनाई। मख्दूम की प्रमुख कृतियों में सुर्ख सवेरा, गुल-ए-तर और बिसात-ए-रक्स हैं। इतना हीं नहीं, मख्दूम ने जार्ज बर्नाड शा के नाटक ‘विडोवर्स हाउस’ का उर्दू में ‘होष के नाखून’ नाम से और एंटन चेखव के नाटक ‘चेरी आर्चर्ड’ का ‘फूल बन’ नाम से रूपांतर किया। मख्दूम ने रवींद्रनाथ टैगोर और उनकी शायरी पर एक लंबा लेख भी लिखा। इसके अलावा मख़्दूम ने तीन कविताओं के अनुवाद किए, जिनमें एक कविता "तातरी शायर" जम्बूल जावर की है, तो दो कविताएँ अंग्रेजी कवयित्री इंदिरा देवी धनराजगीर की हैं। अगर जगह की कमी न होती, तो मैं आपका परिचय इन तीन कविताओं से जरूर करवाता।
बातें बहुत हो गईं, फिर भी कहने को कई सारी चीजें बची हैं। सब कुछ तो एक महफ़िल में समेटा नहीं जा सकता, इसलिए अगर आपकी जिज्ञासा शांत न हुई हो तो कृपया यहाँ और यहाँ हो आएँ। चलिए, अब आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की ग़ज़ल एक तरह से बड़ी हीं खास है। एक तरह से क्यों. दोनों हीं तरह से खास है. और वो इसलिए क्योंकि इस ग़ज़ल में आवाज़ें हैं "मुज़फ़्फ़र अली" और "आबिदा परवीन" की। आवाज़ों का ये संगम इससे पहले और इसके अलावा कहीं और सुनने को नहीं मिलता। मुज़फ़्फ़र साहब के आवाज़ की शोखी और आबिदा की आवाज़ का मर्दानापन "ग़ज़ल" को किसी और हीं दुनिया में ले जाता है। तो तैयार हो जाईये, इस अनूठी ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाने को:
उसी अदा से, उसी बांकपन के साथ आओ,
फिर एक बार उसी अंजुमन के साथ आओ,
हम अपने एक दिल-ए-बेखता के साथ आएँ,
तुम अपने महशर-ए-दार-ओ-रसन के साथ आओ।
ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए,
दिलों में चाँदनी रातों का एहतमाम लिए।
चटक रही है किसी याद की कली दिल में,
नज़र में रक़्स-ए-बहारां की सुबहो-शाम लिए।
महक-महक के जगाती रही नसीम-ए-सहर,
लबों पे यार-ए-मसीहा नफ़स का नाम लिए।
किसी खयाल की खुशबू, किसी बदन की महक,
दर-ए-क़फ़स पे खड़ी है ____ पयाम लिए।
बजा रहा था कहीं दूर कोई शहनाई,
उठा हूँ आँखों में इक ख्वाब-ए-नातमाम लिए।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "क़यामत" और शेर कुछ यूँ था-
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
कई हफ़्तों के बाद महफ़िल में पहली हाज़िरी लगाई शरद जी ने और इसलिए उन्हें "शान-ए-महफ़िल" से नवाज़ा जा रहा है। शरद जी के बाद महफ़िल में चहल-कदमी करती हुई शन्नो जी नज़र आईं.. आपने अपने शेर कहने शुरू हीं किए थे कि "जाने-अनजाने" नीलम जी की कही एक बात आपको चुभ गई.. फिर आगे चलकर अवनींद्र जी ने कुछ कहा और उनके कहे पर आपने अपना एक शेर डाल दिया जिससे अवनींद्र जी कुछ उदास हुए और आप परेशान हो गईं। अरे भाईयों, दोस्तों.. ये हो क्या रहा है? हम फिर से वही गलतियाँ क्यों कर रहे हैं, जिनसे सब के सब तौबा कर चुके हैं। यहाँ पर मैं किसी एक पर दोष नहीं डाल रहा, लेकिन इतना तो कहना हीं चाहूँगा कि ये "बचकानी" हरकतें "महफ़िल" में सही नहीं लगती। मेरे अग्रजों एवं मेरी अग्रजाओं(चूँकि आप सब मुझसे बड़े हैं.. उम्र में) ज़रा मेरा भी तो ध्यान करो.. मैं महफ़िल सजाऊँ या फिर महफ़िल पर निगरानी रखूँ। मैं पहले हीं कह चुका हूँ कि महफ़िल आपकी है, इसलिए लड़ना-झगड़ना या महफ़िल छोड़कर जाना (या फिर जाने की सोचना) तो अच्छा नहीं। आपको किसी की बात बुरी लगे तो नज़र-अंदाज़ कर दीजिए... लेकिन उससे बड़ा मसला तो ये है कि ऐसी बात कहीं हीं क्यों जाए। कभी-कभी कहने वाले की मंशा बुरी नहीं होती, लेकिन चूँकि वो खुलकर कह नहीं पाता या फिर "बात" को "आधे" पर हीं रोक देता है, ऐसी स्थिति में अन्य लोग उसका कुछ भी मतलब निकाल सकते हैं.. और अगर मतलब "अहितकारी" हुआ तो "बुरा" भी मान सकते हैं। इसलिए ऐसी बातें करने से बचें। मैंने अभी तक जो भी कहा, वो कोई आदेश नहीं, बल्कि "एक छोटे भाई" का आग्रह-मात्र है। अगर आप मानेंगे तो आपका अनुज "सही से" महफ़िल का संचालन कर पाएगा। चँकि आज इतना कुछ कह दिया, इसलिए दूसरे मित्रों, अग्रजों एवं अग्रजाओं का जिक्र नहीं कर पा रहा हूँ। इस गुस्ताखी के लिए मुझे मुआफ़ कीजिएगा। मैं यकीन दिलाता हूँ कि अगली महफ़िल में सारी "टिप्पणियाँ" सम्मिलित की जाएँगी... बशर्ते ऐसी हीं कोई विकट समस्या उत्पन्न न हो जाए। और हाँ, मेरी तबियत अब ठीक है, आप सबने मेरा ख्याल रखा, इसके लिए आपका तहे-दिल से आभार!
और अब पेश हैं आप सबके शेर:
ग़र खुदा मुझसे कहे कुछ माँग अय बन्दे मेरे
मैं ये माँगू महफ़िलों के दौर यूँ चलते रहें ।
हमनिवाला, हमपियाला, हमसफ़र, हमराज़ हों,
ता कयामत जो चिरागों की तरह जलते रहें ॥ (शरद जी)
माना के तबाही में कुछ हाथ है दुश्मन का
कुछ चाल कयामत की अपने भी तो चलते हैं (नीलम जी)
सुमन जो सेज पर सजे थे .
उन्ही से कयामत की अर्थी सजाई गई . (मंजु जी)
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या ख़ूब ? क़यामत का है गोया कोई दिन और. (ग़ालिब)
ज़िंदगी की राहों में रंजो-ग़म के मेले हैं,
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं।
चेहरे पर झुर्रियों ने कयामत बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रहीं (ख़ुमार बाराबंकवी)
जो दिल को ख़ुशी की आदत न होती
रूह में भी इतनी सदाक़त न होती !
ज़माने की लय पे जिए जाते होते
तेरी बेरुखी भी क़यामत न होती !! (अवनींद्र जी)
मेरी गुस्ताखियों को खुदा माफ़ करना
कि इसके पहले कोई क़यामत आ जाये. (शन्नो जी)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
शेर लेकर फिर आऊंगा
.....आशीष
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!
----गुलज़ार
ये हवा के सर्द झोंके जो चमन से आ रहे है
तेरी ज़ुल्फ़ छू के आते तो कुछ और बात होती
-----शायर पता नहीं
----------------आशीष
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
(सुदर्शन फ़ाकिर)
हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दर भी गया
चिराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया
(अहमद फ़राज़ )
कुछ तो हवा सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ-साथ होता रहा मलाल भी
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाखों में
भरम बहार का बाक़ी रहा निगाहों में
(परवीन शाकिर )
regards
अब एक शेर पेश करती हूँ....खुद ही लिखा है...
जब कभी सर्द शामों में हवा का झोंका आता है
मन की तन्हाई में भी सिहरन सी भर जाता है.
- शन्नो
दस्त मेरा ये चमन मेरा ।
(के.के.सिंह ’मयंक’)
देर से नन्हा सा दीपक जल रहा है
ये हवाओं का बडा अपमान है।
(स्वरचित)
पैगाम मेरे देश का प्रेम -अमन का ,
हे हवा ! सारी दुनिया की धरा को दे आ .
जिस दीपक में दम होगा .
किसी की आहट की आदत नहीं है.
- शन्नो
रोते हैं लोग सर्द हवाओं मै बैठ कर
वरना तो धुप चीर गयी होती अब तलक
हम बच गए हैं दर्द की छाओं मै बैठ कर ...
swarachit
वो देखो वो जानेबहार आ रहा है,
चुरा ले गया है जो इन आँखों की नींदें
वोही ले के दिल का करार आ रहा है.
शायर हमारे लखनऊ के 'जलील मलीहाबादी'
अवध लाल
आप सब लोगों के जवाब पढ़ कर दोबारा फिर सुना, फिर भी सबा ही सुनाई पड़ा.
कसूर मेरे बूढ़े कानों का ही लगता है क्योंकि इतने सारे लोग तो गलत नहीं हो सकते.
अवध लाल
आपने सही कहा है.
आपस में छोटी छोटी बातों पर महफ़िल के साथियों में बदमगजी नहीं होनी चाहिए.
मुझे लगता है कि सब कुछ शायद किसी ग़लतफ़हमी की वजह से है. हमारी तरफ तो जब किसी अजीज की मिजाज़पोशी की बात होती है तो यह कहना कि आपकी तबियत खराब है बदतमीजी माना जाता है. इसके बजाय यह कहते हैं कि सुना है आपके दुश्मनों की तबियत नासाज़ है. यह सिर्फ एक कहने का ढंग है इसका मकसद यह नहीं है कि कोई किसी को दुश्मन कह रहा है.
मैंने भी इसी अंदाज़ में बेसबब अपनी बात कही थी. अगर फिर भी किसी को चोट पहुंची है तो उसके लिए मैं माफ़ी मांगता हूँ पर ऐसा इरादतन हरगिज़ नहीं था.
अवध लाल
आप सही हैं....
लफ़्ज़ "सबा" हीं है। लगता है मित्रों ने एक का जवाब आने के बाद अपनी टिप्पणियाँ डालनी शुरू कर दीं। यानि कि बस एक ने हीं ग़ज़ल सुनने की ज़हमत उठाई या फिर किसी ने भी नहीं और अंदाज़ा लगाकर "हवा" शब्द का चुनाव कर लिया। अगर ऐसी बात है मित्रों तो कृपया कर ग़ज़ल सुनने का कष्ट जरूर करें।
तत्काल प्रभाव से "हवा" पर कहे गए सारे शेर निरस्थ किए जाते हैं :) इसलिए अपने शेरों का दौर पुन: शुरू करें।
-विश्व दीपक
सबा का मतलब "हवा" हीं होता है। इसलिए चिंता न कीजिए..
बताने का बहुत शुक्रिया..अब कोई चिंता नहीं, कोई टेंशन नहीं..शेर पहले वाली हवा में ही साँस लेते रहेंगे...
आपकी आखिरी पोस्ट का वक्त देखा (2.43 a.m.)अरे भाई अगर आप देर रात (या अल सुबह) तक जाग कर महफ़िल का सञ्चालन करेंगे तो आपकी नींद कैसे पूरी होगी. (You are simply getting deprived of your beauty sleep. No wonder, it is sooner or later going to take a toll on your health.)
इसलिए मेहरबानी कर अपनी सेहत का ख्याल रखिये. महफ़िल के सभी साथी यकीनन मेरी बात से मुत्तफिक होंगे.
अवध लाल
जो अश्क न छलके आँखोंसे,उस अश्क की कीमत होती है
सबा अफगानी
(just jokingggggggggggggggg)
waise mujaafaar ali ji se to apna ek puraana jhagda hai sssssssssssssshhhhhhhh unhe mat bataana, kahin maafi maangne chale aaye to dikkat ho jaayegi .
गुस्ताखी माफ़ हो..नहा धोकर नहीं...हाथ धो कर कहते हैं...एक बात और...ताकि दिल साफ़ रहें कि .....हम दोनों एक दूसरे के दुश्मन नहीं हैं...आपसे तो हमारी मित्रता पुरानी है...खैर, आपको तो पता ही है सारी कहानी.. तो इसलिए आगे से किसी बात पर कन्फ्यूज़ नहीं होना...समझीं ना..? :) और ये क्या आपने अपना नया उपनाम रखा है ' सबा अफगानी ' ? :)
aap talash mein hain to...wakil ke liye apne Sumit ji kaise rahenge. :)
jiski pahli line hai
gulshan ki faqat foolon se nahi kaaton se bhi jeenat hoti hai ,
jeene ke liye is duniya me gum ki bhi jaroorat hoti hai .
u tube par bhi hai jaroor suniye aur bataayiye kaise hain saba afgaani .
aap ne saba ko laakar khaamkhaa pareshaan kar diya ab sab maayus baithe hain ,kahaan hain sab log apne taja tareen she'ron ke saath
sabhi log haajir hooooooooooooooooooooooooo.
sumit beta tum kahaan ho neelm ji jara musibat me hain .
फिलहाल मेरी तरफ से ' सबा ' पर कुछ यहाँ आपकी विनती / धमकी पर पेश है :
उसकी बातों से बेरुखाई की सबा आती है
पर यादों ने दम तोड़ना न सीखा अब तक.
( स्वर चित )
मै तो यही पर हूँ , बस कुछ दिनो से एक मुकदमे मे वयस्त था.
आपको आने मै थोडी देर हो गयी, तन्हा जी पहले ही मेरे पास आ गये और मुझे उनकी तरफ से आप पर मुकदमा करना पडा, चलो कोई दिक्कत नही मै तन्हा जी से बात करके मुकदमा वापस ले लूँगा :-)
वैसे महफिल के मामलो मे वकील की कोई आवश्यकता नही...
शे'र- किसी की शाम ए सादगी सहर का रंग पा गयी
सबा के पाव थक गये मगर बहार आ गयी।
शायर का नाम याद नही
तब तक के लिए bbye...