महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८३
इस महफ़िल में बस गज़ल की बातें होनी चाहिए, हम यह बात मानते हैं, लेकिन आज हालात कुछ ऐसे हैं कि हमसे रहा नहीं जा रहा। भारतीय क्रिकेट टीम ट्वेंटी-ट्वेंटी के विश्व कप से बाहर हो गई... बाहर होना तो एक बात है, यहाँ तो इस टीम ने पूरी तरह से घुटने टेक दिए। तीनों के तीनों मैच रेत की तरह मुट्ठी से गंवा दिए। सीरिज से पहले तो हज़ार तरह के वादे किए गए थे लेकिन आखिरकार हुआ क्या.. पिछली साल की तरह हीं बेरंग लौट आई यह टीम। एक ऐसे देश में जहाँ क्रिकेट को धर्म माना जाता है, वहाँ धर्म की इस तरह क्षति हो तो एक आस्तिक क्या करे.... उसके दिल को ठेस तो लगेगी हीं। लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं। कुछ दिनों तक इस हार को याद रखेंगे फिर उसी जोश उसी खरोश के साथ भारतीय टीम के अगले मैच को देखने के लिए तैयार हो जाएँगे। हम हैं हीं ऐसे... लेकिन इन्हीं कुछ दिनों के दरम्यान जितने भी पल, जितने भी घंटे हैं, हमारे लिए वो तो ग़मगीन हीं गुजरेंगे ना। और फिर इसी दौरान आपको अगर ग़ज़ल की महफ़िल सजानी हो तो माशा-अल्लाह.... आपका तो भगवान हीं मालिक है। हमारी आज की मन:स्थिति सौ फ़ीसदी ऐसी हीं है। समझ नहीं आ रहा कि हार का ग़म व्यक्त करें या फिर आज की गज़ल में छुपे भाव। कहाँ से शुरू करें.... इसका कुछ अता-पता हीं नहीं है। लेकिन बात यह है कि हमारी महफ़िल हमारे जीवन का एक अंग है, इसलिए इसे नज़र-अंदाज़ करने का तो सवाल हीं नहीं उठता। यानि कि महफ़िल सजेगी ज़रूर.. भले हीं आज जोश कुछ कम हो, लेकिन जज्बा कम न होगा। तो चलिए हम इस महफ़िल की विधिवत शुरुआत करते हैं।
आज की महफ़िल जिस नज़्म, जिस नगमा के नाम है, उसे हमने "बियोन्ड लव" एलबम से लिया है। इस एलबम की सारी नज़्मों और गज़लों में संगीत सतीश शर्मा का है। उस्ताद बिलायत खान के सुपुत्र सुप्रसिद्ध सितार-वादक सुजात खान ने इस एलबम में अपनी आवाज़ और सितार का कमाल दिखाया है। इतना होने के बावजूद कुछ ऐसा है, जो इस एलबम को दूसरे एलबमों से अलग करता है। किसी भी कविता-प्रेमी के लिए अजीब और अनूठी बात होती है - एक कवि/कवयित्री की आवाज़ में दूसरे किसी शायर की नज़्मों की रिकार्डिंग। जी हाँ, इस एलबम में ऐसी कई सारी नज़्में हैं, जिसे अमेरिका में रहने वाली पाकिस्तानी लेखिका और कवयित्री अनीला अरशद ने अपनी आवाज़ दी है। आज की नज़्म उन्हीं कई सारी नज़्मों में से एक है। इस नज़्म की बात करने से पहले हम आपको इस एलबम की सारी गज़लों/नज़्मों का ब्योरा देना चाहेंगे।
१) कोई पूछे है - सुजात खान
२) प्यार के काफ़िले - सुजात खान
३) ये तारों भरी रात - सुजात खान, अनीला अरशद
४) पिंजरा कब टूटा है - अनीला अरशद
५) मेरे मचले हुए ख्वाबों का महकता है चमन - सुजात खान
६) ऐ मेरे प्यार की खुशबू - अनीला अरशद
७) जवानी के नगमे - सुजात खान, अनीला अरशद
"एक कवयित्री की आवाज़ में किसी दूसरे शायर की नज़्मे" - यह कहने पर आप समझ हीं गए होंगे कि ये सारी गज़लें/नज़्में अनीला की नहीं हैं.. तो फिर कौन है इस रचनाओं का रचयिता। हमने अब तक इस शायर की लिखी तीन-चार गज़लें महफ़िल में पेश की हैं। ये गज़लें कौन-कौन-सी हैं, यह पता करना आपका काम है। इस बहाने आपका रिवीजन भी हो जाएगा। अहा! कहाँ चले? ढूँढने? अरे भाई.... पहले उस शायर का नाम तो जान लीजिए.. क्या कहा? जानते हैं। सही है.. आप तो हमसे भी आगे निकले। हम्म्म..... इतना खुश मत होईये.. हम जानते हैं कि आपको उस शायर का नाम कहाँ से मालूम हुआ है। हमने हीं तो उनका नाम इस आलेख के शीर्षक में डाला है.. जी हाँ, हम "क़तील शिफ़ाई" की हीं बात कर रहे हैं। "बियोन्ड लव" में सारी की सारी गज़लें/नज़्में इन्हीं की लिखी हुई हैं। अब चूँकि क़तील साहब के बारे में ढेर सारी बातें पहले हीं हो चुकी हैं, इसलिए उन्हें दुहराने से कोई फ़ायदा नहीं। लेकिन हाँ, हम उनका लिखा यह शेर तो देख हीं सकते हैं:
मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा
आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा
क़तील साहब की बातें न होंगी, यह माना, लेकिन अनीला? ये कौन हैं..कहाँ से हैं.... क्या करती हैं....यह तो जाना हीं जा सकता है। आगे की पंक्तियों में हम अनीला के बारे में विस्तार से चर्चा करने जा रहे हैं। हमने इन पंक्तियों का अनुवाद हिन्दी में करने की कोशिश की, लेकिन हमें ऐसे ढेर सारे शब्द मिलें जिनका हिन्दी में भाषांतरण आसान न था। इसलिए अंतत: हमने यह निर्णय लिया कि क्यों न इसे अंग्रेजी में हीं आपके सामने रख दिया जाए। वैसे भी एक वाक्य अपनी मूल भाषा में हीं ज्यादा सटीक होता है।
हमने "बियोन्ड लव" के बारे में जान लिया, अनीला की बातें हो गईं... इस दौरान सुजात खान भी चर्चा का विषय बने.... और तो और हमने क़तील साहब की कातिलाना शायरी भी याद कर ली..... तो फिर आज की नज़्म सुनने-सुनाने में देर करने का कोई कारण नहीं बनता। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है अनीला की झनकार भरी आवाज़ में वह नज़्म, जो क़तील साहब की बेबाकी का बेजोर उदाहरण है:
पिंजरा कब टूटा है,
कैदी कब छूटा है,
जो खुद को आज़ाद कहे,
वो सबसे बड़ा झूठा है।
जहन किसी का उलझा हुआ है,
माज़ी की ज़ंज़ीरों में,
घिरा हुआ है कोई हाल के
रंगारंग जजीरों में,
किसी को मुस्तकबिल के कुछ
सैयादों ने लूटा है।
इन्सानों की मजबूरी
हालात से जब टकराती है,
बहुत बड़ा एक कैदखाना
ये दुनिया बन जाती है,
इस दुनिया के बाग में
शूली जैसा हर ___ है।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "उफ़क/उफ़ुक" और शेर कुछ यूँ था-
दूर् उफ़क पर् चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
इस शब्द के साथ सबसे पहले महफ़िल में हाज़िर हुए "शरद जी"। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
उफ़क का ज़िक्र ज़माने में जब भी होता है
ज़मीं को देख देख आसमान रोता है ।
शरद जी के बाद महफ़िल की शोभा बनीं शन्नो जी। आपने यह शेर पेश किया:
उफ़ुक के पार एक और जहाँ होता है
जहाँ न कोई जमी न आसमां होता है. (यह शेर शरद जी से थोड़ा-थोड़ा प्रेरित-सा लग रहा है.. है ना? :) )
मंजु जी, उफ़ुक पर जमीं और आसमान के मिलने के सच को आपने इस शेर में बखूबी दर्शाया है:
जमाना वरदान कहे या शाप ,
उफ़ुक-सा हम दोनों का साथ .
नीरज जी, महफ़िल में आने, महफ़िल को पसंद करने और हमें एक गलती से अवगत कराने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। उम्मीद करता हूँ कि आप आगे भी इसी तरह हमारा साथ देते रहेंगे। हाँ, गुमशुदा शब्द पर शेर कहना मत भूलिएगा। :)
सीमा जी, शायद आपको ध्यान में रखकर हीं किसी गीतकार ने यह कहा था -"देर से आई, दूर से आई... वादा तो निभाया।" वादा निभाने का शुक्रिया। ये रहे आपके शेर:
उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क़ में डूब गया
रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की (क़तील शिफ़ाई)
हद-ए-उफ़क़ पे शाम थी ख़ेमे में मुंतज़र
आँसू का इक पहाड़-सा हाइल नज़र में था (वज़ीर आग़ा)
अवनींद्र जी, महफ़िल से कितना भी दूर जाईये, महफ़िल आपको खींच हीं लाएगी :) और आने पर यह शेर..कमाल है!!
तराश ले अपनी रूह को उफक की मानिंद
अँधेरा जहाँ है सवेरा भी वहीँ है !!
अवध जी, गुलज़ार साहब की यह नज़्म याद दिलाने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। कुछ पंक्तियाँ पेश-ए-खिदमत हैं:
मौत तू एक कविता है.
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.
ज़र्द सा चेहरा लिए जब चाँद उफक तक पहुंचे.
दिन अभी पानी में हो और रात किनारे के करीब.
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
इस महफ़िल में बस गज़ल की बातें होनी चाहिए, हम यह बात मानते हैं, लेकिन आज हालात कुछ ऐसे हैं कि हमसे रहा नहीं जा रहा। भारतीय क्रिकेट टीम ट्वेंटी-ट्वेंटी के विश्व कप से बाहर हो गई... बाहर होना तो एक बात है, यहाँ तो इस टीम ने पूरी तरह से घुटने टेक दिए। तीनों के तीनों मैच रेत की तरह मुट्ठी से गंवा दिए। सीरिज से पहले तो हज़ार तरह के वादे किए गए थे लेकिन आखिरकार हुआ क्या.. पिछली साल की तरह हीं बेरंग लौट आई यह टीम। एक ऐसे देश में जहाँ क्रिकेट को धर्म माना जाता है, वहाँ धर्म की इस तरह क्षति हो तो एक आस्तिक क्या करे.... उसके दिल को ठेस तो लगेगी हीं। लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं। कुछ दिनों तक इस हार को याद रखेंगे फिर उसी जोश उसी खरोश के साथ भारतीय टीम के अगले मैच को देखने के लिए तैयार हो जाएँगे। हम हैं हीं ऐसे... लेकिन इन्हीं कुछ दिनों के दरम्यान जितने भी पल, जितने भी घंटे हैं, हमारे लिए वो तो ग़मगीन हीं गुजरेंगे ना। और फिर इसी दौरान आपको अगर ग़ज़ल की महफ़िल सजानी हो तो माशा-अल्लाह.... आपका तो भगवान हीं मालिक है। हमारी आज की मन:स्थिति सौ फ़ीसदी ऐसी हीं है। समझ नहीं आ रहा कि हार का ग़म व्यक्त करें या फिर आज की गज़ल में छुपे भाव। कहाँ से शुरू करें.... इसका कुछ अता-पता हीं नहीं है। लेकिन बात यह है कि हमारी महफ़िल हमारे जीवन का एक अंग है, इसलिए इसे नज़र-अंदाज़ करने का तो सवाल हीं नहीं उठता। यानि कि महफ़िल सजेगी ज़रूर.. भले हीं आज जोश कुछ कम हो, लेकिन जज्बा कम न होगा। तो चलिए हम इस महफ़िल की विधिवत शुरुआत करते हैं।
आज की महफ़िल जिस नज़्म, जिस नगमा के नाम है, उसे हमने "बियोन्ड लव" एलबम से लिया है। इस एलबम की सारी नज़्मों और गज़लों में संगीत सतीश शर्मा का है। उस्ताद बिलायत खान के सुपुत्र सुप्रसिद्ध सितार-वादक सुजात खान ने इस एलबम में अपनी आवाज़ और सितार का कमाल दिखाया है। इतना होने के बावजूद कुछ ऐसा है, जो इस एलबम को दूसरे एलबमों से अलग करता है। किसी भी कविता-प्रेमी के लिए अजीब और अनूठी बात होती है - एक कवि/कवयित्री की आवाज़ में दूसरे किसी शायर की नज़्मों की रिकार्डिंग। जी हाँ, इस एलबम में ऐसी कई सारी नज़्में हैं, जिसे अमेरिका में रहने वाली पाकिस्तानी लेखिका और कवयित्री अनीला अरशद ने अपनी आवाज़ दी है। आज की नज़्म उन्हीं कई सारी नज़्मों में से एक है। इस नज़्म की बात करने से पहले हम आपको इस एलबम की सारी गज़लों/नज़्मों का ब्योरा देना चाहेंगे।
१) कोई पूछे है - सुजात खान
२) प्यार के काफ़िले - सुजात खान
३) ये तारों भरी रात - सुजात खान, अनीला अरशद
४) पिंजरा कब टूटा है - अनीला अरशद
५) मेरे मचले हुए ख्वाबों का महकता है चमन - सुजात खान
६) ऐ मेरे प्यार की खुशबू - अनीला अरशद
७) जवानी के नगमे - सुजात खान, अनीला अरशद
"एक कवयित्री की आवाज़ में किसी दूसरे शायर की नज़्मे" - यह कहने पर आप समझ हीं गए होंगे कि ये सारी गज़लें/नज़्में अनीला की नहीं हैं.. तो फिर कौन है इस रचनाओं का रचयिता। हमने अब तक इस शायर की लिखी तीन-चार गज़लें महफ़िल में पेश की हैं। ये गज़लें कौन-कौन-सी हैं, यह पता करना आपका काम है। इस बहाने आपका रिवीजन भी हो जाएगा। अहा! कहाँ चले? ढूँढने? अरे भाई.... पहले उस शायर का नाम तो जान लीजिए.. क्या कहा? जानते हैं। सही है.. आप तो हमसे भी आगे निकले। हम्म्म..... इतना खुश मत होईये.. हम जानते हैं कि आपको उस शायर का नाम कहाँ से मालूम हुआ है। हमने हीं तो उनका नाम इस आलेख के शीर्षक में डाला है.. जी हाँ, हम "क़तील शिफ़ाई" की हीं बात कर रहे हैं। "बियोन्ड लव" में सारी की सारी गज़लें/नज़्में इन्हीं की लिखी हुई हैं। अब चूँकि क़तील साहब के बारे में ढेर सारी बातें पहले हीं हो चुकी हैं, इसलिए उन्हें दुहराने से कोई फ़ायदा नहीं। लेकिन हाँ, हम उनका लिखा यह शेर तो देख हीं सकते हैं:
मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा
आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा
क़तील साहब की बातें न होंगी, यह माना, लेकिन अनीला? ये कौन हैं..कहाँ से हैं.... क्या करती हैं....यह तो जाना हीं जा सकता है। आगे की पंक्तियों में हम अनीला के बारे में विस्तार से चर्चा करने जा रहे हैं। हमने इन पंक्तियों का अनुवाद हिन्दी में करने की कोशिश की, लेकिन हमें ऐसे ढेर सारे शब्द मिलें जिनका हिन्दी में भाषांतरण आसान न था। इसलिए अंतत: हमने यह निर्णय लिया कि क्यों न इसे अंग्रेजी में हीं आपके सामने रख दिया जाए। वैसे भी एक वाक्य अपनी मूल भाषा में हीं ज्यादा सटीक होता है।
Aneela Arshad is a Certified Hypnotherapist, Reiki Master, Teacher and Healer. She owns and operates a Holistic Medical facility in New York where she has, by the grace of God, successfully healed many people suffering from stress, depression, sleep disorders and other related emotional illnesses. She is also an Author, Poet, Playwright and a Screenplay Writer aspiring to spread peace through her writings. Currently, the president of The Arch, a New York based Non-Profit, Cultural Organization; she hopes to reach out to the world through Art and Theatre, thereby bridging the gaps of diversity.
Her first book, The Bounty of Allah was published in 1999 by the Crossroads publishing company. She has written three screenplays, two of which, Where Spirits Soar and The Right and the Wrong, were bought by Nivelli International films. Nightmare at Uch Sharif is in the pre-production phase. She has also produced two plays, Mogul E Azam The Great Mogul and Amir Khusro in 2001 and 2003. She was nominated by the Sub-Continent Peace foundation to receive a proclamation and a Key to the City of Jersey City for her literary endeavors and the passion to address the crimes against women, particularly Muslim women.
THE SILENT LAMEN, her latest work, an anthology of which many poems have been published in various magazines, is a collection of poems based on the true stories of women whose voices have been stifled in a world where being a woman is a curse unto itself. This anthology lays bare the warped reality of women trapped beneath the rubble of a crumbling civilization. It voices the misery of tormented spirits crying out for help.
हमने "बियोन्ड लव" के बारे में जान लिया, अनीला की बातें हो गईं... इस दौरान सुजात खान भी चर्चा का विषय बने.... और तो और हमने क़तील साहब की कातिलाना शायरी भी याद कर ली..... तो फिर आज की नज़्म सुनने-सुनाने में देर करने का कोई कारण नहीं बनता। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है अनीला की झनकार भरी आवाज़ में वह नज़्म, जो क़तील साहब की बेबाकी का बेजोर उदाहरण है:
पिंजरा कब टूटा है,
कैदी कब छूटा है,
जो खुद को आज़ाद कहे,
वो सबसे बड़ा झूठा है।
जहन किसी का उलझा हुआ है,
माज़ी की ज़ंज़ीरों में,
घिरा हुआ है कोई हाल के
रंगारंग जजीरों में,
किसी को मुस्तकबिल के कुछ
सैयादों ने लूटा है।
इन्सानों की मजबूरी
हालात से जब टकराती है,
बहुत बड़ा एक कैदखाना
ये दुनिया बन जाती है,
इस दुनिया के बाग में
शूली जैसा हर ___ है।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "उफ़क/उफ़ुक" और शेर कुछ यूँ था-
दूर् उफ़क पर् चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
इस शब्द के साथ सबसे पहले महफ़िल में हाज़िर हुए "शरद जी"। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
उफ़क का ज़िक्र ज़माने में जब भी होता है
ज़मीं को देख देख आसमान रोता है ।
शरद जी के बाद महफ़िल की शोभा बनीं शन्नो जी। आपने यह शेर पेश किया:
उफ़ुक के पार एक और जहाँ होता है
जहाँ न कोई जमी न आसमां होता है. (यह शेर शरद जी से थोड़ा-थोड़ा प्रेरित-सा लग रहा है.. है ना? :) )
मंजु जी, उफ़ुक पर जमीं और आसमान के मिलने के सच को आपने इस शेर में बखूबी दर्शाया है:
जमाना वरदान कहे या शाप ,
उफ़ुक-सा हम दोनों का साथ .
नीरज जी, महफ़िल में आने, महफ़िल को पसंद करने और हमें एक गलती से अवगत कराने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। उम्मीद करता हूँ कि आप आगे भी इसी तरह हमारा साथ देते रहेंगे। हाँ, गुमशुदा शब्द पर शेर कहना मत भूलिएगा। :)
सीमा जी, शायद आपको ध्यान में रखकर हीं किसी गीतकार ने यह कहा था -"देर से आई, दूर से आई... वादा तो निभाया।" वादा निभाने का शुक्रिया। ये रहे आपके शेर:
उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क़ में डूब गया
रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की (क़तील शिफ़ाई)
हद-ए-उफ़क़ पे शाम थी ख़ेमे में मुंतज़र
आँसू का इक पहाड़-सा हाइल नज़र में था (वज़ीर आग़ा)
अवनींद्र जी, महफ़िल से कितना भी दूर जाईये, महफ़िल आपको खींच हीं लाएगी :) और आने पर यह शेर..कमाल है!!
तराश ले अपनी रूह को उफक की मानिंद
अँधेरा जहाँ है सवेरा भी वहीँ है !!
अवध जी, गुलज़ार साहब की यह नज़्म याद दिलाने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। कुछ पंक्तियाँ पेश-ए-खिदमत हैं:
मौत तू एक कविता है.
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.
ज़र्द सा चेहरा लिए जब चाँद उफक तक पहुंचे.
दिन अभी पानी में हो और रात किनारे के करीब.
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
इन्सानों की मजबूरी
हालात से जब टकराती है,
बहुत बड़ा एक कैदखाना
ये दुनिया बन जाती है,
इस दुनिया के बाग में
शूली जैसा हर बूटा है।
अपने मंदिर की खातिर
नौचती रही
तुम मेरे
बाग़ का हर बूटा
और मैं
परेशां रहा
कि भूले से
कोई शूल
तेरे हाथो न चुभ जाये (स्वरचित )
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने तू ही न जाने बाग तो सारा जाने है ।
और हमारा भी एक शेर ( शेर जैसा लगता है क्या..? ये फैसला करना हमारा काम नहीं ) हाजिर है :
स्याह चादर पे चाँद संग आ मुस्कुराते हैं
खामोश आलम में झांक कर टिमटिमाते हैं
आसमा में टंके सितारे लगते हैं जैसे बूटा
रात के अलविदा कहते ही गुम हो जाते हैं.
- शन्नो
bye..bye..
जब लाल साड़ी पर उकेरा था बूटा,
दिलवर !तब हर साँस ने तेरा नाम जपा .
घर के आँगन को सदा सुन्दर बनाया जाता है
(प्राण शर्मा )
मेरी मुहब्बत का ख़्वाब
चमेली का बूटा
जिसके नीचे
हकीकत का
'काला नाग' रहता है
(कमल )
पत्ता पत्ता बूटा बूटा अब उख़ड़ा समझो अब उजड़ा
बैठ गए हैं समझ ठिकाना गुलशन डारी डारी उल्लू
(: प्रेम भारद्वाज )
काँटों की चुभन पाके ही बूटे जवान होते हैं (स्वरचित )
लहू लहू वो हुआ उस कातिल के अरमानों से.
गब्बर कुछ लिख दिया है ,पढ़िए और सबासी दीजिये नहीं तो गब्बर नाराज हो जाएगा .
अवनींद्र जी आपके लिखे पर तो बस वही याद आता है
जब दर्द नहीं था सीने में
तब ख़ाक मजा था जीने में
आप वाकई अच्छा लिखते हैं लिखते रहिये
गब्बर खुस होता है ,अच्छी सायरी पढ़ के