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कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था.. हामिद अली खां के बहाने से मीर को याद किया ग़ालिब ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७७

ज की महफ़िल बाकी महफ़िलों से अलहदा है, क्योंकि आज हम "ग़ालिब" के बारे में कुछ नया नहीं बताने जा रहे..बल्कि माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए (क्योंकि पिछली छह महफ़िलों से हम ग़ालिब की लाचारियाँ हीं बयाँ कर रहे हैं) "बाला दुबे" का लिखा एक व्यंग्य "ग़ालिब बंबई मे" आप सबों के सामने पेश करने जा रहे हैं। अब आप सोचेंगे कि हमें लीक से हटने की क्या जरूरत आन पड़ी। तो दोस्तों, व्यंग्य पेश करने के पीछे हमारा मकसद बस मज़ाकिया माहौल बनाना नहीं है, बल्कि हम इस व्यंग्य के माध्यम से यह दर्शाना चाहते हैं कि आजकल कविताओं और फिल्मी-गानों की कैसी हालत हो गई है.. लोग मक़बूल होने के लिए क्या कुछ नहीं लिख रहे. और जो लिखा जाना चाहिए, जिससे साहित्य में चार-चाँद लगते, उसे किस तरह तिलांजलि दी जा रही है। हमें यकीन है कि आपको महफ़िल में आया यह बदलाव नागवार नहीं गुजरेगा.. तो हाज़िर है यह व्यंग्य: (साभार: कादंबिनी)

दो चार दोस्तों के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब स्वर्ग में दूध की नहर के किनारे शराबे तहूर (स्वर्ग में पी जाने वाली मदिरा) की चुस्कियाँ ले रहे थे कि एक ताज़ा–ताज़ा मरा बंबइया फ़िल्मी शायर उनके रू-ब-रू आया, झुक कर सलाम वालेकुम किया और दोजानू हो कर अदब से बैठ गया। मिर्ज़ा ने पूछा, 'आपकी तारीफ़?' बंबइया शायर बोला, 'हुज़ूर मैं एक हिंदुस्तानी फ़िल्मी शायर हूँ। उस दिन मैं बंबई के धोबी तालाब से आ रहा था कि एक शराबी प्रोडयूसर ने मुझे अपनी मारुति से कुचल डाला।'

ग़ालिब बोले, 'मुबारिक हो मियाँ जो बहिश्त नसीब हुआ वर्ना आधे से ज़्यादा फ़िल्म वाले तो जहन्नुम रसीद हो जाते हैं। ख़ैर, मुझे कैसे याद फ़रमाया।'
बंबइया शायर बोला, 'हुज़ूर, आप तो आजकल वाकई ग़ालिब हो रहे हैं। क़रीब तीस साल पहले आप पर फ़िल्म बनी थी जो खूब चली और आजकल आप 'सीरियलाइज़्ड' हो रहे हैं।' मिर्ज़ा ग़ालिब समझे नहीं। पास बैठे दिल्ली के एक फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर के मुंशी ने उन्हें टीवी के सीरियल की जानकारी दी।

मिर्ज़ा गहरी साँस छोड़ कर बोले, 'चलो कम से कम मरने के बाद तो मेरी किस्मत जागी, मियाँ। वर्ना जब तक हम दिल्ली में रहे कर्ज़ से लदे रहे, खुशहाली को तरसे और कभी इसकी लल्लो–चप्पो की तो कभी उसकी ठोड़ी पर हाथ लगाया।'
'अरे हुज़ूर, अब तो जिधर देखो आप ही आप महक रहे है,' बंबइया शायर बोला। फिर फ़िल्मी शायर ने अपनी फ्रेंच कट दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, 'अगर हुज़ूर किसी तरह खुदा से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर बंबई जा पहुँचें तो बस यह समझ लीजे कि सोने से लद कर वापस आएँ। मेरी तो बड़ी तमन्ना है कि आप दो चार फ़िल्मों में 'लिरिक' तो लिख ही डालें।' आस पास बैठे चापलूसों ने भी उसकी बात बड़ी की ओर न जाने कौन-सा फ़ितूर मिर्ज़ा के सर पर चढ़ा कि वे तैयार हो गए।

दूसरे दिन बाकायदा अल्ला मियाँ के यहाँ मिर्ज़ा और उनके तरफ़दार जा पहुँचे और कह–सुन कर उन्होंने अल्ला मियाँ को पटा लिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि मिर्ज़ा ग़ालिब को तीस दिन की 'अंडर लीव' मय टीए डीए के दे दी गई और वे 'बहिश्त एअरलाइन' में बैठ कर बंबई के हवाई अड्‌डे पर जा उतरे।
°°°
बंबइया शायर ने उन्हें सारे अते–पते, और ठिकानों का जायज़ा दे ही रखा था, लिहाज़ा मिर्ज़ा ग़ालिब टैक्सी पकड़कर 'हिंदुस्तान स्टूडियोज़' आ पहुँचे। अंदर जाकर उन्होंने भीमजी भाई डायरेक्टर को उस स्वर्गवासी बंबइये शायर का ख़त दिया। भीम जी भाई उन्हें देखते ही अपने चमचे कांति भाई से बोल, क्या नसीरूद्दीन शाह का कांट्रैक्ट कैंसिल हो गया, कांतिभाई। ये नया बागड़ू मिर्ज़ाग़ालिब के मेकअप में कैसे?

कांतिभाई ने अपने चश्मे से झाँक कर देखा और बोले, 'वैसे मेकअप आप अच्छा किया है पट्‌ठे का। रहमान भाई ने किया लगता है। पर ये इधर कैसे आ गया? मिर्जा ग़ालिब का शूटिंग तो गुलज़ार भाई कर रहा है।'
तभी मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, 'सहिबान, मैं एक्टिंग करने नहीं आया हूँ। मैं ही असली मिर्ज़ा गालिब हूँ, मैं तो फ़िल्म में शायरी करने आया हूँ जिसे शायद आप लोग 'लिरिक' कहते हैं।'
भीम जी भाई बोले, 'अच्छा, तो तुम लिरिक लिखते है।'
मिर्ज़ा बोले, 'जी हाँ।'

भीम जी भाई न फ़ौरन ही अपने असिस्टेंट मानिक जी को बुलाया और हिदायत दी, 'अरे सुनो मानिक जी भाई। इसे ज़रा परखो। 'लिरिक' लिखता है।' मानिक जी भाई ने ग़ालिब को घूर कर देखा और कहा, 'आओ मेरे साथ।'
मानिक जी ग़ालिब को बड़े हाल में ले गए जहाँ आधा दर्जन पिछलग्गुए तुकबंद बैठे थे। मानिक जी बोले, 'पहले सिचुएशन समझ लो।'
मिर्ज़ा बोले, 'इसके क्या मानी, जनाब।'
मानिक जी बोले, 'पहले हालात समझ लो और फिर उसी मुताबिक लिखना है। हाँ तो, हीरोइन हीरो से रूठी हुई बरगद के पेड़ के नीचे मुँह फुलाए बैठी है। उधर से हीरो आता है सीने पर हाथ रख कर कहता है कि तूने अपने नज़रिये की तलवार से मेरे दिल में घाव कर दिया है। अब इस सिचुएशन को ध्यान में रखते हुए लिख डालो एक गीत।'
मिर्ज़ा ग़ालिब ने काग़ज़ पर लिखना शुरू किया और पाँच मिनट बाद बोले, सुनिए हज़रत, नहीं ज़रियते राहत ज़राहते पैकां
यह ज़ख्मे तेग है जिसको कि दिलकुशा कहिए
नहीं निगार को उल्फ़त, न हो, निगार तो है
रवानिए रविशो मस्तिए अदा कहिए

मिर्ज़ा की इस लिरिक को सुनते ही मानिक जी भाई का ख़ास चमचा पीरूभाई दारूवाला बोला, 'बौस, ये तो पश्तो में गीत लिखता है। मेरे पल्ले में तो कुछ पड़ा नहीं, तुम्हारे भेजे में क्या घुसा काय?'
मानिक जी बौखला कर बोले, 'ना जाने कहाँ से चले आते हैं फ़िल्मों में। देखो मियाँ इस तरह ऊल-जलूल लिरिक लिख कर हमें क्या एक करोड़ की फ़िल्म पिटवानी है।'
पर हुज़ूर, मिर्ज़ा बोले, 'मैं आपको अच्छे पाए की शायरी सुना रहा हूँ।'

ये पाए की शायरी है या चौपाये की, मानिक जी लाल पीले होकर बोले, 'तुमसे पहले भी एक पायेदार शायर आया था–क्या नाम था उसका – हाँ, याद आया,जोश। वह भी तुम्हारे माफ़िक लंतरानी बकता था और जब उसकी अकल ठिकाने आई तब ठीक-ठीक लिखने लगा था।'
पीरूजी दारूवाला बोला, 'उसका वह गाना कितना हिट गया था बौस– हाय, हाय। क्या लिखा था ज़ालिम ने, मेरे जुबना का देखो उभार ओ पापी।'
ग़ालिब बोले, 'क्या आप जोश मलीहाबादी के बारे में कह रहे है? वो तो अच्छा ख़ासा कलाम पढ़ता था। वह भला ऐसा लिखेगा।'
'अरे हाँ, हाँ। उसी जोश का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ,' मानिक जी भाई बोला, 'बंबई की हवा लगते ही वह रोगनजोश बन गया था।'
तभी पीरूभाई बोले, 'देखो भाई, हमारा टाइम ख़राब मत करो। हमें कायदे के गीत चाहिए। ठहरो तुम्हें कुछ नमूने सुनाता हूँ।'
पीरूभाई दारूवाला ने पास खड़े म्यूज़िक डायरेक्टर बहरामजी महरबानजी को इशारा किया। तभी आर्केस्ट्रा शुरू हो गया। पहले तो आर्केस्ट्रा ने किसी ताज़ा अमरीकन फ़िल्म से चुराई हुई विलायती धुन को तोड़ मरोड़ कर ऐसा बजाया कि वह 'एंगलोइंडियन' धुन बन गई। उसके बाद हीरो उठा और कूल्हे मटका–मटका कर डांस करने लगा। हीरोइन भी बनावटी ग़ुस्से में उससे छिटक–छिटक कर दूर भागती हुई नखरे दिखाने लगी। तभी माइक पर खड़े सिंगर ने गाना शूरू कर दिया – तेरे डैडी ने दिया मुझे परमिट तुझे फँसाने का
इश्क का नया अंदाज़ देखकर ग़ालिब बोले, 'अस्तग़फरूल्ला, क्या आजकल हिंदुस्तान में वालिद अपने बरखुरदार को इस तरह लड़कियाँ फँसाने की राय देते हैं?'
पीरूभाई बोले, 'मियाँ वो दिन गए जब ख़लील खाँ फाख़्ते उड़ाते थे। हिंदुस्तान में तरक्की हम लोगों की बदौलत हुई है। हमारी ही बदौलत आज बाप बेटे शाम को एक साथ बैठ कर विस्की की चुस्की लेते हैं। होटलों में साथ-साथ लड़कियों के संग डिस्को करते है।'
मानिक जी भाई बोले, 'इसे ज़रा चलत की चीज़ सुनाओ, पीरूभाई।'
पीरूभाई ने फिर म्यूज़िक डायरेक्टर को इशारा किया और आर्केस्ट्रा भनभना उठा। ले जाएगे ले जाएगे, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे'
ग़ालिब गड़बड़ा गए। 'क्या आजकल शादी के मौके पर ऐसे गीत गाए जाते हैं?'
पीरूभाई बोले, 'मियाँ, गीत तो छोड़ो, बारात में दूल्हे का बाप और जो कोई भी घर का बड़ा बूढ़ा ज़िंदा हो, वह तक सड़क पर वह डांस दिखाता है कि अच्छे-अच्छे कत्थक कान पर हाथ लगा लें। अरे मर्दों की छोड़ो दूल्हे की दो मनी अम्मा भी सड़क पर ऐसे नाचती है जैसे रीछ। देखो नमूना।'
और मिर्ज़ा को आधुनिक भारतीय विवाह उत्सव का दृश्य दिखलाया गया, जिसमें दूल्हे के अब्बा–अम्मी दादा–दादी बिला वजह और बेताले होकर कूल्हे मटका-मटकाकर उलटी सीधी धमाचौकड़ी करने लगे।

मिर्ज़ा बोले, 'ऐसा नाच तो हमने सन सत्तावन के गदर से पहले बल्लीमारान के धोबियों की बारात में देखा था।'
पीरूभाई दारूवाला खिसियाकर बोले, 'ऐसी की तैसी में गए बल्लीमारान के धोबी मियाँ। आजकल तो घर-घर में यह डिस्को फलफूल रहा है। तभी मुस्कराते हुए मानिक भाई ने कहा, 'अरे, ज़रा पुरानी चाल की चीज़ भी सुनाओ।'
अबकी बार हीरोइन ने लहंगा फरिया पहन कर विशुद्ध उत्तर परदेशिया लोकनृत्य शैली की झलक दिखलाई और वैसे ही हाव–भाव करने लगी। तभी माइक पर किरनबेन गाने लगीं, झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में गीत ख़त्म होते ही मानिक भाई बोले, इसे कहते हैं लिरिक और म्यूज़िक का ब्लेंडिंग। इसके मुकाबले में लिखो तो जानें। बेमानी बक–बक में क्या रखा है।'
यह सुनकर ग़ालिब का चेहरा लाल हो गया। सहसा वे बांगो–पांगो और उसके बगल में बैठे ढोल वाले से ज़ोर से बोले—
तू ढोल बजा भई ढोल बजा।
यह महफ़िल नामाक़ूलों की।
लाहौल विला, लाहौल विला।

उनकी इस लिरिक की चाल को बांगो वाले ने फौरन ही बाँध लिया और उधर आर्केस्ट्रा भी गनगना उठा। मानिक जी भाई और पीरू भाई की बाँछें खिल गईं और वे सब मग्न होकर बक़ौल ग़ालिब 'धोबिया–नृत्य' करने लगे। और जब उनकी संगीत तंद्रा टूटी तो मानिक भाई बोले, वाह, वाह क्या बात पैदा की है ग़ालिब भाई।
पर तब तक ग़ालिब कुकुरमुत्ता हो और स्टूडियो से रफूचक्कर हो कर बहिश्त एअर लाइन की रिटर्न फ्लाइट का टिकट लेकर अपनी सीट पर बैठे बुदबुदा रहे थे —

न सत्ताईस की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही।

सच कहूँ तो इस व्यंग्य को पढने के बाद हीं मुझे मालूम हुआ कि "माननीय जोश मलीहाबादी" ने भी चालू किस्म के गाने लिखे थे.. मैं जोश साहब का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ/था, लेकिन अब समझ नहीं आ रहा कि मैं कितना सही हूँ/था और कितना गलत!! आखिर इस बदलाव का जिम्मेदार कौन है.. परिस्थितियाँ या फिर शायरों की बदली हुई मानसिकता। आप अपने दिल पर हाथ रखके इस प्रश्न का जवाब ढूँढने की कोशिश कीजिएगा। मुझे यकीन है कि जिस दिन हमें इस प्रश्न का जवाब मिलेगा, उसी दिन हमारे साहित्य/हमारे गीत सुरक्षित हाथों में लौट आएँगे। खैर.. हमारी गज़लें तो "ग़ालिब" के हाथों में सुरक्षित हैं और इसका प्रमाण ग़ालिब के ये दो शेर हैं। मुलाहज़ा फ़रमाईयेगा:

ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया

मैंने मजनूं पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था कि सर याद आया


ग़ालिब की बातें हो गई, दो(या फिर तीन?) शेर भी हो गएँ, अब क्यों न हम ग़ालिब के हवाले से "ग़ालिब के गुरू" मीर तक़ी "मीर" को याद कर लें। "कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था" - इन पंक्तियों से ग़ालिब ने अपने गुरू को जो श्रद्धांजलि दी है, उसकी मिसाल देने में कई तहरीरें कम पड़ जाएँगी। इसलिए अच्छा होगा कि हम खुद से कुछ न कहें और "हामिद अली खां" साहब को हीं ग़ालिब की रूह उकेरने का मौका दे दें। तो पेश है "उस्ताद" की आवाज़ में "ग़ालिब" की "शिकायतों और इबादतों" से भरी यह गज़ल। हमारा दावा है कि आप इसे सुनकर भाव-विभोर हुए बिना रह न पाएँगे:

हुई ताख़ीर तो कुछ बाइसे-ताख़ीर भी था
आप आते थे, मगर कोई अनाँगीर भी था

तुम से बेजा है मुझे अपनी _____ का गिला
इसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था

तू मुझे भूल गया हो, तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़चीर भी था

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "कायल" और शेर कुछ यूँ था-

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं कायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

गज़ल से गुजरकर इस शेर को सबसे पहले पहचाना "तपन" जी ने, लेकिन पिछली बार की हीं तरह इस बार भी सही जवाब देने के बावजूद पहला प्रवेशी विजयी नहीं हो सका,क्योंकि इस महफ़िल में शेर के बिना आना अपशगुन माना जाता है :) इस वज़ह से "शरद" जी इस बार भी "शान-ए-महफ़िल" बने। शरद जी, आपने महफ़िल में ये शेर पेश किए:

हर एक चेहरे को ज़ख्मों का आईना न कहो
ये ज़िन्दगी तो है रहमत, इसे सज़ा न कहो ...
मैं वाकीयात की ज़ंजीर का नही कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो ... (राहत इन्दौरी)

सीमा जी, आपके इन शेरों के क्या कहने! नख-शिख हैं चमत्कृत बिन गहने!!

शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं (फ़िराक़ गोरखपुरी )

हम तो अब भी हैं उसी तन्हा-रवी के कायल
दोस्त बन जाते हैं कुछ लोग सफ़र में खुद ही (नोमान शौक़ )

सुमित जी, हमें खुशी है कि हम किसी न किसी तरह से आपकी ज़िदगी का हिस्सा बन गए हैं.. आपको एफ़ एम की कमी नहीं खलती और आप जैसे शुभचिंतकों के कारण हमें "इश्क-ए-बेरहम" की कमी नहीं खलती :)

मंजु जी, मेरा मन आपकी इन पंक्तियों का कायल हो गया:

जब से तुम मेरे दिल में उतरे हो ,
मेरा शहर दीवानगी का कायल हो गया .

अवनींद्र जी, आपको पढकर ऐसा नहीं लगता कि किसी नौसिखिये को पढ रहा हूँ। आपमें वह माद्दा है, जो अच्छे शायरों में नज़र आता है, बस इसे निखारिये। ये रहे आपके शेर:

मेरे महबूब मैं तेरा कायल तो बहुत था
पर अफ़सोस.., मैं तेरे काबिल ना हो सका

कौन कहता है कायल हूँ मैं मैखाने का
सूरत -ऐ -साकी ने दीवाना बना रखा है
घूमता रहता है वो शमा के इर्द गिर्द बेबस
या खुदा किस मिटटी से परवाना बना रखा है (क्या बात है.....शुभान-अल्लाह!)

शन्नो जी और नीलम जी, महफ़िल को खुशगवार बनाए रखने के लिए आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया। अपनी यह उपस्थिति इसी तरह बनाए रखिएगा।

आसमां की ऊंचाइयों के कायल हुये हैं
जमीं पर कदम जिनके पड़ते नहीं हैं. (शन्नो जी, कमाल है.. थोड़ी-सी चूक होती और मेरी नज़रों से आपका यह शेर चूक जाता..फिर मैं अफ़सोस हीं करता रह जाता.. बड़ी हीं गूढ बात कहीं है आपने)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

व्यंग तो खूब रहा, कल मनीष भाई (एक शाम मेरे नाम वाले) से मुलकात हुई ३ साल बाद. और उनका सन्देश आप तक इस माध्यम से पहुंचा रहा हूँ. "वी डी आपकी (मतलब आवाज़ की) टीम के सबसे बढ़िया लेखक हैं और उन्हें मैं पूरी शिद्दत से पढता हूँ, उन्हें मेरी तरफ से विशेष बधाई दीजियेगा"
तो लो भाई दे दी बधाई
seema gupta said…
तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
इसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था

regards
seema gupta said…
जगमगाते हुए शहरों को तबाही देगा
और क्या मुल्क को मग़रूर[1]सिपाही देगा
(मुनव्वर राना)
ज़िक्र जब होगा मुहब्बत में तबाही का कहीं
याद हम आयेंगे दुनिया को हवालों की तरह
(सुदर्शन फ़ाकिर )
ख़त्म-ए-शोर-ए-तूफ़ाँ था दूर थी सियाही भी
दम के दम में अफ़साना थी मेरी तबाही भी(: मजरूह सुल्तानपुरी »)
जो हमने दास्‍तां अपनी सुनाई आप क्‍यूं रोए
तबाही तो हमारे दिल पे आई आप क्‍यूं रोए(राजा मेहंदी अली खान »)
regards
मुझे तो अपनी तवाही की कोई फ़िक्र नहीं
यही ख्वाहिश है ये इल्ज़ाम तुम पे आए नहीं ।
(स्वरचित)
neelam said…
तू ढोल बजा भई ढोल बजा।
यह महफ़िल नामाक़ूलों की।
लाहौल विला, लाहौल विला।


shanno ji .......................vd ne ye khaas hum logon ke liye likhi hai .

aap samjh lijiye ishaara kistaraf hai .

hahahahahahahahahahahahahah

gabbar bahut khush hua .
neelam said…
तू ढोल बजा भई ढोल बजा।
यह महफ़िल नामाक़ूलों की।
लाहौल विला, लाहौल विला।


shanno ji .......................vd ne ye khaas hum logon ke liye likhi hai .

aap samjh lijiye ishaara kistaraf hai .

hahahahahahahahahahahahahah

gabbar bahut khush hua .
shanno said…
नीलम जी..उर्फ़ गब्बर साहिबा, हम भी खुस हुए की आपने आकर अपनी सकल यहाँ दिखाई...एक ही कमेन्ट से दो बार हमें खटखटाया...हम बहरे नहीं हैं.. लेकिन हमको बसंती बना कर मत जाइए...हम ये गाना तो गा सकते हैं.. '' मेरा रंग दे बसंती चोला '' ( केवल यही लाइन...आगे याद ही नहीं..ही ही ही..) लेकिन ये रामू से अब हमको बसंती क्यों बनाया जा रहा है..ये हमारी समझ के बाहर है...हमें तो नाचना नहीं आता मेरे मालिक...फिर ये ज्यादती हम पर क्यों ...ठाकुर से पूछो वो बसंती का रोल करेंगे ( हहह्ह्ह्हह) ?..... और ढोल तो ग़ालिब ने पीटी थी इससे तन्हा जी का क्या लेना-देना...वो फिर ये इलज़ाम न सह कर गाल फुला लेंगे..ढोल बजने के बाद ग़ालिब साहेब अपनी उड़ान भर के फिर से जन्नत पहुँच गए सभी को यहाँ लेथन में छोड़कर...लेकिन अब हमें तन्हा जी पर भी शक होने लगा है की जैसा उन्होंने लिखा की मेरा वो शेर उनकी निगाहों से ''चूक'' जाता... तो इस बात से हमारे कान खड़े हो गए हैं की...भला हमारे शेरों से ऐसी क्या खता हुई की तन्हा जी पढ़ते भी नहीं...हमने तो कई शेर लिखे थे वो सब नजर अंदाज़ क्यों कर दिए गए...गलती तनहा जी की है...हमारा मन खुस नहीं हुआ :) तो अब हम जाते..फिर कभी दुआ सलाम करने आ ही जायेंगे...लेकिन इस समय तबियत खिन्न हो गयी है...ग़जल सुनके आंसर तो मिल गया...' तबाही' और इस तबाही से आज हमें अपने शेरो की तबाही पर भी अफ़सोस हो रहा है...हमारे मासूम शेर..या खुदा उनकी क्या खता थी जो उनको सजा दी गयी.. :):)
Manju Gupta said…
अरे आतंकी !मत दिखा मेरे मुल्क में तबाही का मंजर ,
तेरे को खत्म करने के लिए आएगा कोई राम -कृष्ण -गाँधी बन कर .(स्वरचित )
जवाब - तबाही
neelam said…
जब से हम तबाह हो गए ,
तुम जहाँपनाह हो गए

अबकी
चोरी नहीं की है ,
सीधे डाका ही डाला है
हा हा हा ह ह ह हा हा हा
गब्बर को कोई कुछ मत कहना नहीं तो
गब्बर सबको कालिया बना देगा
shanno said…
सबको कालिया कैसे बनाओगे सरदार...क्या काला पेंट लाये हो कहीं से लूट के या काली बूट पालिश अपने जूतों वाली इस्तेमाल करोगे..यहाँ महफ़िल से सब लोग नौ दो ग्यारह हो जायेंगे...लगता है की ठाकुर अपना रास्ता भूल गए...और सुमीत जी भी बेखबर हैं...और आपका मतलब क्या है जी, क्या ये शेर भी डाका डाल के लाये हो...
avenindra said…
शायद खुशी के दिन भी आएँगे बहुत जल्द
ये तबाही के मंज़र सदा ना रहेंगे (स्वरचित )
avenindra said…
एहसास जब सीने मैं तबाह होता हैं
अश्क तेरी चाहत का गवाह होता है
तेरे इश्क को बना बैठे थे हम इबादत
ए खुदा क्या सजदा भी गुनाह होता है
(स्वरचित )
ढोल बाज़ा सब बज रहे हैं और सरदार खुद बजा रहे हैं , वा जी वाह अब सरदार कही बसंती को खुश करने के लिए कोई हसीना जब रूठ जाती है तो .............वाला गीत तो नहीं गाने वाले !पर ज़रा बसंती का करेकटर नज़र नहीं आ रहा !वेसे बसंती बोलती बहुत थी और उसका बोलना अच्छा भी लगता था !आकर अपना नाम बताओ बसंती !प्लीस !!!
basanti said…
ठाकुर साहब खैर मनाओ ,तुम सब मौसी आ गयी है
sumit said…
तबाही शब्द से मुझे तो रफी साहब की गजल का एक शे'र याद आ रहा है

जिक्र होगा मुहब्बत मे तबाही का कभी,
याद हम आंएगे दुनिया को हवालो की तरह

फकसफे इश्क मे पेश आये सवालो की तरह,
हम परेशां ही रहे अपने ख्यालो की तरह
sumit said…
तबाही शब्द से मुझे तो रफी साहब की गजल का एक शे'र याद आ रहा है

जिक्र होगा मुहब्बत मे तबाही का कभी,
याद हम आंएगे दुनिया को हवालो की तरह

फकसफे इश्क मे पेश आये सवालो की तरह,
हम परेशां ही रहे अपने ख्यालो की तरह
shanno said…
सबको हमारा आदाब,...क्या मिजाज हैं आप सबके ? और..बसंती मौसी को भी राम राम( ही ही ही)....ठाकुर साहेब,.. हा हा हा हहह्ह्ह्ह... आप क्या समझते हैं की आप हम सबको इतनी आसानी से बेवकूफ बना सकते हैं...हम तो १००% श्योर हैं की ये बसंती जी और कोई नहीं आपकी चाल है....आपने ही बसंती के चोले में आकर सबको अप्रेल फूल बनाकर हैरान करने की कोशिश की...
चलो अब इसी ख़ुशी में हम आज एक अपना शेर भी लाये हैं..मुलाहिजा फरमाइए..

किसी रकीब ने भी कुछ कहा अगर तो उसे वाह-वाही मिली
हमने जो जहमत उठाई कुछ कहने की तो हमें तबाही मिली

-शन्नो

क्या किसी के पास रुमाल होगा...जरा देना तो मेहरबानी करके...तन्हा जी, एक रुमाल का बंडल क्यों नहीं अपनी महफ़िल में रखते लोगों के लिये ? कभी-कभार हम जैसे लोगों को रुमालों की जरूरत पड़ सकती है.....टप्प..टप्प...टप्प..
shanno said…
टप्प..टप्प...टप्प..( आंसू हैं...नाक नहीं )
avenindra said…
इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई """"ये पूछने वाला भी नही है यहाँ !आज तो लगता है सब लोग वीकेंड पे हैं !घालो ठाकुर ही सम्हल लेगा आज की सेट को !
महफिले ग़ज़ल मैं तबाही छाई है ऐसे
गब्बर ने होली मनाई हो जैसे
avenindra said…
वो मेरी गली से जब भी गुज़रता होगा
मोड़ पे जाके कुछ देर ठहरता होगा !!
अपने ही किए तबाह मेरे घर को देख कर
दिल मे उसके कुछ टूट के बिखरता होगा !!
स्वरचित
कोई नही लिख रहा बहुत दीनो से ये मेरा शेर शोले की पूरी यूनिट की तरफ से महफ़िल को समर्पित है !
ठाकुर
shanno said…
अविन्द्र जी, मेरा मतलब है की ठाकुर साहेब..आपका बहुत स्वागत है...यह मेहरबानी है आपकी की यह महफ़िल आपको अच्छी लगती है..दुआ करती हूँ की आपका यहाँ आना-जाना यूँ ही बराबर बना रहे..और आपके शेर.. माशा अल्लाह..क्या कहना...हम पढ़ते हैं तो हमारा मुंह तो खुला का खुला ही रह जाता है..और तनहा जी का मन तो बाग़-बाग़ हो जाता है आप सभी लोगों के शेर पढ़कर..और हम तो बस खिंचे चले आते हैं इस महफ़िल में कभी अपने सरदार को ढूँढने तो कभी आप सबके शेर और शायरी का लुत्फ़ उठाने.. आजकल हमारी सरदार गब्बर साहिबा..नीलम जी कहीं उलझी होंगी..आप फिकर ना करें..वो भी जल्दी ही आने वाली होंगी..और साथ में असिस्टेंट सुमित जी भी..फिर आप भी तो ' शोले ' के एक हिस्से हैं..एक किरदार.. और शोले की शूटिंग की चिंगारी तो जब भड़कती है...जब हमारी गब्बर साहिबा तशरीफ़ लाती हैं..वर्ना राख को छेड़ने वाला कौन यहाँ जो शोला बने..समझ गये होंगे आप की उन्हीं का इंतजार हम भी कर रहे हैं..की कब वो आयें और ये महफ़िल और गुलज़ार हो..

ये लीजिये आपका आना तो एक शगुन हो गया महफ़िल के लिये..बात करते-करते लीजिये हमारी भी कलम से एक...नहीं, नहीं दो शेर लिख गये, हाँ जी, तो हुजूर आप सभी लोग इन्हें भी सुनते जाइये :
१.
कभी अधिक तो कभी कम चलता है हरदम
फिर भी मचती तबाही और सब तरफ गम.
२.
खुश नसीब हैं लोग महफ़िल-ए-रंगतों से
तबाही में जी रहा कोई किसी की लतों से .

-शन्नो

अब जाने का भी टाइम हो गया तो..खुदा हाफ़िज़.
neelam said…
गब्बर सब पर नज़र रख्खे है और देख रहा है की ठाकुर साहब धीरे धीरे आगे की सीट पर जाने वाले हैं अच्छे बच्चों की तरह ,शन्नो जी भी लिख ही रही हैं ,सुमित तो अच्छा बच्चा है ही आखिर में अकेला गब्बर ही रह जाएगा ,तबाही मचाने के लिए क्यूंकि गब्बर को तो सायरी आती नहीं ,ठाकुर साहब बसंती ने आपके लिए मौसी का पैगाम भेजा है आपको मिला न .........................
गब्बर बहुत खुश हुआ ..............................

तबाही किस पर और क्यों ,
वो अपने ही तो थे गैर क्योँ

पता नहीं बहर ,काफिया तो समझ नहीं आता,पर गब्बर आज उदास है गब्बर को सायरी लिखना सिखाओ ..............................नहीं तो रामगढ वालों तुम्हारिखैर नहीं .
shanno said…
गब्बर साहिबा, आप उदास तो हम उदास..हमको कौन सा लिखना आता है..मेरा मतलब है शेर लिखने से..हमें तो मतलब तक नहीं पता की ये काफिया और बहर क्या चीज़ हैं..फिर भी हम बेफिक्री से लिख देते हैं जो मन में आया तुरंत ही बिना परवाह किये हुये. अगर तनहा जी ने ठीक समझा तो ठीक..नाराज हुये तो हमारा पत्ता साफ़ कर देंगे कहने का मतलब है की हमें यहाँ से आउट कर देंगे..और हम क्या कर सकते हैं. जब तक यहाँ आना-जाना है सही...वर्ना किसी पर जोर तो नहीं. हमारे शेरों का जो इंतकाम होगा वो देखा जायेगा बाद को...आप अपनी तशरीफ़ जरा जल्दी-जल्दी लाया करें..ठाकुर हमको धमकी देके गये हैं. :)
avenindra said…
उसने अपनी तबाही मैं मुझे शामिल ना किया
क्या ये सबब कम हे मेरी तबाही के लिए !!
मेरे साकी ने मुझे छोड़ दिया पैमाने के ज़िम्मे
और शराब छोड़ दी फिर गवाही के लिए !१

माफी चाहता हू मैं कुछ ज़्यादा ही इस महफ़िल मैं घूमता हू और सबसे ज़्यादा लिख देता हू मेरा मतलब शायरी से है क्या करू आप लोग यानी तन्हा जी एक शब्द दे देते हैं और मैं दीवानो की तरह उस शब्द पे लिखने लग जाता हू मैं जानता हू मैं बहुत अच्छा नही लिखता मगर जैसा बन पड़ता है लिख देता हू ये भी जानता हू अति हर चीज़ की बुरी होती है मगर ठाकुर तो ऐसा ही है चाहे तो अच्छा लगे या बुरा मगर जिद्दी हू ! छमाचाहता हू
shanno said…
ठाकुर साहेब, कैसी बातें करते हैं आप...माफी किस बात की..अरे, आप लोगों के लिए यहाँ आना मना नहीं है..बल्कि जितनी बार आयेंगे हमारे तन्हा जी को और हम सबको बहुत ख़ुशी मिलेगी..बशर्ते आप, जैसा आपने अभी कहा है, एक पागल की तरह..मेरा मतलब है दीवाने की तरह अपने शेर लिख के लाते रहें..और अपना शौक पूरा करें..शेरों का ढेर लगाते रहें यहाँ..नो प्राब्लम :) आप खुश..तन्हा जी खुश..हमें भी ख़ुशी मिलेगी..ये आप सबकी महफ़िल ही तो है..सो वरी नाट :) मैं तो समझती हूँ की मैं ही यहाँ अधिक चक्कर लगाती हूँ..तो अब आप बताइए की क्या मुझे यहाँ आने की किसी की तरफ से मनाही है..ना ..ना..ना..बिलकुल नहीं...भई, अब तक तो हम सेफ हैं और यही समझते आ रहे हैं...आगे जो होगा वो देखा जाएगा..आप व और सभी लोग यहाँ आने की जितनी बार तकलीफ करेंगे उतनी ही यहाँ रौनक रहेगी..वर्ना हम भी अपना शौक पूरा ना कर पायेंगे...लिखने या अपने शेरों के बारे में सबकी राय जानने से हम रह जायेंगे...अब आप अपना काम्प्लेक्स दूर कीजिये.. :)

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