महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७१
होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शायर तो वो अच्छा है प' बदनाम बहुत है।
इस शेर को पढने के बाद आप समझ हीं गए होंगे कि आज की महफ़िल किसकी शान में सजी है। आज से बस दो दिन पहले यानि कि १५ फरवरी को इस महान शायर की मौत की १४१वीं बरसी थी। संयोग देखिए कि उससे महज़ दो दिन पहले यानि कि १३ फरवरी को इस शायर के सच्चे और एकमात्र उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फ़ैज़ की भी बरसी थी.. फ़र्क बस इतना था कि फ़ैज़ ने १३ फ़रवरी को जन्म लिया था तो १५ फ़रवरी को ग़ालिब ने अपनी अंतिम साँसें ली थीं। आज हमारे बीच फ़ैज़ भी नहीं हैं। इसलिए हम आज अपनी महफ़िल की ओर से इन दोनों महान शायरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
आपने शायद यह गौर किया हो कि हमारी महफ़िल में आज से पहले फ़ैज़ की चार गज़लें/नज़्में शामिल हो चुकी हैं, लेकिन हमने आज तक ग़ालिब की एक भी गज़ल महफ़िल में पेश नहीं की है। अब यह तो हो हीं नहीं सकता कि कोई महफ़िल सजे, सजती रहे और सजते-सजते सत्तर रातें गुजर जाएँ लेकिन उस महफ़िल में उस शायर का नाम न लिया जाए जिसके बिना महफ़िल क्या, शायरी की छोटी-सी गुफ़्तगू भी अधूरी है। और फिर अगर ऐसा हमारी महफ़िल में हो जाए तब तो जरूर हीं कुछ पोशीदा है, जरूर हीं कुछ ऐसा है जिसने अब तक हमें इस सिम्त बढने से रोके रखा था। कुछ न कुछ खास कारण तो जरूर है। तो लीजिए हम हीं वो कारण, वह सबब, वह मंसूबा बताए देते हैं। जैसा कि हमने बातों हीं बातों में पिछली किसी कड़ी में यह बात छेड़ी थी कि कुछ हीं दिनों में हम ग़ालिब पर एक अंक नहीं, बल्कि अंकों की एक श्रृंखला लेकर हाज़िर होने वाले हैं, तो वायदे के अनुसार आज से लेकर अगली नौ कड़ियों तक हमारी महफ़िलें ग़ालिब के नाम से रोशन होती रहेंगी। और बस यही एक वज़ह थी कि हमने अभी तक ग़ालिब को छुपाकर रखा हुआ था.. हम यह नहीं चाहते थे कि पाठकों के प्यासे दिलों पर ग़ालिब फुहार बनकर गिरें और गायब हो जाएँ, बल्कि हमारी यह मंशा थी कि ग़ालिब जब भी आएँ तो यूँकर बरसें कि बारिश सदियों तक खत्म हीं न हों। तो चलिए हम बारिश की शुरूआत करते हैं........
ग़ालिब के बारे में कुछ भी कहने के लिए गुलज़ार साहब से बेहतर और कौन हो सकता है। गुलज़ार साहब अपनी तामीर की हुई "मिर्ज़ा ग़ालिब" में ग़ालिब का परिचय कुछ इस कदर देते हैं:
गली क़ासिम जान ...
सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा, लेकिन उफ़्क़ पर थोङी सी लाली। यह क़िस्सा दिल्ली का, सन १८६७ ईसवी, दिल्ली की तारीख़ी इमारतें। पराने खण्डहरात। सर्दियों की धुंध - कोहरा - ख़ानदान - तैमूरिया की निशानी लाल क़िला - हुमायूँ का मकबरा - जामा मस्जिद।
एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान - एक मेहराब का टूटा सा कोना -
दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे। डेवढी पर बँधी एक बकरी - धुंधलके से झाँकते एक मस्जिद के नकूश। पान वाले की बंद दुकान के पास दिवारों पर पान की पीक के छींटे। यही वह गली थी जहाँ ग़ालिब की रिहाइश थी। उन्हीं तसवीरों पर एक आवाज़ उभरती है -
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कङ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा
दरवाज़ों पे लटके हुए बोसिदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोङ के चलते हैं यहाँ
चूङी वालान के कङे की बङी बी जैसे
अपनी बुझती हुई सी आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अँधेरी सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ॊं की शुरू होती है
असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब का पता मिलता है।
ग़ालिब के बारे में जितना और जिस तरह का गुलज़ार साहब ने लिखा और कहा है, उतना कभी किसी और के मुँह से सुनने को नहीं मिला। गुलज़ार साहब ग़ालिब के साथ एक अलग तरह का रिश्ता रखते हैं। यही वज़ह है कि ग़ालिब पर सीरियल बनाने की बस उन्हें हीं सूझी। दूसरे लोग ऐसी हिम्मत और ऐसी हिमाकत करने से कतराते रहे और आज तक कतरा रहे हैं। इस बारे में गुलज़ार साहब का कहना है:
हम भी आप से यही पूछते हैं कि किसने किसकी ज़िंदगी बनाई। वैसे हमारा तो यह मानना है कि दोनों ने हम सबकी ज़िंदगी बना दी है। क्या कहते हैं आप?
चलिए अब ग़ालिब का एक संक्षिप्त परिचय दिए देते हैं। अह्ह्हा. ये क्या, किसी ने हमसे पहले हीं "आवाज़" के इस मंच पर ग़ालिब का परिचय दे रखा है। यकीन नहीं होता तो यहाँ जाईये। परिचय देखकर आपने जान हीं लिया होगा कि आख़िर ग़ालिब कौन-सी बला थे। अगर अब भी मन मे कोई शक़-ओ-शुबह हो तो इन शेरों पर नज़र दौड़ा लीजिए... खुद-ब-खुद जान जाएँगे:
ग़ालिबे ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोईए ज़ार ज़ार क्या, कीजिए हाए हाए क्यों
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता
अभी तो ग़ालिब के बारे में बात करने को ९ कड़ियाँ पड़ी हैं। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि ग़ालिब से जुड़ी कोई भी बात नहीं छूटेगी। आपको ग़ालिब की गज़लों से सराबोर न कर दिया तो कहियेगा। जब गज़ल की बात आ हीं गई है तो क्यों न आज की गज़ल से रूबरू हो लिया जाए। आज की गज़ल को अपनी आवाज़ से सजाया है उस्ताद असद अमानत अली खान साहब ने। हमने आपको इनके अब्बाजान की गाई हुई गज़ल "इंशा जी उठो" सुनवाई थी और उस गज़ल से जुड़ी कुछ कहानियों का भी ज़िक्र किया था। हमने उस दौरान "असद" साह्ब की भी कुछ बातें की थीं। अगर याद न हो तो एक बार वहाँ से हो आएँ। आज चूँकि हम ग़ालिब की गलियों में हीं खोए रह गए, इसलिए असद साहब का ध्यान हीं नहीं रहा। खैर कोई बात नहीं.. आज नहीं तो अगली बार सही। बात नहीं हुई तो क्या हुआ, हम इनकी मीठी आवाज़ का मज़ा तो ले हीं सकते हैं। वैसे मीठी आवाज़ में दर्द भरी गज़ल सुनने का लुत्फ़ कैसा होता है, यह कहने की ज़रूरत नहीं.. आप खुद दर्द के शौकीन हैं.. आप से क्या कहना! :
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जानां
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये _____ कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "तस्वीर" और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं -
ऐ ’हश्र’ देखना तो ये है चौदहवीं का चाँद,
या आसमां के हाथ में तस्वीर यार की।
पिछली महफ़िल में गैर-मौजूदगी के बाद सीमा जी इस बार सही समय पर आई, मतलब कि महफ़िल की शुरूआत में हीं। अब आ गई हैं तो आगे से गायब मत होईयेगा। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:
दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़.
हो आयें चलिए मीर तकी मीर की तरफ़. (ज़ैदी जाफ़र रज़ा )
तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती
एक ख़्वाब सा देखा है ताबीर नहीं बनती (ख़ुमार बाराबंकवी )
जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते (गुलज़ार )
शरद जी, कहते हैं ना कि "जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं".. उसी तरह जो बात आपके लिखे हुए शेर में होती है, वो और कहाँ! यह रहे आपके दो स्वरचित शेर और वो भी अलग-अलग अंदाज़ में:
मिली तस्वीर इक दिन बाप की जो उस के बेटे को
तो बोला ’आप भी डैडी कभी क्या खूब लगते थे’ ।
शीशा-ए-दिल में छुप है ओ सितमगर तेरा प्यार
जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली तस्वीर-ए-यार ।
शन्नो जी, आपके आने से महफ़िल में एक जान-सी आ गई है। बस आप नीलम जी को भी खोज कर ले आएँ तो बात बने। यह रहा आपका लिखा हुआ शेर:
जब-जब शीशा-ए-दिल में एक तस्वीर सी उभरती है
पत्थरों का अहसास भी तभी आ जाता है ख्याल में.
मंजु जी, आपमें यह खासियत है कि हम चाहे कैसा भी शब्द दे दें, आप हर बार अपने हीं लिखे शेर के साथ हाज़िर होती हैं। हमें पसंद है आपकी यह अदा:
ख्यालों के रंगों से रंगी तस्वीर तेरी ,
बेकरारी से मिलन का इंतजार बाकी है .
अवनींद्र साहब, तो आप जान गए ना कि हमारी महफ़िल की शोभा बनने के लिए क्या करना होता है। बस आप सही शब्द की पहचान करें और उस शब्द पर शेर कह दें। आपके पेश किए हुए सारे शेर कमाल के हैं, किन्हीं को भी छोड़ने का मन नहीं कर रहा:
ज़रा-सी देर में जल के राख हो गया,
तेरी तस्वीर को कलेज़े से लगाकर देखा (शायर ? )
मेरे सामने ही कर दिए मेरी तस्वीर के टुकड़े
मेरे बाद उन्ही टुकड़ों को जोड़ कर रोई (अज्ञात)
ग़मों का शोर उठा है या तसव्वुर कि शाम आई
याद जब भी तेरी आई लेके अश्के -जाम आई
तेरे सामने जब भी बैठकर रोना चाहा
तेरी कसम तेरी तस्वीर बहुत काम आई (स्वरचित) वाह! क्या बात है!
सुमित जी, आपने नया शेर तो पेश किया, लेकिन यह नहीं बताया कि इसके शायर कौन हैं। यह रहा वो शेर:
मेरी तस्वीर में रंग किसी और का तो नहीं,
घेर लेते हैं मुझे सब, मैं तमाशा तो नहीं?
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शायर तो वो अच्छा है प' बदनाम बहुत है।
इस शेर को पढने के बाद आप समझ हीं गए होंगे कि आज की महफ़िल किसकी शान में सजी है। आज से बस दो दिन पहले यानि कि १५ फरवरी को इस महान शायर की मौत की १४१वीं बरसी थी। संयोग देखिए कि उससे महज़ दो दिन पहले यानि कि १३ फरवरी को इस शायर के सच्चे और एकमात्र उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फ़ैज़ की भी बरसी थी.. फ़र्क बस इतना था कि फ़ैज़ ने १३ फ़रवरी को जन्म लिया था तो १५ फ़रवरी को ग़ालिब ने अपनी अंतिम साँसें ली थीं। आज हमारे बीच फ़ैज़ भी नहीं हैं। इसलिए हम आज अपनी महफ़िल की ओर से इन दोनों महान शायरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
आपने शायद यह गौर किया हो कि हमारी महफ़िल में आज से पहले फ़ैज़ की चार गज़लें/नज़्में शामिल हो चुकी हैं, लेकिन हमने आज तक ग़ालिब की एक भी गज़ल महफ़िल में पेश नहीं की है। अब यह तो हो हीं नहीं सकता कि कोई महफ़िल सजे, सजती रहे और सजते-सजते सत्तर रातें गुजर जाएँ लेकिन उस महफ़िल में उस शायर का नाम न लिया जाए जिसके बिना महफ़िल क्या, शायरी की छोटी-सी गुफ़्तगू भी अधूरी है। और फिर अगर ऐसा हमारी महफ़िल में हो जाए तब तो जरूर हीं कुछ पोशीदा है, जरूर हीं कुछ ऐसा है जिसने अब तक हमें इस सिम्त बढने से रोके रखा था। कुछ न कुछ खास कारण तो जरूर है। तो लीजिए हम हीं वो कारण, वह सबब, वह मंसूबा बताए देते हैं। जैसा कि हमने बातों हीं बातों में पिछली किसी कड़ी में यह बात छेड़ी थी कि कुछ हीं दिनों में हम ग़ालिब पर एक अंक नहीं, बल्कि अंकों की एक श्रृंखला लेकर हाज़िर होने वाले हैं, तो वायदे के अनुसार आज से लेकर अगली नौ कड़ियों तक हमारी महफ़िलें ग़ालिब के नाम से रोशन होती रहेंगी। और बस यही एक वज़ह थी कि हमने अभी तक ग़ालिब को छुपाकर रखा हुआ था.. हम यह नहीं चाहते थे कि पाठकों के प्यासे दिलों पर ग़ालिब फुहार बनकर गिरें और गायब हो जाएँ, बल्कि हमारी यह मंशा थी कि ग़ालिब जब भी आएँ तो यूँकर बरसें कि बारिश सदियों तक खत्म हीं न हों। तो चलिए हम बारिश की शुरूआत करते हैं........
ग़ालिब के बारे में कुछ भी कहने के लिए गुलज़ार साहब से बेहतर और कौन हो सकता है। गुलज़ार साहब अपनी तामीर की हुई "मिर्ज़ा ग़ालिब" में ग़ालिब का परिचय कुछ इस कदर देते हैं:
गली क़ासिम जान ...
सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा, लेकिन उफ़्क़ पर थोङी सी लाली। यह क़िस्सा दिल्ली का, सन १८६७ ईसवी, दिल्ली की तारीख़ी इमारतें। पराने खण्डहरात। सर्दियों की धुंध - कोहरा - ख़ानदान - तैमूरिया की निशानी लाल क़िला - हुमायूँ का मकबरा - जामा मस्जिद।
एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान - एक मेहराब का टूटा सा कोना -
दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे। डेवढी पर बँधी एक बकरी - धुंधलके से झाँकते एक मस्जिद के नकूश। पान वाले की बंद दुकान के पास दिवारों पर पान की पीक के छींटे। यही वह गली थी जहाँ ग़ालिब की रिहाइश थी। उन्हीं तसवीरों पर एक आवाज़ उभरती है -
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कङ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा
दरवाज़ों पे लटके हुए बोसिदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोङ के चलते हैं यहाँ
चूङी वालान के कङे की बङी बी जैसे
अपनी बुझती हुई सी आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अँधेरी सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ॊं की शुरू होती है
असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब का पता मिलता है।
ग़ालिब के बारे में जितना और जिस तरह का गुलज़ार साहब ने लिखा और कहा है, उतना कभी किसी और के मुँह से सुनने को नहीं मिला। गुलज़ार साहब ग़ालिब के साथ एक अलग तरह का रिश्ता रखते हैं। यही वज़ह है कि ग़ालिब पर सीरियल बनाने की बस उन्हें हीं सूझी। दूसरे लोग ऐसी हिम्मत और ऐसी हिमाकत करने से कतराते रहे और आज तक कतरा रहे हैं। इस बारे में गुलज़ार साहब का कहना है:
ग़ालिब पर किसी तहक़ीक़ का दावा नहीं मुझे, हाँ ग़ालिब के साथ एक लगाव का दावा ज़रूर करता हूँ।
स्कूल में मौलवी मुजीबुर्रहमान से उर्दू पढी और उन्हीं की बदौलत ग़ालिब, ज़ौक़, ज़फ़र, मोमिन , नासिख़ और दूसरे शोरा से तारूफ़ हुआ। बड़े-बड़े शायर और बड़ी-बड़ी शख्सियतें, उनकी स्वानही उमरी भी पढीं। लेकिन ग़ालिब की स्वानही उमरी पढते हुए, एक अजीब-ओ-ग़रीब अपनेपन का एहसास होता था। शायद इसीलिए हमारे मौलवी साहब भी उन्हें "चचा ग़ालिब" कहकर ख़ताब करते थे। ऐसा कोई ख़ताब किसी और शायर के नाम के साथ कभी नहीं लगाया था। ऐसा होता है, कुछ बड़ी-बड़ी शख़्सियतों से आप रोब खा जाते हैं, कुछ से डरते हैं और कुछ बुजुर्ग ऐसे भी होते हैं जो बुजुर्ग कम और दोस्त ज़्यादा लगते हैं। मौलवी साहब जब-जब ग़ालिब पढाते थे तो ग़ालिब पढते हुए इसी तरह का एहसास होता था।
मैं अक्सर कहा करता हूँ कि ग़ालिब के तीन मुलाज़िम थे, जो हमेशा उनके साथ रहे। एक कल्लू थे, जो आख़िर दम तक उनके साथ रहा, दूसरी वफ़ादार थीं, जो तुतलाती थीं और तीसरा मैं था। वे दोनों तो अपनी उम्र के साथ रेहाई पा गए , मैं अभी तक मुलाज़िम हूँ।
ग़ालिब की शख़्सियत में एक ज़मीन से जुड़ा हुआ मिज़ाज मिलता है.. एक आम इंसान का, जो बड़ी आसानी से ग़ालिब से आइडेंडिफ़ाई करा देता है। ग़ालिब का उधार लेना, उधार न चुका सकने के लिए पुरमज़ह बहाने तलाशना, फिर अपनी ख़फ़्त का इज़हार करना, जज़बाती तौर पर मुझे ग़ालिब के क़रीब ले जाता है। काश मेरी हैसियत होती और मैं ग़ालिब के सारे कर्ज़ चुका देता। अब हाल यह है कि मैं और मेरी नस्ल उसकी कर्ज़दार है।
’चचा ग़ालिब’ कहते हैं तो लगता है, महसूस किया है। सिर्फ़ सोचकर नहीं कह दिया। ज़िंदगी के हर मौके के लिए क़ोटेशन मुहैया कर देते हैं। ग़ालिब की शख़्सियत में मुझे कोई बात ओढी हुई नहीं लगती। शायद इसीलिए ग़ालिब की शख़्सियत इतना मुत्तास्सर करती है और ग्यारह बरस में जो भी मवाद जमा हुआ मेरे पास उससे मैंने ग़ालिब की ज़िंदगी पर एक सीरियल बनाया।
अब आप हीं बताएँ, मैंने ग़ालिब की ’ज़िंदगी बनाई’ या ग़ालिब ने मेरी ज़िंदगी बना दी।
हम भी आप से यही पूछते हैं कि किसने किसकी ज़िंदगी बनाई। वैसे हमारा तो यह मानना है कि दोनों ने हम सबकी ज़िंदगी बना दी है। क्या कहते हैं आप?
चलिए अब ग़ालिब का एक संक्षिप्त परिचय दिए देते हैं। अह्ह्हा. ये क्या, किसी ने हमसे पहले हीं "आवाज़" के इस मंच पर ग़ालिब का परिचय दे रखा है। यकीन नहीं होता तो यहाँ जाईये। परिचय देखकर आपने जान हीं लिया होगा कि आख़िर ग़ालिब कौन-सी बला थे। अगर अब भी मन मे कोई शक़-ओ-शुबह हो तो इन शेरों पर नज़र दौड़ा लीजिए... खुद-ब-खुद जान जाएँगे:
ग़ालिबे ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोईए ज़ार ज़ार क्या, कीजिए हाए हाए क्यों
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता
अभी तो ग़ालिब के बारे में बात करने को ९ कड़ियाँ पड़ी हैं। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि ग़ालिब से जुड़ी कोई भी बात नहीं छूटेगी। आपको ग़ालिब की गज़लों से सराबोर न कर दिया तो कहियेगा। जब गज़ल की बात आ हीं गई है तो क्यों न आज की गज़ल से रूबरू हो लिया जाए। आज की गज़ल को अपनी आवाज़ से सजाया है उस्ताद असद अमानत अली खान साहब ने। हमने आपको इनके अब्बाजान की गाई हुई गज़ल "इंशा जी उठो" सुनवाई थी और उस गज़ल से जुड़ी कुछ कहानियों का भी ज़िक्र किया था। हमने उस दौरान "असद" साह्ब की भी कुछ बातें की थीं। अगर याद न हो तो एक बार वहाँ से हो आएँ। आज चूँकि हम ग़ालिब की गलियों में हीं खोए रह गए, इसलिए असद साहब का ध्यान हीं नहीं रहा। खैर कोई बात नहीं.. आज नहीं तो अगली बार सही। बात नहीं हुई तो क्या हुआ, हम इनकी मीठी आवाज़ का मज़ा तो ले हीं सकते हैं। वैसे मीठी आवाज़ में दर्द भरी गज़ल सुनने का लुत्फ़ कैसा होता है, यह कहने की ज़रूरत नहीं.. आप खुद दर्द के शौकीन हैं.. आप से क्या कहना! :
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जानां
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये _____ कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "तस्वीर" और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं -
ऐ ’हश्र’ देखना तो ये है चौदहवीं का चाँद,
या आसमां के हाथ में तस्वीर यार की।
पिछली महफ़िल में गैर-मौजूदगी के बाद सीमा जी इस बार सही समय पर आई, मतलब कि महफ़िल की शुरूआत में हीं। अब आ गई हैं तो आगे से गायब मत होईयेगा। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:
दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़.
हो आयें चलिए मीर तकी मीर की तरफ़. (ज़ैदी जाफ़र रज़ा )
तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती
एक ख़्वाब सा देखा है ताबीर नहीं बनती (ख़ुमार बाराबंकवी )
जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते (गुलज़ार )
शरद जी, कहते हैं ना कि "जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं".. उसी तरह जो बात आपके लिखे हुए शेर में होती है, वो और कहाँ! यह रहे आपके दो स्वरचित शेर और वो भी अलग-अलग अंदाज़ में:
मिली तस्वीर इक दिन बाप की जो उस के बेटे को
तो बोला ’आप भी डैडी कभी क्या खूब लगते थे’ ।
शीशा-ए-दिल में छुप है ओ सितमगर तेरा प्यार
जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली तस्वीर-ए-यार ।
शन्नो जी, आपके आने से महफ़िल में एक जान-सी आ गई है। बस आप नीलम जी को भी खोज कर ले आएँ तो बात बने। यह रहा आपका लिखा हुआ शेर:
जब-जब शीशा-ए-दिल में एक तस्वीर सी उभरती है
पत्थरों का अहसास भी तभी आ जाता है ख्याल में.
मंजु जी, आपमें यह खासियत है कि हम चाहे कैसा भी शब्द दे दें, आप हर बार अपने हीं लिखे शेर के साथ हाज़िर होती हैं। हमें पसंद है आपकी यह अदा:
ख्यालों के रंगों से रंगी तस्वीर तेरी ,
बेकरारी से मिलन का इंतजार बाकी है .
अवनींद्र साहब, तो आप जान गए ना कि हमारी महफ़िल की शोभा बनने के लिए क्या करना होता है। बस आप सही शब्द की पहचान करें और उस शब्द पर शेर कह दें। आपके पेश किए हुए सारे शेर कमाल के हैं, किन्हीं को भी छोड़ने का मन नहीं कर रहा:
ज़रा-सी देर में जल के राख हो गया,
तेरी तस्वीर को कलेज़े से लगाकर देखा (शायर ? )
मेरे सामने ही कर दिए मेरी तस्वीर के टुकड़े
मेरे बाद उन्ही टुकड़ों को जोड़ कर रोई (अज्ञात)
ग़मों का शोर उठा है या तसव्वुर कि शाम आई
याद जब भी तेरी आई लेके अश्के -जाम आई
तेरे सामने जब भी बैठकर रोना चाहा
तेरी कसम तेरी तस्वीर बहुत काम आई (स्वरचित) वाह! क्या बात है!
सुमित जी, आपने नया शेर तो पेश किया, लेकिन यह नहीं बताया कि इसके शायर कौन हैं। यह रहा वो शेर:
मेरी तस्वीर में रंग किसी और का तो नहीं,
घेर लेते हैं मुझे सब, मैं तमाशा तो नहीं?
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
regards
फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ायेबाना किया
(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )
कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
ख़लिश-ए-ग़्मज़ा-ए-खूँरेज़ ना पूछ
देख खुनबफ़िशानी मेरी
(ग़ालिब)
ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता
(परवीन शाकिर )
ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न ‘हो
(जाँ निसार अख़्तर )
गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आशनाई का
ज़बाँ है शुक्र में क़ासिर शिकस्ता-बाली के
कि जिनने दिल से मिटाया ख़लिश रिहाई का
(सौदा )
regards
आज क्या बे-वफ़ा ने फिर से मुझे याद किया ?
(स्वरचित)
आपकी बातों से मेरी जान में जान आ गयी. दिल घबरा रहा था...अब आपके अल्फाज़ पढ़कर तसल्ली हुई. सोचा की चलो जल्दी से एक चक्कर महफ़िल का मार लें...हालाँकि मैंने बिना कोई शेर अपने साथ लाये हुए ही एंट्री मारी है. इससे आप नाराज तो नहीं हुए मुझसे...या कोई तकलीफ तो नहीं हुयी...जरा बताने की तकलीफ करें...वर्ना डर लगेगा फिर यहाँ आते हुए. उसके बाद ही एक शेर का भी जुगाड़ करती हूँ ....जल्दी ही फुर्सत मिलने पर....इस समय तमाम काम मेरे सर पर लटके हैं. तब तक के लिए खुदा हाफिज...ठीक है? नीलम जी को भी किसी समय फुर्सत में खटखटाना है ....
वाकिफ नहीं थे हम तो तौर-ए-इश्क से
चारागर से खलिश-ए-जिगर छुपा बैठे (स्वरचित)
वाकिफ नहीं थे हम तो तौर-ए-इश्क से
चारागर से भी खलिश-ए-जिगर छुपा बैठे (स्वरचित)
pichli mehfil mei likhe sher k shayar ka naam shayad mujaffar ho..
kyuki ghazal ka makta tha...
sochte sochte dil doobne lagta hai mera, zehen ki gehrai mei 'mujaffar' koi dariya to nahi?
ab k mehfil ka shabd to khalish hai..par sher abhi yaad nahi aa raha... jaise he yaad aayega phir se mehfil mei aayenge...
tab tak k liye bye bye...
१.
खलिश तो हुई बहुत दिल को जब कोई काम नहीं आया
बाद में हमने खुद ही उस खलिश का इलाज़ कर लिया.
२.
कामूस-ए-दिल में कितने ही गिर्दाव हैं खलिश के
किसी के तरहुम से कोई तब्दीली नहीं होती फिर भी.
-शन्नो अग्रवाल
aapse deepak ji ne kahaa ki aap hme dhoondhe ,aur aapne hme bataaya hi nahi akele akele sher-o shaayri .
areey is bala (pareshaani)ko yaad to
kiyahota hm aapko khalish ,tapish sab sheron pe aapko aisi daad dete ki bas ............
deepak ke kahne se hm aa to gaye par jaa bhi rahen hain naaraj hokar ,aapne hme dhoondha kyon nahi (hm abhi bhi gussa hain shannno ji pahley manaayiye hme )
मुझे आपने इतनी इज्ज़त दी बहुत बहुत शुक्रिया आप सभी लोगों के बीच आकर मुझे बहुत अच्चा लग रहा है ! आपके प्रयास और आपकी रचनाएँ बहुत उम्दा हैं !
स्वरचित शेर है
तेरी खलिश सीने मैं इस तरह समायी है
सांस ली जब भी हमने आंख भर आई है !!
उम्मीद करता हूँ ये आपकी तवज्जो के काबिल होगा
आभार सहित
अवनींद्र मान
ये खलिश तेरी साँसों पे मेरी बिछ गयी ऐसे
कांटो के बिस्तर पे रेशम की चादर हो ( स्वरचित )
धन्यवाद
अवनींद्र मान
अब तन्हा जी को मेरा एक और शेर पढ़ने की परेशानी हो गयी...अब जो हो गया वो हो गया...
मेरे दोस्त के दिल में आज कोई खलिश सी है
लगता है कोई खता हो गयी मुझसे अनजाने में
मैं आज बहुत उदास होकर इस महफ़िल से जा रही हूँ....सबको अलविदा.
udaasi door bhagaayye nahi kah sakti "kyonki gazal ke liye dil ka udaas hona bahut
jaroori hota "
maslan
mujhe kya bura tha marna agar ek baar hotaaaaaaaaaaa.
phir milenge
नमस्ते .
खलिश का अर्थ मालूम नहीं है .कोई भी इसका अर्थ बताए .
तभी शेर मारूंगी .
चश्मे - नम औ मेरी तन्हाई की धूप तले
खिल रहे हैं तेरी खलिश के सफ़ेद गुलाब ( स्वरचित )
अवनींद्र मान
खलिश शब्द से शे'र
वो ना आये तो सताती है खलिश सी दिल को,
वो जो आ जाए तो खलिश और जवां होती है
शन्नो जी,
आप महफिल से रूठ कर क्यो जा रहे हो , अब तो नीलम जी भी आ गयी है
मंजू जी
खलिश शब्द का अर्थ शायद दर्द होता है
जान हथेली पर ले आये रे'
सुमीत जी, आप कितने अच्छे हो.....आप दुखी ना हो...देखो मैं अब आ गयी हूँ. जैसे ही मुझे पता लगा की आप मेरे शेरो को मिस करेंगे तो मैं कैसे ना आती....बस दौड़ी-दौड़ी चली आई. अब हम दोनों ही साथ-साथ शेरों को मारकर..मेरा मतलब है की लिखकर अपने-अपने तरीके से लाया करेंगे. आप अब बहुत शब्दों का अर्थ जानते हैं...इतना तो नोटिस कर ही लिया है मैंने...और आप कई शब्दों को बता कर हेल्प भी करना जानते हैं....तो फिर मेरी भी हेल्प करना कभी-कभी तो और अच्छा रहेगा. मेरे शेरों में तो दम होता ही नहीं है...फिर भी मैं लिखने से बाज़ नहीं आती. अब हम दोनों टीम बन गये है, तो हिम्मत से काम लेंगें. वैसे क्या आप वही सुमीत जी हैं जो बाल-उद्यान में पहेलियों की कक्षा में आते थे?...अगर मेरी याददाश्त सही है तो. अब तक तो मैं समझती थी की no one cares about me or my shaayri but I couldn't see you being so sad. You are so sweet...I like you. Don't worry. Cheer up now. तो अब अगली मीटिंग..मेरा मतलब है की अगली महफ़िल के दिन तक गुडबाई, सुमीत जी.
जवाब -खलिश
स्वरचित शेर हाजिर है -
तेरे आने से दिल का चमन मुस्काता है ,
तेरे जाने से दिल खलिश से मुरझाता है .
दूसरा शेर -
एक शाम आती है तेरे मिलन का इन्तजार लिए ,
वही रात जाती है विरह की खलिश दिए .
ज़रा सा फर्क है खलिश को दर्द कहने में...
कह सकते हैं...लेकिन दर्द नहीं...चुभन होता है...
दोनों में हल्का सा फर्क है...