मेरे पिया गए रंगून, किया है वहां से टेलीफून...मोबाइल क्रांति के इस युग से काफी पीछे चलते हैं इस गीत के जरिये
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 312/2010/12
'स्वरांजली' की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों हम याद कर रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन कलाकारों को जिनका इस जनवरी के महीने में जन्मदिन या स्मृति दिवस होता है। गत ५ जनवरी को संगीतकार सी. रामचन्द्र जी की पुण्यतिथि थी। आज हमारी 'स्वरांजली' उन्ही के नाम! जैसा कि हमने पहली भी कई बार उल्लेख किया है कि सी. रामचन्द्र उन पाँच संगीतकारों में शुमार पाते हैं जिन्हे फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी संगीतकार होने का दर्जा दिया गया है। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत मुख्यता शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर ही आधारित हुआ करती थी, ऐसे में सी. रामचन्द्र जी ने पाश्चात्य संगीत को कुछ इस क़दर हिंदी फ़िल्मी गीतों में इस्तेमाल किया कि वह एक ट्रेंडसेटर बन कर रह गया। यह ज़रूर है कि इससे पहले भी पाश्चात्य साज़ों का इस्तेमाल होता आया है, लेकिन गीतों को पूरा का पूरा एक वेस्टर्ण लुक सी. रामचन्द्र जी ने ही पहली बार दिया था। और देखिए, जहाँ एक तरफ़ उनके "शोला जो भड़के", "संडे के संडे", "ईना मीना डीका", "मिस्टर जॊन बाबा ख़ान" जैसे गीत हैं, वहीं दूसरी तरफ़ कोमल से कोमल शास्त्रीय अंदाज़ वाले गानें भी बेशुमार हैं जैसे कि "धीरे से आजा री अखियन में", "जाग दर्द-ए-इश्क़ जाग", "जा री जा री ओ कारी बदरिया", "तू छूपी है कहाँ मैं तरसता यहाँ" वगेरह। कहने का अर्थ यह कि उन्होने अपने आप को वर्सेटाइल बनाए रखा और किसी एक स्टाइल के साथ ही चिपके नहीं रहे। आज उन्हे श्रद्धांजली स्वरूप हमने जिस गीत को चुना है उसे सुनते ही आपके चेहरे पर मुस्कुराहट खिल जाएगी। यह है सन् १९४९ की फ़िल्म 'पतंगा' का 'ऒल टाइम फ़ेवरिट' "मेरे पिया गए रंगून, किया है वहाँ से टेलीफ़ून"।
१९४९ में एच. एस. रवैल पहली बार फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में उतरे 'वर्मा फ़िल्म्स' के बैनर तले बनी इसी फ़िल्म, यानी कि 'पतंगा' के साथ। फ़िल्म 'शहनाई' की सफलता के बाद सी. रामचन्द्र और गीतकार राजेन्द्र कृष्ण की जोड़ी जम चुकी थी। इस फ़िल्म में भी इसी जोड़ी ने गीत-संगीत का पक्ष संभाला। 'पतंगा' के मुख्य कलाकार थे श्याम और निगार सुल्ताना। याकूब और गोप, जिन्हे भारत का लौरल और हार्डी कहा जाता था, इस फ़िल्म में शानदार कॊमेडी की। 'शहनाई' की तरह इस 'रोमांटिक कॊमेडी' फ़िल्म को भी सी. रामचन्द्र ने ख़ूब अंजाम दिया। ख़ास कर आज का प्रस्तुत गीत तो जैसे एक कल्ट सॊंग् बन कर रह गया। टेलीफ़ोन पर बने गीतों का ज़िक्र इस गीत के बिना अधुरी समझी जाएगी। बल्कि युं कहें कि टेलीफ़ोन पर बनने वाला यह सब से लोकप्रिय गीत रहा है आज तक। शम्शाद बेग़म और स्वयं चितलकर का गाया हुआ यह गीत एक नया कॊन्सेप्ट था फ़िल्म संगीत के लिए (सी.रामचन्द्र को हम पहले ही क्रांतिकारी करार दे चुके हैं)। भले इस गीत को सुन कर ऐसा लगता है कि नायक और नायिका एक दूसरे से टेलीफ़ोन पर बात करे हैं, लेकिन असल में यह गीत एक स्टेज शो का हिस्सा है। उन दिनों बर्मा में काफ़ी भारतीय जाया करते थे, शायद इसीलिए रंगून शहर का इस्तेमाल हुआ है। (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का रंगून से गहरा नाता था)। आज के दौर में शायद ही रंगून का ज़िक्र किसी फ़िल्म में आता होगा। फ़िल्म 'पतंगा' के दूसरे हल्के फुल्के हास्यप्रद गीतों में शामिल है शमशाद बेग़म का गाया "गोरे गोरे मुखड़े पे गेसू जो छा गए", "दुनिया को प्यारे फूल और सितारे, मुझको बलम का नाम", शमशाद और रफ़ी का गाया डुएट "बोलो जी दिल लोगे तो क्या क्या दोगे" और "पहले तो हो गई नमस्ते नमस्ते", शमशाद और चितलकर का गाया एक और गीत "ओ दिलवालों दिल का लगाना अच्छा है पर कभी कभी"। दोस्तों, यह वह साल था जिस साल लता मंगेशकर 'महल' और 'बरसात' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर चारों तरफ़ हलचल मचा दी थी। इस फ़िल्म में उन्होने भी कुछ गीत गाए। एक गाना था शमशाद बेग़म के साथ "प्यार के जहान की निराली सरकार है", और तीन दर्द भरे एकल गीत भी गाए, जिनमें जो सब से ज़्यादा हिट हुआ था वह था "दिल से भुला दो तुम हमें, हम ना तुम्हे भुलाएँगे"। दोस्तों, आज सी. रामचन्द्र जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए हम भी यही कहते हैं कि आप ने जो संगीत हमारे लिए रख छोड़ा है, उसे हमने अभी तक कलेजे से लगाए रखा है, और आनेवाली तमाम पीढ़ियाँ भी इन्हे सहज कर रखेंगी ज़रूर! चलिए माहौल को अब थोड़ा सा हल्का करते हैं, और देहरादून से रंगून के बीच की इस बातचीत का मज़ा लेते हैं।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
अंगडाई लेकर जागी सुबह,
फिर किलकारियां गूंजी आँगन में,
उसकी पायल की झंकार सुन,
नींद से जागा है मेरा संसार....
अतिरिक्त सूत्र - इस संगीतकार की पुण्यतिथि ६ जनवरी है
पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी लौटे हैं २ अंकों के लिए बधाई, अनुराग जी बिलकुल सही कहा आपने...इंदु जी आशा है अब तबियत बेहतर होगी आपकी
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
'स्वरांजली' की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों हम याद कर रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन कलाकारों को जिनका इस जनवरी के महीने में जन्मदिन या स्मृति दिवस होता है। गत ५ जनवरी को संगीतकार सी. रामचन्द्र जी की पुण्यतिथि थी। आज हमारी 'स्वरांजली' उन्ही के नाम! जैसा कि हमने पहली भी कई बार उल्लेख किया है कि सी. रामचन्द्र उन पाँच संगीतकारों में शुमार पाते हैं जिन्हे फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी संगीतकार होने का दर्जा दिया गया है। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत मुख्यता शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर ही आधारित हुआ करती थी, ऐसे में सी. रामचन्द्र जी ने पाश्चात्य संगीत को कुछ इस क़दर हिंदी फ़िल्मी गीतों में इस्तेमाल किया कि वह एक ट्रेंडसेटर बन कर रह गया। यह ज़रूर है कि इससे पहले भी पाश्चात्य साज़ों का इस्तेमाल होता आया है, लेकिन गीतों को पूरा का पूरा एक वेस्टर्ण लुक सी. रामचन्द्र जी ने ही पहली बार दिया था। और देखिए, जहाँ एक तरफ़ उनके "शोला जो भड़के", "संडे के संडे", "ईना मीना डीका", "मिस्टर जॊन बाबा ख़ान" जैसे गीत हैं, वहीं दूसरी तरफ़ कोमल से कोमल शास्त्रीय अंदाज़ वाले गानें भी बेशुमार हैं जैसे कि "धीरे से आजा री अखियन में", "जाग दर्द-ए-इश्क़ जाग", "जा री जा री ओ कारी बदरिया", "तू छूपी है कहाँ मैं तरसता यहाँ" वगेरह। कहने का अर्थ यह कि उन्होने अपने आप को वर्सेटाइल बनाए रखा और किसी एक स्टाइल के साथ ही चिपके नहीं रहे। आज उन्हे श्रद्धांजली स्वरूप हमने जिस गीत को चुना है उसे सुनते ही आपके चेहरे पर मुस्कुराहट खिल जाएगी। यह है सन् १९४९ की फ़िल्म 'पतंगा' का 'ऒल टाइम फ़ेवरिट' "मेरे पिया गए रंगून, किया है वहाँ से टेलीफ़ून"।
१९४९ में एच. एस. रवैल पहली बार फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में उतरे 'वर्मा फ़िल्म्स' के बैनर तले बनी इसी फ़िल्म, यानी कि 'पतंगा' के साथ। फ़िल्म 'शहनाई' की सफलता के बाद सी. रामचन्द्र और गीतकार राजेन्द्र कृष्ण की जोड़ी जम चुकी थी। इस फ़िल्म में भी इसी जोड़ी ने गीत-संगीत का पक्ष संभाला। 'पतंगा' के मुख्य कलाकार थे श्याम और निगार सुल्ताना। याकूब और गोप, जिन्हे भारत का लौरल और हार्डी कहा जाता था, इस फ़िल्म में शानदार कॊमेडी की। 'शहनाई' की तरह इस 'रोमांटिक कॊमेडी' फ़िल्म को भी सी. रामचन्द्र ने ख़ूब अंजाम दिया। ख़ास कर आज का प्रस्तुत गीत तो जैसे एक कल्ट सॊंग् बन कर रह गया। टेलीफ़ोन पर बने गीतों का ज़िक्र इस गीत के बिना अधुरी समझी जाएगी। बल्कि युं कहें कि टेलीफ़ोन पर बनने वाला यह सब से लोकप्रिय गीत रहा है आज तक। शम्शाद बेग़म और स्वयं चितलकर का गाया हुआ यह गीत एक नया कॊन्सेप्ट था फ़िल्म संगीत के लिए (सी.रामचन्द्र को हम पहले ही क्रांतिकारी करार दे चुके हैं)। भले इस गीत को सुन कर ऐसा लगता है कि नायक और नायिका एक दूसरे से टेलीफ़ोन पर बात करे हैं, लेकिन असल में यह गीत एक स्टेज शो का हिस्सा है। उन दिनों बर्मा में काफ़ी भारतीय जाया करते थे, शायद इसीलिए रंगून शहर का इस्तेमाल हुआ है। (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का रंगून से गहरा नाता था)। आज के दौर में शायद ही रंगून का ज़िक्र किसी फ़िल्म में आता होगा। फ़िल्म 'पतंगा' के दूसरे हल्के फुल्के हास्यप्रद गीतों में शामिल है शमशाद बेग़म का गाया "गोरे गोरे मुखड़े पे गेसू जो छा गए", "दुनिया को प्यारे फूल और सितारे, मुझको बलम का नाम", शमशाद और रफ़ी का गाया डुएट "बोलो जी दिल लोगे तो क्या क्या दोगे" और "पहले तो हो गई नमस्ते नमस्ते", शमशाद और चितलकर का गाया एक और गीत "ओ दिलवालों दिल का लगाना अच्छा है पर कभी कभी"। दोस्तों, यह वह साल था जिस साल लता मंगेशकर 'महल' और 'बरसात' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर चारों तरफ़ हलचल मचा दी थी। इस फ़िल्म में उन्होने भी कुछ गीत गाए। एक गाना था शमशाद बेग़म के साथ "प्यार के जहान की निराली सरकार है", और तीन दर्द भरे एकल गीत भी गाए, जिनमें जो सब से ज़्यादा हिट हुआ था वह था "दिल से भुला दो तुम हमें, हम ना तुम्हे भुलाएँगे"। दोस्तों, आज सी. रामचन्द्र जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए हम भी यही कहते हैं कि आप ने जो संगीत हमारे लिए रख छोड़ा है, उसे हमने अभी तक कलेजे से लगाए रखा है, और आनेवाली तमाम पीढ़ियाँ भी इन्हे सहज कर रखेंगी ज़रूर! चलिए माहौल को अब थोड़ा सा हल्का करते हैं, और देहरादून से रंगून के बीच की इस बातचीत का मज़ा लेते हैं।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
अंगडाई लेकर जागी सुबह,
फिर किलकारियां गूंजी आँगन में,
उसकी पायल की झंकार सुन,
नींद से जागा है मेरा संसार....
अतिरिक्त सूत्र - इस संगीतकार की पुण्यतिथि ६ जनवरी है
पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी लौटे हैं २ अंकों के लिए बधाई, अनुराग जी बिलकुल सही कहा आपने...इंदु जी आशा है अब तबियत बेहतर होगी आपकी
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
film -reshma aur shera
jaidev
baal kavi bairagi
fir bhi answer galat ho to bhaiya ..apn to ye bhage ...
tabiyat ekdm achchhi hai ,apna bahut dhyan rakh rahi hun kyonki sekdo saal tk is dhrti pr rhna chahti sbka pyar pana chahti aur bahut kuchh achchha achchha karke yahan se jana chahti hun.
raj sir aaj kl kahan hai ?