महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६७
कभी-कभी यूँ होता है कि आप जिस चीज से बचना चाहो, जिस चीज से कन्नी काटना चाहो, वही चीज आपकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा हो जाती है, आपकी पहचान बन जाती है। यह ज्यादातर इश्क़ में होता है और वो भी हसीनाओं के साथ। हसीनाएँ पहले-पहल तो आपको नज़र-अंदाज करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे आप उनकी नज़र में बस जाते हैं। क्या आपने भी कभी यह महसूस किया है? किया हीं होगा... इश्क़ का यह नियम है। वैसे यहाँ पर मैं जिस कारण से इस मुद्दे को उठा रहा हूँ, उसकी जड़ में इश्क़ या हसीनाएँ नहीं हैं, बल्कि "आलस्य" है। अब आप सोचेंगे कि महफ़िल-ए-गज़ल में आलस्य की बातें.. तो जी हाँ, पिछली मर्तबा मैंने आलेख की लंबाई कम होने की वज़ह समय की कमी को बताया था, जो कि तब के लिए सच था, लेकिन वही ४५ मिनट वाला किस्सा आज फिर से दुहराया जा रहा है... और इस बार सबब कुछ और है। लेखक ने सामग्रियाँ समय पर जुटा लीं थीं, लेकिन उसी समय उसे(मुझे) आलस्य ने आ घेरा.. महसूस हुआ कि आलेख तो ४५ मिनट में भी लिखा जा सकता है और अच्छा लिखा जा सकता है, (जैसा कि सजीव जी की टिप्पणी से मालूम पड़ा) तो क्यों न सुबह उठकर हीं गज़ल की महफ़िल सजाई जाए....रात की नींद बरबाद करने का क्या फायदा। और फिर इस तरह आलस्य ने भागता फिरने वाला एक इंसान आलस्य की चपेट में आ गया। क्या कीजिएगा... ठंढ के मौसम में आलस्य का कोहरा कुछ ज्यादा हीं घना हो जाता है। है ना? लेकिन अगली मर्तबा से ऐसा न होगा... इस वादे के साथ हम आज की महफ़िल की शुरूआत करते हैं। इस महफ़िल में हम जो नज़्म लेकर हाज़िर हुए हैं, उसमें गाँव की सोंधी-सोंधी खुशबू छुपी है, शादी-ब्याह की अनगिनत यादें दर्ज हैं और सबसे बढकर एक नवविवाहिता की कोमल भावनाएँ अंकुरित हो रखी हैं। प्रेमिका/नवविवाहिता मालिन से यह गुहार कर रही है कि वह गजरा बना के ले आए, क्योंकि उसका प्रेमी/साजन उसे देखने आ रहा है। वह ऐसा गजरा पहनना चाहती है, जो उसके साजन की सुंदरता को टक्कर दे सके.... गजरे में वह ऐसी कलियाँ देखना चाहती हैं जिसका सारा चमन हीं दीवाना हो.. उन कलियों में उसके साजन के लबों की लाली हो..... वैसे इन पंक्तियों तक आते-आते इस बात का भी आभास होने लगता है कि कहीं एक प्रेमी तो नहीं मालिन से फरियाद कर रहा है। हो सकता है कि उसके मिलन की पहली रात हो और वह अपनी नूर-ए-जिगर, अपनी शरीक-ए-हयात यानि कि अपनी पत्नी के बालों में गजरा सजाना चाहता हो। यह नज़्म प्रेमिका के बजाय प्रेमी पर ज्यादा सटीक बैठती है क्योंकि कोई भी शायर किसी पुरूष के लबों की प्रशंसा नहीं करता.. आखिरकार एक पुरूष (शायर) दूसरे पुरूष की सुन्दरता पर क्योंकर टिप्पणी करे। हाँ किसी शायरा से इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि वह पुरूष के लबों की, पुरूष की सूरत की प्रशंसा में कुछ कसीदे पढ दे.. लेकिन ऐसा भी कम हीं देखने को मिलता है। आपने कहीं ऐसा पढा है कि "मेरे महबूब की सूरत चाँद से मिलती-जुलती है"... नहीं ना? अरे भाई, चाँद से नहीं तो तारा से हीं मिलती-जुलती कहने में कोई हर्ज़ है क्या....लेकिन कोई नहीं कहता। हाय रे पुरूष की सुन्दरता भी.. किसी काम की नहीं!!
हमने यह तो मान लिया कि किसी पुरूष की प्रशंसा कोई शायरा हीं कर सकती है.. नहीं तो कोई नहीं तो इस लिहाज से आज की नज़्म को किसी शायरा ने हीं लिखा होना चाहिए। और यहीं पर आकर हमारी गाड़ी रूक जाती है। अंतर्जाल पर हर जगह नगमानिगार के तौर पर "अफ़शां राणा" जी का नाम दर्ज है.. सुनने पर तो यह नाम किसी महिला का हीं लगता है लेकिन चूँकि इनका परिचय कहीं भी मौजूद नहीं, इसलिए ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। फिर भी बस यह पता करने के लिए कि इनके लिए "श्रीमान" लिखा जाए या "श्रीमति" हमने घंटों अपना समय गूगल के नाम कर दिया। अंततोगत्वा हमें मालूम चला कि अस्सी के दशक में एक संगीतकार खासे लोकप्रिय हुआ करते थे जिनका नाम था "सोहैल राणा"। सोहैल राणा ने अफ़शां राणा के साथ कई सारे कार्यक्रम दिए जो कि इनकी बीवी थीं(हैं)। अगर यहाँ उसी अफ़शां राणा की बात की जा रही है तो हम सही रास्ते पर हैं..यानि कि अफ़शां राणा किसी शायर का नहीं बल्कि एक शायरा का नाम है। हमें इस खोज पर यकीन करने के अलावा कोई और चारा नहीं दिख रहा..फिर भी अगर आपको अफ़शां के बारे में कोई और जानकारी हासिल हो तो हमें जरूर बताईयेगा.. बस नाम जान लेना हीं काफ़ी नहीं है.... सबसे अजीब बात तो यह है कि अंतर्जाल पर इनके नाम के सामने बस एक हीं नज़्म दर्ज है और वह है आज की नज़्म "गजरा बना के ले आ"। आखिर इन्होंने कुछ और भी तो लिखा होगा। अब चूँकि इनकी लिखी कोई और रचना हमें मिली नहीं, इसलिए इस बार कई महिनों के बाद अपना हीं एक शेर कहने पर मैं आमादा हो रहा हूँ। पसंद न आए तब भी दाद जरूर दीजिएगा:
मैं तुम्हारे वास्ते कुछ और हीं हो जाऊँगा,
तू एक दफ़ा निहार ले मैं आदमी हो जाऊँगा|
शायरा के बाद अब वक्त है आज की नज़्म के गायक से रूबरू होने का। आज इनके संक्षिप्त परिचय से हीं काम चला लेते हैं। कुछ हीं हफ़्तों में हम ग़ालिब की एक ग़ज़ल लेकर हाज़िर होने वाले हैं जिनमें आवाज़ "हबीब वली मोहम्मद" साहब की हीं हैं। तब इनके बारे में विस्तार से बातें करेंगे। (सौजन्य: सुखनसाज़)हबीब वली मोहम्मद (जन्म १९२१) विभाजन पूर्व के भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख लोकप्रिय ग़ज़ल गायकों में थे. कालेज के दिनों में उनके दोस्त उन्हें संगीत सम्राट तानसेन कहा करते थे. एम बी ए की डिग्री लेने के बाद वली मोहम्मद १९४७ में बम्बई जाकर व्यापार करने लगे. दस सालों बाद वे पाकिस्तान चले गए. वहीं उन्होंने बेहद सफल कारोबारी का दर्ज़ा हासिल किया. अब वे कैलिफ़ोर्निया में अपने परिवार के साथ रिटायर्ड ज़िन्दगी बिताते हैं. बहादुरशाह ज़फ़र की 'लगता नहीं है दिल मेरा' उनकी सबसे विख्यात गज़ल है. भारत में फ़रीदा ख़ानम द्वारा मशहूर की गई 'आज जाने की ज़िद न करो भी उन्होंने अपने अंदाज़ में गाई है. उस वक़्त के तमाम गायकों की तरह उनकी गायकी पर भी कुन्दनलाल सहगल की शैली का प्रभाव पड़ा. उनका एक तरह का सूफ़ियाना लहज़ा 'बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब, तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं' की लगातार याद दिलाता चलता है. हबीब साहब ज्यादातर ज़फ़र की हीं गज़लें गाते हैं। मेरे ख्याल से आज की नज़्म बड़ी हीं अनोखी है क्योंकि एक तो हबीब साहब की ऐसी कोई दूसरी नज़्म हमें सुनने को नहीं मिली और दूसरा यह कि ऐसी नज़्में आजकल बनती कहाँ है..। आप खुद हीं इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते होंगे.. । तो पेश है आज की नज़्म:
गजरा बना के ले आ मलनिया,
वो आए हैं घर में हमारे
देर न अब तू लगा।
सारा चमन हो जिनका दीवाना
ऐसी कलियाँ चुने के ला,
लाली हो जिन में उनके लबों की
उनको पिरो के ले आ,
गजरा बना के ले आ...मलनिया..
जो भी देखे उनकी ______
झुकी झुकी अंखियों से प्यार करे,
चंदा जैसा रूप है उनका
आंखों में रस है भरा,
गजरा बना के ले आ...मलनिया..
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "पयाम" और शेर कुछ यूं था -
कोई तो आए नई रूतों का पयाम लेकर,
अंधेरी रातों में चाँद बनना कोई तो सीखे।
इस शब्द की सबसे पहले सही पहचान की सीमा जी ने। आपने ये सारे शेर पेश किए जिसमें "पयाम" शब्द का इस्तेमाल हुआ था:
पयाम आये हैं उस यार-ए-बेवफ़ाके मुझे
जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे (अहमद फ़राज़)
सितारों के पयाम आये बहारों के सलाम आये
हज़ारों नामा आये शौक़ मेरे दिल के नाम आये (अली सरदार जाफ़री)
उम्र भर साथ निभाने का पयाम आया था
आपको देख के वह अहद-ए-वफ़ा याद आया (साहिर लुधियानवी)
सजीव जी और पी सिंह जी(माफ़ कीजिएगा, आपका पूरा नाम हमें मिल न सका), ग़ज़ल और ग़ज़ल पेश करने की अदा को पसंद करने के लिए आप दोनों का तहे-दिल से शुक्रिया। कभी कोई शेर भी महफ़िल में पेश करें!!!
शरद जी, बहुत खूब!! इस बार आप खुद के लिखे शेरों के साथ भले हीं नज़र नहीं आएँ, लेकिन हमें लता हया जी की गज़ल से मुखातिब करा गए... इस मेहरबानी के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यह रहा वह शेर:
सुबह का पहला पयाम उर्दू
ढ्लती हुई सी जैसे शाम उर्दू (लता हया)
नीलम जी, यह क्या कह रही हैं आप? अगर दिग्गजों की हम सोचने लगें तब तो हमारी भी बिसात खतरे में आ जाएगी। अभी हममें भी ऐसी क्षमता नहीं आई कि दिग्गजों के सामने खड़े हो सकें.. लेकिन यही तो ज़िंदगी है.. हमें इन सब की परवाह नहीं करनी चाहिए.. और वैसे भी आप अपने आपको किसी दिग्गज से कम कैसे आँक सकती हैं..ज़रा हमारी नज़रों से देखें :)
मंजु जी और रजनीश जी... आप दोनों ने महफ़िल में स्वरचित शेरों का सूखा नहीं होने दिया.. यह बड़ी हीं खुशी की बात है। ये रहे आप दोनों के शेर. क्रम से:
कभी हवाओं से ,कभी मेघदुतों से वियोग का पयाम भेजा है ,
बेखबर -रूखे महबूब !रुसवाई की भनक भी हुई क्या ?
पयाम ज़िन्दगी ने दिया हज़ार बार संभल जाने का...
पर एक दिल था हमारा कि हर बात पर मचल गया...
अवध जी, "ज़फ़र" साहब को आपने महफ़िल में पुन: जिंदा कर दिया... क्या बात है!!
पयाम ले के सबा वां अगर पहुँच जाती
तो मिस्ले-बू-ए-गुल उड़ कर खबर पहुँच जाती.
आगे की महफ़िल को अकेले संभाला शामिख जी ने। चलिए हर बार की तरह आप देर से आए, लेकिन यह कह सकते हैं कि इस बार आप दुरूस्त आए (पिछली बार की तुलना में)। यह रही आपकी पेशकश:
ये पयाम दे गई है मुझे बादे- सुबहशाही
कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही (इक़बाल)
एक रंगीन झिझक एक सादा पयाम
कैसे भूलूँ किसी का वो पहला सलाम (कैफ़ी आज़मी)
हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था (दाग दहलवी)
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई (जिगर मुरादाबादी)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
कभी-कभी यूँ होता है कि आप जिस चीज से बचना चाहो, जिस चीज से कन्नी काटना चाहो, वही चीज आपकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा हो जाती है, आपकी पहचान बन जाती है। यह ज्यादातर इश्क़ में होता है और वो भी हसीनाओं के साथ। हसीनाएँ पहले-पहल तो आपको नज़र-अंदाज करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे आप उनकी नज़र में बस जाते हैं। क्या आपने भी कभी यह महसूस किया है? किया हीं होगा... इश्क़ का यह नियम है। वैसे यहाँ पर मैं जिस कारण से इस मुद्दे को उठा रहा हूँ, उसकी जड़ में इश्क़ या हसीनाएँ नहीं हैं, बल्कि "आलस्य" है। अब आप सोचेंगे कि महफ़िल-ए-गज़ल में आलस्य की बातें.. तो जी हाँ, पिछली मर्तबा मैंने आलेख की लंबाई कम होने की वज़ह समय की कमी को बताया था, जो कि तब के लिए सच था, लेकिन वही ४५ मिनट वाला किस्सा आज फिर से दुहराया जा रहा है... और इस बार सबब कुछ और है। लेखक ने सामग्रियाँ समय पर जुटा लीं थीं, लेकिन उसी समय उसे(मुझे) आलस्य ने आ घेरा.. महसूस हुआ कि आलेख तो ४५ मिनट में भी लिखा जा सकता है और अच्छा लिखा जा सकता है, (जैसा कि सजीव जी की टिप्पणी से मालूम पड़ा) तो क्यों न सुबह उठकर हीं गज़ल की महफ़िल सजाई जाए....रात की नींद बरबाद करने का क्या फायदा। और फिर इस तरह आलस्य ने भागता फिरने वाला एक इंसान आलस्य की चपेट में आ गया। क्या कीजिएगा... ठंढ के मौसम में आलस्य का कोहरा कुछ ज्यादा हीं घना हो जाता है। है ना? लेकिन अगली मर्तबा से ऐसा न होगा... इस वादे के साथ हम आज की महफ़िल की शुरूआत करते हैं। इस महफ़िल में हम जो नज़्म लेकर हाज़िर हुए हैं, उसमें गाँव की सोंधी-सोंधी खुशबू छुपी है, शादी-ब्याह की अनगिनत यादें दर्ज हैं और सबसे बढकर एक नवविवाहिता की कोमल भावनाएँ अंकुरित हो रखी हैं। प्रेमिका/नवविवाहिता मालिन से यह गुहार कर रही है कि वह गजरा बना के ले आए, क्योंकि उसका प्रेमी/साजन उसे देखने आ रहा है। वह ऐसा गजरा पहनना चाहती है, जो उसके साजन की सुंदरता को टक्कर दे सके.... गजरे में वह ऐसी कलियाँ देखना चाहती हैं जिसका सारा चमन हीं दीवाना हो.. उन कलियों में उसके साजन के लबों की लाली हो..... वैसे इन पंक्तियों तक आते-आते इस बात का भी आभास होने लगता है कि कहीं एक प्रेमी तो नहीं मालिन से फरियाद कर रहा है। हो सकता है कि उसके मिलन की पहली रात हो और वह अपनी नूर-ए-जिगर, अपनी शरीक-ए-हयात यानि कि अपनी पत्नी के बालों में गजरा सजाना चाहता हो। यह नज़्म प्रेमिका के बजाय प्रेमी पर ज्यादा सटीक बैठती है क्योंकि कोई भी शायर किसी पुरूष के लबों की प्रशंसा नहीं करता.. आखिरकार एक पुरूष (शायर) दूसरे पुरूष की सुन्दरता पर क्योंकर टिप्पणी करे। हाँ किसी शायरा से इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि वह पुरूष के लबों की, पुरूष की सूरत की प्रशंसा में कुछ कसीदे पढ दे.. लेकिन ऐसा भी कम हीं देखने को मिलता है। आपने कहीं ऐसा पढा है कि "मेरे महबूब की सूरत चाँद से मिलती-जुलती है"... नहीं ना? अरे भाई, चाँद से नहीं तो तारा से हीं मिलती-जुलती कहने में कोई हर्ज़ है क्या....लेकिन कोई नहीं कहता। हाय रे पुरूष की सुन्दरता भी.. किसी काम की नहीं!!
हमने यह तो मान लिया कि किसी पुरूष की प्रशंसा कोई शायरा हीं कर सकती है.. नहीं तो कोई नहीं तो इस लिहाज से आज की नज़्म को किसी शायरा ने हीं लिखा होना चाहिए। और यहीं पर आकर हमारी गाड़ी रूक जाती है। अंतर्जाल पर हर जगह नगमानिगार के तौर पर "अफ़शां राणा" जी का नाम दर्ज है.. सुनने पर तो यह नाम किसी महिला का हीं लगता है लेकिन चूँकि इनका परिचय कहीं भी मौजूद नहीं, इसलिए ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। फिर भी बस यह पता करने के लिए कि इनके लिए "श्रीमान" लिखा जाए या "श्रीमति" हमने घंटों अपना समय गूगल के नाम कर दिया। अंततोगत्वा हमें मालूम चला कि अस्सी के दशक में एक संगीतकार खासे लोकप्रिय हुआ करते थे जिनका नाम था "सोहैल राणा"। सोहैल राणा ने अफ़शां राणा के साथ कई सारे कार्यक्रम दिए जो कि इनकी बीवी थीं(हैं)। अगर यहाँ उसी अफ़शां राणा की बात की जा रही है तो हम सही रास्ते पर हैं..यानि कि अफ़शां राणा किसी शायर का नहीं बल्कि एक शायरा का नाम है। हमें इस खोज पर यकीन करने के अलावा कोई और चारा नहीं दिख रहा..फिर भी अगर आपको अफ़शां के बारे में कोई और जानकारी हासिल हो तो हमें जरूर बताईयेगा.. बस नाम जान लेना हीं काफ़ी नहीं है.... सबसे अजीब बात तो यह है कि अंतर्जाल पर इनके नाम के सामने बस एक हीं नज़्म दर्ज है और वह है आज की नज़्म "गजरा बना के ले आ"। आखिर इन्होंने कुछ और भी तो लिखा होगा। अब चूँकि इनकी लिखी कोई और रचना हमें मिली नहीं, इसलिए इस बार कई महिनों के बाद अपना हीं एक शेर कहने पर मैं आमादा हो रहा हूँ। पसंद न आए तब भी दाद जरूर दीजिएगा:
मैं तुम्हारे वास्ते कुछ और हीं हो जाऊँगा,
तू एक दफ़ा निहार ले मैं आदमी हो जाऊँगा|
शायरा के बाद अब वक्त है आज की नज़्म के गायक से रूबरू होने का। आज इनके संक्षिप्त परिचय से हीं काम चला लेते हैं। कुछ हीं हफ़्तों में हम ग़ालिब की एक ग़ज़ल लेकर हाज़िर होने वाले हैं जिनमें आवाज़ "हबीब वली मोहम्मद" साहब की हीं हैं। तब इनके बारे में विस्तार से बातें करेंगे। (सौजन्य: सुखनसाज़)हबीब वली मोहम्मद (जन्म १९२१) विभाजन पूर्व के भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख लोकप्रिय ग़ज़ल गायकों में थे. कालेज के दिनों में उनके दोस्त उन्हें संगीत सम्राट तानसेन कहा करते थे. एम बी ए की डिग्री लेने के बाद वली मोहम्मद १९४७ में बम्बई जाकर व्यापार करने लगे. दस सालों बाद वे पाकिस्तान चले गए. वहीं उन्होंने बेहद सफल कारोबारी का दर्ज़ा हासिल किया. अब वे कैलिफ़ोर्निया में अपने परिवार के साथ रिटायर्ड ज़िन्दगी बिताते हैं. बहादुरशाह ज़फ़र की 'लगता नहीं है दिल मेरा' उनकी सबसे विख्यात गज़ल है. भारत में फ़रीदा ख़ानम द्वारा मशहूर की गई 'आज जाने की ज़िद न करो भी उन्होंने अपने अंदाज़ में गाई है. उस वक़्त के तमाम गायकों की तरह उनकी गायकी पर भी कुन्दनलाल सहगल की शैली का प्रभाव पड़ा. उनका एक तरह का सूफ़ियाना लहज़ा 'बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब, तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं' की लगातार याद दिलाता चलता है. हबीब साहब ज्यादातर ज़फ़र की हीं गज़लें गाते हैं। मेरे ख्याल से आज की नज़्म बड़ी हीं अनोखी है क्योंकि एक तो हबीब साहब की ऐसी कोई दूसरी नज़्म हमें सुनने को नहीं मिली और दूसरा यह कि ऐसी नज़्में आजकल बनती कहाँ है..। आप खुद हीं इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते होंगे.. । तो पेश है आज की नज़्म:
गजरा बना के ले आ मलनिया,
वो आए हैं घर में हमारे
देर न अब तू लगा।
सारा चमन हो जिनका दीवाना
ऐसी कलियाँ चुने के ला,
लाली हो जिन में उनके लबों की
उनको पिरो के ले आ,
गजरा बना के ले आ...मलनिया..
जो भी देखे उनकी ______
झुकी झुकी अंखियों से प्यार करे,
चंदा जैसा रूप है उनका
आंखों में रस है भरा,
गजरा बना के ले आ...मलनिया..
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "पयाम" और शेर कुछ यूं था -
कोई तो आए नई रूतों का पयाम लेकर,
अंधेरी रातों में चाँद बनना कोई तो सीखे।
इस शब्द की सबसे पहले सही पहचान की सीमा जी ने। आपने ये सारे शेर पेश किए जिसमें "पयाम" शब्द का इस्तेमाल हुआ था:
पयाम आये हैं उस यार-ए-बेवफ़ाके मुझे
जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे (अहमद फ़राज़)
सितारों के पयाम आये बहारों के सलाम आये
हज़ारों नामा आये शौक़ मेरे दिल के नाम आये (अली सरदार जाफ़री)
उम्र भर साथ निभाने का पयाम आया था
आपको देख के वह अहद-ए-वफ़ा याद आया (साहिर लुधियानवी)
सजीव जी और पी सिंह जी(माफ़ कीजिएगा, आपका पूरा नाम हमें मिल न सका), ग़ज़ल और ग़ज़ल पेश करने की अदा को पसंद करने के लिए आप दोनों का तहे-दिल से शुक्रिया। कभी कोई शेर भी महफ़िल में पेश करें!!!
शरद जी, बहुत खूब!! इस बार आप खुद के लिखे शेरों के साथ भले हीं नज़र नहीं आएँ, लेकिन हमें लता हया जी की गज़ल से मुखातिब करा गए... इस मेहरबानी के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यह रहा वह शेर:
सुबह का पहला पयाम उर्दू
ढ्लती हुई सी जैसे शाम उर्दू (लता हया)
नीलम जी, यह क्या कह रही हैं आप? अगर दिग्गजों की हम सोचने लगें तब तो हमारी भी बिसात खतरे में आ जाएगी। अभी हममें भी ऐसी क्षमता नहीं आई कि दिग्गजों के सामने खड़े हो सकें.. लेकिन यही तो ज़िंदगी है.. हमें इन सब की परवाह नहीं करनी चाहिए.. और वैसे भी आप अपने आपको किसी दिग्गज से कम कैसे आँक सकती हैं..ज़रा हमारी नज़रों से देखें :)
मंजु जी और रजनीश जी... आप दोनों ने महफ़िल में स्वरचित शेरों का सूखा नहीं होने दिया.. यह बड़ी हीं खुशी की बात है। ये रहे आप दोनों के शेर. क्रम से:
कभी हवाओं से ,कभी मेघदुतों से वियोग का पयाम भेजा है ,
बेखबर -रूखे महबूब !रुसवाई की भनक भी हुई क्या ?
पयाम ज़िन्दगी ने दिया हज़ार बार संभल जाने का...
पर एक दिल था हमारा कि हर बात पर मचल गया...
अवध जी, "ज़फ़र" साहब को आपने महफ़िल में पुन: जिंदा कर दिया... क्या बात है!!
पयाम ले के सबा वां अगर पहुँच जाती
तो मिस्ले-बू-ए-गुल उड़ कर खबर पहुँच जाती.
आगे की महफ़िल को अकेले संभाला शामिख जी ने। चलिए हर बार की तरह आप देर से आए, लेकिन यह कह सकते हैं कि इस बार आप दुरूस्त आए (पिछली बार की तुलना में)। यह रही आपकी पेशकश:
ये पयाम दे गई है मुझे बादे- सुबहशाही
कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही (इक़बाल)
एक रंगीन झिझक एक सादा पयाम
कैसे भूलूँ किसी का वो पहला सलाम (कैफ़ी आज़मी)
हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था (दाग दहलवी)
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई (जिगर मुरादाबादी)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
regards
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावत। कारी कामली वालाजी॥१॥
मोर मुगुट पितांबर शोभे। कुंडल झळकत लालाजी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। भक्तनके प्रतिपालाजी॥३॥
( मीराबाई )
regards
की मैं ने जो तेरी जबीं पे नज़र मेरा चैन गया मेरी नींद गई
(बहादुर शाह ज़फ़र)
ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा
मेरी सुरत बावली बोली-
उतर न सके प्राण सपनों से,
मुझे एक सपने में ले ले।
मेरा कौन कसाला झेले?
( माखनलाल चतुर्वेदी )
regards
इस सुरत से जमाना गुजरता नही,
बहुत गहरे मायने सागर और जामे से
मगर नज़र-ऎ-पैमाना कोई समझता नही.
Ajay Nidaan
regards
जब से मेघों से मुहब्बत हो गई है
सूर्य की धुंधली सी सूरत हो गई है
झूमता है चन्द्र मुख को देख सागर
आदमी सी इसकी आदत हो गई है ।
(स्वरचित)
हालाते जिस्म सूरते जाँ और भी खराब
चारों तरफ़ खराब यहाँ और भी खराब ।
सोचा था उनके देश में मंहगी है ज़िन्दगी
पर ज़िन्दगी का भाव वहाँ और भी खराब ।
(दुष्यन्त कुमार)
अजीब सूरते हालात होने वाली है
सुना है, अब के उसे मात होने वाली है ।
मैं थक के गिरने ही वाला था उसके कदमों में
मेरी नफ़ी मेरा इसबात होने वाली है ।
नफ़ी = अस्वीकृति इसबात = स्वीकृति
(अमीर क़ज़लबाश)
या फिर यही हुआ मेरी सूरत बदल गयी
'अदम'
अवध लाल
बेज़ुबां सूरत, जुबानों तक पहुँचती है.
'दुष्यंत कुमार'
अवध लाल
कोई सूरत नज़र नहीं आती.
मौत का एक दिन मुअय्यन है,
नींद क्यों रात भर नहीं आती.
क्या शायर-ए- आज़म का नाम बताने की ज़रूरत है?
'मिर्ज़ा ग़ालिब'
अवध लाल
उस्ताद हबीब वली खां मोहम्मद की आवाज़ में गज़लों का इंतज़ार रहेगा. वैसे तो उनकी गाई हुई सब ही बेहतरीन चीज़ें हैं पर जो ख़ासतौर से मेरी पसंदीदा हैं उनमें से अगर कुछ आ जाएँ तो क्या कहने.
ज़फर की १.न किसी की आँख का नूर हूँ.
२. लगता नहीं है जी मेरा उजड़े देयार में.
लेकिन खासकर ज़फर के अलावा
३.आशियाँ जल गया गुलिस्तान लुट गया,अब यहाँ से निकल कर किधर जायेंगे. और
४. रातें थीं चांदनी जोबन पे थी बहार.
पेशगी बहुत बहुत शुक्रिया.
अवध लाल
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग
(qateel shifai)
(anjaan)
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को
(Gulzar)
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती
(nida fazili)
जब कभी हमने आईना देखा (sudarshan fakir)
जुज़[4] वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया[5] मेरे आगे (Mirza galib)
अल्लाह करे झूठ हो बहुतों से सूनी है
(basheer badra)
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना (iqbal)
सूरत-ए-नक़्शे-क़दम हूँ रफ़्ता-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त
(galib)
मैं सिर्फ़ एक रिमोट की सूरत हूँ इन दिनों
ज़ालिम के हक़ में मेरी गवाही है मोतबर
मैं झुग्गियों के वोट की सूरत हूँ इन दिनों
मुँह का मज़ा बदलने को सुनते हैं वो ग़ज़ल
टेबुल पे दालमोंट की सूरत हो इन दिनों
हर श्ख़्स देखने लगा शक की निगाह से
मैं पाँच-सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों
हर शख़्स है निशाने पे मुझको लिए हुए
कैरम की लाल गोट की सूरत हूँ इन दिनों
घर में भी कोई ख़ुश न हुआ मुझको देखकर
यानी मैं एक चोट की सूरत हूँ इन दिनों
मौसम भी अब उड़ाने लगा है मेरी हँसी
इतने पुराने कोट की सूरत हूँ इन दिनों (munavvar arana)
जब -जब तुम मुझ से बिछुड़ते हो ,
तब -तब तेरी मोहिनी सूरत सूरज -चाँद -सी साथ निभाती है .