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बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे....चित्रगुप्त का रचा एक और चुलबुला नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 322/2010/22

इंदु जी के पसंद के गीत आजकल ओल्ड इज़ गोल्ड की शान बनें हुए हैं। कल के गीत में रोने रुलाने की बात थी। चलिए आज मूड को ज़रा बदलते हैं और एक ख़ुशनुमा गीत सुनते हैं लता जी की ही आवाज़ में। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह रचना है फ़िल्म 'ओपेरा हाउस' का। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे और चित्रगुप्त के संगीतबद्ध किए इस गीत के बोल हैं "बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे, लगी मन की कहे हाए पा के अकेली मोरी बैयाँ गहे"। इंदु जी कहती हैं कि "बचपन में एक म्युज़िक कॊम्पीटिशन में पहला इनाम जीता था इसे गा कर, बस तभी से पसंद है। जब भी सुनती हूँ जैसे बचपन के वो दिन सामने आ जाते हैं। खूबसूरत गीत तो है ही, बी.सरोजा देवी का नृत्य व हाव भाव मनमोहक है, कमाल है।" इंदु जी, चलिए इसी बहाने हम सब को यह पता चल गया कि आप गाती भी हैं। अगर संभव हो तो अपनी आवाज़ में इस गीत को रिकार्ड कर हमें ज़रूर भेजिएगा। जैसा कि आप बता ही चुकी हैं कि यह गीत फ़िल्माया गया है बी. सरोजा देवी पर, इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे अजीत, के. एन. सिंह, ललिता पवार, और बेला बोस प्रमुख।

ए. ए. नडियाडवाला ने 'ओपेरा हाउस' का निर्माण किया था सन् १९६१ में, जिसका निर्देशन किया पी. एल. संतोषी साहब ने। फ़िल्म की कहानी कुछ इस प्रकार की थी कि सरोज (बी. सरोजा देवी) नागपुर में एक ग़रीब ज़िंदगी जी रही होती है अपनी विधवा माँ लीला और छोटी बहन नन्ही के साथ। सरोज को गायिका-नृत्यांगना की नौकरी मिल जाती है, इसलिए वो बम्बई चली जाती है। बम्बई में उसकी मुलाक़ात एक नौजवान लड़के अजीत से होती है, और दोनों को एक दूसरे से प्यार हो जाता है। कुछ समय बाद सरोज को पता चलता है कि अजीत दरअसल उसी ड्रामा-डांस कंपनी के मालिक रणजीत के छोटे भाई हैं। हालात सरोज को वापस नागपुर लौट जाने के लिए मजबूर करती है और वहाँ जा कर वो एक दूसरी ड्रामा कंपनी से जुड़ जाती है जिसके मालिक हैं चुनीलाल। उधर अजीत, जो सरोज से पागलों की तरह मोहब्बत करता है, उसे तलाशता हुआ नागपुर आ पहुँचता है। उसकी सरोज से मुलाक़ात भी होती है, लेकिन तब तक सरोज मैरी डी'सूज़ा बन चुकी होती है। अजीत को एक और राज़ का पता चलता है कि सरोज चुनीलाल के हत्या का चश्मदीद गवाह है और हत्यारा उसे ख़ामोश करने की ताक में है। तो ये है इस फ़िल्म की मूल कहानी। आज के इस प्रस्तुत गीत के अलावा इस फ़िल्म का जो सब से हिट गीत रहा, वह है लता और मुकेश का गाया डुएट "देखो मौसम, क्या बहार है, सारा आलम, बेक़रार है"। इस गीत को भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप भविष्य में ज़रूर सुन पाएँगे, लेकिन आज सुनिए "बलमा माने ना"। इंदु जी को धन्यवाद इस सुरीले बेमिसाल गीत की तरफ़ हमारा ध्यान आकृष्ट करने के लिए, सुनिए...



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

गुनगुना मेरे यार कोई गीत ख़ुशी का,
मुस्कुरा खुल के यूं कि देखे जहाँ सारा,
फिर जगा ख़याल में कोई सोच नयी,
फिर निगाह में चमका ख्वाब का तारा...

अतिरिक्त सूत्र - इस फिल्म में अभिनेत्री थी वहीदा रहमान

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह पदम सिंह जी के रूप में एक नए प्रतिभागी मिले हैं हमें, बधाई आपको और बहुत बहुत स्वागत

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

PadmSingh said…
आपने गेस करने के लिए चार की जगह तीन शब्द ही दिए हैं ...... फिर भी देखिये

वो शाम कुछ अजीब थी वो ये शाम भी अजीब है .... वो कल भी पास पास थी वो आज भी करीब है
AVADH said…
बहुत बहुत बधाई पद्म सिंह जी,
"झुकी हुई निगाह में, कहीं मेरा ख्याल था.
दबी दबी हंसी में इक, हसीन सा सवाल था.
मैं सोचता था, मेरा नाम गुनगुना रही है वोह.
न जाने क्यों लगा मुझे, कि मुस्कुरा रही है वोह." फिल्म 'ख़ामोशी'.
अवध लाल
बहुत सुन्दर गीत!

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