ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 315/2010/15
हमारे देश में ऐसे कई तरक्की पसंद अज़ीम शायर जन्में हैं जिन्होने आज़ादी के बाद एक सांस्कृतिक व सामाजिक आंदोलन छेड़ दिया था। इन्ही शायरों में से एक नाम था क़ैफ़ी आज़मी का, जिनकी इनक़िलाबी शायरी और जिनके लिखे फ़िल्मी गीत आवाम के लिए पैग़ाम हुआ करती थी। कैफ़ी साहब ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 'I was born in Ghulam Hindustan, am living in Azad Hindustan, and will die in a Socialist Hindustan'. आज 'स्वरांजली' में श्रद्धांजली कैफ़ी आज़मी साहब को, जिनकी कल, यानी कि १४ जनवरी को ९२-वीं जयंती थी। उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले की फूलपुर तहसील के मिजवां गाँव में एक कट्टर धार्मिक और ज़मींदार ख़ानदान में अपने माँ बाप की सातवीं औलाद के रूप में जन्में बेटे का नाम सय्यद अतहर हुसैन रिज़वी रखा गया जो बाद में कैफ़ी आज़मी के नाम से मशहूर हुए। शिक्षित परिवार में पैदा हुए कैफ़ी साहब शुरु से ही फक्कड़ स्वभाव के थे। पिता उन्हे मौलवी बनाने के ख़्वाब देखते रहे लेकिन कैफ़ी साहब मज़हब से दूर होते गए। उनके गाँव की फ़िज़ां ही कुछ ऐसी थी कि जिसने उनके दिलो-दिमाग़ को इस तरह रोशन किया कि सारी उम्र न उन्हे हिंदू समझा गया, न मुसलमान। लखनऊ के जिस मजहबी स्कूल में उनको पढ़ाई के लिए दाखिल कराया गया, कैफ़ी साहब ने वहीं के मौलवियों के खिलाफ़ आन्दोलन शुरु कर दिया। नतीजतन उन्हे स्कूल से बाहर कर दिया गया। बाद में उन्होने प्राइवेट में इम्तिहान देकर अपनी तालीम पूरी की। ११ वर्ष की कच्ची उम्र में ही "इतना तो किसी की ज़िन्दगी में ख़लल पड़े" जैसी नज़्म लिखने वाले कैफ़ी साहब ने किशोरावस्था में ही बग़ावती रास्ता अख़्तियार कर लिया था। १९ साल के होते होते वो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ चल पड़े और पार्टी की पत्रिका 'जंग' के लिए लिखने लगे। पढ़ाई छोड़ कर १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन से जुड़ गए। उर्दू में प्रगतिशील लेखन के आन्दोलन से जुड़े कैफ़ी साहब ने १९४७ में बम्बई आकर पार्टी के 'मज़दूर मोहल्ला' एवं 'कौमी जंग' अख़बारों का सम्पादन कार्य सम्भाल लिया। (सौजन्य: लिस्नर्स बुलेटिन, अंक-११९, अगस्त २००२)
कैफ़ी आज़मी के शुरुआती वक़्त का ज़िक्र हमने उपर किया। उनके जीवन से जुड़ी बातों का सिलसिला आगे भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी रहेगा। बहरहाल आइए अब ज़िक्र करें कैफ़ी साहब के लिखे उस गीत का जिसे आज हम इस महफ़िल में सुनने जा रहे हैं। यह गीत है १९६६ की फ़िल्म 'आख़िरी ख़त' का, "और कुछ देर ठहर और कुछ देर न जा"। 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का निर्माण किया था चेतन आनंद ने। कहानी, स्कीनप्ले और निर्देशन भी उन्ही का था। राजेश खन्ना, नक़ीजहाँ, नाना पाल्सेकर और इंद्राणी मुखर्जी अभिनीत यह फ़िल्म बॊक्स ऒफ़िस पर तो कामयाब नहीं रही, लेकिन फ़िल्म का संगीत चला। लता मंगेशकर का गाया "बहारों मेरा जीवन भी सँवारो" में पहाड़ी राग का बेहद सुरीला प्रयोग सुनने को मिलता है। ख़य्याम साहब के संगीत में कैफ़ी साहब की गीत रचनाएँ हवाओं पर सवार हो कर चारों तरफ़ फैल गईं। इस फ़िल्म की एक ख़ास बात यह है कि गायक भुपेन्द्र ने अपना पहला फ़िल्मी गीत इसी फ़िल्म के लिए गाया था "रात है जवाँ जवाँ"। उन्होने चेतन आनंद की माशहूर फ़िल्म 'हक़ीक़त' और इस फ़िल्म में छोटे रोल भी किए, और "रात है..." गीत तो उन्ही पर फ़िल्माया गया था। भुपेन्द्र 'आख़िरी ख़त' के 'आर्ट डिरेक्टर' भी थे। ख़ैर, भुपेन्द्र की बातें हम तफ़सील से फिर किसी दिन करेंगे, आज ज़िक्र कैफ़ी साहब का और इस फ़िल्म के लिए उनके लिखे और रफ़ी साहब के गाए हुए गीत "और कुछ देर ठहर" का। जैसा कि हमने कहा कि 'आख़िरी ख़त' व्यावसायिक दृष्टि से नाकामयाब रही लेकिन इसका संगीत कामयाब रहा, तो इसी के बारे में कैफ़ी साहब ने भी कुछ कहा था विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में, जिसकी रिकार्डिंग् सन् १९८८ में की गई थी। ये हैं वो अंश - "फ़िल्मी गानों की मकबूलियत में यह बहुत ज़रूरी है कि वह जिस फ़िल्म का गाना हो वह फ़िल्म मक़बूल हो। अगर फ़िल्म नाकाम रहती है तो उसकी हर चीज़ नाकाम हो जाती है। मेरी दो तीन बड़ी बड़ी फ़िल्में नाकाम हो गईं, हालाँकि गानें उनके भी मक़बूल हुए। फिर भी फ़िल्मी दुनिया में यह मशहूर हो गया कि कैफ़ी लिखते तो अच्छा हैं लेकिन उनके सितारे ख़राब हैं। इसलिए फ़िल्मकार अक्सर मेरा नाम सुनकर अपने कानों में हाथ रख लेते थे।" जी नहीं कैफ़ी साहब, आपको चाहने वाले अपने कानों पर हाथ कभी नहीं रखेंगे, बल्कि हम ना केवल अपने कानों से बल्कि अपने दिलों से आपके लिखे गीतों का दशकों से आनंद उठाते चले आ रहे हैं, और आज भी उठा रहे हैं। पेश-ए-ख़िद्मत है कैफ़ी आज़मी साहब को श्रद्धांजली स्वरूप 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का गीत। ख़य्याम साहब का संगीत और रफ़ी साहब की आवाज़।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
सोच से वो पल बिछड़ने का हटता नहीं,
ये दर्द तेरी जुदाई का जालिम घटता नहीं,
चैन से मर पायेगें मुमकिन नहीं लगता,
गम से भरी जिंदगी में लम्हा कटता नहीं...
अतिरिक्त सूत्र - एक संगीतकार जिनकी कल जयंती है ये गीत उनका है
पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी डबल फिगर यानी ११ अंकों पर पहुँच गए हैं आप, जहाँ तक हमारी जानकारी है कैफी साहब की जयंती आज ही है.वैसे इंदु जी का कहना सही है, जवाब के मामले में आप गलत हों मुमकिन नहीं....
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
हमारे देश में ऐसे कई तरक्की पसंद अज़ीम शायर जन्में हैं जिन्होने आज़ादी के बाद एक सांस्कृतिक व सामाजिक आंदोलन छेड़ दिया था। इन्ही शायरों में से एक नाम था क़ैफ़ी आज़मी का, जिनकी इनक़िलाबी शायरी और जिनके लिखे फ़िल्मी गीत आवाम के लिए पैग़ाम हुआ करती थी। कैफ़ी साहब ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 'I was born in Ghulam Hindustan, am living in Azad Hindustan, and will die in a Socialist Hindustan'. आज 'स्वरांजली' में श्रद्धांजली कैफ़ी आज़मी साहब को, जिनकी कल, यानी कि १४ जनवरी को ९२-वीं जयंती थी। उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले की फूलपुर तहसील के मिजवां गाँव में एक कट्टर धार्मिक और ज़मींदार ख़ानदान में अपने माँ बाप की सातवीं औलाद के रूप में जन्में बेटे का नाम सय्यद अतहर हुसैन रिज़वी रखा गया जो बाद में कैफ़ी आज़मी के नाम से मशहूर हुए। शिक्षित परिवार में पैदा हुए कैफ़ी साहब शुरु से ही फक्कड़ स्वभाव के थे। पिता उन्हे मौलवी बनाने के ख़्वाब देखते रहे लेकिन कैफ़ी साहब मज़हब से दूर होते गए। उनके गाँव की फ़िज़ां ही कुछ ऐसी थी कि जिसने उनके दिलो-दिमाग़ को इस तरह रोशन किया कि सारी उम्र न उन्हे हिंदू समझा गया, न मुसलमान। लखनऊ के जिस मजहबी स्कूल में उनको पढ़ाई के लिए दाखिल कराया गया, कैफ़ी साहब ने वहीं के मौलवियों के खिलाफ़ आन्दोलन शुरु कर दिया। नतीजतन उन्हे स्कूल से बाहर कर दिया गया। बाद में उन्होने प्राइवेट में इम्तिहान देकर अपनी तालीम पूरी की। ११ वर्ष की कच्ची उम्र में ही "इतना तो किसी की ज़िन्दगी में ख़लल पड़े" जैसी नज़्म लिखने वाले कैफ़ी साहब ने किशोरावस्था में ही बग़ावती रास्ता अख़्तियार कर लिया था। १९ साल के होते होते वो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ चल पड़े और पार्टी की पत्रिका 'जंग' के लिए लिखने लगे। पढ़ाई छोड़ कर १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन से जुड़ गए। उर्दू में प्रगतिशील लेखन के आन्दोलन से जुड़े कैफ़ी साहब ने १९४७ में बम्बई आकर पार्टी के 'मज़दूर मोहल्ला' एवं 'कौमी जंग' अख़बारों का सम्पादन कार्य सम्भाल लिया। (सौजन्य: लिस्नर्स बुलेटिन, अंक-११९, अगस्त २००२)
कैफ़ी आज़मी के शुरुआती वक़्त का ज़िक्र हमने उपर किया। उनके जीवन से जुड़ी बातों का सिलसिला आगे भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी रहेगा। बहरहाल आइए अब ज़िक्र करें कैफ़ी साहब के लिखे उस गीत का जिसे आज हम इस महफ़िल में सुनने जा रहे हैं। यह गीत है १९६६ की फ़िल्म 'आख़िरी ख़त' का, "और कुछ देर ठहर और कुछ देर न जा"। 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का निर्माण किया था चेतन आनंद ने। कहानी, स्कीनप्ले और निर्देशन भी उन्ही का था। राजेश खन्ना, नक़ीजहाँ, नाना पाल्सेकर और इंद्राणी मुखर्जी अभिनीत यह फ़िल्म बॊक्स ऒफ़िस पर तो कामयाब नहीं रही, लेकिन फ़िल्म का संगीत चला। लता मंगेशकर का गाया "बहारों मेरा जीवन भी सँवारो" में पहाड़ी राग का बेहद सुरीला प्रयोग सुनने को मिलता है। ख़य्याम साहब के संगीत में कैफ़ी साहब की गीत रचनाएँ हवाओं पर सवार हो कर चारों तरफ़ फैल गईं। इस फ़िल्म की एक ख़ास बात यह है कि गायक भुपेन्द्र ने अपना पहला फ़िल्मी गीत इसी फ़िल्म के लिए गाया था "रात है जवाँ जवाँ"। उन्होने चेतन आनंद की माशहूर फ़िल्म 'हक़ीक़त' और इस फ़िल्म में छोटे रोल भी किए, और "रात है..." गीत तो उन्ही पर फ़िल्माया गया था। भुपेन्द्र 'आख़िरी ख़त' के 'आर्ट डिरेक्टर' भी थे। ख़ैर, भुपेन्द्र की बातें हम तफ़सील से फिर किसी दिन करेंगे, आज ज़िक्र कैफ़ी साहब का और इस फ़िल्म के लिए उनके लिखे और रफ़ी साहब के गाए हुए गीत "और कुछ देर ठहर" का। जैसा कि हमने कहा कि 'आख़िरी ख़त' व्यावसायिक दृष्टि से नाकामयाब रही लेकिन इसका संगीत कामयाब रहा, तो इसी के बारे में कैफ़ी साहब ने भी कुछ कहा था विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में, जिसकी रिकार्डिंग् सन् १९८८ में की गई थी। ये हैं वो अंश - "फ़िल्मी गानों की मकबूलियत में यह बहुत ज़रूरी है कि वह जिस फ़िल्म का गाना हो वह फ़िल्म मक़बूल हो। अगर फ़िल्म नाकाम रहती है तो उसकी हर चीज़ नाकाम हो जाती है। मेरी दो तीन बड़ी बड़ी फ़िल्में नाकाम हो गईं, हालाँकि गानें उनके भी मक़बूल हुए। फिर भी फ़िल्मी दुनिया में यह मशहूर हो गया कि कैफ़ी लिखते तो अच्छा हैं लेकिन उनके सितारे ख़राब हैं। इसलिए फ़िल्मकार अक्सर मेरा नाम सुनकर अपने कानों में हाथ रख लेते थे।" जी नहीं कैफ़ी साहब, आपको चाहने वाले अपने कानों पर हाथ कभी नहीं रखेंगे, बल्कि हम ना केवल अपने कानों से बल्कि अपने दिलों से आपके लिखे गीतों का दशकों से आनंद उठाते चले आ रहे हैं, और आज भी उठा रहे हैं। पेश-ए-ख़िद्मत है कैफ़ी आज़मी साहब को श्रद्धांजली स्वरूप 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का गीत। ख़य्याम साहब का संगीत और रफ़ी साहब की आवाज़।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
सोच से वो पल बिछड़ने का हटता नहीं,
ये दर्द तेरी जुदाई का जालिम घटता नहीं,
चैन से मर पायेगें मुमकिन नहीं लगता,
गम से भरी जिंदगी में लम्हा कटता नहीं...
अतिरिक्त सूत्र - एक संगीतकार जिनकी कल जयंती है ये गीत उनका है
पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी डबल फिगर यानी ११ अंकों पर पहुँच गए हैं आप, जहाँ तक हमारी जानकारी है कैफी साहब की जयंती आज ही है.वैसे इंदु जी का कहना सही है, जवाब के मामले में आप गलत हों मुमकिन नहीं....
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
pran jaye pr vachan na jaye
फिल्म 'प्राण जाये पर वचन ना जाये' का संगीत उन्ही ने दिया था
ठंड बहुत पड़ रही है ,अपन तो घुसे कम्बल में
पाबला भैया ! कहाँ हो ? बचाओ ना
.lo ab to sharad ji bhi aa gaye inke aage to yun bhi koi nhi tik skta apni kya bisaat hai
sbko good night ji
apn to ye chhooooooooooooooooooooo
" दोस्तों तुमने सुना होगा कभी झंग का नाम ..................................
aapko itne samay baad blog pr dekh kr bahut achchha lg rahaa hai .aap kaise hain?swasthya theek hai ?
protsaahan swaroop hi sahi aaya kijiye .
naraj hain abhi bhi ?
sooooooorryyyyyyyyy