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एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है, गहरी सच्चाईयों की सहज अभिव्यक्ति यानी आवाज़े महेंदर कपूर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 320/2010/20

र आज हम आ पहुँचे हैं 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी में। गत ९ जनवरी को पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर साहब की जयंती थी। आइए आज 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी हम उन्ही को समर्पित करते हैं। महेन्द्र कपूर हमसे अभी हाल ही में २७ सितंबर २००८ को जुदा हुए हैं। ९ जनवरी १९३४ को जन्मे महेन्द्र कपूर साहब के गाए कुछ गानें आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन चुके हैं। बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों में अक्सर हमने उनकी आवाज़ पाई है। साहिर लुधियानवी के बोल, रवि का संगीत और महेन्द्र कपूर की आवाज़ चोपड़ा कैम्प के कई फ़िल्मों मे साथ साथ गूंजी। इस तिकड़ी के हमने फ़िल्म 'गुमराह' के दो गानें सुनवाए हैं, "आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया" और "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों"। आज भी हम एक ऐसा ही गीत लेकर आए हैं, लेकिन यह फ़िल्म बी. आर. चोपड़ा की दूसरी फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हट के है। यह है १९७३ की फ़िल्म 'धुंध' का शीर्षक गीत, "संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है, एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है"। साहिर लुधियानवी के क्रांतिकारी गीतों ने बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों को एक अलग ही दर्जे तक पहुँचाया है। और रवि के संगीत में और महेन्द्र कपूर की आवाज़ में ये गानें बहुत खुलकर सामने आए हैं और कालजयी बन गए हैं। आज का प्रस्तुत गीत एक दार्शनिक गीत है जिसमें मनुष्य जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में कहा गया है। एक सस्पेन्स थ्रिलर होने की वजह से फ़िल्म का नाम 'धुंध' रखा गया और साहिर साहब ने सस्पेन्स को बरक़रार रखते हुए कितनी ख़ूबी से जीवन दर्शन को सामने लाया है इस गीत के माध्यम से। मुझे नहीं लगता कि धुंध पर इससे बेहतर और इससे सरल कोई गीत लिखा जा सकता है!

'धुंध' १९७३ की फ़िल्म थी। बी. आर. चोपड़ा निर्मित और निर्देशित इस फ़िल्म में मुख्य कलाकार थे संजय ख़ान, ज़ीनत अमान, डैनी और नवीन निश्चल। यह फ़िल्म अगाथा क्रिस्टी के नाटक 'ऐन अन-एक्स्पेक्टेड गेस्ट' पर आधारित थी, जिसका हिंदी फिल्मीकरण किया लेखक अख्तर-उल-रहमान, अख़्तर मिर्ज़ा और सी. जे. पावरी ने। इस रोंगटे खड़े कर देने वाली मर्डर मिस्ट्री का प्लॊट कुछ इस तरह से था कि एक रात चन्द्रशेखर (नवीन निश्चल) की गाड़ी गहरे धुंद में ख़राब हो जाती है। कार की हेडलाइट से उन्हे सामने एक मकान नज़र आता है। दरवाज़े पर खटखटाने जाते हैं तो दरवाज़ा खुला हुआ ही पाते हैं। वो अंदर जाते हैं और देखते हैं कि कुर्सी पर एक आदमी बैठा हुआ है। उनसे वो एक टेलीफ़ोन करने की इजाज़त माँगते हैं। उस आदमी से कोई जवाब ना पाकर जैसे ही उन्हे हिलाते हैं तो वो आदमी (डैनी) नीचे गिर जाता है। दरअसल वो उस आदमी की लाश थी। चन्द्रशेखर सामने रखे टेलीफ़ोन से जैसे ही पुलिस को ख़बर करने के लिए आगे बढ़ता है तो अंधेरे से रानी रणजीत सिंह (ज़ीनत अमान, डैनी की पत्नी) हाथ में रिवोल्वर लिए उसके सामने आ जाती है। वो बताती है कि उसी ने अपने उस अत्याचारी पति का ख़ून किया है। चन्द्रशेखर रानी की तरफ़ आकर्षित भी होता है, उस पर दया भी आती है। दोनों मिल कर लाश को ठिकाने लगाने के बारे में सोचता है। क्या होता है आगे चलकर? आख़िर क्या है इस ख़ून का राज़? कौन है ख़ूनी? यही है इस फ़िल्म की कहानी। बड़ी ज़बरदस्त फ़िल्म है, अगर आप ने अब तक नहीं देख रखी है, तो ज़रूर देखिएगा। मेरे अनुसार हिंदी सिनेमा के सस्पेन्स फ़िल्मों में यह एक अव्वल दर्जे का सस्पेन्स थ्रिलर है। ख़ैर, अब वापस मुड़ते हैं आज के गीत पर। 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में ममता सिंह ने जब महेन्द्र कपूर से पूछा था कि इस गीत को गाने के लिए क्या उन्हे कोई विशेष तैयारी करनी पड़ी थी, तो उनका जवाब था - "तब तक मैं बहुत गानें गा चुका था, इसलिए ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। इस गाने का मूड भी वही था जो "नीले गगन के तले" का था।" चलिए दोस्तों, महेन्द्र कपूर साहब की याद में सुनते हैं यह गीत और 'स्वरांजली' शृंखला को समाप्त करते हुए हम भी यही दोहराते हैं कि "संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है"। धन्यवाद !



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

मेरी बेकरारियों का सबब मत पूछ,
आजमा मेरे सब्र को तू इस तरह,
रोये हैं मैंने खून के आंसू बरसों,
तेरे साथ को हूँ मैं तरसा इस तरह...

अतिरिक्त सूत्र - महिला संगीतकारों में इनका नाम अग्रिणी है

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह वाह अवध जी, आपको विजेता के रूप में पाकर आज बड़ी खुशी हो रही है, २ अंक मुबारक हो आपको...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

indu puri said…
isme koi shq nhi gaane bhle hi ginti ke hi madhur hain unke par usha khanna ji ka naam agranee mahila sangeetkaro me aata hai.
andhon me kana raja
vaise pyari pyari shararton ka bhi apna majaa hai na sujoyji ,sajivji
is se pahle ki aap dono mere kaan pkd kr uth baith karaaye main to ye bhaageeeeeeeeeeeeeeeeee
AVADH said…
उषा खन्ना जी के कारण पहले तो मुझे गीत 'आज तुमसे दूर हो कर...' समझ में आया पर उसमें तो ऐसे शब्द हैं ऐसा नहीं लगता.
फिर सोच कर देखते हैं. तब तक शरद जी और रोहित जी आदि शायद बता दें.
अवध लाल
AVADH said…
मेरी दास्ताँ मुझे ही मेरा दिल सुना के रोये.
कभी रो के मुस्कुराये कभी मुस्कुरा के रोये.
संगीत: उषा खन्ना
फिल्म: आओ प्यार करें
वोह जो आजमा रहे थे मेरी बेक़रारियों को
मेरे साथ साथ वोह भी मुझे आजमा के रोये.
अवध लाल
indu puri said…
अवधजी !
ये खूबसुरत गाना उषा खन्ना जी के गिनती के मधुर गीतों मे से एक है
मेरे बेहद पसंदिदा गानो मे से एक है ये.
जितनी बार सुनती हुँ खूब रोती हुँ.
किसने लिखा ये नही मालुम पर कमाल लिखा है
'मिले गम से अपने फुरसत तो मैं हाल पूछु इसका
शबे गम से कोइ कह दे कहीं और जा के रोए '
मैने हिस्सा लेना छोड दिया,पर आना नही छोड़ा
AVADH said…
इन्दुजी,
सच में बहुत ही मधुर गीत है.
आपकी पसंद है तो यह तो होना ही था.
चलिए और शेष गीतों का इन्तेज़ार रहेगा.
वैसे जहाँ तक मैं समझता हूँ यह गीत श्री राजिंदर किशन जी द्वारा लिखा गया था.
अवध लाल

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