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जिंदगी हमें आज़माती रही और हम भी उसे आज़माते रहे....राही मासूम रज़ा साहब की एक बेमिसाल गज़ल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५३

ह तो मौसम है वही
दर्द का आलम है वही
बादलों का है वही रंग,
हवाओं का है अन्दाज़ वही
जख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरह
ज़ख़्मों का हाल वही
लफ़्जों का मरहम है वही

दर्द का आलम है वही
हम दिवानों के लिए
नग्मए-मातम है वही
दामने-गुल पे लहू के धब्बे
चोट खाई हुए शबनम है वही…
यह तो मौसम है वही
दोस्तो !
आप,
चलो
खून की बारिश है
नहा लें हम भी
ऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है।

ये पंक्तियाँ हमने "असंतोष के दिन" नामक पुस्तक की भूमिका से ली हैं। इन पंक्तियों के लेखक के बारे में इतना हीं कहना काफ़ी होगा कि मैग्नम ओपस(अज़ीम-उस-शान शाहकार) महाभारत की पटकथा और संवाद इन्होंने हीं लिखे थे। वैसे अलग बात है कि इन्हें ज्यादातर "महाभारत" से हीं जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन अगर इनके अंदर छिपे आक्रोश और संवेदनाओं को परखना हो तो कृप्या "आधा गाँव" और "टोपी शुक्ला" की ओर रूख करें। अपने उपन्यास "टोपी शुक्ला" की भूमिका में ये ताल ठोककर कहते हैं कि "यह उपन्यास अश्लील है।" आप खुद देखें- मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई| क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है| परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था| यह टोपी मैं भी हूं और मेरे ही जैसे और बहुत से लोग भी हैं| हम लोग कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर "कम्प्रोमाइज़" कर लेते हैं| और इसीलिए हम लोग जी रहे हैं| टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था| किंतु उसने "कम्प्रोमाइज़" नहीं किया और इसीलिए आत्महत्या कर ली | परन्तु आधा गाँव की ही तरह यह किसी एक आदमी या कई आदमियों की कहानी नहीं है| यह कहानी भी समय की है| इस कहानी का हीरो भी समय है| समय के सिवा कोई इस लायक नहीं होता कि उसे किसी कहानी का हीरो बनाया जाय| आधा गाँव में बेशुमार गालियाँ थीं| मौलाना 'टोपी शुक्ला' में एक भी गाली नहीं है| परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है| और मैं यह गाली डंके की चोट बक रहा हूँ| " यह उपन्यास अश्लील है...... जीवन की तरह |"

जी हाँ, हम जिस फ़नकार से मुखातिब हैं, उस फ़नकार का नाम है "राही मासूम रज़ा"। आगे बढने से पहले यह बता दें कि आज से फ़रमाईशी गज़लों का सिलसिला शुरू हो चुका है और आज हम जिस गज़ल को लेकर हाज़िर हुए हैं उसकी माँग सीमा जी ने की थी। इस गज़ल के गज़लगो हैं "राही" साहब और इसे अपनी आवाज़ से सजाया है "अशोक खोसला" साहब ने। "अशोक" साहब के बारे में हमें ज्यादा जानकारी हासिल नहीं हो सकी, इसलिए हम आज की कड़ी को "राही" साहब के नाम करते हैं। अगली मर्तबा अगर खोसला साहब की कोई गज़ल/नज़्म हमारी महफ़िल की शोभा बनी तो हम यकीन दिलाते हैं कि उनके बारे में पर्याप्त जानकारी आपके सामने होगी। हाँ तो हम बात कर रहे थे "राही" साहब की। "राही" साहब की जब बात चली है तो क्यों न महाभारत की भी बातें कर ली जाएँ। तो उससे जुड़े दो किस्से हम आपसे बाँटना चाहते हैं। यह रहा पहला किस्सा (सौजन्य:कुरबान अली, प्रभात खबर): धारावाहिक `महाभारत' की स्क्रिप्ट लिखते समय राही ने व्यास के `महाभारत' को सौ से अधिक बार पढ़ा था. हिंदी-अंगरेज़ी, संस्कृत, फारसी, उर्दू लगभग उन तमाम भाषाओं में, जिनमें महाभारत उपलब्ध है. `गीता' लिखते समय वह अलीगढ़ आकर रह रहे थे. उनका कहना था कि गीता `महाभारत' का सार है और इसे वह सुकून से लिखना चाहते हैं. उसी समय बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बयान देकर राही पर आरोप लगाया था कि वह `महाभारत' को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं और कृष्ण के चरित्र को टि्वस्ट कर के दिखा रहे हैं. इस पर राही ने अटल जी को फोन किया और पूछा कि क्या आपने ऐसा बयान दिया है? और यह कि क्या आपने `महाभारत' पढ़ी है? अटल जी के `हां'कहने पर वह उन पर बिगड़ गये और कहा कि आप झूठ बोलते हैं. यदि आपने `महाभारत' पढ़ी होती , तो मुझे यकीन है कि आप जैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति यह बेहूदा बयान नहीं देता और अटल जी लाजवाब हो गये।

और दूसरा किस्सा (सौजन्य:वेद राही, नया ज्ञानोदय): उनसे जो आख़िरी मुलाक़ातें हुईं, उनमें से एक की याद है। उन दिनों टीवी धारावाहिक ‘महाभारत’ की ख़ूब चर्चा थी, जिसके संवाद डॉ. राही मासूम रज़ा लिख रहे थे। एक रोज़ किसी मीटिंग में उनसे बात करने का अवसर मिल गया। मैंने उन्हें देखते ही कहा,‘बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप। कल का एपीसोड मैंने देखा था। एक जगह पर मुझे महसूस हुआ कि राइटर और डायरैक्टर से कहीं कुछ भूल हुई है।’ ‘किस जगह पर?’ वह सतर्क हो गए। मैंने बताया कि जहां दुर्योधन अपनी मां का कहा मानकर उसके सामने निर्वस्त्र होकर जा रहा है, पर कृष्ण उसे रास्ते में रोक लेते हैं, उसका मज़ाक उड़ाते हैं और उससे मनवा लेते हैं कि वह अपनी कमर ढंककर मां के सामने जाएगा। जब दुर्योधन उनकी बातों में आकर चला गया, तो कृष्ण मुस्कुराते हुए उसे देखते हैं, वह बहुत ख़ुश हैं। ‘हां तो इसमें कहां भूल हुई?’ उन्होंने पूछा। मैंने जवाब दिया, ‘कृष्ण एक ऐसे किरदार हैं, जो आगे-पीछे का सब कुछ जानते हैं। वे अंतर्यामी है। जब वे दुर्योधन को कमर ढंकने पर राज़ी कर लेते हैं, तो यह भी जानते हैं कि इसके परिणामस्वरूप दुर्योधन की मां गंधारी उन्हें दुरगामी अभिशाप देगी। उस अवसर पर कृष्ण को ख़ुश नहीं होना चाहिए, उन्हें गहरी सोच में डूबे होना चाहिए।’ मेरी बात सुनकर डॉ. राही चुप हो गए। थोड़ी देर के बाद बोले, ‘मेरे हमनाम(जिस नाम से वो मुझे पुकारते थे) एक बात सुनो, बहुत पर्सनल फीलिंग की बात है। महाभारत के डॉयलाग लिखते हुए मैं अपनी तरफ़ से कोई कोर कसर नहीं छोड़ता हूं। लोग बहुत पसंद भी कर रहे हैं। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा है, लेकिन कभी-कभी लिखते हुए मुझे महसूस होता है महाभारत की अंदरूनी गूंज बहुत हल्के से सुनाई दे रही है। बहुत मुश्किल से पकड़ में आती है।’ एक लेखक के तौर पर उनकी ऐसी इमानदारी देखकर मैं दंग रह गया। आमतौर पर ऐसा कंफैशन कोई नहीं करता, लेकिन राही मासूम रज़ा सच्चे लेखक थे।

ये तो हुई राही साहब और महाभारत की बातें। अब कुछ राही साहब की निजी ज़िंदगी के बारे में भी जान लेते हैं। (साभार: कुरबान अली) पहली सितंबर, १९२७ को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में जन्मे राही की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी. बचपन में टांग में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएचडी की. `तिलिस्म-ए-होशरुबा' उन कहानियों का संग्रह है, जो पुराने दौर में मुसलमान औरतें(दादी-नानी) छोटे बच्चें को रात में बतौर कहानी सुनाया करती थीं. पीएचडी करने के बाद राही अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे. यहीं रहते हुए राही ने `आधा गांव', `दिल एक सादा कागज', `ओस की बूंद',`हिम्मत जौनपुरी' उपन्यास व १९६५ के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी `छोटे आदमी की बड़ी कहानी'लिखी. उनकी ये सभी कृतियां हिंदी में थीं. इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य `१८५७' तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व गजलें लिखे चुके थे, लेकिन उर्दूवालों से इस बात पर झगड़ा हो जाने पर कि हिंदोस्तानी जबान सिर्फ फारसी रस्मुलखत (फारसी लिपि) में ही लिखी जा सकती है, राही ने देवनागरी लिपि में लिखना शुरू किया और अंतिम समय तक वे इसी लिपि में लिखते रहे. राही की जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा देश का विभाजन था, जिसके लिए वह मुसलिम लीग, कांग्रेस और धर्म की राजनीति को दोषी मानते थे. उनके लिए सबसे बड़ा धर्म `हिंदोस्तानियत' थी और उसकी संस्कृति को यह अपनी सबसे बड़ी धरोहर व विरासत मानते थे. इस `हिंदोस्तानियत' को नुकसान पहुंचानेवाली वह हर उस शक्ति के खिलाफ थे, चाहे वह मुसलिम सांप्रदायिकता की शक्ल में हो या हिंदू सांप्रदायिकता की शक्ल में. इसीलिए वह अपने जीवन भर इन शक्तियों की आंख की किरकिरी बने रहे. हम सब के लिए दुर्भाग्य की बात है कि सच्चाई और ईमान की वकालत करने वाले ऐसे पुरोधा महज़ ६६ साल की उम्र में १५ मार्च १९९२ को दुनिया से कूच कर गए। "हिंदोस्तानियत" के बारे में अगर आपको इनके विचार जानने हों तो कृपया सृजनगाथा पर "उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा" और "तुलसी का रामचरितमानस" नामक आलेख ज़रूर पढें। हम वो आलेख यहीं मुहैया करा देते लेकिन जगह की कमी है। चलिए राही साहब के बारे में बहुत सारी बातें हो गईं, अब हम आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। उससे पहले उनका लिखा यह बहुचर्चित शेर:

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद,
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद


शेर के बाद आनंद लीजिए "अशोक खोसला" की आवाज़ में "राही" साहब की इस गज़ल का:

अजनबी शहर के/में अजनबी रास्ते , मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे,
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे।

ज़हर मिलता रहा, ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे,
जिंदगी भी हमें आज़माती रही और हम भी उसे आज़माते रहे।

ज़ख्म जब भी कोई ज़हनो दिल पे लगा, तो जिंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला,
हम भी गोया किसी साज़ के तार है, चोट खाते रहे, गुनगुनाते रहे।

कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया,
इतनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे।

सख्त हालात के तेज़ तूफानों, गिर गया था हमारा जुनूने वफ़ा,
हम चिराग़े-तमन्ना़ जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

भड़का रहे हैं आग लब-ए-नगमागर से हम,
_____ क्या रहेंगे जमाने के डर से हम..


आपके विकल्प हैं -
a) चुप, b) नाराज़, c) खामोश, d) खौफ़ज़दा

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मसीहा" और शेर कुछ यूं था -

शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-मसीहा लेकर
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह

सुदर्शन फ़ाकिर साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना सीमा जी ने। आपने "मसीहा" शब्द पर कुछ शेर भी पेश किए:

सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो
मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने (कैफ़ी आज़मी)

इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे (गा़लिब)

गिर जाओगे तुम अपने मसीहा की नज़र से
मर कर भी इलाज-ए-दिल-ए-बीमार न माँगो (क़तील शिफ़ाई)

सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। शामिख जी, यह गज़ल है हीं इतनी प्यारी कि बार-बार इसी से शेर उठाने का जी करता है। आप तो बस मज़े लें। ये रहे आपके तरकश के तीर:

इश्क़ का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा (सुदर्शन फ़ाकिर)

जहां में हैं लाख दुश्मन-ए-जाँ
कोई मसीहा नफ़स नहीं है (शकील बदायुनी)

इनके बाद अपने स्वरचित शेरों के साथ शरद जी और मंजु जी ने महफ़िल में हाज़िरी लगाई। ये रहे आप दोनों के शेर (क्रम से):

मिरे मसीहा कभी इतना करम भी कर दे
हरेक शख्स में इन्सानियत का फ़न भर दे।

जब -जब मानवता है रोती ,
तब -तब आंसुओं को पोछने के लिए मसीहा आता है कोई

निर्मला जी,महफ़िल में आपका स्वागत है। गुलज़ार साहब वैसे भी हमें बहुत प्रिय हैं,इसलिए जब भी उनकी बात चलती है कुछ अलग और अनोखा हीं होता है।
सुमित जी, इतने दिन कहाँ थे। महफ़िल आपके बिना सूनी थी। खैर कोई बात नहीं, अब तो गायब होने का कोई इरादा नहीं है ना? यह रही आपकी पेशकश:

दम मेरी आँखो मे अटका है देखूँ तो सही,
क्या मसीहा से मेरे दर्द का दरमां होगा (जहाँ तक हमें पता है "दरमां" का अर्थ इलाज़ होता है और यह अर्थ यहाँ फिट भी बैठता है)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

sumit said…
तनहा जी धन्यवाद
दरमां शब्द का अर्थ बताने के लिए
पिछले कुछ दिनों से कभी मेरे कंप्यूटर तो कभी मेरी तबियत ठीक नहीं थी इसीलिये नहीं आ पाया कुछ महफिलों में
sumit said…
सही शब्द चुप और खामोश दोनों हे लग रहे है इसीलिये दोनों पर शेर लिख देता हूँ
शेर चुप शब्द पर -मैं चुप था तो चलती हवा रुक गयी ,जुबा सब समजते है जज्बात की
sumit said…
खामोश पर शेर-हर तरफ एक पुरुसरार सी खामोशी है,
अपने साये से कोई बात करे, कुछ बोले.
तल्खिये मय में जरा तल्खिये दिल भी घोले....

पुरुसरार aur तल्खिये का क्या अर्थ होता है ?
sumit said…
This post has been removed by the author.
sumit said…
शब्द शायद तलखिये है
सही शब्द है : खामोश (साहिर की ग़ज़ल)

शे’र पेश है :
खामोश रह के तुमने बहुत कह दिया सनम
हम बोल के भी तुमसे कभी कुछ न कह सके ।
(स्वरचित)
भड़का रहे है आग लबे नगमागर से हम
खामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम ।

कुछ और बढ गए जो अंधेरे तो क्या हुआ
मायूस तो नही है तलु-ए- सहर से हम ।

ले दे के अपने पास फ़कत इक नज़र तो है
क्यूं देखे ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम ।

माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ खार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम ।
(साहिर लुधियानवी)
seema gupta said…
ठीक है - जो बिक गया, खामोश है
क्यों मगर सारी सभा खामोश है

जल रही चुपचाप केसर की कली
चीड़वन क्योंकर भला खामोश है

गरदनों पर उँगलियाँ विष-गैस की
संगमरमर का किला खामोश है

यह बड़े तूफान की चेतावनी
जो उमस में हर दिशा खामोश है

आ गई हाँका लगाने की घड़ी
क्यों अभी तक तू खड़ा खामोश है
(ऋषभ देव शर्मा )
regards
seema gupta said…
रास्ते ख़ामोश हैं और मंज़िलें चुपचाप हैं
ज़िन्दगी मेरी का मकसद, सच कहूं तो आप हैं
(तेजेन्द्र शर्मा )
regards
seema gupta said…
अशोक खोसला" जी की आवाज में इस ग़ज़ल को यहाँ सुनवाने का दिल से आभार, हमने ये ग़ज़ल पहली बार सुनी.

regrads
Manju Gupta said…
जवाब -खामोश
स्वरचित शेर -
गुनहगार हो तुम मेरी जिन्दगी के ,
खामोश जुबान का दिया उपहार तुमने .
ताउम्र साथ है उपहार ,
जीत कर हारती रही बार -बार .

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