Skip to main content

इश्क ने ऐसा नचाया कि घुंघरू टूट गए........"लैला" की महफ़िल में "क़तील"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२७

धीरे-धीरे महफ़िल में निखार आने लगा है। भले हीं पिछली कड़ी में टिप्पणियाँ कम थीं,लेकिन इस बात की खुशी है कि इस बार बस "शरद" जी ने हीं भाग नहीं लिया, बल्कि "दिशा" जी ने भी इस मुहिम में हिस्सा लेकर हमारे इस प्रयास को एक नई दिशा देने की कोशिश की। "दिशा" जी ने न केवल अपनी सहभागिता दिखाई, बल्कि "शरद" जी से भी पहले उन्होंने दोनों सवालों का जवाब दिया और सटीक जवाब दिया, यानी कि वे ४ अंकों की हक़दार हो गईं। "शरद" जी को उनके सही जवाबों के लिए ३ अंक मिलते हैं। इस तरह "शरद" जी के हुए ७ अंक और दिशा जी के ४ अंक। "शरद" जी, आपने "इक़बाल बानो" की जिस गज़ल की बात की है, अगर संभव हुआ तो आने वाले दिनों में वह गज़ल हम आपको जरूर सुनवाएँगे। चूँकि किसी तीसरे इंसान ने अपने दिमागी नसों पर जोर नहीं दिया, इसलिए २ अंकों वाले स्थान खाली हीं रह गए। चलिए कोई बात नहीं, एक एपिसोड में हम ४ अंक से ३ अंक तक पहुँच गए तो अगले एपिसोड यानी कि आज के एपिसोड में हमें २ अंक पाने वाले लोग भी मिल हीं जाएंगे। वैसे "मज़रूह सुल्तानपुरी" साहब का एक शेर भी हैं कि "मैं अकेला हीं चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।" अब जब इस मुहिम की शुरूआत हो गई है तो एक न एक दिन सफ़लता मिलेगी हीं। इसी दृढ विश्वास के साथ आज की पहेलियों का दौर आरंभ करते हैं। उससे पहले- हमेशा की तरह इस अनोखी प्रतियोगिता का परिचय : २५ वें से २९ वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी को २ अंक मिलेंगे। जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है,मतलब कि उससे जुड़ी बातें किस अंक में की गई थी। इन ५ कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की तीन गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ३०वीं से ३५वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) महज़ "नौ" साल की उम्र में "महाराज हरि सिंह" के दरबार की शोभा बनने वाली एक फ़नकारा जो "अठारह" साल की उम्र में चुपके से महल से इस कारण भाग आई ताकि वह महाराज के "हरम" का एक हिस्सा न बन जाए।
२) एक फ़नकार जिन्हें जनरल "अयूब खान" ने "तमगा-ए-इम्तियाज", जनरल "ज़िया-उल-हक़" ने "प्राइड औफ़ परफारमेंश" और जनरल "परवेज मु्शर्रफ़" ने "हिलाल-ए-इम्तियाज" से नवाजा। इस फ़नकार की नेपाल के राजदरबार से जुड़ी एक बड़ी हीं रोचक कहानी हमने आपको सुनाई थी।


सवालों का पुलिंदा पेश करने के बाद महफ़िल की और लौटने में जो मज़ा है, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता। वैसे आज की महफ़िल की बात हीं कुछ अलग है। न जाने क्यों कई दिनों से ये शायर साहब मेरे अचेतन मस्तिष्क में जड़ जमाए बैठे थे। यहाँ तक कि पिछली महफ़िल में हमने जो शेर डाला था, वो भी इनका हीं था। शायद यह एक संयोग है कि शेर डालने के अगले हीं दिन हमें उनकी पूरी की पूरी नज़्म सुनने को नसीब हो रही है। दुनिया में कई तरह के तखल्लुस देखे गए हैं, और उनमें से ज्यादातर तखल्लुस औरों पर अपना वर्चस्व साबित करने के लिए गढे गए मालूम होते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी शायर हुए हैं, जो अपने तखल्लुस के बहाने अपने अंदर बसे दर्द की पेशगी करते हैं। ऐसे हीं शायरों में से एक शायर हैं जनाब "क़तील शिफ़ाई"। क़तील का अर्थ होता है,वह इंसान जिसका क़त्ल हुआ हो। अब इस नाम से हीं इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायर साहब अपनी ज़िंदगी का कौन-सा हिस्सा दुनिया के सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं।२४ दिसम्बर १९१९ को पाकिस्तान के "हरिपुर" में जन्मे "औरंगजेब खान" क़तील हुए अपनी शायरी के कारण तो "शिफ़ाई" हुए अपने गुरू "हक़ीम मोहम्मद शिफ़ा" के बदौलत। बचपन में पिता की मौत के कारण इन्हें असमय हीं अपनी शिक्षा का त्याग करना पड़ा। रावलपिंडी आ गए ताकि किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकें। ६० रूपये के मेहनताने पर एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी कर ली। १९४६ में लाहौर के "अदब-ए-लतिफ़" से जब असिसटेंट एडिटर के पद के लिए न्यौता आया तो खुद को रोक न सके , आखिर बचपन से हीं साहित्य और शायरी में रूचि जो थी। इनकी पहली गज़ल "क़मर जलालाबादी" द्वारा संपादित साप्ताहिक पत्रिका "स्टार" में छपी। इसके बाद तो इनका फिल्मों के लिए रास्ता खुल गया। इन्होंने अपना सबसे पहला गाना जनवरी १९४७ में रीलिज हुई फिल्म "तेरी याद" के लिए लिखा। १९९९ में रीलिज हुई "बड़े दिलवाला" और "ये है मुंबई मेरी जान" तक इनके गानों का दौर चलता रहा। "क़तील" साहब की कई सारी नज़्में और गज़लें आज भी मुशायरों में गुनगुनाई जाती हैं , मसलन "अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको", "उल्फ़त की नई मंज़िल को चला तू", "जब भी चाहे एक नई सूरत बना लेते हैं लोग", "तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं" और "वो दिल हीं क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे"। क़तील साहब से जुड़ी और भी बातें हैं,लेकिन सब कुछ एकबारगी खत्म कर देना अच्छा न होगा, इसलिए बाकी बातें कभी बाद में करेंगे, अभी आज की फ़नकारा की ओर रूख करते हैं।

"मल्लिका पुखराज" और "फ़रीदा खानुम" के बाद आज हम जिन फ़नकारा को लेकर आज हाज़िर हुए हैं, गज़ल और नज़्म-गायकी में उनका भी अपना एक अलग रूतबा है। यूँ तो हैं वे बांग्लादेश की, लेकिन पाकिस्तान और हिंदुस्तान में भी उनके उतने हीं अनुपात में प्रशंसक हैं,जितने अनुपात में बांग्लादेश में हैं। अनुपात की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि हिंदुस्तान की जनसंख्या पाकिस्तान और बांग्लादेश से कहीं ज्यादा है, इसलिए प्रशंसकों की संख्या की तुलना बेमानी होगी। ७० के दशक में जब उन्होंने "दमादम मस्त कलंदर" गाया तो हिंदुस्तानी फिल्मी संगीत के चाहने वालों के दिलों में एक हलचल-सी मच गई। १९७४ में रीलिज हुई "एक से बढकर एक" के टाईटल ट्रैक को गाकर तो वे रातों-रात स्टार बन गईं। कई लोगों को यह भी लगने लगा था कि अगर वे बालीवुड में रूक गई तो मंगेशकर बहनों (लता मंगेशकर और आशा भोंसले) के एकाधिकार पर कहीं ग्रहण न लग जाए। लेकिन ऐसा न हुआ, कुछ हीं फ़िल्मों में गाने के बाद उन्होंने बंबई को छोड़ दिया और पाकिस्तान जा बसीं। वैसे बप्पी दा के साथ उनकी जोड़ी खासी चर्चित रही। "ई एम आई म्युजिक" के लिए इन दोनों ने "सुपर-रूना" नाम की एक एलबम तैयार की, जिसे गोल्ड और प्लैटिनम डिस्कों से नवाज़ा गया। पाकिस्तान के जानेमाने संगीत निर्देशक "नैयर" के साथ उनकी एलबम "लव्स आफ़ रूना लैला" को एक साथ दो-दो प्लैटिनम डिस्क मिले। अब तक तो आप समझ हीं गए होंगे कि हम किन फ़नकारा की बात कर रहे हैं। जी हाँ, हम "रूना लैला" की हीं बात कर रहे हैं, जिन्होंने आज तक लगभग सत्रह भाषाओं में गाने गाए हैं और जिन्हें १५० से भी ज्यादा पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। "रूना लैला" संगीत के क्षेत्र में कैसे उतरीं, इसकी बड़ी हीं मज़ेदार दास्तां है। "रूना" के लिए संगीत बस इनकी बड़ी बहन "दिना" की गायकी तक हीं सीमित था। हुआ यूँ कि जिस दिन "दिना" का परफ़ार्मेंस था,उसी दिन उनकी आवाज़ बैठ गई। आयोजन विफ़ल न हो जाए, इससे बचने के लिए "रूना" को उनकी जगह उतार दिया गया। उस समय "रूना" इतनी छोटी थीं कि सही से "तानपुरा" पकड़ा भी नही जा रहा था। किसी तरह जमीन का सहारा देकर उन्होंने "तानपुरा" पर राग छेड़ा और एक "ख्याल" पेश किया। एक छोटी बच्ची को "ख्याल" पेश करते देख "दर्शक" मंत्रमुग्ध रह गए। बस एक शुरूआत की देर थी ,फिर उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। आज वैसा हीं कुछ मनमोहक अंदाज लेकर हमारे सामने आ रही हैं "रूना लैला"। उस नज़्म को सुनने से पहले क्यों न हम आज के शायर "क़तील शिफ़ाई" का एक प्यारा-सा शेर देख लें:

तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है


चलिए अब थोड़ा भी देर किए बिना आज की नज़्म से रूबरू होते हैं। इस नज़्म को संगीत से सजाया है "साबरी ब्रदर्स" नाम से प्रसिद्ध भाईयों की जोड़ी में से एक "मक़बूल साबरी" ने। "मक़बूल" साहब और "साबरी ब्रदर्स" की बातें किसी अगली कड़ी में। अभी तो बस ऐसा रक्श कि घुंघरू टूट पड़े:

वाइज़ के टोकने पे मैं क्यों रक्श रोक दूँ,
उनका ये हुक्म है कि अभी नाचती रहूँ।

मोहे आई न जग से लाज,
मैं इतनी जोर से नाची आज,
कि घुंघरू टूट गए।

कुछ मुझपे नया जोबन भी था,
कुछ प्यार का पागलपन भी था,
एक पलक पलक बनी तीर मेरी,
एक जुल्फ़ बनी जंजीर मेरी,
लिया दिल साजन का जीत,
वो छेडे पायलिया ने गीत
कि घुंघरू टूट गए।

मैं बसी थी जिसके सपनों में,
वो गिनेगा मुझको अपनों में,
कहती है मेरी हर अंगड़ाई,
मैं पिया की नींद चुरा लाई,
मैं बनके गई थी चोर,
कि मेरी पायल थी कमजोर
कि घुंघरू टूट गए।

धरती पर न मेरे पैर लगे,
बिन पिया मुझे सब गैर लगे,
मुझे अंग मिले परवानों के,
मुझे पंख मिले अरमानों के,
जब मिला पिया का गाँव,
तो ऐसा लचका मेरा पाँव
कि घुंघरू टूट गए।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

रूह बेचैन है एक दिल की अजीयत क्या है,
दिल ही __ है तो ये सोज़े मोहब्बत क्या है...

आपके विकल्प हैं -
a) शोला, b) दरिया, c) शबनम, d) पत्थर

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था -"समुन्दर" और शेर कुछ यूं था-

मैं समुन्दर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको...

दिशा जी ने यहाँ भी बाज़ी मारी. बहुत बहुत बधाई सही जवाब के लिए, आपका शेर भी खूब रहा -

इश्क का समंदर इतना गहरा है
जो डूबा इसमे समझो तैरा है...

वाह....

शरद जी ने भी अपने शेर से खूब रंग जमाया -

अपनी बातों में असर पैदा कर
तू समन्दर सा जिगर पैदा कर
बात इक तरफा न बनती है कभी
जो इधर है वो उधर पैदा कर ।

रचना जी ने फरमाया -

समंदर न सही समंदर सा हौसला तो दे
ज़िन्दगी से रिश्ता हम को निभाना तो है

तू लिखता चल किनारे पर नाम उनका
समंदर की मौजों को उनसे टकराना तो है

तो सुमित जी ने कुछ त्रुटी के साथ ही सही एक बढ़िया शेर याद दिलाया -

मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे, जो समंदर मेरी तलाश में है....

मनु जी पधारे इस शेर के साथ -

समंदर आज भी लज्ज़त को उसके याद करता है
कभी इक बूँद छूट कर आ गिरी थी, दोशे -बादल से...

वाह...कुलदीप अंजुम जी ने तो समां ही बांध दिया ऐसे नायाब शेर सुनकर -

अपनी आँखों के समंदर में उतर जाने दे
तेरा मुजरिम हूँ मैं मूझे डूब कर मार जाने दो

गुडियों से खेलती हुयी बच्ची की आंख में
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमें

और

बड़े लोगो से मिलने में हमेशा फासला रखना
मिले दरिया समंदर में कभी दरिया नहीं रहता....

पर दोस्तों आप हमसे मिलने में कभी कोई फासला मत रखियेगा.....जो भी दिल में हो खुलकर कहियेगा....इसी इल्तिजा के साथ अगली महफिल तक अलविदा....

अहा! आपसे विदा लेने से पहले पूजा जी की टिप्पणी पर टिप्पणी करना भी तो लाज़िमी है। पिछली बार की उलाहनाओं के बाद पूजा जी ने शेर तो फरमाया, लेकिन यह क्या शब्द हीं गलत चुन लिया । सही शब्द पूजा जी अब तक जान हीं चुकी होंगी।

यह देखिए, पूजा जी ने मनु जी की खबर ली तो मनु जी एक नए शेर के साथ फिर से हाज़िर हो गए, शायद इसी को लाईन हाज़िर होना कहते हैं :) । वैसे मुझे लगता है कि मनु जी को भूलने की बीमारी लग गई है, हर बार अगला शेर डालने समय वे पिछले शेर को भूल चुके होते हैं और हर बार हीं उनका कहना होता है कि "ये भी नहीं के ये शे'र मैंने कब सुनाये हैं"...मनु जी सुधर जाईये........या फिर पता कीजिए कि आपके नाम से शेर कौन डाल जाता है।

चलिए अब बहुत बातें हो गईं। अगली कड़ी तक के लिए "खुदा हाफ़िज़"..
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

VD भाई बहुत अनमोल जानकारियाँ सहज कर आप लाते हैं. वाकई ये श्रृखला अच्छे संगीत के कद्रदानों के लिए सर्वश्रेष्ठ रेफेरेंस है....बहुत बहुत बधाई इतने अच्छे संचालन के लिए .
सही शब्द है : ’शोला ’
शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो
This post has been removed by the author.
This post has been removed by the author.
रुना लैला जी ने फ़राज़ साहब की लिखी और मेहदी हसन साहब की गयी ग़ज़ल दुबारा गयी
रंजिश ही सही ,दिल ही दुखाने के लिए आ ........
ऐसा कभी नहीं लगता कि इसमें और हसन साहब की गयी हूई में कुछ एक जैसा है
एकदम ताजगी से गाई है
जी अब बात आज के शेर की

सही शब्द "शोला " प्रतीत होता है

एक शेर याद आ रहा है
शोला था जल बुझा हूँ
हवाएं मूझे ना दो
मैं कब का जा चूका हूँ
सदाएं मूझे ना दो
(उस्ताद मेहँदी हसन साहब ने इसे बड़ी ही खूबसूरती से गाया है )
manu said…
सही में पिछली बार पूजा जी ने सही में लाईन हाज़िर कर दिया था...
पर शुक्रिया पिछला शे'र याद रखने के लिए...
:)

ये भी सही है के मैं शे'र लिख कर भूल जाता हूँ....खासकर वो फुर्सत वाला शे'र,,,पता ही नहीं किस आलम में क्या कह दिया जाता है,,,,
खैर,,,

शोला-ऐ -गम में जल रहा है कोई,
लम्हा-लम्हा पिघल रहा है कोई,

एक कैफी आज़मी की लिखी लाईने याद आयी जो मैंने फिल्म हकीकत में सुनी थीं...मुझे ख़ास पसंद हैं.....
जंग रहमत है के लानत ये सवाल अब न उठा
जो सर पे आ गयी है जंग तो रहमत होगी
गौर से देखना जलते हुये शोलों का जलाल
इसी दोज़ख के किसी कोने में जन्नत होगी..
Disha said…
१) मल्लिका पुखराज (कड़ी-२५)
२) खाँ साहब उर्फ मेंहदी हसन (कड़ी-१२)
Disha said…
शब्द है - शोला
स्वलिखित शेर
हुस्न पे अपने ना इतराइये
शोला ए दिल ना भड़काइये
एक बार जो हवा लगी इश्क की
फिर ना कहना कि दूर जाइये

कौन था जो नफ़रत को हवा दे गया
दबी चिंगारी को शोला बना कर गया
अभी तो मुहब्बत का गुल खिला था
गुलिस्तां में मेरे आग लगा गया
kuch aur sher yaad aa gaye hain

यूँ तो शोला -ऐ -जान सर्द हो चुका हूँ मैं
लेकिन सुलग उठूँ तो हवा दीजिये मुझे … ...

ज़िन्दगी एक सुलगती सी चिता है "साहिल"
शोला बनती हैं ना यह बुझ के धुंआ होती हैं

ऐ हुस्ने बेपरवाह तुझे शबनम कहूँ शोला कहूँ
फूलों में भी शोखी तो है किसको मगर तुझसा कहूँ
पिछली महफ़िल में एक बहुत ही खुबसूरत शेर याद नहीं आया था
अब याद आ रहा है बहुत ही खूबसूरत है मुलाहजा फरमाईयेगा

समन्दरों को भी हैरत हुई की डूबते वक़्त
हमने किसी को मदद के लिए पुकारा नहीं
वो हम नहीं थे तो कौन था सरे बाज़ार
जो कह रह था कि बिकना हमें गवारा नहीं

-जनाब इफ्तिखार आरिफ
सही शब्द शोला है, इस पर एक ही शेर याद आता है जो फराज साह्ब का है, पर शरद जी और कुलदीप जी उसे पहले ही लिख चुके है, और शेर याद आयेगा तो फिर से महफिल मे आ जायेगे

अभी के लिए बाय बाय
अब कतील शिफाई के साहब के कुछ बेहतरीन शेर .........

अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रौशनी हो घर जलाना चाहता हूँ .

कल रात दिखा के ख्वाब-ऐ-तरब सेज को सूना छोड़ गया
हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की खुश्बू आती है
कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर -सा मैं हो जाता हूँ
जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की खुश्बू आती है


दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह
या धरती के ज़ख्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह
(इसे लता जी ने जगजीत सिंह जी के म्यूजिक पर गया है )
तब तक के लिए बाय बाय
समझ नही आ रहा क्या लिखना चाहिए था लेकिन बाय बाय
Shamikh Faraz said…
शब्द है - शोला
manu said…
अरे सुमित भाई ( आगामी यूनी पाठक)
ये तीन तीन कमेन्ट दाग कर कहाँ चले..?
क्या मस्त गाना याद आया है..
शोला जो भड़के,,,
दिल मेरा धडके,,
दर्द जवानी का सताए बढ़ बढ़ के,,,,
प्रश्न १ : मल्लिका पुखराज ( २५)
प्रश्न २ : मेह्न्दी हसन ( १२)
pooja said…
रुना लैला का गाया यह गीत हमारी माताजी को बहुत पसंद था, उनके साथ साथ हम भी इसे बहुत सुना करते थे :) . अब बहुत सालों बाद फिर से इसे सुनवाने के लिए धन्यवाद. और धन्यवाद इसके रचयिता से परिचय करवाने के लिए भी :)

माफ़ कीजिये मनु जी,
लाइन हाज़िर करना नहीं चाहती थी, बस, महफ़िल की पिछली कड़ियों में आपका यह शेर देख चुकी थी, तो याद दिला दिया. वैसे आज का शेर भी आपने आपकी ही एक ग़ज़ल का सुनाया है... :). जो भी हो, बहुत बढ़िया है......... हमारे पास तो कहने के लिए कोई शेर ही नहीं है :(
manu said…
एक और याद आया,,,,
अपने 'फैज़ अहमद फैज़' साहिब की नज़्म से चार लाईने हैं.....

देख के आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले, सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफलों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन


aahangar----luhaar
aahan-------loha
tund--------tej,
quflon ke dahaane---taalon ka mukh
This post has been removed by the author.
जब गौर से पुराणी महफिलों को छाना
तो उत्तर पाता लगा
१.मलिका पुखराज
2 मेहदी हसन

असल में व्यस्तता के कारन रेगुलारिटी नहीं आ पाती है
सों सारी महफिल अटेंड नहीं कर पाता हूँ माफ़ी चाहूगा
लीजिये एक शेर और याद आगया

कभी गुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह
लोग मिलते हैं बदलते हुए मौसम की तरह
मेरे महबूब मेरे प्यार को इल्जाम ना दे
हिज्र में ईद मनाई है मुहर्रम की तरह
मैंने खुसबू की तरह तुझको किया है महसूस
दिल ने छेदा है तेरी याद को शबनम की तरह
कैसे हमदर्द हो तुम कैसी मसीहाई है
दिल पे नश्तर भी लगाते हो मरहम की तरह
rachana said…
शोला है शायद .

भूख के शोले जब पेट जलाते हैं
हम बच्चों को उम्मीद खिलाते हैं
सादर
रचना
सही शब्द शोला
शे'र- तुम मेरी वफाओ का इतना तो सिला देना
जलते हुए शोलो को कुछ और हवा देना
मनु भाई
जैसे ही शेर याद आया हम महफिल मे फिर आ गये
pooja said…
एक शेर लेकर हम फिर से महफ़िल में हाज़िर हैं :)

गिले शिकवों से रह तू दूर बन्दे
ये शोले बुझा न दें इश्क की लौ
Manju Gupta said…
जवाब -शोला
स्व रचित शेर -
शोला बनकर उनकी याद
दिल जला कर करे राख

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की