ताजा सुर ताल (9)
बरसों पहले मनोज कुमार की फिल्म आई थी- "रोटी कपडा और मकान", यदि आपको ये फिल्म याद हो तो यकीनन वो गीत भी याद होगा जो जीनत अमान पर फिल्माया गया था- "हाय हाय ये मजबूरी...". लक्ष्मीकांत प्यारेलाल थे संगीतकार और इस गीत की खासियत थी वो सेक्सोफोन का हौन्टिंग पीस जो गीत की मादकता को और बढा देता है. उसी पीस को आवाज़ के माध्यम से इस्तेमाल किया है विशाल भारद्वाज ने फिल्म "कमीने" के 'धन ताना न" गीत में जो बज रहा है हमारे ताजा सुर ताल के आज के अंक में. पर जो भी समानता है उपरोक्त गीत के साथ वो बस यहीं तक खत्म हो जाती है. जैसे ही बीट्स शुरू होती है एक नए गीत का सृजन हो जाता है. गीत थीम और मूड के हिसाब से भी उस पुराने गीत के बेहद अलग है. दरअसल ये धुन हम सब के लिए जानी पहचानी यूं भी है कि आम जीवन में भी जब हमें किसी को हैरत में डालना हो या फिर किसी बड़े राज़ से पर्दा हटाना हो, या किसी को कोई सरप्राईस रुपी तोहफा देना हो, तो हम भी इस धुन का इस्तेमाल करते है, हमारी हिंदी फिल्मों में ये पार्श्व संगीत की तरह खूब इस्तेमाल हुआ है, शायद यही वजह है कि इस धुन के बजते ही हम स्वाभाविक रूप से गीत से जुड़ जाते हैं. "ओमकारा" और "नो स्मोकिंग" के बाद विशाल भारद्वाज और गुलज़ार साहब की हिट जोड़ी लौटी है इस गीत के साथ -
आजा आजा दिल निचोड़े,
रात की मटकी फोडें,
कोई गुड लक् निकालें,
आज गुल्लक तो फोडें...
सुखविंदर की ऊर्जा से भरी हुई आवाज़ को सुनकर यूं भी जोश आ जाता है, साथ में जो गायक हैं उनका चयन एक सुखद आश्चर्य है, ये हैं विशाल शेखर जोड़ी के विशाल दादलानी. जब एक संगीतकार किसी दूसरे संगीतकार की आवाज़ का इस्तेमाल अपने गीत के लिए करे तो ये एक अच्छा चिन्ह है.
दिल दिलदारा मेरा तेली का तेल,
कौडी कौडी पैसा पैसा पैसे का खेल....
धन ताना ताना न न.....
गुलज़ार साहब अपने शब्द चयन से आपको कभी निराश नहीं करते, बातों ही बातों में कई बड़े राज़ भी खोल जाते हैं वो जिन्दगी के. गौर फरमाएं -
आजा कि वन वे है ये जिन्दगी की गली
एक ही चांस है....
आगे हवा ही हवा है अगर सांस है तो ये रोमांस है....
यही कहते हैं यही सुनते हैं....
जो भी जाता है जाता है, वो फिर से आता नहीं....
आजा आजा....
संगीत संयोजन विशाल का अद्भुत है जो पूरे गाने में आपको चूकने नहीं देता. बेस गीटार की उठती हुई धुन, और ताल का अनोखा संयोजन गीत को ऐसी गति देता है जो उसके मूड को पूरी तरह जचता है -
कोई चाल ऐसी चलो यार अब कि समुन्दर भी
पुल पे चले,
फिर मैं चलूँ उसपे या तू चले शहर हो अपने पैरों तले...
कई खबरें हैं, कहीं कब्रे हैं,
जो भी सोये हैं कब्रों में उनको जगाना नहीं.....
आजा आजा....
शहर की रात और सपनों की उठान, मस्ती और जीने की तेज़ तड़प, बहुत कम समय में बहुत कुछ पाने की ललक, ये गीत इस सभी जज्बातों को एकदम सटीक अभिव्यक्ति देता है. आर डी बर्मन साहब के बाद यदि कोई संवेदनात्मक तरीके गुलज़ार साहब की काव्यात्मक लेखनी को परवाज़ दे सकता है तो वो सिर्फ और सिर्फ विशाल भारद्वाज ही हैं. ख़ुशी की बात ये है कि फिल्म "कमीने" के संगीत ने इस जोड़ी की सफलता में एक पृष्ठ और जोड़ दिया है, अन्य गीतों का जिक्र आगे, अभी सुनते हैं फिल्म "कमीने" से ये दमदार गीत.
आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.
क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. विशाल के संगीत निर्देशन में एक सूफी गीत दिलेर मेहंदी ने गाया है, गुलज़ार साहब का लिखा. क्या याद है आपको वो गीत ? और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.
बरसों पहले मनोज कुमार की फिल्म आई थी- "रोटी कपडा और मकान", यदि आपको ये फिल्म याद हो तो यकीनन वो गीत भी याद होगा जो जीनत अमान पर फिल्माया गया था- "हाय हाय ये मजबूरी...". लक्ष्मीकांत प्यारेलाल थे संगीतकार और इस गीत की खासियत थी वो सेक्सोफोन का हौन्टिंग पीस जो गीत की मादकता को और बढा देता है. उसी पीस को आवाज़ के माध्यम से इस्तेमाल किया है विशाल भारद्वाज ने फिल्म "कमीने" के 'धन ताना न" गीत में जो बज रहा है हमारे ताजा सुर ताल के आज के अंक में. पर जो भी समानता है उपरोक्त गीत के साथ वो बस यहीं तक खत्म हो जाती है. जैसे ही बीट्स शुरू होती है एक नए गीत का सृजन हो जाता है. गीत थीम और मूड के हिसाब से भी उस पुराने गीत के बेहद अलग है. दरअसल ये धुन हम सब के लिए जानी पहचानी यूं भी है कि आम जीवन में भी जब हमें किसी को हैरत में डालना हो या फिर किसी बड़े राज़ से पर्दा हटाना हो, या किसी को कोई सरप्राईस रुपी तोहफा देना हो, तो हम भी इस धुन का इस्तेमाल करते है, हमारी हिंदी फिल्मों में ये पार्श्व संगीत की तरह खूब इस्तेमाल हुआ है, शायद यही वजह है कि इस धुन के बजते ही हम स्वाभाविक रूप से गीत से जुड़ जाते हैं. "ओमकारा" और "नो स्मोकिंग" के बाद विशाल भारद्वाज और गुलज़ार साहब की हिट जोड़ी लौटी है इस गीत के साथ -
आजा आजा दिल निचोड़े,
रात की मटकी फोडें,
कोई गुड लक् निकालें,
आज गुल्लक तो फोडें...
सुखविंदर की ऊर्जा से भरी हुई आवाज़ को सुनकर यूं भी जोश आ जाता है, साथ में जो गायक हैं उनका चयन एक सुखद आश्चर्य है, ये हैं विशाल शेखर जोड़ी के विशाल दादलानी. जब एक संगीतकार किसी दूसरे संगीतकार की आवाज़ का इस्तेमाल अपने गीत के लिए करे तो ये एक अच्छा चिन्ह है.
दिल दिलदारा मेरा तेली का तेल,
कौडी कौडी पैसा पैसा पैसे का खेल....
धन ताना ताना न न.....
गुलज़ार साहब अपने शब्द चयन से आपको कभी निराश नहीं करते, बातों ही बातों में कई बड़े राज़ भी खोल जाते हैं वो जिन्दगी के. गौर फरमाएं -
आजा कि वन वे है ये जिन्दगी की गली
एक ही चांस है....
आगे हवा ही हवा है अगर सांस है तो ये रोमांस है....
यही कहते हैं यही सुनते हैं....
जो भी जाता है जाता है, वो फिर से आता नहीं....
आजा आजा....
संगीत संयोजन विशाल का अद्भुत है जो पूरे गाने में आपको चूकने नहीं देता. बेस गीटार की उठती हुई धुन, और ताल का अनोखा संयोजन गीत को ऐसी गति देता है जो उसके मूड को पूरी तरह जचता है -
कोई चाल ऐसी चलो यार अब कि समुन्दर भी
पुल पे चले,
फिर मैं चलूँ उसपे या तू चले शहर हो अपने पैरों तले...
कई खबरें हैं, कहीं कब्रे हैं,
जो भी सोये हैं कब्रों में उनको जगाना नहीं.....
आजा आजा....
शहर की रात और सपनों की उठान, मस्ती और जीने की तेज़ तड़प, बहुत कम समय में बहुत कुछ पाने की ललक, ये गीत इस सभी जज्बातों को एकदम सटीक अभिव्यक्ति देता है. आर डी बर्मन साहब के बाद यदि कोई संवेदनात्मक तरीके गुलज़ार साहब की काव्यात्मक लेखनी को परवाज़ दे सकता है तो वो सिर्फ और सिर्फ विशाल भारद्वाज ही हैं. ख़ुशी की बात ये है कि फिल्म "कमीने" के संगीत ने इस जोड़ी की सफलता में एक पृष्ठ और जोड़ दिया है, अन्य गीतों का जिक्र आगे, अभी सुनते हैं फिल्म "कमीने" से ये दमदार गीत.
आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.
क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. विशाल के संगीत निर्देशन में एक सूफी गीत दिलेर मेहंदी ने गाया है, गुलज़ार साहब का लिखा. क्या याद है आपको वो गीत ? और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.
Comments
badhayi..
पर शाउद...
तू मेरे रूबरू है...
मेरी आँखों की इबादत है..
jinde shamiyane k tale guljar saab ki " jai ho!!!"