संगीत समीक्षा - शंघाई
और अंत में आपकी बात, अमित और दीपा तिवारी के साथ
खोंसला का घोंसला हो या ओए लकी लकी ओए हो, दिबाकर की फिल्मों में संगीत हटकर अवश्य होता है. उनका अधिक रुझान लोक संगीत और कम लोकप्रिय देसिया गीतों को प्रमुख धारा में लाने का होता है. इस मामले में ओए लकी का संगीत शानदार था, “तू राजा की राजदुलारी’ और “जुगनी” संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा ताज़े रहेंगें जाहिर है उनकी नयी फिल्म शंघाई से भी श्रोताओं को उम्मीद अवश्य रहेगी. अल्बम की शुरुआत ही बेहद विवादस्पद मगर दिलचस्प गीत से होती है जिसे खुद दिबाकर ने लिखा है. “भारत माता की जय” एक सटायर है जिसमें भारत के आज के सन्दर्भों पर तीखी टिपण्णी की गयी है. सोने की चिड़िया कब और कैसे डेंगू मलेरिया में तब्दील हो गयी ये एक सवाल है जिसका जवाब कहीं न कहीं फिल्म की कहानी में छुपा हो सकता है, विशाल शेखर का संगीत और पार्श्व संयोजन काफी लाउड है जो टपोरी किस्म के डांस को सप्पोर्ट करती है. विशाल ददलानी ने मायिक के पीछे जम कर अपनी कुंठा निकाली है. अल्बम का दूसरा गीत एक आइटम नंबर है मगर जरा हटके. यहाँ इशारों इशारों में एक बार फिर व्यंगात्मक टिप्पणियाँ की गयी है, जिसे समझ कर भरपूर एन्जॉय किया जा सकता है. इम्पोर्टेड कमरिया का नौटकी नुमा अंदाज़ श्रोताओं को रास आ सकता है. गीतकार कुमार ने अच्छे शब्द बुने हैं “दुआ” गीत के लिए वहीँ नंदनी श्रीकर की आवाज़ अच्छी जमी है “भरे नैना” गीत में. “खुदाया” अल्बम का सर्वश्रेष्ठ गीत प्रतीत होता है. इस सूफी अंदाज़ के गीत में श्रोताओं को काफी गहराई नज़र आएगी. “मोर्चा” गीत संभवता फिल्म के क्लाईमेक्स में आता होगा जहाँ, क्रांति का बिगुल है और अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने का जज्बा दिखाता रोष है, ये गीत अन्ना और उनकी टीम को निश्चित ही प्रेरित करेगा. भगवान विष्णु के १००० नामों की ध्वनि है मंत्र विष्णु सहस्र्नामम में, जिसको प्रमुख धारा की एक बॉलीवुड अल्बम में शामिल करना वाकई हिम्मत का काम है. विशाल शेखर यहाँ “कहानी” वाला जादू तो यहाँ नहीं रच पाए मगर निराश भी नहीं करते. कुल मिलाकर शंघाई के संगीत को रेडियो प्लेबैक की और से दी जा रही है २.८ की रेटिंग
पुस्तक चर्चा - टोला
पिकरेस्क (picaresque) यानी कि स्लमडोग मिलेनियर सरीखी कहानियों का चलन हर भाषा के साहित्य में मिलता है. ऐसा ही एक उपन्यास है रमेश दत्त दुबे लिखित "टोला". यहाँ ये कहानी इस श्रेणी की अन्य कहानियों जैसे निराला की "बिल्लेसुर बकरिहा" और "कुल्लीभाट" या फिर केदारनाथ अग्रवाल की "पतिया" जैसे उपन्यासों से अलग इस मामले में भी है कि ये व्यक्ति केंद्रित न होकर समूह केंद्रित अधिक है. बकौल कांति कुमार जैन रमेश के टोले में रहने वाले वो लोग हैं जो समाज के सबसे निचले स्तर पर है या कहें कि हाशिए पर हैं, उनके होने न होने से किसी को कुछ फरक नहीं पड़ता, वो बीडी और अवैध शराब बनाते हैं, गर्भपात करवाते हैं, स्त्रियां जंगल से लकड़ी बीन कर लाने, देह व्यापार करने, लड़ने झगडने और पति की मार खाने के लिए ही जन्म लेती है यहाँ. बाढ़, सूखा और महामारी में कभी पूरा का पूरा टोला खतम हो जाता है मगर कुछ दिनों बाद फिर से बस भी जाता है. किसी बेहतर जीवन का न कोई वादा, न कोई यकीं, न कोई उम्मीद...मगर लेखक इन घुप्प अंधेरों में भी कहीं मानवीय संवेदना तलाश रहा है. दमयंती और मर्दन के प्रेम में जैसे कोई दबी हुई आस टिमटिमा रही है. लेखक ने अपने रियलिस्टिक अप्रोच से पाठकों को बाँध कर रखा है. पृथ्वी का टुकड़ा और गांव का कोई इतिहास नहीं होता जैसे काव्य संग्रह रचने वाले रमेश दत्त दुबे का ये उपन्यास अँधेरी गलियों में जिंदगी के सहर की तलाश है, जो कुछ अलग किस्म का साहित्य पढ़ने को इच्छुक पाठकों को पसंद आ सकती है. उपन्यास के प्रकाशक हैं राधाकृष्ण प्रकाशन और कुल १०७ पृष्ठों की इस उपन्यास की कीमत है १५० रूपए मात्र
पुस्तक चर्चा - टोला
पिकरेस्क (picaresque) यानी कि स्लमडोग मिलेनियर सरीखी कहानियों का चलन हर भाषा के साहित्य में मिलता है. ऐसा ही एक उपन्यास है रमेश दत्त दुबे लिखित "टोला". यहाँ ये कहानी इस श्रेणी की अन्य कहानियों जैसे निराला की "बिल्लेसुर बकरिहा" और "कुल्लीभाट" या फिर केदारनाथ अग्रवाल की "पतिया" जैसे उपन्यासों से अलग इस मामले में भी है कि ये व्यक्ति केंद्रित न होकर समूह केंद्रित अधिक है. बकौल कांति कुमार जैन रमेश के टोले में रहने वाले वो लोग हैं जो समाज के सबसे निचले स्तर पर है या कहें कि हाशिए पर हैं, उनके होने न होने से किसी को कुछ फरक नहीं पड़ता, वो बीडी और अवैध शराब बनाते हैं, गर्भपात करवाते हैं, स्त्रियां जंगल से लकड़ी बीन कर लाने, देह व्यापार करने, लड़ने झगडने और पति की मार खाने के लिए ही जन्म लेती है यहाँ. बाढ़, सूखा और महामारी में कभी पूरा का पूरा टोला खतम हो जाता है मगर कुछ दिनों बाद फिर से बस भी जाता है. किसी बेहतर जीवन का न कोई वादा, न कोई यकीं, न कोई उम्मीद...मगर लेखक इन घुप्प अंधेरों में भी कहीं मानवीय संवेदना तलाश रहा है. दमयंती और मर्दन के प्रेम में जैसे कोई दबी हुई आस टिमटिमा रही है. लेखक ने अपने रियलिस्टिक अप्रोच से पाठकों को बाँध कर रखा है. पृथ्वी का टुकड़ा और गांव का कोई इतिहास नहीं होता जैसे काव्य संग्रह रचने वाले रमेश दत्त दुबे का ये उपन्यास अँधेरी गलियों में जिंदगी के सहर की तलाश है, जो कुछ अलग किस्म का साहित्य पढ़ने को इच्छुक पाठकों को पसंद आ सकती है. उपन्यास के प्रकाशक हैं राधाकृष्ण प्रकाशन और कुल १०७ पृष्ठों की इस उपन्यास की कीमत है १५० रूपए मात्र
और अंत में आपकी बात, अमित और दीपा तिवारी के साथ
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