Skip to main content

स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 2


भूली बिसरी यादें

पिछले सप्ताह से हमने एक नया साप्ताहिक स्तम्भ- ‘स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल’ आरम्भ किया है। इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में आज हम आपके लिए लाए हैं- ‘भूली बिसरी यादें’ शीर्षक के अन्तर्गत मूक और सवाक फिल्मों के दौर की कुछ यादें। इसके साथ-साथ आज के अंक में हम आपको 1932 में बनी फिल्म ‘मायामछिन्द्र’ का एक दुर्लभ गीत भी सुनवाएँगे।

‘भूली बिसरी यादें’ के पहले अंक में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। पिछले अंक में ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ के अन्तर्गत हमने आपको अपने साथी सुजॉय चटर्जी का संस्मरण प्रस्तुत किया था और आपसे भारत में निर्मित पहले मूक-कथा-चलचित्र ‘राजा हरिश्चन्द्र’ के प्रदर्शन की संक्षिप्त चर्चा भी की थी। 3 मई, 1913 को मुम्बई में प्रदर्शित इस मूक फिल्म से पहले भारत में फिल्म-निर्माण के तथा भारतीय जनमानस को इस नई विधा से परिचित कराने के जो भी प्रयास किए गए थे, आज हम आपसे इसी विषय पर थोड़ी चर्चा करेंगे।

‘राजा हरिश्चन्द्र’ से पहले
फिल्म 'राजा हरिश्चन्द्र' का विज्ञापन 

टाइम्स ऑफ इण्डिया, मुम्बई (तब बम्बई) के 7 जुलाई, 1896 के अंक में एक विदेशी फिल्म के प्रदर्शन का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। सार्वजनिक रूप किसी फिल्म के प्रदर्शन की सूचना देने वाला यह भारत का प्रथम विज्ञापन था। उसी दिन स्थानीय वाटसन होटल में लुईस और ऑगस्ट लुमियरे नामक फ्रांसीसी बन्धुओं की बनाई फिल्म- ‘मारवेल ऑफ दि सेंचुरी’ का प्रदर्शन हुआ था। यह भारत में प्रदर्शित प्रथम विदेशी फिल्म थी, बाद में 14 जुलाई, 1896 से मुम्बई के नावेल्टी थियेटर में इस फिल्म का नियमित प्रदर्शन हुआ। इस घटना के लगभग डेढ़ वर्ष बाद कोलकाता (तब कलकत्ता) में भी सिनेमाई हलचल का सूत्रपात हुआ। 9 फरवरी, 1898 के दिन कलकत्ता के स्टार थियेटर में एक लघु मूक फिल्म ‘दि फ्लावर ऑफ पर्सिया’ से लोगों को इस नई चमत्कारी विधा का परिचय मिला। इसी वर्ष तत्कालीन कलकत्ता के दो व्यवसायी बन्धु हीरालाल सेन और मोतीलाल सेन ने लन्दन से एक बाइस्कोप सिनेमेट्रोग्राफिक मशीन खरीदी। 4 अप्रैल को प्रयोग का तौर पर स्थानीय क्लासिक थियेटर में तीन-चार छोटी-छोटी आयातित फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। सेन बन्धुओं की बड़ी मस्जिद स्ट्रीट में एच.एल. सेन ऐंड ब्रदर्स नामक कम्पनी थी। उन्होने अपनी इस कम्पनी के नियंत्रण में ‘रॉयल बाइस्कोप कम्पनी’ का निर्माण किया और व्यावसायिक टूरिंग (घुमन्तू) सिनेमा के रूप में बंगाल, ओडिसा और बिहार के नगरों-कस्बों तक के लोगों को विदेश में बनी कुछ छोटी-छोटी फिल्में दिखाने लगे। लोगों के लिए परदे पर चलती-फिरती ये तस्वीरें एक चमत्कार से कम नहीं थी।

सवाक युग के धरोहर

मूक फिल्मों के युग की तमाम दिलचस्प बातें हम इस श्रृंखला की अगली कड़ियों में भी जारी रखेंगे। मूक फिल्मों के निर्माण का जो सिलसिला ‘राजा हरिश्चन्द्र’ फिल्म से आरम्भ हुआ था, वह 1931 में बनी पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ से टूटा। इस पहली सवाक फिल्म से ही भारतीय फिल्मों का संगीत के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध भी स्थापित हो गया। इस श्रृंखला के लिए जब हम तथ्यों की खोज कर रहे थे तब हमें 1932 में बनी कुछ फिल्मों के संगीत का अनमोल खजाना मिला। आपको याद होगा कि ‘स्वरगोष्ठी’ के 74वें अंक में हमने 1932 में बनी फिल्म ‘लाल-ए-यमन’ में फिरोज दस्तूर (यहाँ देखें) के गाये गीतों से आपका परिचय कराया था। आज के अंक में हम आपके लिए 1932 की ही एक और फिल्म ‘मायामछिन्द्र’ का एक बेहद मधुर और दुर्लभ गीत लेकर उपस्थित हुए हैं।
गोविन्दराव तेम्बे 

मूक फिल्मों के दौर में कोल्हापुर की प्रभात फिल्म कम्पनी कई सफल फिल्मों का निर्माण किया था। व्ही. शान्ताराम, एस. फत्तेलाल, विष्णुपन्त दामले और केशवराव ढेबर द्वारा संचालित यह फिल्म कम्पनी 1931 से पहले गोपाल कृष्ण, खूनी खंजर, चन्द्रसेना सहित 6 सफल फिल्मों का निर्माण कर चुकी थी। सवाक फिल्मों के दौर में 1932 में निर्मित ‘मायामछिन्द्र’, प्रभात फिल्म कम्पनी की दूसरी बोलती फिल्म थी। यह हिन्दी और मराठी दोनों भाषाओं में बनी चमत्कारपूर्ण दृश्यों से भरपूर एक रोचक फिल्म थी। अपने समय के विख्यात नाटककार मणिशंकर त्रिवेदी के नाटक ‘सिद्ध संसार’ का यह फिल्म-रूपान्तरण था। 84 महासिद्धों की कथाओं में तांत्रिक गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (अपभ्रंश- मछिन्द्रनाथ) की कथा, चमत्कारों से परिपूर्ण है। फिल्म के निर्देशक व्ही. शान्ताराम ने तत्कालीन सीमित तकनीकी संसाधनों से फिल्म को ऐसा भव्य और रोचक स्वरूप प्रदान किया कि दर्शक मुग्ध रह गए। फिल्म में गोविन्दराव तेम्बे ने मछिन्द्रनाथ, दुर्गा खोटे ने महारानी और मास्टर विनायक (अभिनेत्री नन्दा के पिता) ने गोरखनाथ की भूमिकाएँ अदा की थी। गोविन्दराव तेम्बे ही इस फिल्म के संगीतकार थे। ‘धुनों की यात्रा’ पुस्तक के लेखक पंकज राग, गोविन्दराव तेम्बे की प्रतिभा के बारे में लिखते हैं- ‘वे एक साथ संगीतकार, गायक, अभिनेता, नाटककार – सभी कुछ थे। हारमोनियम बजाने में तेम्बे को महारथ हासिल थी। शास्त्रीय संगीत के अपने विराट ज्ञान के लिए वे भास्करबुआ बखले और उस्ताद अल्लादिया खाँ को श्रेय देते थे।’ आइए, सवाक फिल्मों के आरम्भिक दौर की फिल्म ‘मायामछिन्द्र’ का एक दुर्लभ गीत सुनते हैं, जिसे अपने समय के महान संगीतकार गोविन्दराव तेम्बे ने गाया और स्वरबद्ध किया था।

फिल्म – मायामछिन्द्र : ‘छोड़ आकाश को सितारे जमीं पर आए...’ : संगीत और स्वर – गोविन्दराव तेम्बे




गीत के बोल यहाँ देखें

इसी गीत की प्रस्तुति के साथ ही अपने मित्र कृष्णमोहन मिश्र को आज यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिए। आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमें अवश्य लिखिएगा। आपकी प्रतिक्रिया, सुझाव और समालोचना से हम अपने इस स्तम्भ को और भी सुरुचिपूर्ण रूप प्रदान कर सकते हैं। हमें आप radioplaybackindia@live.com पर अवश्य लिखें।

‘स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल’ का अगला अंक ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ पर केन्द्रित होगा। गैर-प्रतियोगी रूप में इस श्रृंखला का अगला संस्मरण हमारे संचालक मण्डल के ही किसी सदस्य का होगा। क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि अगला संस्मरण किसका होगा? 

प्रस्तुति – कृष्णमोहन मिश्र

Comments

Sajeev said…
govindrao ji ko shat shat pranaam, waah krishnmohan ji...kya baat hai :)
cgswar said…
bahut khoob..
Madhavi Charudatta said…
We got an opportunity to listen to him. Good old memories. Even recording quality is good.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...