Skip to main content

सुर संगम में आज - गंभीर प्रकृति के राग यमन की बात

सुर संगम - २५ - राग यमन

प्रचीन काल से यह राग 'कल्याण' के नाम से ही प्रचलित था परंतु मुग़ल शासन काल के दौरान इस राग का नाम 'राग ईमान' या 'राग यमन' पड़ा।

योऽयं ध्वनि-विशेषस्तु स्वर-वर्ण-विभूषित:।
रंजको जनचित्तानां स राग कथितो बुधै:।।

उपरोक्त श्लोक का अर्थ है - स्वर और वर्ण से विभूषित ध्वनि, जो मनुष्यों का मनोरंजन करे, राग कहलाता है। सुर-संगम के २५वें साप्ताहिक अंक में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का स्वागत करता हूँ। सुर-संगम का स्तंभ मूलत: आधारित है भारतीय शास्त्रीय संगीत पर। तो हमने सोचा कि क्यों न आज के इस विशेष अंक में चर्चा की जाए भारतीय शास्त्रीय संगीत के अर्क की - यानी 'राग' की। राग सुरों के आरोहण और अवतरण का ऐसा नियम है जिससे संगीत की रचना की जाती है। कोई भी राग कम से कम पाँच और अधिक से अधिक ७ स्वरों के मेल से बनता है। राग का प्राचीनतम उल्लेख सामवेद में मिलता है। वैदिक काल में ज्यादा राग प्रयुक्त होते थे, किन्तु समय के साथ-साथ उपयुक्त राग कम होते गये। सुगम संगीत व अर्धशास्त्रीय गायनशैली में किन्ही गिने चुने रागों व तालों का प्रयोग होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में रागों की भरपूर विभिन्नता पाई जाती है। इन्हीं भिन्नताओं के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत को २ पद्धतियों में बाँटा गया है - हिंदुस्तानी व कर्नाटिक। सुर-संगम के आगामी अंकों में हम विभिन्न रागों को लेकर भी चर्चा करेंगे। आइए इसकी शुरुआत करते हैं राग 'यमन' से, किंतु इस राग के बारे में जानने से पहले सुन लेते हैं उस्ताद मुनव्वर खाँ द्वारा राग यमन की यह प्रस्तुति।

उस्ताद मुनव्वर खाँ - राग यमन


प्रथम पहर निशि गाइये ग नि को कर संवाद

जाति संपूर्ण तीवर मध्यम यमन आश्रय राग

इस राग को राग कल्याण के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति कल्याण थाट से होती है अत: इसे आश्रय राग भी कहा जाता है। जब किसी राग की उत्पत्ति उसी नाम के थाट से हो तो उसे आश्रय राग कहा जाता है। राग यमन की विशेषता है कि इसमें तीव्र मध्यम और अन्य स्वर शुद्ध प्रयोग किये जाते हैं। ग वादी और नि सम्वादी माना जाता है। इस राग को रात्रि के प्रथम प्रहर या संध्या समय गाया-बजाया जाता है। इसके आरोह और अवरोह दोनों में सातों स्वर प्रयुक्त होते हैं, इसलिये इसकी जाति सम्पूर्ण है। प्रचीन काल से यह राग 'कल्याण' के नाम से ही प्रचलित था परंतु मुग़ल शासन काल के दौरान इस राग का नाम 'राग ईमान' या 'राग यमन' पड़ा।

आरोह- सा रे ग, म॑ प, ध नि सां अथवा ऩि रे ग, म॑ प, ध नि सां ।

अवरोह- सां नि ध प, म॑ ग रे सा ।

पकड़- ऩि रे ग रे, प रे, ऩि रे सा ।


इस राग को गंभीर प्रकृति का राग माना गया है। इसमें बड़ा और छोटा ख्याल, तराना, ध्रुपद, तथा मसीतख़ानी और रज़ाख़ानी भी सामान्य रूप से गाई-बजाई जाती है। राग यमन जहाँ मुख्यतः हिन्दुस्तानी शैली में गाया-बजाया जाता है वहीं इसे दक्षिण भारत की कर्नाटिक शैली में राग कल्याण के रूप में गाया-बजाया जाता है। लीजिए प्रस्तुत है पं० द्त्तात्रेय विष्णु पालुस्कर द्वारा राग कल्याण में यह प्रस्तुति।

पं० डी. वी. पालुस्कर - राग कल्याण


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: एक महान रूद्रवीणा वादक जिनका हाल ही में निधन हुआ, सुर-संगेम देगा उन्हें आगामी अंक में श्रद्धांजलि।

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी को बधाई! क्षिति जी एक बार चूक गईं तो क्या? टक्कर तो आप बराबरी का दे रहीं हैं!

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे सुजॉय के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

Comments

This post has been removed by the author.
Kshiti said…
Rudra vina player ustad asad ali khaan.
बाल बाल बचा हूँ इस बार. पहले गलती कर दी थी पर जब तक सही उत्तर दिया ब्लोगर ने error दे दी. दुबारा submit करा और तब तक क्षिती जी ने भी उत्तर दिया.

ऐसा पहले भी हुआ है कि ब्लोगर ने error दी हो. शायद अगर एक समय पर दो लोग submit करते हैं तो ब्लोगर लोंक हो जाता है. मेरा ऐसा अनुमान है.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट