ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 687/2011/127
फिल्मों में ठुमरी विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" में इन दिनों हम ठुमरी शैली के विकास- क्रम पर चर्चा कर रहे हैं| बनारस में ठुमरी पर चटक लोक-रंग चढ़ा| यह वह समय था जब अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विफल हो गया था और एक-एक कर देशी रियासतें ब्रिटिश शासन के कब्जे में आते जा रहे थे| कलाकारों से राजाश्रय छिनता जा रहा था| भारतीय कलाविधाओं को अंग्रेजों ने हमेशा उपेक्षित किया| ऐसे कठिन समय में तवायफों ने, भारतीय संगीत; विशेष रूप से ठुमरी शैली को जीवित रखने में अमूल्य योगदान किया| भारतीय फिल्मों के प्रारम्भिक तीन-चार दशकों में अधिकतर ठुमरियाँ तवायफों के कोठे पर ही फिल्माई गई|
पिछले अंक में अवध के जाने-माने संगीतज्ञ उस्ताद सादिक अली खां का जिक्र हुआ था| अवध की सत्ता नवाब वाजिद अली शाह के हाथ से निकल जाने के बाद सादिक अली ने ही "ठुमरी" का प्रचार देश के अनेक भागों में किया था| सादिक अली खां के एक परम शिष्य थे भैयासाहब गणपत राव; जो हारमोनियम वादन में दक्ष थे| सादिक अली से प्रेरित होकर गणपत राव हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य पर ठुमरी और दादरा के बोल इतनी सफाई से बजाते थे कि श्रोता चकित रह जाते थे| भैयासाहब ने भी बनारस, गया, कलकत्ता आदि केन्द्रों में ठुमरी का प्रचार-प्रसार किया था| भैया गणपत राव ग्वालियर के थे और इनकी माँ का नाम चन्द्रभागा बाई था| महाराजा ग्वालियर की वह प्रेयसी थीं और एक कुशल गायिका भी थीं| भैया जी अपने समय के संगीतज्ञों में अद्वितीय थे| उनका पालन-पोषण संगीत के प्रमुख केन्द्र ग्वालियर में हुआ था, परन्तु उनकी स्वाभाविक अभिरुचि लोकप्रिय संगीत की ओर थी| सादिक अली की ठुमरियों पर दीवाने होकर उन्होंने लखनऊ की ठुमरी को अपनाया|
उन दिनों हारमोनियम भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपेक्षित था| गायन संगति के लिए सारंगी का ही प्रयोग मान्य था| यह उचित भी था; क्योंकि सारंगी ही एक ऐसा वाद्य है जो मानव-कंठ के सर्वाधिक निकट है| ऐसे माहौल में गणपत राव ने हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य को अपनाया और उस साज़ पर वह ठुमरी के बोलों को इतनी कुशलता से बजाते थे कि बड़े-बड़े सारंगी वादक भी यह कार्य नहीं कर पाते थे| यह भैया गणपत राव के साहसिक कदम का ही प्रतिफल है कि आज हारमोनियम केवल ठुमरी में ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संगीत में धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है| यहाँ तक कि आजादी के बाद तक "आकाशवाणी" में प्रतिबन्धित हारमोनियम आज स्टूडियो की शोभा बढ़ा रहा है| ठुमरी की विकास-यात्रा में नये-नये प्रयोग हुए तो कुछ भ्रान्तियाँ और रूढ़ियाँ भी टूटीं| ठीक इसी प्रकार फिल्मों में भी ठुमरी के कई नए प्रयोग किये गए| राज-दरबारों से लेकर तवायफ के कोठे तक ठुमरियों का फिल्मांकन हुआ| बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में ब्रिटिश अधिकारियों की देखा-देखी शेक्सपीयर के नाटकों के मंचन और ओपेरा आदि के लिए बने रंगमंच पर ठुमरियों और कथक नृत्य की प्रस्तुतियाँ होने लगी थीं| ठुमरी दरबार की ऊँची दीवार से बाहर तो निकल आई, लेकिन जनसामान्य से उसकी दूरी अभी भी बनी हुई थी| ऐसे आयोजन विशिष्ठ लोगों के लिए ही होते थे|
आज जो ठुमरी गीत आपके लिए हम प्रस्तुत करने जा रहें हैं, वह भी ब्रिटिश शैली के रंगमंच पर, कुछ ख़ास लोगों के बीच फिल्माई गई है| 1959 में प्रदर्शित फिल्म "धूल का फूल" में शामिल इस ठुमरी के बोल हैं "कासे कहूँ मन की बात..."| गीत में श्रृंगार का वियोग पक्ष ही रेखांकित हुआ है, परन्तु एक अलग अंदाज़ में| नायिका अपने प्रेमी के प्रति शिकवे-शिकायत व्यक्त करती है| गीत का मुखड़ा एक परम्परागत ठुमरी पर आधारित है| राग "काफी", तीन ताल और कहरवा में निबद्ध इस ठुमरी का गायन सुधा मल्होत्रा ने किया है| परदे पर इसे नृत्य की संगति में गाया गया है| गायिका गायन के साथ-साथ सितार वादन भी करती है| गीत के प्रारम्भ में सितार पर बेहद आकर्षक आलाप और उसके बाद सरगम प्रस्तुत किया गया है| फिल्म "धूल का फूल" के इस ठुमरी गीत के प्रसंग में अशोक कुमार, नन्दा, राजेन्द्र कुमार और माला सिन्हा दर्शक के रूप मौजूद हैं| फिल्म में गीत साहिर लुधियानवी का और संगीत एन. दत्ता का है| आइए राग "काफी" में निबद्ध फिल्म "धूल का फूल" की यह ठुमरी सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में सुनते हैं|
क्या आप जानते हैं...
कि थोड़े फेर-बदल के साथ "कासे कहूँ मन की बात" के स्थायी की यही पंक्तियाँ कुछ अन्य फ़िल्मों में भी प्रयोग हुए हैं। 1954 की फिल्म "सुबह का तारा" और 1979 में बनी फिल्म "भलामानुष" में इस ठुमरी की स्थायी पंक्तियाँ प्रयोग की गई हैं|
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 08/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ है बेग़म अख्तर की.
सवाल १ - किस राग आधारित है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, अविनाश जी और क्षिति जी को बधाई, क्षिति जी अगर शृंखला जीतनी है तो थोड़ी और तेज़ी दिखानी पड़ेगी :)
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
फिल्मों में ठुमरी विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" में इन दिनों हम ठुमरी शैली के विकास- क्रम पर चर्चा कर रहे हैं| बनारस में ठुमरी पर चटक लोक-रंग चढ़ा| यह वह समय था जब अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विफल हो गया था और एक-एक कर देशी रियासतें ब्रिटिश शासन के कब्जे में आते जा रहे थे| कलाकारों से राजाश्रय छिनता जा रहा था| भारतीय कलाविधाओं को अंग्रेजों ने हमेशा उपेक्षित किया| ऐसे कठिन समय में तवायफों ने, भारतीय संगीत; विशेष रूप से ठुमरी शैली को जीवित रखने में अमूल्य योगदान किया| भारतीय फिल्मों के प्रारम्भिक तीन-चार दशकों में अधिकतर ठुमरियाँ तवायफों के कोठे पर ही फिल्माई गई|
पिछले अंक में अवध के जाने-माने संगीतज्ञ उस्ताद सादिक अली खां का जिक्र हुआ था| अवध की सत्ता नवाब वाजिद अली शाह के हाथ से निकल जाने के बाद सादिक अली ने ही "ठुमरी" का प्रचार देश के अनेक भागों में किया था| सादिक अली खां के एक परम शिष्य थे भैयासाहब गणपत राव; जो हारमोनियम वादन में दक्ष थे| सादिक अली से प्रेरित होकर गणपत राव हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य पर ठुमरी और दादरा के बोल इतनी सफाई से बजाते थे कि श्रोता चकित रह जाते थे| भैयासाहब ने भी बनारस, गया, कलकत्ता आदि केन्द्रों में ठुमरी का प्रचार-प्रसार किया था| भैया गणपत राव ग्वालियर के थे और इनकी माँ का नाम चन्द्रभागा बाई था| महाराजा ग्वालियर की वह प्रेयसी थीं और एक कुशल गायिका भी थीं| भैया जी अपने समय के संगीतज्ञों में अद्वितीय थे| उनका पालन-पोषण संगीत के प्रमुख केन्द्र ग्वालियर में हुआ था, परन्तु उनकी स्वाभाविक अभिरुचि लोकप्रिय संगीत की ओर थी| सादिक अली की ठुमरियों पर दीवाने होकर उन्होंने लखनऊ की ठुमरी को अपनाया|
उन दिनों हारमोनियम भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपेक्षित था| गायन संगति के लिए सारंगी का ही प्रयोग मान्य था| यह उचित भी था; क्योंकि सारंगी ही एक ऐसा वाद्य है जो मानव-कंठ के सर्वाधिक निकट है| ऐसे माहौल में गणपत राव ने हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य को अपनाया और उस साज़ पर वह ठुमरी के बोलों को इतनी कुशलता से बजाते थे कि बड़े-बड़े सारंगी वादक भी यह कार्य नहीं कर पाते थे| यह भैया गणपत राव के साहसिक कदम का ही प्रतिफल है कि आज हारमोनियम केवल ठुमरी में ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संगीत में धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है| यहाँ तक कि आजादी के बाद तक "आकाशवाणी" में प्रतिबन्धित हारमोनियम आज स्टूडियो की शोभा बढ़ा रहा है| ठुमरी की विकास-यात्रा में नये-नये प्रयोग हुए तो कुछ भ्रान्तियाँ और रूढ़ियाँ भी टूटीं| ठीक इसी प्रकार फिल्मों में भी ठुमरी के कई नए प्रयोग किये गए| राज-दरबारों से लेकर तवायफ के कोठे तक ठुमरियों का फिल्मांकन हुआ| बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में ब्रिटिश अधिकारियों की देखा-देखी शेक्सपीयर के नाटकों के मंचन और ओपेरा आदि के लिए बने रंगमंच पर ठुमरियों और कथक नृत्य की प्रस्तुतियाँ होने लगी थीं| ठुमरी दरबार की ऊँची दीवार से बाहर तो निकल आई, लेकिन जनसामान्य से उसकी दूरी अभी भी बनी हुई थी| ऐसे आयोजन विशिष्ठ लोगों के लिए ही होते थे|
आज जो ठुमरी गीत आपके लिए हम प्रस्तुत करने जा रहें हैं, वह भी ब्रिटिश शैली के रंगमंच पर, कुछ ख़ास लोगों के बीच फिल्माई गई है| 1959 में प्रदर्शित फिल्म "धूल का फूल" में शामिल इस ठुमरी के बोल हैं "कासे कहूँ मन की बात..."| गीत में श्रृंगार का वियोग पक्ष ही रेखांकित हुआ है, परन्तु एक अलग अंदाज़ में| नायिका अपने प्रेमी के प्रति शिकवे-शिकायत व्यक्त करती है| गीत का मुखड़ा एक परम्परागत ठुमरी पर आधारित है| राग "काफी", तीन ताल और कहरवा में निबद्ध इस ठुमरी का गायन सुधा मल्होत्रा ने किया है| परदे पर इसे नृत्य की संगति में गाया गया है| गायिका गायन के साथ-साथ सितार वादन भी करती है| गीत के प्रारम्भ में सितार पर बेहद आकर्षक आलाप और उसके बाद सरगम प्रस्तुत किया गया है| फिल्म "धूल का फूल" के इस ठुमरी गीत के प्रसंग में अशोक कुमार, नन्दा, राजेन्द्र कुमार और माला सिन्हा दर्शक के रूप मौजूद हैं| फिल्म में गीत साहिर लुधियानवी का और संगीत एन. दत्ता का है| आइए राग "काफी" में निबद्ध फिल्म "धूल का फूल" की यह ठुमरी सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में सुनते हैं|
क्या आप जानते हैं...
कि थोड़े फेर-बदल के साथ "कासे कहूँ मन की बात" के स्थायी की यही पंक्तियाँ कुछ अन्य फ़िल्मों में भी प्रयोग हुए हैं। 1954 की फिल्म "सुबह का तारा" और 1979 में बनी फिल्म "भलामानुष" में इस ठुमरी की स्थायी पंक्तियाँ प्रयोग की गई हैं|
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 08/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ है बेग़म अख्तर की.
सवाल १ - किस राग आधारित है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, अविनाश जी और क्षिति जी को बधाई, क्षिति जी अगर शृंखला जीतनी है तो थोड़ी और तेज़ी दिखानी पड़ेगी :)
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments