पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत
भाग १
भाग २
अब आगे...
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले दो सप्ताह से आप इसमें आनंद ले रहे हैं सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत का। पहले भाग में पंडित जी के पारिवारिक पार्श्व और शुरुआती दिनों का हाल आपनें जाना। और दूसरी कड़ी में लावण्या जी नें बताया कि किस तरह से उनके पिता का बम्बई आना हुआ और फ़िल्म-जगत में किस तरह से उनका पदार्पण हुआ। आइए बातचीत आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की तीसरी कड़ी।
सुजॉय - लावण्या जी, 'हिंद-युग्म आवाज़' पर आपका हम स्वागत करते हैं, नमस्कार!
लावण्या जी - नमस्ते!
सुजॉय - लावण्या जी, फ़िल्म जगत के किन किन कलाकारों के साथ आपके परिवार का पारिवारिक सम्बंध रहा है? इसमें एक नाम लता मंगेशकर जी का अवश्य है । लता जी के साथ आपके पारिवारिक संबम्ध के बारे में हम विस्तार से जानना चाहेंगे।
लावण्या जी - स्वर साम्राज्ञी सुश्री लता मंगेशकर जी, हमारे परवार की बड़ी दीदी हैं| दीदी, पापा जी से निर्माता निर्देशक विनायक राव जी [जो मशहूर तारिका नंदा जी के पिताजी थे] उन के यहां दीदी जब् काम किया करतीं थीं उसी दौरान सबसे पहली बार मिले थे ..फिर मुझे याद आता है मैं छोटी ही थी तब दीदी घर आयीं थीं| फिर मुलाकातें होतीं रहीं बाहर काम के लिये, बंबई फिल्म निर्माण का मुख्य केंद्र है तो कहीं न कहीं मुलाक़ात हो ही जाया करती थी।
सुजॉय - लावण्या जी, हम आपसे लता जी और पंडित जी के बारे में जानेंगे, लेकिन उससे पहले हम अपने पाठकों के लिए यहाँ पर आपके द्वारा लिये लता जी के एक इंटरव्यु के कुछ अंश प्रस्तुत करना चाहेंगे। लता जी बता रही हैं पंडित नरेन्द्र शर्मा से अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में। जब लावण्या जी नें उनसे पूछा कि पापाजी से उनकी पहली मुलाक़ात कब और कैसे हुई थी, तो लता जी नें बताया -
लता जी - "मुझे लगता है शायद १९४५ में, मास्टर विनायक के यहाँ मैं काम करती थी, और उनके घर हम रहते थे, मैं और मेरी बहन मीना। तो पंडित जी और उनके साथ, कोई और हिंदी के कवि थे, शायद अमृतलाल नागर, ये दोनों वहाँ आये थे, विनायकराव जी के वहाँ। और फ़र्स्ट टाइम विनायक जी नें मुझसे कहा कि तुम इनसे मिलो और इनको गाना सुनाओ। मैंने उस वक़्त पापा को गाना सुनाया था। फिर उन्होंने विनायकराव के साथ काम किया था, और गानें मेरे होते थे, ऐसे मैं उनको मिला करती थी वहाँ पे। और जब भी मिलती थी, पता नहीं कैसे मालूम था उनको, शायद मेरी पत्रिका उनके पास थी, मुझे मेरा भविष्य बताया करते थे। अभी ये करो, अभी ये नहीं करो, अभी टाइम अच्छा नहीं है, इस तरह से। लेकिन हम लोग हमेशा ही मिलते थे ऐसा नहीं था। जव विनायकराव की डेथ हुई और मैंने '४७ में प्लेबैक देना शुरु किया, तब पापा मुझे कभी कभी मिलते थे, पर मेरा उनके घर आना जाना या उनके घर में कौन हैं, ये मुझे कुछ मालूम नहीं था। पर उनके बातचीत करने का ढंग, मैं कहूँगी, भारतीय संस्कृति का जैसे एक चलता-फिरता पुतला मुझे लगता था। मैं सोचती थी कि कितने अच्छे हैं, इनकी हर बात कितनी अच्छी है, रहन-सहन कितना अच्छा है, क्योंकि मेरे पिताजी भी इसी तरह रहते थे न? कि मतलब धोती पहनना, कोट, और वह टोपी, मतलब, बड़ी सात्विक विचार और वो सब बात मुझे उनमें नज़र आती थी कि वो कुछ अलग हट कर हैं। इस तरह से हम कभी कभी मिलते थे, मैं कभी कभी उनके गानें गाती थी। फिर वो रेडिओ में थे, उन्होंने वहाँ 'विविध भारती' को नाम दिया। तो वहाँ भी दो एक मरतबा मैं मिली हूँ। उसके बाद, अनिल बिस्वास जी थे, उनके यहाँ मैं जाती थी, तब मुझे पता चला कि पंडित नरेन्द्र शर्मा अनिल दा के यहाँ आते हैं। और हर सण्डे को या कोई दिन था जब पापा अनिल दा को रामायण सुनाया करते थे। और वो सब लोग वहाँ बैठ के रामायण सुना करते थे। उसमें एक दो आदमी ऐसे भी थे जो मुसलिम थे, कवि थे, तो वो भी आते थे। फिर.... मुझे साल तो याद नहीं, '४८ होगा या.... अनिल दा नें दो गानें मेरे रेडिओ के लिए रेकॉर्ड किए थे जो पंडित जी के लिखे थे। एक था "रख दिया नभशून्य में" और दूसरा था "युग की संध्या"। इस तरह से पापा के साथ मेरा थोड़ा-थोड़ा परिचय बढ़ रहा था। ज़्यादा जो उनके साथ मेरा ये हुआ, वह यह था कि मैंने उनके साथ जाके भगवद गीता रेकॉर्ड किया। पर यह बहुत बाद की बात है, शायद १९६७ होगा। पापा नें मुझे चिट्ठी लिखी, और उसमें यह लिखा कि ये बड़ा अच्छा काम कर रही है, भगवद गीता गा रही है, और इसी तरह से आप अपना चालू रखें काम तो मुझे बड़ी ख़ुशी होगी। और फिर वो मिलने आये मुझे घर। मैं उनसे मिली, उन्हें चाय दी, और मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि भगवद गीता का जो पंद्रहवाँ अध्याय मैंने किया था, एक तो पापा का ख़त आया था, और एक आया था देशमुख, जो हमारे 'फ़ाइनन्स मिनिस्टर' थे, उनका, क्योंकि संस्कृत वो भी बहुत अच्छा जानते थे। तो पापा बैठे, सुना रेकॉर्ड, और फिर घर गए। अचानक कैसे मुझे, कुछ बातें याद आ जाती हैं कुछ नहीं, पापा के साथ मैं काम तो नहीं कर रही थी, वो तो रेडिओ में थे, कहीं न कहीं हम मिलते थे, फिर एक दिन मैं उनके घर गई। और फिर सिलसिला इस तरह बढ़ा कि फिर मैं रोज़ ही उनके घर जाने लगी। और मेरी रेकॉर्डिंग् उनके घर के बहुत नज़दीक होती थी। तो मैं महबूब स्टुडिओ से रेकॉर्डिंग् करके उनके यहाँ जाती थी, फिर भाभी से मिलती थी। बेटियों से मिलना होता था, बेटा था, ज़्यादा मेरा बेटियों के साथ बनती थी और पापा के साथ भी बैठ के बातें किया करती थीं। कभी कभी मैं कपड़े ले आती थी और वहाँ रहती थी, साथ में सो भी जाते थे नीचे गद्दे डाल के, बाहर का जो सिटिंग् रूम था, वहीं पे सो जाते थे।
फ़ोटो-१: दीदी और पापा
सुजॉय - ये तो थी लता जी के संस्मरण। आगे लता जी नें और भी बहुत सारी बातें बताईं, जो हम भविष्य के लिए सुरक्षित रखते हुए लावण्या जी के बातचीत पर वापस आते हैं। लावण्या जी, एक तरफ़ आपके पिता, पंडित जी, और दूसरी तरफ़ स्व्र-साम्राज्ञी लता जी। ऐसे महान दो कलाकारों का स्पर्श आपको जीवन में मिला, जो मैं समझता हूँ कि इस तरह का सौभाग्य बहुत कम लोगों को नसीब है।
लावण्या जी - पापाजी और दीदी, दो ऐसे इंसान हैं जिनसे मिलने के बाद मुझे ज़िंदगी के रास्तों पे आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मिली है। सँघर्ष का नाम ही जीवन है। कोई भी इसका अपवाद नहीं- सत्चरित्र का संबल, अपने भीतर की चेतना को प्रखर रखे हुए किस तरह अंधेरों से लड़ना और पथ में कांटे बिछे हों या फूल, उन पर पग धरते हुए, आगे ही बढ़ते जाना ये शायद मैंने इन दो व्यक्तियों से सीखा। उनका सान्निध्य मुझे ये सिखला गया कि अपने में रही कमजोरियों से किस तरह स्वयं लड़ना जरुरी है- उनके उदाहरण से हमें इंसान के अच्छे गुणों में विश्वास पैदा करवाता है। पापा जी का लेखन, गीत, साहित्य और कला के प्रति उनका समर्पण और दीदी का संगीत, कला और परिश्रम करने का उत्साह, मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दे गया। उन दोनों की ये कला के प्रति लगन और अनुदान सराहने लायक है ही, परन्तु उससे भी गहरा था उनका इंसानियत से भरापूरा स्वरूप जो शायद कला के क्षेत्र से भी ज्यादा विस्तृत था। दोनों ही व्यक्ति ऐसे जिनमें इंसानियत का धर्म कूट-कूट कर भरा हुआ मैंने बार बार देखा और महसूस किया । जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है, उसे किसी भी रूप में उठालो, वह समान रूप से दमकता मिलेगा वैसे ही दोनों को मैंने हर अनुभव में पाया। जिसके कारण आज दूरी होते हुए भी इतना गहरा सम्मान मेरे भीतर बैठ गया है कि दूरी महज एक शारीरिक परिस्थिती रह गयी है। ये शब्द फिर भी असमर्थ हैं मेरे भावों को आकार देने में।
सुजॉय - वाह! अच्छा लावण्या जी, पंडित जी और लता जी के बीच पिता-पुत्री का सम्बंध था। इस सम्बंध को आपने किस तरह से महसूस किया, इसके बारे में कुछ बतायें।
लावण्या जी - हम ३ बहनें थीं - सबसे बड़ी वासवी, फिर मैं, लावण्या और मेरे बाद बांधवी। हाँ, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी सबसे बड़ी दीदी थीं जो हमारे साथ-साथ अम्मा और पापाजी की छत्रछाया में पलकर बड़ी हुईं। पर सबसे बड़ी दीदी, लता दीदी ही थीं- उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर जी के देहांत के बाद १२ वर्ष की नन्ही सी लडकी के कन्धों पे मंगेशकर परिवार का भार आ पड़ा था जिसे मेरी दीदी ने बहादुरी से स्वीकार कर लिया और असीम प्रेम दिया अपने बाई बहनों को जिनके बारे में, ये सारे किस्से मशहूर हैं। पत्र पत्रिकाओं में आ भी गए हैं--उनकी मुलाक़ात, पापा से, मास्टर विनायक राव जो सिने तारिका नंदा के पिता थे, के घर पर हुई थी- पापा को याद है दीदी ने "मैं बन के चिड़िया, गाऊँ चुन चुन चुन" ऐसे शब्दों वाला एक गीत पापा को सुनाया था और तभी से दोनों को एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह पनपा--- दीदी जान गयी थीं पापा उनके शुभचिंतक हैं- संत स्वभाव के गृहस्थ कवि के पवित्र हृदय को समझ पायी थीं दीदी और शायद उन्हें अपने बिछुडे पिता की छवि दिखलाई दी थी। वे हमारे खार के घर पर आयी थीं जब हम सब बच्चे अभी शिशु अवस्था में थे और दीदी अपनी संघर्ष यात्रा के पड़ाव एक के बाद एक, सफलता से जीत रहीं थीं-- संगीत ही उनका जीवन था-गीत साँसों के तार पर सजते और वे बंबई की उस समय की लोकल ट्रेन से स्टूडियो पहुंचतीं जहाँ रात देर से ही अकसर गीत का ध्वनि-मुद्रण सम्पन्न किया जाता चूंकि बंबई का शोर-शराबा शाम होने पे थमता- दीदी से एक बार सुन कर आज दोहराने वाली ये बात है! कई बार वे भूखी ही, बाहर पड़ी किसी बेंच पे सुस्ता लेती थीं, इंतजार करते हुए ये सोचतीं "कब गाना गाऊंगी पैसे मिलेंगें और घर पे माई और बहन और छोटा भाई इंतजार करते होंगें, उनके पास पहुँचकर आराम करूंगी!" दीदी के लिए माई कुरमुरों से भरा कटोरा ढक कर रख देती थी जिसे दीदी खा लेती थीं पानी के गिलास के साथ सटक के! आज भी कहीं कुरमुरा देख लेती हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं :-)
सुजॉय - लावण्या जी, ऐसा कोई संसमरण है कि पिता अपनी पुत्री पर नाराज़ हो गए थे, यानी कि पंडित जी लता जी पर नाराज़ हुए थे?
लावण्या जी - हमारे पड़ौसी थे जयराज जी, वे भी सिने कलाकार थे और तेलगु, आन्ध्र प्रदेश से बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी, पंजाबी थीं। उनके घर फ्रीज था, सो जब भी कोई मेहमान आता, हम बरफ मांग लाते। शरबत बनाने में ये काम पहले करना होता था और हम ये काम खुशी-खुशी किया करते थे। पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा अकसर इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था। एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था "आ गए भिखारी बर्फ मांगने!" जिसे हमने अनसुना कर दिया। आख़िर हमारे मेहमान का हमें उस वक्त ज्यादा ख़याल था, ना कि ऐसी बातों का !! बंबई की गर्म, तपती हुई जमीन पे नंगे पैर, इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें दीदी नें और उनका मन पसीज गया ! इसका नतीजा ये हुआ के एक दिन मैं कॉलिज से लौट रही थी, बस से उतर कर, चल कर घर आ रही थी। देखती क्या हूँ कि हमारे घर के बाहर एक टेंपो खड़ा है जिसपे एक फ्रिज रखा हुआ है रस्सियों से बंधा हुआ। तेज क़दमों से घर पहुँची, वहाँ पापा, नाराज, पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे। अम्मा फिर जयराज जी के घर-दीदी का फोन आया था-वहाँ बात करने आ-जा रहीं थीं ! फोन हमारे घर पर भी था, पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल पापा जी सिर्फ़ काम के लिए ही करते थे और कई फोन हमें, जयराज जी के घर रिसीव करने दौड़ कर जाना पड़ता था। दीदी, अम्मा से मिन्नतें कर रहीं थीं "पापा से कहो ना भाभी, फ्रीज का बुरा ना मानें। मेरे भाई-बहन आस-पड़ौस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता- छोटा सा ही है ये फ्रीज ..जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं ... ".अम्मा पापा को समझा रही थीं -- पापा को बुरा लगा था -- वे मिट्टी के घडों से ही पानी पीने के आदी थे। ऐसा माहौल था मानो गांधी बापू के आश्रम में फ्रीज पहुँच गया हो!! पापा भी ऐसे ही थे। उन्हें क्या जरुरत होने लगी भला ऐसे आधुनिक उपकरणों की? वे एक आदर्श गांधीवादी थे। सादा जीवन ऊंचे विचार जीनेवाले, आडम्बर से सर्वदा दूर रहनेवाले, सीधे सादे, सरल मन के इंसान ! खैर! कई अनुनय के बाद अम्मा ने, किसी तरह दीदी की बात रखते हुए फ्रीज को घर में आने दिया और आज भी वह, वहीं पे है, शायद मरम्मत की ज़रूरत हो, पर चल रहा है!
सुजॉय - इस तरह से दीदी आप सब की ज़िंदगियों से जैसे घुलमिल गईं। फिर जब आप बहनों की शादी हुई होगी, तब लता जी नें किस तरह से आपक सब को आशिर्वाद दिया?
लावण्या जी - हमारी शादियाँ हुईं तब भी दीदी बनारसी साडियां लेकर आ पहुँचीं। अम्मा से कहने लगीं, "भाभी, लड़कियों को सम्पन्न घरों से रिश्ते आए हैं। मेरे पापा कहाँ से इतना खर्च करेंगें? रख लो ..ससुराल जाएँगीं, वहाँ सबके सामने अच्छा दिखेगा"। कहना न होगा हम सभी रो रहे थे और देख रहे थे दीदी को जिन्होंने उमरभर शादी नहीं की पर अपनी छोटी बहनों की शादियाँ सम्पन्न हों उसके लिए साड़ियां लेकर हाजिर थीं! ममता का ये रूप, आज भी आँखें नम कर रहा है। मेरी दीदी ऐसी ही हैं। भारत कोकिला और भारत रत्ना भी वे हैं ही, मुझे उनका ये ममता भरा रूप ही याद रहता है। फिर पापा की ६०वीं साल गिरह आयी, दीदी को बहुत उत्साह था, कहने लगीं, "मैं एक प्रोग्राम दूंगीं, जो भी पैसा इकट्ठा होगा, पापा को भेंट करूंगी।" पापा को जब इस बात का पता लगा वे नाराज हो गए, कहा- "मेरी बेटी हो, अगर मेरा जन्मदिन मनाना है, घर पर आओ, साथ भोजन करेंगें, अगर मुझे इस तरह पैसे दिए, मैं तुम सब को छोड़ कर काशी चला जाऊंगा, मत बांधो मुझे माया के फेर में।"
सुजॉय - देखिए लावण्या जी, इस बात पर मुझे फिर से वही गीत याद आ गया, "तुम्हे बांधने के लिए मेरे पास और क्या है मेरा प्रेम है"। अच्छा उसके बाद क्या हुआ, प्रोग्राम हुआ था?
लावण्या जी - उसके बाद प्रोग्राम नहीं हुआ, हमने साथ मिलकर, अम्मा के हाथ से बना उत्तम भोजन खाया और पापा अति प्रसन्न हुए। आज भी यादों का काफिला चल पड़ा है और आँखें नम हैं ...इन लोगों जैसे विलक्षण व्यक्तियों से, जीवन को सहजता से जीने का, उसे सहेज कर, अपने कर्तव्य पालन करने के साथ, इंसानियत न खोने का पाठ सीखा है उसे मेरे जीवन में कहाँ तक जी पाई हूँ, ये अंदेशा नहीं है फिर भी कोशिश जारी है .........
सुजॉय - बहुत सुंदर लावण्या जी! आपसे बातचीत का सिलसिला अगले हफ़्ते भी जारी रहेगा, फ़िल्हाल आइए सुना जाये पंडित जी का लिखा और लता जी का गाया एक यादगार गीत। बताइए कौन सा गीत बजाया जाये?
लावण्या जी - "ज्योति कलश छलके"
गीत - "ज्योति कलश छलके" (भाभी की चूड़ियाँ)
तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक'। अगले हफ़्ते इसी शृंखला की चौथी कड़ी के साथ मैं वापस आऊँगा, तब तक कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमीत कड़ियों में ठुमरी-आधारित फ़िल्मी गीतों का आनंद लेते रहिएगा, नमस्कार!
भाग १
भाग २
अब आगे...
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले दो सप्ताह से आप इसमें आनंद ले रहे हैं सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत का। पहले भाग में पंडित जी के पारिवारिक पार्श्व और शुरुआती दिनों का हाल आपनें जाना। और दूसरी कड़ी में लावण्या जी नें बताया कि किस तरह से उनके पिता का बम्बई आना हुआ और फ़िल्म-जगत में किस तरह से उनका पदार्पण हुआ। आइए बातचीत आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की तीसरी कड़ी।
सुजॉय - लावण्या जी, 'हिंद-युग्म आवाज़' पर आपका हम स्वागत करते हैं, नमस्कार!
लावण्या जी - नमस्ते!
सुजॉय - लावण्या जी, फ़िल्म जगत के किन किन कलाकारों के साथ आपके परिवार का पारिवारिक सम्बंध रहा है? इसमें एक नाम लता मंगेशकर जी का अवश्य है । लता जी के साथ आपके पारिवारिक संबम्ध के बारे में हम विस्तार से जानना चाहेंगे।
लावण्या जी - स्वर साम्राज्ञी सुश्री लता मंगेशकर जी, हमारे परवार की बड़ी दीदी हैं| दीदी, पापा जी से निर्माता निर्देशक विनायक राव जी [जो मशहूर तारिका नंदा जी के पिताजी थे] उन के यहां दीदी जब् काम किया करतीं थीं उसी दौरान सबसे पहली बार मिले थे ..फिर मुझे याद आता है मैं छोटी ही थी तब दीदी घर आयीं थीं| फिर मुलाकातें होतीं रहीं बाहर काम के लिये, बंबई फिल्म निर्माण का मुख्य केंद्र है तो कहीं न कहीं मुलाक़ात हो ही जाया करती थी।
सुजॉय - लावण्या जी, हम आपसे लता जी और पंडित जी के बारे में जानेंगे, लेकिन उससे पहले हम अपने पाठकों के लिए यहाँ पर आपके द्वारा लिये लता जी के एक इंटरव्यु के कुछ अंश प्रस्तुत करना चाहेंगे। लता जी बता रही हैं पंडित नरेन्द्र शर्मा से अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में। जब लावण्या जी नें उनसे पूछा कि पापाजी से उनकी पहली मुलाक़ात कब और कैसे हुई थी, तो लता जी नें बताया -
लता जी - "मुझे लगता है शायद १९४५ में, मास्टर विनायक के यहाँ मैं काम करती थी, और उनके घर हम रहते थे, मैं और मेरी बहन मीना। तो पंडित जी और उनके साथ, कोई और हिंदी के कवि थे, शायद अमृतलाल नागर, ये दोनों वहाँ आये थे, विनायकराव जी के वहाँ। और फ़र्स्ट टाइम विनायक जी नें मुझसे कहा कि तुम इनसे मिलो और इनको गाना सुनाओ। मैंने उस वक़्त पापा को गाना सुनाया था। फिर उन्होंने विनायकराव के साथ काम किया था, और गानें मेरे होते थे, ऐसे मैं उनको मिला करती थी वहाँ पे। और जब भी मिलती थी, पता नहीं कैसे मालूम था उनको, शायद मेरी पत्रिका उनके पास थी, मुझे मेरा भविष्य बताया करते थे। अभी ये करो, अभी ये नहीं करो, अभी टाइम अच्छा नहीं है, इस तरह से। लेकिन हम लोग हमेशा ही मिलते थे ऐसा नहीं था। जव विनायकराव की डेथ हुई और मैंने '४७ में प्लेबैक देना शुरु किया, तब पापा मुझे कभी कभी मिलते थे, पर मेरा उनके घर आना जाना या उनके घर में कौन हैं, ये मुझे कुछ मालूम नहीं था। पर उनके बातचीत करने का ढंग, मैं कहूँगी, भारतीय संस्कृति का जैसे एक चलता-फिरता पुतला मुझे लगता था। मैं सोचती थी कि कितने अच्छे हैं, इनकी हर बात कितनी अच्छी है, रहन-सहन कितना अच्छा है, क्योंकि मेरे पिताजी भी इसी तरह रहते थे न? कि मतलब धोती पहनना, कोट, और वह टोपी, मतलब, बड़ी सात्विक विचार और वो सब बात मुझे उनमें नज़र आती थी कि वो कुछ अलग हट कर हैं। इस तरह से हम कभी कभी मिलते थे, मैं कभी कभी उनके गानें गाती थी। फिर वो रेडिओ में थे, उन्होंने वहाँ 'विविध भारती' को नाम दिया। तो वहाँ भी दो एक मरतबा मैं मिली हूँ। उसके बाद, अनिल बिस्वास जी थे, उनके यहाँ मैं जाती थी, तब मुझे पता चला कि पंडित नरेन्द्र शर्मा अनिल दा के यहाँ आते हैं। और हर सण्डे को या कोई दिन था जब पापा अनिल दा को रामायण सुनाया करते थे। और वो सब लोग वहाँ बैठ के रामायण सुना करते थे। उसमें एक दो आदमी ऐसे भी थे जो मुसलिम थे, कवि थे, तो वो भी आते थे। फिर.... मुझे साल तो याद नहीं, '४८ होगा या.... अनिल दा नें दो गानें मेरे रेडिओ के लिए रेकॉर्ड किए थे जो पंडित जी के लिखे थे। एक था "रख दिया नभशून्य में" और दूसरा था "युग की संध्या"। इस तरह से पापा के साथ मेरा थोड़ा-थोड़ा परिचय बढ़ रहा था। ज़्यादा जो उनके साथ मेरा ये हुआ, वह यह था कि मैंने उनके साथ जाके भगवद गीता रेकॉर्ड किया। पर यह बहुत बाद की बात है, शायद १९६७ होगा। पापा नें मुझे चिट्ठी लिखी, और उसमें यह लिखा कि ये बड़ा अच्छा काम कर रही है, भगवद गीता गा रही है, और इसी तरह से आप अपना चालू रखें काम तो मुझे बड़ी ख़ुशी होगी। और फिर वो मिलने आये मुझे घर। मैं उनसे मिली, उन्हें चाय दी, और मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि भगवद गीता का जो पंद्रहवाँ अध्याय मैंने किया था, एक तो पापा का ख़त आया था, और एक आया था देशमुख, जो हमारे 'फ़ाइनन्स मिनिस्टर' थे, उनका, क्योंकि संस्कृत वो भी बहुत अच्छा जानते थे। तो पापा बैठे, सुना रेकॉर्ड, और फिर घर गए। अचानक कैसे मुझे, कुछ बातें याद आ जाती हैं कुछ नहीं, पापा के साथ मैं काम तो नहीं कर रही थी, वो तो रेडिओ में थे, कहीं न कहीं हम मिलते थे, फिर एक दिन मैं उनके घर गई। और फिर सिलसिला इस तरह बढ़ा कि फिर मैं रोज़ ही उनके घर जाने लगी। और मेरी रेकॉर्डिंग् उनके घर के बहुत नज़दीक होती थी। तो मैं महबूब स्टुडिओ से रेकॉर्डिंग् करके उनके यहाँ जाती थी, फिर भाभी से मिलती थी। बेटियों से मिलना होता था, बेटा था, ज़्यादा मेरा बेटियों के साथ बनती थी और पापा के साथ भी बैठ के बातें किया करती थीं। कभी कभी मैं कपड़े ले आती थी और वहाँ रहती थी, साथ में सो भी जाते थे नीचे गद्दे डाल के, बाहर का जो सिटिंग् रूम था, वहीं पे सो जाते थे।
फ़ोटो-१: दीदी और पापा
सुजॉय - ये तो थी लता जी के संस्मरण। आगे लता जी नें और भी बहुत सारी बातें बताईं, जो हम भविष्य के लिए सुरक्षित रखते हुए लावण्या जी के बातचीत पर वापस आते हैं। लावण्या जी, एक तरफ़ आपके पिता, पंडित जी, और दूसरी तरफ़ स्व्र-साम्राज्ञी लता जी। ऐसे महान दो कलाकारों का स्पर्श आपको जीवन में मिला, जो मैं समझता हूँ कि इस तरह का सौभाग्य बहुत कम लोगों को नसीब है।
लावण्या जी - पापाजी और दीदी, दो ऐसे इंसान हैं जिनसे मिलने के बाद मुझे ज़िंदगी के रास्तों पे आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मिली है। सँघर्ष का नाम ही जीवन है। कोई भी इसका अपवाद नहीं- सत्चरित्र का संबल, अपने भीतर की चेतना को प्रखर रखे हुए किस तरह अंधेरों से लड़ना और पथ में कांटे बिछे हों या फूल, उन पर पग धरते हुए, आगे ही बढ़ते जाना ये शायद मैंने इन दो व्यक्तियों से सीखा। उनका सान्निध्य मुझे ये सिखला गया कि अपने में रही कमजोरियों से किस तरह स्वयं लड़ना जरुरी है- उनके उदाहरण से हमें इंसान के अच्छे गुणों में विश्वास पैदा करवाता है। पापा जी का लेखन, गीत, साहित्य और कला के प्रति उनका समर्पण और दीदी का संगीत, कला और परिश्रम करने का उत्साह, मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दे गया। उन दोनों की ये कला के प्रति लगन और अनुदान सराहने लायक है ही, परन्तु उससे भी गहरा था उनका इंसानियत से भरापूरा स्वरूप जो शायद कला के क्षेत्र से भी ज्यादा विस्तृत था। दोनों ही व्यक्ति ऐसे जिनमें इंसानियत का धर्म कूट-कूट कर भरा हुआ मैंने बार बार देखा और महसूस किया । जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है, उसे किसी भी रूप में उठालो, वह समान रूप से दमकता मिलेगा वैसे ही दोनों को मैंने हर अनुभव में पाया। जिसके कारण आज दूरी होते हुए भी इतना गहरा सम्मान मेरे भीतर बैठ गया है कि दूरी महज एक शारीरिक परिस्थिती रह गयी है। ये शब्द फिर भी असमर्थ हैं मेरे भावों को आकार देने में।
सुजॉय - वाह! अच्छा लावण्या जी, पंडित जी और लता जी के बीच पिता-पुत्री का सम्बंध था। इस सम्बंध को आपने किस तरह से महसूस किया, इसके बारे में कुछ बतायें।
लावण्या जी - हम ३ बहनें थीं - सबसे बड़ी वासवी, फिर मैं, लावण्या और मेरे बाद बांधवी। हाँ, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी सबसे बड़ी दीदी थीं जो हमारे साथ-साथ अम्मा और पापाजी की छत्रछाया में पलकर बड़ी हुईं। पर सबसे बड़ी दीदी, लता दीदी ही थीं- उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर जी के देहांत के बाद १२ वर्ष की नन्ही सी लडकी के कन्धों पे मंगेशकर परिवार का भार आ पड़ा था जिसे मेरी दीदी ने बहादुरी से स्वीकार कर लिया और असीम प्रेम दिया अपने बाई बहनों को जिनके बारे में, ये सारे किस्से मशहूर हैं। पत्र पत्रिकाओं में आ भी गए हैं--उनकी मुलाक़ात, पापा से, मास्टर विनायक राव जो सिने तारिका नंदा के पिता थे, के घर पर हुई थी- पापा को याद है दीदी ने "मैं बन के चिड़िया, गाऊँ चुन चुन चुन" ऐसे शब्दों वाला एक गीत पापा को सुनाया था और तभी से दोनों को एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह पनपा--- दीदी जान गयी थीं पापा उनके शुभचिंतक हैं- संत स्वभाव के गृहस्थ कवि के पवित्र हृदय को समझ पायी थीं दीदी और शायद उन्हें अपने बिछुडे पिता की छवि दिखलाई दी थी। वे हमारे खार के घर पर आयी थीं जब हम सब बच्चे अभी शिशु अवस्था में थे और दीदी अपनी संघर्ष यात्रा के पड़ाव एक के बाद एक, सफलता से जीत रहीं थीं-- संगीत ही उनका जीवन था-गीत साँसों के तार पर सजते और वे बंबई की उस समय की लोकल ट्रेन से स्टूडियो पहुंचतीं जहाँ रात देर से ही अकसर गीत का ध्वनि-मुद्रण सम्पन्न किया जाता चूंकि बंबई का शोर-शराबा शाम होने पे थमता- दीदी से एक बार सुन कर आज दोहराने वाली ये बात है! कई बार वे भूखी ही, बाहर पड़ी किसी बेंच पे सुस्ता लेती थीं, इंतजार करते हुए ये सोचतीं "कब गाना गाऊंगी पैसे मिलेंगें और घर पे माई और बहन और छोटा भाई इंतजार करते होंगें, उनके पास पहुँचकर आराम करूंगी!" दीदी के लिए माई कुरमुरों से भरा कटोरा ढक कर रख देती थी जिसे दीदी खा लेती थीं पानी के गिलास के साथ सटक के! आज भी कहीं कुरमुरा देख लेती हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं :-)
सुजॉय - लावण्या जी, ऐसा कोई संसमरण है कि पिता अपनी पुत्री पर नाराज़ हो गए थे, यानी कि पंडित जी लता जी पर नाराज़ हुए थे?
लावण्या जी - हमारे पड़ौसी थे जयराज जी, वे भी सिने कलाकार थे और तेलगु, आन्ध्र प्रदेश से बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी, पंजाबी थीं। उनके घर फ्रीज था, सो जब भी कोई मेहमान आता, हम बरफ मांग लाते। शरबत बनाने में ये काम पहले करना होता था और हम ये काम खुशी-खुशी किया करते थे। पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा अकसर इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था। एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था "आ गए भिखारी बर्फ मांगने!" जिसे हमने अनसुना कर दिया। आख़िर हमारे मेहमान का हमें उस वक्त ज्यादा ख़याल था, ना कि ऐसी बातों का !! बंबई की गर्म, तपती हुई जमीन पे नंगे पैर, इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें दीदी नें और उनका मन पसीज गया ! इसका नतीजा ये हुआ के एक दिन मैं कॉलिज से लौट रही थी, बस से उतर कर, चल कर घर आ रही थी। देखती क्या हूँ कि हमारे घर के बाहर एक टेंपो खड़ा है जिसपे एक फ्रिज रखा हुआ है रस्सियों से बंधा हुआ। तेज क़दमों से घर पहुँची, वहाँ पापा, नाराज, पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे। अम्मा फिर जयराज जी के घर-दीदी का फोन आया था-वहाँ बात करने आ-जा रहीं थीं ! फोन हमारे घर पर भी था, पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल पापा जी सिर्फ़ काम के लिए ही करते थे और कई फोन हमें, जयराज जी के घर रिसीव करने दौड़ कर जाना पड़ता था। दीदी, अम्मा से मिन्नतें कर रहीं थीं "पापा से कहो ना भाभी, फ्रीज का बुरा ना मानें। मेरे भाई-बहन आस-पड़ौस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता- छोटा सा ही है ये फ्रीज ..जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं ... ".अम्मा पापा को समझा रही थीं -- पापा को बुरा लगा था -- वे मिट्टी के घडों से ही पानी पीने के आदी थे। ऐसा माहौल था मानो गांधी बापू के आश्रम में फ्रीज पहुँच गया हो!! पापा भी ऐसे ही थे। उन्हें क्या जरुरत होने लगी भला ऐसे आधुनिक उपकरणों की? वे एक आदर्श गांधीवादी थे। सादा जीवन ऊंचे विचार जीनेवाले, आडम्बर से सर्वदा दूर रहनेवाले, सीधे सादे, सरल मन के इंसान ! खैर! कई अनुनय के बाद अम्मा ने, किसी तरह दीदी की बात रखते हुए फ्रीज को घर में आने दिया और आज भी वह, वहीं पे है, शायद मरम्मत की ज़रूरत हो, पर चल रहा है!
सुजॉय - इस तरह से दीदी आप सब की ज़िंदगियों से जैसे घुलमिल गईं। फिर जब आप बहनों की शादी हुई होगी, तब लता जी नें किस तरह से आपक सब को आशिर्वाद दिया?
लावण्या जी - हमारी शादियाँ हुईं तब भी दीदी बनारसी साडियां लेकर आ पहुँचीं। अम्मा से कहने लगीं, "भाभी, लड़कियों को सम्पन्न घरों से रिश्ते आए हैं। मेरे पापा कहाँ से इतना खर्च करेंगें? रख लो ..ससुराल जाएँगीं, वहाँ सबके सामने अच्छा दिखेगा"। कहना न होगा हम सभी रो रहे थे और देख रहे थे दीदी को जिन्होंने उमरभर शादी नहीं की पर अपनी छोटी बहनों की शादियाँ सम्पन्न हों उसके लिए साड़ियां लेकर हाजिर थीं! ममता का ये रूप, आज भी आँखें नम कर रहा है। मेरी दीदी ऐसी ही हैं। भारत कोकिला और भारत रत्ना भी वे हैं ही, मुझे उनका ये ममता भरा रूप ही याद रहता है। फिर पापा की ६०वीं साल गिरह आयी, दीदी को बहुत उत्साह था, कहने लगीं, "मैं एक प्रोग्राम दूंगीं, जो भी पैसा इकट्ठा होगा, पापा को भेंट करूंगी।" पापा को जब इस बात का पता लगा वे नाराज हो गए, कहा- "मेरी बेटी हो, अगर मेरा जन्मदिन मनाना है, घर पर आओ, साथ भोजन करेंगें, अगर मुझे इस तरह पैसे दिए, मैं तुम सब को छोड़ कर काशी चला जाऊंगा, मत बांधो मुझे माया के फेर में।"
सुजॉय - देखिए लावण्या जी, इस बात पर मुझे फिर से वही गीत याद आ गया, "तुम्हे बांधने के लिए मेरे पास और क्या है मेरा प्रेम है"। अच्छा उसके बाद क्या हुआ, प्रोग्राम हुआ था?
लावण्या जी - उसके बाद प्रोग्राम नहीं हुआ, हमने साथ मिलकर, अम्मा के हाथ से बना उत्तम भोजन खाया और पापा अति प्रसन्न हुए। आज भी यादों का काफिला चल पड़ा है और आँखें नम हैं ...इन लोगों जैसे विलक्षण व्यक्तियों से, जीवन को सहजता से जीने का, उसे सहेज कर, अपने कर्तव्य पालन करने के साथ, इंसानियत न खोने का पाठ सीखा है उसे मेरे जीवन में कहाँ तक जी पाई हूँ, ये अंदेशा नहीं है फिर भी कोशिश जारी है .........
सुजॉय - बहुत सुंदर लावण्या जी! आपसे बातचीत का सिलसिला अगले हफ़्ते भी जारी रहेगा, फ़िल्हाल आइए सुना जाये पंडित जी का लिखा और लता जी का गाया एक यादगार गीत। बताइए कौन सा गीत बजाया जाये?
लावण्या जी - "ज्योति कलश छलके"
गीत - "ज्योति कलश छलके" (भाभी की चूड़ियाँ)
तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक'। अगले हफ़्ते इसी शृंखला की चौथी कड़ी के साथ मैं वापस आऊँगा, तब तक कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमीत कड़ियों में ठुमरी-आधारित फ़िल्मी गीतों का आनंद लेते रहिएगा, नमस्कार!
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